सोमवार, 31 दिसंबर 2007

जो आने वाले हैं दिन उन्हें शुमार में रख...



देखते ही देखते एक साल और गुजर गया. अगर मुश्किल में गुजरें तो एक-एक पल गुजारना मुश्किल होता है. यहां तो 365 दिन गुजर गये. सोचकर अजीब लगता है. ये दिन, महीने, साल कैसे गुजर जाते हैं. इसी का नाम तो जिंदगी है. जिंदगी का कोई लम्हा बहुत ही खुशगवार बन जाता है. कोई लम्हा यादगार बन जाता है तो कोई कभी न भूलने वाला डरावना सपना भी. जो गुजर गया वो गुजर गया. जो याद रखने लायक नहीं है उसे भूल जाना ही ठीक है. खैर मैं तो उन बातो का जिक्र करना चाहूंगा जिन्हें मैं हमेशा याद रखना चाहूंगा. पाना-खोना तो लगा ही रहता है. इस साल मैंने भी बहुत कुछ पाया. इसी साल मैं आरकुट से भी रूबरू हुआ। इसके जरिये वाकई मुझे अपने कई पुराने दोस्त मिल गये। बिछड़े दोस्तों को मिलाने वाली ये वेबसाइट वाकई में कमाल की है. इसी साल मैंने ब्लागिंग की दुनिया में भी प्रवेश किया. ये दुनिया वाकई में बहुत बड़ी और निराली है. सबसे बड़ी बात है कि इसकी वजह से मेरा लिखना फिर से शुरू हो गया. देश-विदेश में फैले हिंदी लेखकों को देख-पढ़कर बेहद सुखद अनुभूति हुई. हालांकि शुरू में कुछ परेशानी भी हुई. मुझे नाहक ही किसी दूसरे का आयडिया कॉपी करने का आरोप झेलना पड़ा। लेकिन मैं आपने उन ब्लागर साथियों का शुक्रगुजार हूं जिन्होंने मुझे समझा और मुझे बल दिया. मेरा साथ दिया. मेरे कुछ दोस्तों को तो ब्लागिंग के बाद ही मालूम हुआ कि मैं भी लिखने का शौक रखता हूं. ऐसी कई पुरानी रचनायें जो न तो छप सकी थीं और न ही मैं उन्हें कहीं प्राकाशनार्थ प्रेषित कर सका था उन्हें भी मैं अपने ब्लाग पर पेश कर सका। शायद इसलिये क्योंकि ऐसा करने के लिये मुझे किसी संपादक की अनुमति लेने की जरूरत नहीं थी. साल भर की बातें हैं लिखने में वक्त भी लगेगा और जगह भी. लिहाजा टुकड़े-टुकड़े में मैं लिखने की कोशिश करता रहूंगा. फिलहाल आप सबको नये साल की हार्दिक शुभकामनायें. (क्रमश:)

शनिवार, 3 नवंबर 2007

चिट्ठाकारों के लिये एक प्रतियोगिता हो तो कैसा हो?

कल टेस्ट पोस्ट करने के कई फायदे हुये। पता चला कि नारद जी आजकल आराम फरमा रहे हैं। हिंदी ब्लाग डॉट कॉम भी काफी समय से अपडेट नहीं हो रहा है। दूसरा फायदा यह हुआ कि हमारे मना करने के बावजूद अनेक लोगों ने हमारी पोस्ट पर क्लिक कर ही दिया। इसका फायदा यह हुआ कि इसी बहाने से वो हमारे ब्लाग पर आ पहुंचे और हमारी कुछ नई पुरानी रचनायें भी पढ़ लीं। उन सभी पाठकों का हम तहे दिल से शुक्रिया अदा करते हैं। इतना ही नहीं कुछ उदार पाठकों ने टिप्पणी करके भी हमें अनुग्रहीत किया, हमारा हौसला बढ़ाया। लिहाजा अब हम सोच रहे हैं कि कुछ लिख ही डालें। फिलहाल सोच रहे हैं क्या लिखें। हमेशा की तरह विषय की तलाश में हैं। आपको कोई विषय समझ में आये तो जरूर सुझायें। हम आपके आभारी रहेंगे। साथ ही आपसे एक विचार बांटना चाहते थे। हम हिंदी चिट्ठाकारों के लिये एक प्रतियोगिता का आयोजन करना चाहते हैं। वह कविता, कहानी या लेख प्रतियोगिता हो सकती है। अगर आप लोग सुझा सकें कि उसका क्या स्वरूप होना चाहिये तो मुझे काफी सुविधा होगी। इसके अलावा इनाम की राशि कितनी होनी चाहिये? आशा है आपको मेरा विचार पसंद आयेगा।

शुक्रवार, 2 नवंबर 2007

यहां क्लिक करने की गलती न करें !

अरे नहीं। मना किया था फिर भी आप नहीं माने। जनाब यह सिर्फ टेस्ट पोस्ट है। यहां आपके पढ़ने के लिये कुछ नहीं है। दरअसल, बहुत दिनों से कुछ लिख नहीं पाया। इसलिये सोचा कि जरा चेक करके देखता हूं सारे एग्रीगेटर ठीक-ठाक काम कर रहे हैं या नहीं। अगर आपने कुछ पढ़ने के चक्कर में यहां क्लिक कर दिया तो जाहिर है आपको निराशा ही हाथ लगी होगी। छमा प्रार्थी हूं।

गुरुवार, 25 अक्तूबर 2007

ब्लागरों को बधाई !

बीबीसी पर पढ़िये हिंदी ब्लागिंग पर विशेष रिपोर्ट।

गुरुवार, 4 अक्तूबर 2007

संपादक के नाम पत्र

परम आदरणीय संपादक महोदय,
मैं आपके अखबार का पुराना पाठक हूं। उम्मीद है आप मुझे जानते होंगे। मैं पहले भी आपको कई पत्र लिख चुका हूं। हो सकता है वो आपको न मिले हों। मैंने अपनी कई रचनायें भी आपको प्रकाशनार्थ भेजी थीं, लेकिन पता नहीं क्यों वो प्रकाशित नहीं हुईं। जरूर वो आप जैसे विद्वान की आंखों के सामने से नहीं गुजर सकी होंगी। मैं बचनपन से ही आपके समाचार पत्र का नियमित पाठक हूं। आपके अखबार में प्रकाशित सारी सामग्री बेहद खोजपरक, रोचक व तथ्यपूर्ण होती है। आपके द्वारा लिखे गये संपादकीय विचारपरक और 'निष्पक्ष' होते है, जो हमें 'बहुत कुछ' सोचने को मजबूर कर देते हैं।
हर रविवार को परिशिष्ट के प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित आपकी कविता तो अत्यंत उच्चकोटि की होती है। मेरा एक मित्र कहता है कि उसे समझ में ही नहीं आता कि आप अपनी कविता में कहना क्या चाहते हैं? इसमें भला उसका क्या दोष? 'बेचारे' की समझ 'छोटी' है। आपकी कवितायें कोई उसके जैसे कम समझ वालों के लिये थोड़े ही हैं। इसके लिये तो कोई आप जैसा बुद्धिजीवी ही होना चाहिये। मुझे तो पूरे हफ्ते आपकी इस साप्ताहिक कविता का इंतजार रहता है। मुझे आश्चर्य होता है कि आप 'इतनी अच्छी' कविता हर सप्ताह कैसे लिख लेते हैं। अन्य कवियों को आपसे अवश्य ही जलन होती होगी कि आपने अब तक हजारों कवितायें लिखी ही नहीं, बल्कि वो 'प्रकाशित' भी हुई हैं।...और हर रविवार को अखबार के प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित आपके संपादकीय का तो कोई जवाब ही नहीं है। इसके बीच-बीच में आप जो शेरो-शायरी करते हैं उससे तो संपादकीय पढ़ने का 'मजा' और भी बढ़ जाता है। आपके संपादकीय पृष्ठ में छपने वाले स्तंभकारों के 'विचारों' का तो मैं कायल हो चुका हूं। हर हफ्ते उन्हीं लेखकों को अगर आप स्थान देते हैं तो इसमें कुछ गलत नहीं है। बार-बार उन्हीं नामों व विचारों को देख-पढ़कर मैं कतई बोर नहीं होता हूं। यह तो आपका 'विशेषाधिकार' है। और फिर, आजकल ऐसे लेखक हैं ही कितने जिनका लेखन इतना स्तरीय हो कि उसे आपके अखबार में जगह दी जा सके?
मैंने एक लेखक, जो मेरी नजर में तो महा टटपुंजिया ही है, को कहते सुना है कि आप अपने अखबार में लिखने वालों को पारिश्रमिक नहीं देते। ठीक ही तो है। जब लोग फ्री में लिखने के लिये तैयार हैं तो भला अनावश्यक पैसा बर्बाद करने की क्या जरूरत है? वह तो ये भी कह रहा था कि आप लेखकों के नाम का पैसा खुद हड़प लेते हैं। अरे भई, इसमें हड़पना कैसा? जिन पैसों की बचत आपने की वह तो स्वाभाविक रूप से आपका है। जरूर कभी आपने उसकी कोई रचना अस्वीकृत कर दी होगी तभी वह आपसे खार खाये बैठा होगा और आप के संबंध में ऐसी-वैसी बातें उड़ाता फिर रहा है। लेकिन मैं उस पर बिल्कुल यकीन नहीं करता। यकीनन आप भी नहीं करेंगे। करना भी नहीं चाहिये।
शायद उसे नहीं मालूम कि संपादक पद पर पहुंचने के लिये कितनी योग्यता और संघर्ष की जरूरत होती है। मैं समझ सकता हूं कि आप एक 'सब एडीटर' पद से कितनी 'मेहनत' करके यहां तक पहुंचे हैं। तभी तो मैंने सुना है कि रोज सुबह आपको मीटिंग के लिये अपने घर बुलाते हैं। मेरा एक और मित्र है। मित्र क्या चिपकू है। आपके अखबार में ही काम करता है। कह रहा था कि हाईस्कूल पास एक रिश्तेदार को आपने संयुक्त संपादक बनवा दिया है। मैं कहता हूं भला इसमें बुराई क्या है? पत्रकारिता करने के लिये डिग्रियां किस काम कीं? इसके लिये तो बस पत्रकारिता के 'कुछ आवश्यक पहलुओं' की जानकारी होनी चाहिये, जो आपने उन्हें बखूबी दे ही दी होगी।
और हां, वह कह रहा था कि संपादक होने के बावजूद आपके नाम से मुख्य पृष्ठ पर समाचार छपता है। जबकि वास्तव में वह रिपोर्ट किसी औऱ की होती है। क्योंकि आप तो अपने केबिन से बाहर निकलते ही नहीं हैं। अब भला उसको कौन समझाए, भला संपादक पद पर बैठा हुआ व्यक्ति रिपोर्टिंग करेगा तो सारे रिपोर्टर किस लिये रखे गये हैं। फिर संवाददाताओं की सारी खबरों पर संपादक का ही तो अधिकार होता है। वह जिस तरह चाहे 'अखबार के हित में' उनका उपयोग करे। अरे मैं तो कहता हूं कि ऐसे रिपोर्टरों को तो और खुश होना चाहिये कि उनकी रिपोर्ट संपादक के नाम की बाईलाइन छपने के बाद कहीं अधिक पढ़ी जायेगी। लेकिन इनका भी क्या दोष है? इनमें इतनी बुद्धि ही कहां है कि ये इतनी दूर की सोच सकें। ये तो बस जल-कुढ़ कर आलोचना पर उतर आते हैं। मेरा सुझाव है कि ऐसे लोगों से आप विशेष सावधान रहें।
मुझे पता चला है कि आजकल वह...अरे वही, जिसने मुझसे ये सब बातें कहीं, अक्सर अखबार के मालिक के घर चक्कर काटा करता है। कहीं आपके संबंध में कुछ उल्टा-सीधा न भिड़ा दे औऱ आपकी 'छवि' खराब हो जाये। एक दिन कहने लगा हमारे संपादक को तो कुछ आता-जाता ही नहीं है। सरकारी नौकरी नहीं मिली तो तिकड़म करके पत्रकारिता में घुस गया। उसे क्या मालूम कि आप जैसा व्यक्ति अगर नौकरशाही में फंस जाता तो आज आपके जरिये पत्रकारिता ने जो मुकाम हासिल किया है उसका क्या होता? आपकी छत्रछाया और मार्गदर्शन में इतने बेरोजगार युवाओं ने पत्रकारिता में जो 'करिअऱ' हासिल किया है उसका क्या?
एक दिन कहने लगा कि आपने जिन लड़कों को नियुक्त किया है उनकी शैक्षिक डिग्रियां फर्जी हैं। मैं तो नहीं मानता। अगर यह सच है भी तो मेरी आपके प्रति श्रद्धा पहले से भी ज्यादा बढ़ गई है। क्योंकि एक तरह से आपने उन युवाओं, जो वास्तव में मामूली रूप से पढ़े-लिखे हैं, को तराश कर हीरा बना दिया है। आप पर तो देश के पत्रकारिता जगत को गर्व होना चाहिये।
मुझे यकीन है कि पुलित्जर पुरस्कार देने वालों की नजर एक न एक दिन आपके गौरवमयी योगदान पर जरूर पड़ेगी। वैसे मुझे तो उस टटपुंजिया पत्रकार की सारी गतिविधियां ही 'संदेहास्पद' लगती हैं। कह रहा था कि हाल ही में आपने जो बंगला लिया है उसके लिये आपने पेमेंट नहीं किया। वह आपको एक बिल्डर ने भेंट किया है। आपने प्रधानमंत्री से उसका कोई 'बहुत बड़ा काम' करवा दिया है। तो इसमें क्या हो गया? आपको पारिश्रमिक देने से परहेज है। पारिश्रमिक लेने में क्या हर्ज है? और अगर कोई अपनी खुशी से कुछ देता है तो इनकार करना भई तो अच्छा नहीं लगता। अगर जनप्रतिनिधि जनता के कार्य करने के अपने कर्तव्य को ठीक से नहीं निभाते हैं और आपने उनके कार्य को अपना कर्तव्य समझ के कर दिया तो आप प्रशंसा के हकदार हैं।
छोड़िये जाने दीजिये। आप एक कुशल संपादक की तरह अपने 'अखबार पर ध्यान' दे रहे हैं यह किसी को नहीं दिखाई देता। चिंता मत कीजिये। पाठक तो हैं आपके काम को सराहने वाले। इन टटपुंजिया पत्रकारों की आपके सामने औकात ही क्या है? अऱे हां, पिछले रविवार को आपने 'हिंदुत्व' पर जो लेख लिखा था, काफी उत्कृष्ट था। और वो जो आपने एक नया स्तंभ शुरू किया है राजनीतिक गतिविधियों पर, वह भी काफी अच्छा है। वह पत्रकार (वही आपके अखबार में काम करने वाला) कह रहा था कि उसमें आप एक विशेष पार्टी का ही बखान करते रहते हैं। कह रहा था कि इस तरह से आप उस पार्टी के जरिये राज्यसभा में पहुंचना चाहते हैं। तो मैं कहता हूं, भला इसमें बुराई क्या है? संपादक जैसा 'बुद्धिजीवी' व्यक्ति अगर राज्यसभा पहुंचता है तो इससे राज्यसभा की गरिमा बढ़ेगी ही। आप खुद ही देखिये, आज कई बड़े पत्रकार सरकार में हैं। वह कितना बेहतर काम कर रहे हैं। यहां तक कि वहां भी वह अपनी 'निष्पक्षता' वाली कार्यशैली नहीं भूले हैं। पिछले दिनों कई पत्रकारों पर हमले हुये, उन्हें झूठे मुकदमों (उनके अनुसार) में फंसाया गया। लेकिन सरकार में बैठे पत्रकार उनके समर्थन में एक शब्द तक नहीं बोले। अरे भई, अगर वे ऐसा करते तो लोग उन पर आरोप लगाने लगते कि ये नेता पत्रकार बिरादरी का है इसलिये उनका पक्ष ले रहा है। जरूर ये अपने समय में 'निष्पक्ष पत्रकार' नहीं रहा होगा।
अंत में यही कहना चाहूंगा कि आप इसी तरह अपने पाठकों का हमेशा खयाल रखते रहें। आज आपका अखबार देश में 'नंबर वन' है, वह दिन दूर नहीं जब यह दुनिया भर में नंबर वन हो जायेगा। बस आप लगे रहें इसी तरह।
कृपया अन्यथा न लें, आपके सम्मानित समाचार पत्र में प्रकाशनार्थ एक रचना संलग्न कर रहा हूं उसे व्यक्तिगत रूचि लेकर प्रकाशित करने का कष्ट करें। मेरा पत्र तो खैर आप प्रकाशित करेंगे ही। धन्यवाद।
आपका
रवींद्र रंजन

शुक्रवार, 28 सितंबर 2007

भगदड़ के रणबांकुरों के नाम

नारद में और भगदड़ डॉट ब्लाग पर मेरी रचना आपरेशन सुंदरी-लाइव फ्रॉम झंडूपुरा के संबंध में टिप्पणी पढ़कर सचमुच मुझे बेहद अफसोस हुआ। खैर इससे टीम की मानसिकता का पता तो चल ही गया। टीम में शामिल लोग यह मानकर चलते हैं कि पूरी दुनिया में दो लोग एक जैसा नहीं सोच सकते। भाषा भी ऐसी है कि जैसे मैं कोई जबरदस्ती का लेखक हूं और मुझे नेट पर झूठा नाम कमाने का बहुत शौक है। लिहाजा मैंने किसी दूसरे का आयडिया कॉपी करने कहानी लिख डाली और मैं इतना बेवकूफ हूं कि उसे अपने नाम से अपने ब्लाग पर डाल भी दिया। और उनकी नजर इतनी पैनी है कि उन्होंने मुझ रचना चोर को रंगे हाथ धर-दबोचा। अपनी पीठ भी ठोंक डाली। लो भइया देखो हमने कितना बड़ा तीर मार लिया। एक कहानी चोर को पकड़ लिया। वैसे जिसे ये लोग कहानी समझ रहे हैं वह कहानी नहीं यथार्थ है। और यथार्थ से कोई भी परिचित हो सकता है। पहले मैं सोच रहा था कि भैंस के आगे बीन बजाने से क्या फायदा। फिर मैंने सोचा कि कुछ तो कहना ही पड़ेगा नहीं तो लोग सोचेंगे कि भगदड़ वाले सही कह रहे हैं। मैं साहित्यजगत का कोई प्रोफेशनल चोर हूं।
खैर, ईमानदारी से मैं बस इतना ही कह सकता हूं कि मैंने आज से पहले बुनो कहानी वाली वह रचना नहीं पढ़ी थी। अच्छा हुआ कि आपने उसका लिंक दे दिया। मैंने उसे पढ़ा। आपका शुक्रिया। मेरी रचना को पढ़कर हर उस व्यक्ति को ऐसा लग सकता है कि मेरा आयडिया मौलिक नहीं है। लेकिन मैं फिर कहना चाहूंगा कि यह महज एक संयोग है। इसलिये भी कि यह मेरी लिये कोई कहानी नहीं है। मैं खुद एक खबरिया चैनल में हूं इसलिये इस तरह की बातें, इस तरह की चर्चा किसी भी चैनल में आम है। हम जिस माहौल में रहते हैं जिस वातावरण में काम करते हैं हमारा लेखन भी उसी से प्रभावित होता है। सबसे बड़ी बात यह है कि चैनल की नौकरी ऐसी होती है कि आपको पढने का ज्यादा वक्त ही नहीं मिलता। और पढ़ने के बाद कोई मूर्ख ही उसी बात को दोबारा लिखना पसंद करेगा। मैं फिर आपकी गलतफहमी दूर करने के लिये कहना चाहूंगा कि यह मेरी लिये कहानी नहीं है। यह चैनल के लिये बहुत सामान्य सी बात है। इसलिये मैं इसे व्यंग्यात्मक शैली में बड़ी आसानी से लिखता गया। न ही मुझे कोई कहानी बुननी पड़ी और न ही कोई कल्पना करनी पड़ी। मै कोई सफाई पेश नहीं करना चाहता लेकिन मुझे इस बात का बेहद अफसोस है कि भगदड़ टीम ने बिना मेरा पक्ष सुने मुझ पर बेहद घटिया आरोप लगा दिया। अंत में मैं सिर्फ एक बात कहना चाहूंगा कि मैं जबरदस्ती नहीं लिखता। कोई चीज जब लिखने को मजबूर कर देती है तभी मैं लिखता हूं। इसलिये कहानी बुनना या फिर किसी के आयडिये को कापी करना मैं बेहद शर्मनाक मानता हूं। और क्या कहूं मुझे खुद समझ में नहीं आ रहा है। लेकिन भगदड़ टीम के इस आरोप ने मुझे सचमुच काफी दुख पहुंचाया है। बस नेट पर मौजूद लोगों से एक ही अनुरोध है कि बिना जाने-समझे किसी पर कोई आरोप न लगायें। इंटरनेट एक अथाह सागर की तरह है। यह जरूरी नहीं कि हर किसी ने हरेक सामग्री का अध्ययन किया हो। अब औऱ क्या कहूं...शब्द नहीं मिल रहे हैं। बस यही सोच रहा हूं कि आपके इस आरोप की वजह से मेरे बाकी मित्र मेरे बारे में क्या सोच रहे होंगे।

गुरुवार, 27 सितंबर 2007

आपरेशन सुंदरी--लाइव फ्राम झंडूपुरा

मैं हूं अर्चना। ब्रेक के बाद हमारे चैनल में एक बार फिर आपका स्वागत है। अब हम फिर चलते हैं अपने विशेष संवाददाता आकाश के पास। आकाश सुबह से ही मुजफ्फरनगर के झंडूपुरा गांव में मौजूद हैं। जैसा कि आपको मालूम होगा वहां विदेशी नस्ल की एक भैंस तड़के एक गड्ढे में गिर गई थी। इस खबर को सबसे पहले ब्रेक किया था हमारे संवाददाता आकाश ने। आकाश सुबह से ही हमें वहां के हालात से रूबरू करा रहे हैं। तो आइये अब आकाश से ही पूछते हैं कि क्या माहौल है झंडूपुरा का। जी, आकाश बताइये...आठ घंटे पहले जो भैंस गड्ढे में गिरी थी अब उसकी हालत कैसी है?
रिपोर्टर-अर्चना, सबसे पहले तो मैं बता दूं कि सुंदरी नाम की ये भैंस सुबह घास चरते वक्त वहां बने एक गहरे गड्ढे में जा गिरी। इस बात का पता लोगों को तब लगा जब उस गहरे गड्ढे के आसपास से गुजरने वालो ने भैंस के जोर-जोर से रंभाने की आवाज सुनी। भैंस की जान खतरे में है यह खबर पूरे गांव में जंगल में आग की तरह फैल गई। देखते ही देखते यहां कई अखबारों के संवाददाताओं का जमवाड़ा लग गया। खबरिया चैनलों में यहां तक पहुंचने वालों में सबसे पहले हम थे (रिपोर्टर यह बताते हुये गर्व से भर उठा) उसके बाद ही दूसरे चैनलों में यह खबर चली। फिर तो यह खबर झंडूपुरा गांव से निकलकर पूरे देश तक जा पहुंची। अर्चना, मैं अपने दर्शकों को बताना चाहूंगा कि यहां दूर-दूर से लोग सुंदरी को देखने आ रहे हैं। हर किसी को बस एक ही बात की चिंता है कि सुंदरी को सही सलामत बचाया जा सकेगा या नहीं? लोगों में इस बात को लेकर रोष भी है कि अब तक यहां सेना नहीं पहुंची है। न ही मुख्यमंत्री ने अब तक सुंदरी की कोई खैर-खबर लेने की कोशिश की है। हां, इलाके के विधायक और सांसद जरूर मौके पर मौजूद हैं। हम उन्हीं से पूछते हैं कि वो सुंदरी को बचाने के लिये क्या कर रहे हैं। जी, विधायक जी पहले आप बताइये?विधायक- हम पूरी कोशिश कर रहे हैं। खुद हमारे मुख्यमंत्री हमसे इस घटना की जानकारी मांग चुके हैं। हमें भरोसा है कि हम सुंदरी को जल्द ही मुसीबत से बाहर निकाल लेंगे। अच्छा सांसद जी आप बताइये? क्या बतायें? यह सरकार का निकम्मापन है कि सुंदरी अभी तक गड्ढे में ही है। राज्य में हमारी सरकार होती तो अव्वल तो गड्ढा ही नहीं होता। अगर गड्ढा होता भी तो उसमें भैंस नहीं गिरती। अगर गिरती भी तो उसे फौरन सही-सलामत बाहर निकाल लिया गया होता.....।अच्छा आकाश जरा हमें वहां के माहौल के बारे में बतायें। क्या माहौल है वहां का?
अर्चना, जैसा कि आप देख सकती हैं यहां हजारों की भीड़ है। लोगों ने पूजा अर्चना भी शुरू कर दी है। यहां से कुछ किलोमीटर की दूरी पर हवन भी शुरू हो चुका है। मौके पर लोगों का आना लगातार जारी है। हालांकि बचाव कार्य को लेकर लोगों में अब रोष भी दिखने लगा है। सुंदरी को गड्ढे में गिरे आठ घंटे से भी ज्यादा हो चुके हैं। इसके बावजूद अब तक यह भरोसा नहीं है कि उसे बचा लिया जायेगा। अभी तक न तो खुदायी की मशीनें यहां पहुंची हैं औऱ न ही सेना का हेलीकाफ्टर दिखाई दिया है। जी, अर्चना? आकाश, आप वहीं मौजूद रहिये और पल-पल की अपडेट हमें देते रहिये। एक ब्रेक के बाद हम लगातार इस खबर पर बने रहेंगे। आप देखते रहिये....खबिरया, आपका चैनल-आपके लिये।

शनिवार, 15 सितंबर 2007

हां, मैं भूत को जानता हूं !

मैंने कभी भूत को नहीं देखा
मैं भूत को देखना चाहता हूं
मैंने भूतों के बारे में बहुत कुछ सुना है
मेरी नानी कहती थीं
भूत देखने में डरावना होता है
उसकी कोई आकृति नहीं होती
कोई निश्चित आकार भी नहीं होता
फिर भी लोग उससे डरते हैं
वह लोगों को डराता है
लेकिन क्यों?
यह मेरी नानी भी नहीं जानतीं
वह कहती थीं...
जब कोई इंसान बेमौत मर जाता है
तो भूत बन जाता है
वह भूत बनकर भटकता रहता है
मुक्ति की तलाश में
अब मेरी नानी इस जहां में नहीं हैं
मुझे उनकी सारी कहानियां याद हैं
वह कहानियां जिन्हें सुनकर
मेरे रोंगटे खड़े हो जाते थे
मैं डरकर उनकी गोद में दुबक जाता था
उन कहानियों में
एक से बढ़कर एक
भूत, राक्षस और दानव होते थे
उनके पास सारी शक्तियां होती थीं
अब मैं बड़ा और समझदार हो गया हूं
लेकिन अब भी सुनना चाहता हूं
भूतों की कहानियां
अब मेरी नानी नहीं हैं
फिर भी...
मैं भूतों से आये दिन रूबरू होता हूं
जब भी दिल करता है
भूतों के बारे में जानने का
फौरन सारी कड़ियां जोड़ लेता हूं
अरे यारों, अब भी नहीं समझे
बस टीवी पर कोई खबरिया चैनल खोल लेता हूं।

शनिवार, 25 अगस्त 2007

पहले ब्रेक...फिर ब्रेकिंग न्यूज

रात का वक्त था। दफ्तर से लौट रहा था। जाहिर है घर के लिए। तभी बीच सड़क पर सफेद रंग की एक आकृति देखकर चौंक गया। असल में वह एक सांप था। जीता-जागता, हिलता-डुलता। गाड़ी में ब्रेक लगाया। शुक्र मनाया कि सड़क के बीचोंबीच होने के बावजूद वह पहिये के नीचे आने से बच गया। दिमाग में आया क्यों न अपने पड़ोसी टीवी चैनल वाले को कॉल कर दूं। हमेशा न्यूज ब्रेक करने वाले न्यूज चैनल को एक और ब्रेकिंग न्यूज मिल जायेगी। फिर सोचा, यह नाग या नागिन तो है नहीं। यह तो शायद पानी वाला सांप है। सीधा-साधा। भोला-भाला। इसे तो फुंफकारना भी नहीं आता। ना ही यह किसी से बदला ले सकता है। न ही इसे नागिन फिल्म की धुन पर नचाया जा सकता है। फिर सोचा, इससे क्या फर्क पड़ता है। किसी भी सांप को नाग या नागिन बनाना तो चैनल वालों के बायें हाथ का खेल है। वैसे भी सांप-नेवले की स्टोरी में असली दृश्य होते ही कहां हैं। फिल्मों के विजुअल और गाने ही तो चलाने होते हैं। मतलब साफ था। मुझे एक ब्रेकिंग न्यूज की संभावना साफ नजर आ रही थी। फिर सोचा कि छोड़ो भी, जब यह खबर अपने चैनल पर नहीं चल रही तो क्यों दूसरे चैनल को खबर देकर उसकी टीआरपी बढ़ाई जाये। मैंने एक्सीलेटर दबाया और आगे बढ़ गया।

घर तो पहुंच गया। लेकिन नींद नहीं आ रही थी। बार-बार उस सांप का ख्याल जेहन में आ रहा था। सोचा कि हो सकता है कि टीवी चैनल का रिपोर्टर सूंघते-सूंघते वहां तक पहुंच गया हो। चैनल ने खबर ब्रेक कर दी हो। मैं झटके से उठा। रिमोट उठाया। टीवी आन किया और तेजी से न्यूज चैनल सर्च करना शुरू कर दिया। उस सांप (माफ कीजियेगा-नाग) की खबर किसी चैनल पर नहीं थी। मैं मन ही मन में कुछ बुदबुदाया और टीवी बंद करके फिर बिस्तर पर पसर गया।

आंखें बंद थीं। दिमाग अब भी चल रहा था। बार-बार दिखाई दे रहा था वह सांप। मैं सोच रहा था कि अगर वह सांप किसी गाड़ी के नीचे आकर मर गया होगा तो क्या खबर बनेगी। खबर यह बन सकती है कि नाग की मौत हो गई। अब नागिन बदला लेगी। लाइब्रेरी से निकालकर नागिन के फुंफकारते हुये विजुअल लगा दिये जायेंगे। नागिन फिल्म का गाना भी लगा जा सकता है। बाकी तो एंकर रहेगा ही। लगातार कुछ भी अनाप-शनाप बोलने के लिये।

दूसरी संभावना यह हो सकती है कि अगर सांप ( कहानी की जरूरत के मुताबिक उसे नाग या नागिन बनाने का पूरा स्कोप रहेगा) गाड़ी के टायर की चपेट में आकर जख्मी हो जाये तो....। तब खबर कुछ इस तरह हो सकती है कि नाग की मौत हो गई। अब नागिन जरूर बदला लेगी।

तीसरी संभावना हो सकती है...कि यह मौत एक नागिन की थी। वह नागिन जो नाग की मौत का बदला लेने के लिये शहर में आई थी। वह नाग के हत्यारे की तलाश में थी। अफसोस उसकी तलाश पूरी नहीं हो सकी। लेकिन मरने के बाद भी वह अपना बदला जरूर लेगी। बदला लेने के लिये वह फिर जन्म लेगी। जाहिर है, जैसा कि हमेशा होता है, उसकी आंखों में कातिल की तस्वीर हमेशा के लिये बस गई होगी। कुछ प्रत्यक्षदर्शियों की बाइट भी ली जा सकती है। मौके पर मौजूद लोग नाग की मौत से कितने गुस्से में हैं यह भी दिखाया जा सकता है। उस रास्ते से गुजरने वालों पर इसका क्या असर पड़ सकता है, किसी ज्योतिषी या शनि महाराज टाइप के शख्स की बाईट भी चलाई जा सकती है। ऐसे में आखिर पुलिस क्या कर रही है यह सवाल भी उठाया जा सकता है। कानून-व्यवस्था पर भी सवाल उठाये जा सकते हैं। ज्यादा विस्तार में जाया जाये तो सरकार को भी लपेटा जा सकता है। आखिर हर वारदात के लिये जिम्मेदारी तो सरकार को ही लेनी होगी। उसे उसकी इस जिम्मेदारी का एहसास चैनल वाले नहीं करायेंगे तो कौन कारयेगा। क्या-क्या बतायें? ऐसी शानदार बिकाऊ खबर हाथ लग जाये तो यह पूछिये चैनल में क्या नहीं किया जा सकता। लेकिन उस पर चर्चा करेंगे एक बड़े से ब्रेक के बाद। आज के लिये बस इतना ही।

गुरुवार, 23 अगस्त 2007

कंपनी सार




दोस्तों, मेरे लिखे हुये को तो आप पिछले करीब तीन महीने से पढ़ (या शायद झेल) ही रहे हैं। आज मैं जो रचना आपके सामने प्रस्तुत करने जा रहा हूं वह हमारे इन मित्र ने पोस्ट की है। इनका नाम है विनय पाठक। यूं तो मैं भी खबरिया चैनल में ही काम करता हूं लेकिन अब मैं पत्रकार होने का दावा नहीं करता। लेकिन पाठक जी के बारे में मैं ताल ठोंककर कह सकता हूं कि यह जनाब टीवी पत्रकार हैं। हालांकि मेरा ऐसा कहना इन्हें पसंद आयेगा या नहीं मैं नहीं जानता। तो लीजिये पेश है इस तस्वीर में नजर आ रहे विनय पाठक की ताजातरीन रचना---



हे पार्थ,
तुम्हें इंक्रीमेंट नहीं मिला, बुरा हुआ
टीडीएस बढ़ने से सैलरी भी कट गई, और भी बुरा हुआ
अब काम बढ़ने से एक्स्ट्रा शिफ्ट भी होगी, ये तो और भी बुरी बात होगी।
इसलिए हे अर्जुन,
न तो तुम पिछला इंक्रीमेंट नहीं मिलने का पश्चाताप करो
और न ही अगला इंक्रीमेंट मिलने का इंतजार करो
बस अपनी सैलरी यानी जो भी थोड़ा कुछ मिल रहा है उसी से संतुष्ट रहो
इंक्रीमेंट नहीं भी आया तो तुम्हारे पॉकेट से क्या गया
और जब कुछ गया ही नहीं तो रोते क्यों हो।
हे कौन्तेय,
एक बात याद रखो
जब तुम नहीं थे कंपनी तब भी चल रही थी
और जब तुम नहीं रहोगे तब भी कंपनी चलती रहेगी
कंपनी को तुम्हारी जरूरत नहीं, कंपनी तुम्हारी जरूरत है
वैसे भी तुमने कौन सा ऐसा आइडिया दिया जो तुम्हारा अपना था
सब कुछ तो कट-कॉपी-पेस्ट का ही खेल था
इस बात को लेकर भी दुखी मत हो कि कट-कॉपी-पेस्ट वाले आइडिया का क्रेडिट भी तुम्हें नहीं मिला
सारा क्रेडिट अगर बॉस मार लेते हैं तो उन्हें मारने दो
क्रेडिट मारना तो बॉस का हक है और यही एक काम वो ईमानदारी के साथ करते हैं।
हे पांडु पुत्र,
इन बातों के साथ ही एक बात ये भी याद रखो
तुम कोई एक्सपीरियंस लेकर नहीं आए थे
जो एक्सपीरियंस मिला यहीं पर मिला
कोरी डिग्री लेकर आए थे एक्सपीरियंस लेकर जाओगे
मतलब अगर नौकरी छोड़ी तो यहां से कुछ लेकर ही जाओगे
ये बताओ कि कंपनी को क्या देकर जाओगे।
हे तीरंदाज द ग्रेट,
जो सिस्टम (कम्प्यूटर) आज तुम्हारा है
वो कल किसी और का था....
कल किसी और का होगा और परसों किसी और का
तुम इसे अपना समझ कर क्यों मगन हो रहे हो
कुछ भी तुम्हारा नहीं है, सब एक दिन छिन जाएगा
दरअसल, यही तुम्हारे टेंशन का कारण है।
इसलिए हे धनंजय,
क्यों व्यर्थ चिंता करते हो
किससे व्यर्थ डरते हो
कौन तुम्हें निकाल सकता है
ये नौकरी तुम्हारी थी ही कब, ये तो सिर्फ और सिर्फ बॉस की मर्जी है
और जब नौकरी तुम्हारी है ही नहीं तो तुम्हें कौन निकाल सकता है और कौन तुम्हें निकालेगा।
हे पांडव श्रेष्ठ,
ध्यान से एक बात को समझो
पॉलिसी चेंज तो कंपनी का एक रूल है
जिसे तुम पॉलिसी चेंज समझते हो, वो दरअसल कंपनी की एक ट्रिक है
एक ही पल में तुम सुपर स्टार और हीरो नंबर वन बन जाते हो
और दूसरे ही पल वर्स्ट परफॉर्मर और कूड़ा नंबर वन हो जाते हो।
इसलिए हे गांडीवधारी,
इंक्रीमेंट, इनसेन्टिव, एप्रेजल, प्रोमोशन, रिटायरमेंट वगैरह वगैरह को मन से निकाल दो
ये सब न तो तुम्हारे लिए है और न तुम इसके लिए हो
हां, जब तक बॉस खुश है तबतक काम करो या न करो, जॉब सिक्योर है
फिर टेंशन क्यो लेते हो
तुम खुद को कंपनी और बॉस के लिए अर्पित कर दो
यही सबसे बड़ा गोल्डेन रूल है
जो इस गोल्डेन रूल को जानता है
वो इंक्रीमेंट, इनसेन्टिव, एप्रेजल, प्रोमोशन, रिटायरमेंट वगैरह वगैरह के झंझट से
सदा के लिए मुक्त हो जाता है।
इसलिए हे धनुर्धर श्रेष्ठ,
चिन्ता छोड़ो और खुद को कंपनी के लिए होम कर दो
तभी जिन्दगी का सही आनन्द उठा सकोगे।


---विनय पाठक


बुधवार, 22 अगस्त 2007

फिल्म सिटी का कुत्ता

वह फिल्म सिटी का कुत्ता है
उसने देखा है
हर प्रोड्यूसर को
'प्रोड्यूसर' बनते हुये।
हर पत्रकार को
'जर्नलिस्ट' में बदलते हुये।
उसने देखा है
बाटा की घिसी चप्पलों से
'वुडलैंड' तक का सफर
उसने देखा है
फुटपाथ की टी शर्ट से
'पीटर इग्लैंड' तक का सफर
उसने देखा है
घिसे टायरों वाली हीरो होंडा को
'होंडा सीआरवी' में बदलते हुये।

वह हर चैनल के प्रोड्यूसर को
अच्छी तरह पहचानता है
तभी तो
एंकर और प्रोड्यूसर को देखते ही
पूंछ हिलाता है
उन पर भोंकने की गुस्ताखी नहीं करता
वह भोंकता है
बाहर से आने वालों पर
लेकिन...
इस बात का इत्मीनान करने के बाद
कि वो शख्स भविष्य का
एंकर या प्रोड्यूसर तो नहीं है
वह बाहरी कुत्तों पर भी भोंकता है
वो कुत्ते...
जो उसकी तरह साफ-सुथरे नहीं होते
किसी चैनल के प्रोड्यूसर की तरह
खाये-पिये और तंदुरुस्त नहीं होते

वह खुद भी 'प्रोड्यूसर' की तरह ही है
खाया-पिया, अघाया, मुटाया
इसलिये उसे
मरियल और बीमार कुत्ते
अपनी बिरादरी के नहीं लगते
वह जोर से भोंक कर
उन्हें फिल्म सिटी से खदेड़ देता है
और अगले ही पल
चाय की दुकान पर खड़े
प्रोड्यूसर और एंकर के सामने
पूंछ हिलाने लगता है
मानो कह रहा हो...
मैंने अपना काम कर दिया प्रोड्यूसर साहब !
अब आप अपना काम कीजिये
बटर टोस्ट का एक टुकड़ा
मेरी तरफ भी फेंक दिजिये।

चाय की दुकान पर आने वाला
हरेक प्रोड्यूसर, एंकर, रिपोर्टर
उस कुत्ते को अच्छी तरह पहचानता है
क्योंकि वह कुत्ता
उनके बारे में सब कुछ जानता है।

शनिवार, 11 अगस्त 2007

राजू बन गया जैंटिलमैन

वह मेरा अनुज है। बहुत प्यारा इंसान है। जब भी मिलता है बेतकल्लुफ होकर। मेरी तरह वह भी पत्रकार बिरादरी से ताल्लुक रखता है। मैं भी एक खबरिया चैनल के क्राइम बुलेटिन में काम करता हूं और वह भी। मैं भी इलाहाबादी हूं और वह भी। मैं भी कभी-कभार कविता लिखता हूं और वह भी। मुझे उसकी रचनायें अच्छी लगती हैं। मेरी रचनायें उसे कैसी लगती हैं, मैं नहीं जानता। मैं उसे पढ़ता हूं। कई बार तो उसकी लेखनी मेरे अंदर एक स्फूर्ति का संचार कर देती है। कई बार कुछ कर गुजरने का उत्साह भर देती है। कई बार सोचता हूं, ये लड़का एक दिन जरूर क्रांति कर देगा। मुझे क्रांति का झंडा बुलंद करने वाले बेहद पसंद हैं।

यह कल तक की बात थी। उसके बारे में मेरी राय थी। आज उसने मुझे निराश किया है। मेरा मन अशांत है। मुझे उस पर बहुत गुस्सा आ रहा है। मेरा छोटा भाई है। उस पर गुस्सा करना मेरा हक है। बहुत दूर है वर्ना शायद मैं उसे पीटने भी लग जाता। उसने काम ही ऐसा किया है। वो 'एक कदम बढ़ाकर दो कदम पीछे हटने' वाली कहावत तो आपने सुनी ही होगी। उसने ऐसा ही किया। मैं कहूं कि उसने 'दस कदम' पीछे हटा लिये तो गलत नहीं होगा। मुझे चापलूसी करने वाले लोग पसंद नहीं हैं। वह भी चापलूस नहीं है। लेकिन कल मुझे उसकी लिखी कुछ पंक्तियों में चापलूसी नजर आई। मैंने उसे बर्दाश्त कर लिया। सोचा कम से कम शुरुआती पंक्तियां तो सच बयां कर रही हैं। सच लिखने के लिये मैंने उसे मन ही मन धन्यवाद भी दिया। अपने एक दोस्त को भी बताया, देखो- राजू ने कितना अच्छा लिखा है। मेरे उस दोस्त ने भी राजू की हिम्मत की दाद दी-वाकई वो सच लिखता है।

अब आज की बात। आज सुबह मैं उसके ब्लाग पर फिर आया। सोचा बड़ा अच्छा-बड़ा सच्चा लिखा है। कुछ टिप्पणी कर देता हूं। उत्साहवर्धन होगा। आगे से और अच्छा लिखेगा- औऱ सच्चा लिखेगा। लेकिन आज उसने मेरी उम्मीदों पर पानी फेर दिया। कल तक जो था आज वो नहीं है। जी हां, उसने आज अपनी कल लिखी गई रचना को अपने ब्लाग से हटा दिया था। अब आखिर मैं किस पर टिप्पणी करता? मैं सोचकर हैरान था। उस मजबूत से इंसान के भीतर एक भीरू इंसान भी छिपा हुआ है। मैंने जानने की कोशिश की। पता चला कि उसके किसी 'शुभचिंतक' ने उसे सलाह दी थी अपनी रचना हटा लो। ऐसा क्यों करते हो। नुकसान उठाओगे। फंस जाओगे। वह वाकई उसकी बातों में फंस गया। उसने अपनी रचना हटा दी। शायद वह खुश होगा कि उस रचना को हटाकर अब वह भी अच्छा बच्चा बन गया है। सब की नजरों में। दफ्तर की खबरों में। लेकिन मुझे दुख है। राजू वैसा नहीं रहा। जैसा वो इलाहाबाद की गलियों में था। फिल्म सिटी की चौड़ी सड़कों में था। अब राजू सचमुच सयाना हो गया है। अब वह मायानगरी मुंबई में रहता है। अपना अच्छा-बुरा ज्यादा अच्छी तरह समझता है। किस चीज से फायदा है जानता है। किस चीज से नुकसान है पहचानता है। हर शुभचिंतक की बात मानता है। सचमुच....राजू अब 'जैंटिलमैन' बन गया है।

शुक्रवार, 10 अगस्त 2007

मुझे इन कांवड़ियों से बचाओ

दफ्तर के लिये लेट हो रहा था। आज मीटिंग थी। वक्त पर पहुंच जाऊं यह सोचकर मैंने अपनी गाड़ी की रफ्तार बढ़ा दी। लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। जल्द ही ब्रेक लगाना पडा़। अब गाड़ी बमुश्किल चालीस की रफ्तार से बढ़ रही थी वह भी रुक-रुक कर। इस कछुआ चाल की वजह यह थी कि मेन रोड के तकरीबन आधे हिस्सों को बैरीकेड लगाकर रिजर्व कर दिया गया था। जानते हैं किसके लिये? शिवभक्त कांवड़ियों के लिये। कांवड़ लेकर नंगे पांव सड़क नापने वाले भक्त (?) सफलता पू्र्वक अपनी मंजिल पर पहुंचें इसके लिये प्रशासन ने पूरे इंतजाम कर रखे हैं। जगह-जगह पुलिस भी तैनात रहती है। शिवभक्तों को पूरी तरह वीआईपी ट्रीटमेट मिलता है। क्या मजाल कि कांवड़ियों को कोई कष्ट हो जाये। सड़क पर तो वो यूं चलते हैं जैसे पूरी सड़क उनके बाप की है। आम लोगों के प्रति उनका रवैया ऐसा होता है जैसे कांवड़ ले जाकर वो खुद पर नहीं बल्कि देशवासियों पर कोई बहुत बड़ा ऐहसान कर रहे हों।

हम थोड़ी ही दूर बढ़े थे कि एक कांवड़िये ने हाथ देकर हमसे इतने अधिकार पूर्वक लिफ्ट मांगी जैसे यह उसका जन्मजात हक हो और उन्हें हम हर हालत में लिफ्ट देने को बाध्य हों। हालांकि हमने उसके इस अधिकार को चुनौती देते हुये अपनी गाड़ी और तेजी से आगे बढ़ा दी। उसने हमें खा जाने वाली नजरों से देखा और कुछ (जाहिर है अच्छा नहीं) बड़बड़ाते हुये पीछे से आ रही एक दूसरी गाड़ी पर अपनी नजर गड़ा दी।

क्या आप जानते हैं कि जब कांवड़ ले जाने का मौसम आता है तो शहर में आये दिन होने वाले छोटे-मोटे अपराध कम हो जाते हैं? इसलिये नहीं कि सारे चोर-बदमाश बड़े ही धार्मिक हो जाते हैं, बल्कि इसलिये क्योंकि ऐसे समय में वो लोग कांवड़िये बन जाते हैं। ऐसा हम नहीं हमारे एक दोस्त कहते हैं। उनकी ऐसी बातें सुनकर कई बार तो हम भी सोचने पर मजबूर हो जाते हैं। आज तो खाना खाते वक्त हमने उनसे पूछ ही लिया एस जी जरा बताइये तो अपराध कम होने के इस अध्ययन के पीछे आपकी थ्योरी क्या है? यह सवाल करते ही उन्होंने हमें यूं देखा जैसे हमने कोई मूर्खों वाली बात कह दी हो, फिर समझाया अरे, इतना भी नहीं समझते आप? ये बदमाश और चोर उचक्के ही तो हैं जो आजकल के मौसम में गेरुये वस्त्र धारण कर कांवड़िये बन जाते हैं। क्या......? हमारी भावनाओं (धार्मिक)को झिंझोड़ दिया था उन्होंने। खैर, कुछ देर बाद हम नार्मल हो गये। काफी दिमाग लगाकर हमने उनकी इस थ्योरी को गलत साबित करने के लिये एक सवाल उठाया...लेकिन दोस्त कांवड़ ले जाना तो बड़े ही कष्ट का काम है? चोर-उचक्के भला जानबूझकर कष्ट क्यों सहेंगे?

एस जी ने फिर आंखें तरेरीं।...अरे भई, जब कदम-कदम पर बढ़िया खाना-पीना और आवभगत होगी तो खाली और बेकार घूमने वालों के लिये ऐश का इससे सुनहरा मौका और कहां मिलेगा? उन्होंने याद दिलाते हुये कहा- जहां तक बदमाशों के कांवड़िये बनने की बात है तो देखा नहीं आपने गुड़गांव के मानेसर में क्या अभी हुआ? क्या सरेआम तोड़फोड़ और आगजनी करने वाले आपको किसी भी नजरिये से शिवभक्त नजर आ रहे थे?

उनकी बात अब हमारे पल्ले पड़ने लगी थी। कल तक तो हमने भी यही सुना था कि कांवड़ ले जाने वाले शिवभक्त बेहद शालीन और सीधे-साधे लोग होते हैं। लेकिन तकरीबन दस रोज से कांवड़यों की वजह से हमें (बल्कि हर आने-जाने वाले को) जो परेशानी उठानी पड़ रही है उसे खुद ही समझा जा सकता है। किसी से बयान नहीं किया जा सकता। क्योंकि ऐसा करने पर अधर्मी, लोगों की धार्मिक भावनाओं को आहत करने वाला जैसे न जाने कितने विश्लेषणों से हमें नवाजा जा सकता है। अगर बात फैल गई तो कांवड़ियों के कोप का शिकार भी होना पड़ सकता है।

इसलिये अपने मित्र की थ्योरी से हम कितने सहमत या असहमत हैं यह बहुत मायने नहीं रखता। कांवड़ियों से साबका होने का यह कोई पहला मौका नहीं है। हर साल ऐसा होता है। कभी-कभी तो पूरा रास्ता ही रोक दिया जाता है। पुलिस वाले बोलते हैं वापस जाओ, आज यहां से नहीं निकल सकते। (रास्ता भी खुश होता होगा कि कुछ दिन के लिये ही सही वह वीआईपी हो गया है) कोई दूसरा रास्ता भी नहीं है। ऐसा करो आज छुट्टी ले लो। सबसे मजेदार बात तो यह है कि कांवड़ियों की वजह से फौरन छुट्टी एप्रूव भी हो जाती है।

हो सकता है इसी वजह से ही सही, हमारे खाते में भी एक पुण्य कर्म करने का श्रेय जुड़ जाये। क्या पूछा? किस वजह से?....अरे अभी कल ही तो हमने दफ्तर आते वक्त एक कांवड़ये के लिये रास्ता छोड़ा था। ये अलग बात है कि वो हमारी इच्छा नहीं, बल्कि मजबूरी थी और मजबूरी क्या-क्या करा सकती है यह तो आप समझ ही सकते हैं। (दोस्तों मेरा इरादा किसी की धार्मिक भावनाओं को आहत करने का नहीं है, अगर किसी को ऐसा लगे तो छमा प्रार्थी हूं)

बुधवार, 8 अगस्त 2007

टुच्चे लोग-टुच्ची बातें

सुबह-सुबह मोबाइल की मैसेज टोन सुनाई दी। देखा तो हैप्पी बर्थडे का मैसेज था। याद आया अरे आज तो हमारा जन्मदिन है। ये मोबाइल भी क्या चीज है। हमें वक्त पर याद दिला दिया हमारे जन्मदिन के बारे में। मैसेज भेजने वाले से ज्यादा हम मोबाइल के शुक्रगुजार थे। वो इसलिये कि हम यकीन के साथ कह सकते हैं कि अगर उन जनाब के पास मोबाइल नहीं होता तो शायद ही वो हमें जन्मदिन की बधाई देते। क्या पता मैसेज भेजने में जो एक अदद रुपये खर्च होते हैं वो भी उन्होंने खर्च न किये हों। अरे आजकल तो मोबाइल कंपनियां फ्री मैसेज की सुविधा देने लगी हैं...अब आप लोग सोचेंगे कि भइया हम तो बड़ी ही नकारात्मक सोच वाले शख्स हैं। क्या करें हमारी सोच ऐसी हो ही गई है। फिलहाल हमारे दिमाग में इसकी दो वजह आ रही हैं।

पहली तो ये कि हमें जन्मदिन की शुभकामना भेजने वाले को हमसे कोई दिली या भावनात्मक लगाव नहीं है, यह हम अच्छी तरह जानते हैं। जब उन जनाब को हमसे कोई काम होता है या उनका कोई स्वार्थ निकलना होता है तभी वो इस नाचीज को याद करते हैं। हमें पूरा यकीन है कि आज-कल में उनका फोन जरूर आ जायेगा...रवीन्द्र जी आप दैनिक भास्कर के ब्यूरो चीफ को जानते हैं क्या? एक बार उनसे बोल दीजिये मेरे भतीजे ने अभी जर्नलिज्म का कोर्स पूरा किया है, उसकी नौकरी लगवानी है। ऐसे मतलबी और स्वार्थी (वैसे आजकल ऐसे लोगों को स्मार्ट कहा जाता है) लोगों ने ही हमारी सोच नकारात्मक बना दी है।

अब दूसरी वजह। दूसरी वजह है हमारा काम। पिछले करीब दो साल से खबरिया चैनल के क्राइम बुलेटिन के लिये स्क्रिप्ट लिखते-लिखते हमारी सोच पूरी तरह निगेटिव हो गई है। हालत ये है कि अब हमें हरेक शख्स क्रिमिनल नजर आता है। यहां तक कि आफिस में भी हमें हर कोई किसी न किसी साजिश का सूत्रधार नजर आता है। (वैसे यह सच भी हो सकता है) रात को आफिस से घर लौटते हैं तो रास्ते भर यही डर सताता रहता है कि कहीं कोई मारपीट कर हमारी गाड़ी और कीमती मोबाइल न छीन ले। लो भई, तो घूमफिर कर बात फिर मोबाइल तक आ गई। गाड़ी मोबाइल छिनने का डर इस कदर रहता है कि हम रोज रास्ता बदल-बदल कर घर जाते हैं। अरे फर्ज कीजिये कि अगर किसी ने हमारा मोबाइल छीन लिया तो हमारा आर्थिक नुकसान तो होगा जो होगा...सबसे बड़ी बात कि हम अपने शुभचिंतकों (?) से कट जायेंगे। फिर भला हमारे पास ये संदेश कैसे पहुंचेगा कि भइया आज ही के दिन आप इस दुनिया में अवतरित हुये थे इसलिये बधाई स्वीकार करें। अगर मोबाइल पास नहीं रहेगा तो रिपोर्टर हमें कैसे बता पाएगा कि सुबह-सुबह पूरी दिल्ली सिर्फ इसलिये दहल गई कि एक घर में दो कत्ल हो गये। वैसे यह हमें आज तक समझ में नहीं आया कि घर के अंदर एक कत्ल होने पर ये चैनल वाले पूरी दिल्ली को ही कैसे दहला देते हैं? या फिर चलती कार में बलात्कार (बाद में खबर कुछ और ही होती है) की खबर पीट-पीटकर वो यह कैसे साबित कर देते हैं कि दिल्ली महिलाओं के लिये असुरक्षित है। बहरहाल, हमें तो इंतजार उस दिन का है जब चैनल वाले उस शहर का नाम बतायेंगे जो महिलाओं के लिये सुरक्षित है। क्योंकि चैनल वालों की सोच भी एक टुच्चे से क्राइम रिपोर्टर की तरह ही नकारात्मक है...और जहां तक मेरा सवाल है तो मेरे बॉस तो कहते ही हैं...रवीन्द्र रंजन तुम बहुत टुच्चे आदमी हो।

शुक्रवार, 20 जुलाई 2007

उनका और तुम्हारा बचपन
















कोमल, निर्मल, निश्छल, निष्काम बचपन
किसका ?...उनका, तुम्हारा या हमारा अपना
आता है बचपन जीवन में एक बार ही
इसलिये संभाल कर रखना इसको
क्यों न करो कुछ ऐसा
भूल न पाएं बचपन की स्वर्णिम यादें तुमको
सहेज कर रखना उन यादों को
उन बातों को
जो याद दिलाती रहें पल-पल तुमको
बचपन की, उस निर्मल, निश्छल जीवन की
यद्यपि है निश्चित
यह बचपन नहीं चलेगा सदा साथ तुम्हारे
वरन एक दिन ऐसा भी आयगा
जब तुम खुद को समझने लगोगे
समझदार, खुद्दार
आवश्यकता नहीं महसूस होगी तुम्हें
बड़े-बुजुर्गों की
उनकी सलाह की, मार्गदर्शन की
क्योंकि तुम खुद ही हो जाओगे बड़े
बेशक कैसा भी रहा हो तुम्हारा बचपन
लेकिन वह अब तो बीत ही गया है
यदि हो गया है अतीत में विलीन तुम्हारा बचपन
खो गया है समय के अंधकार में
तो क्यों न अब तुम ही
अपने आस-पास के, बिन मां-बाप के
बच्चों का बचपन सहेजो, संवारो, निखारो
शायद इसी में तुम्हारा बचपन संलिप्त हो
परंतु याद रखना सदा इस बात को
इसमें तुम्हारा कोई निज स्वार्थ न निहित हो
क्योंकि बचपन तो भोला है, निस्वार्थ है
भला उसका संसार के झंझावतों से क्या वास्ता?
क्यों न देखें हम बचपन को उनकी ही नजर से
हम भी दूर हो जाएं दुनिया की तमाम बुराइयों से
और हम भी अपने आप को
अपनी भावनाओं, इच्छाओं को ढालें उन्हीं के अनुसार
जो लड़ते हैं कभी आपस में
लेकिन, पल भर के बाद ही
खेलने लगते हैं फिर से मिल-जुलकर
सब कुछ भूलकर।

(1993)

गुरुवार, 19 जुलाई 2007

जंगजू

पहले...

बहुत बोलता था
आज खामोश था
वह इसलिए कि
ना आज उसको होश था
दे-देकर सबको गालियां
मोल लेता था बुराइयां
तभी तो
लोगों से पिट-पिटाकर
हड्डियां तुड़वाकर

अब...

वह निष्क्रिय सा पड़ा हुआ था
लगता जैसे मरा हुआ था
तभी मरे से उस शरीर में
हलचल थोड़ी सी हुई
हुआ अचानक खड़ा वह
अभी नहीं था मरा वह।

कल...

वह फिर मंच पर चढ़ा हुआ था।

अब मैं कविता नहीं लिखता

अब मैं कविता नहीं लिखता
हो सकता है अब यह मुमकिन ही न हो
वास्तविकता कुछ भी हो
लकिन यह सच है कि
अब मुझे यह गलतफहमी नहीं है
कि मेरे भीतर भी एक कवि है।

अब मैं कविता नहीं लिखता
लेकिन पहले ऐसा नहीं था
मुझे भी यह गुमान था
कि मेरे अंदर भी एक कवि है
तब मुझे हर चीज में
कविता नजर आती थी
शब्दों की तुकबंदी
मुझे भी बहुत सुहाती थी
पर्वत, झरने, नदियां, परिंदे
ये सब मुझे बहुत लुभाते थे
शब्दों की लड़ियां
खुद-ब-खुद जुड़ जाती थीं
लेकिन...अब ऐसा नहीं होता


अब मैं कविता नहीं लिखता
क्योंकि अब प्रकृति मुझे नहीं लुभाती
चिड़ियों की चहचहाहट नहीं सुहाती
अब मैं प्रेम की परिभाषा को समझने
या समझाने की कोशिश नहीं करता
जिंदगी के स्याह पहलुओं पर
अपना सर नहीं खपाता...
रास्ते पर पत्थर तोड़ती औरत
मैले-कुचैले कपड़ों में खेलते बच्चे
या किसी मजलूम का करुण क्रंदन
अब मुझे परेशान नहीं करते
क्योंकि...
अब मैं कविता नहीं लिखता।

और हां,
अब मैं 'फटीचर राइटर' नहीं कहलाता
साइकिल से नहीं, कार में चलता हूं
भले ही अब मैं
प्रकृति के सौंदर्य का वर्णन नहीं कर पाता
जिंदगी की पहेलियों को नहीं सुलझा पाता
लेकिन लिखता मैं अब भी हूं
अब मेरी उंगलियां कागज पर नहीं
कंप्यूटर पर थिरकती हैं।

अब मैं कविता नहीं लिखता।
अब मैं नाग-नागिन के प्रेम
और बदले की कहानियां लिखता हूं
भूतों के नाच, चुड़ैल का खौफ
तंत्र-मंत्र की कहानियां
मैं बाखूबी बयां करता हूं
सांप-नेवले की लड़ाई
पागल कुत्ते का कहर
और मियां-बीवी के झगड़े
ये अब मेरे मेरे मनपसंद विषय हैं
जी हां, अब मैं 'स्क्रिप्ट' लिखता हूं
मैं एक खबरिया चैनल में
'प्रोड्यूसर' हो गया हूं
इसलिए...
अब मैं कविता नहीं लिखता।

खबर तूने क्या किया

राह चलते एक दिन
एक खबर हमसे आ टकराई
खबर का हाल काफी बुरा था
सीने में छह इंच का छुरा था
हमने पूछा अरे खबर कहां चली
बोली अखबार के दफ्तर की गली
हम चकराये
उसकी मूर्खता पर झल्लाए
हमने कहा-
अखबार का दफ्तर छोड़ो
खबरिया चैनलों का पता लो
और सीधे स्टूडियो पहुंच जाओ
हमने मन में सोचा
कि इस खबर में ड्रामे के पूरे चांस हैं।
मुंह में आह और सीने में खंजर
चैनल के लिए बेहद मुफीद है ये मंजर
इस बार हमने उसे समझाया-
तुम्हारी तो किस्मत ही बदल जाएगी
हर घर में बस तुम ही नजर आओगी
कुछ समझी
रिकार्ड तोड़ टीआरपी पाओगी
रातोंरात हिट हो जाओगी
देर मत करो वर्ना पछताओगी।
लेकिन वह बेचारी तो नासमझ निकली
हमारी नेक सलाह उसके भेजे में नहीं घुस पाई
शायद इसीलिये...
उसे यह बात समझ में नहीं आई
उसने अपनी लाल दहकती आंखें तरेरीं
और अखबार के दफ्तर की तरफ हो ली
अगले दिन जब हमने अखबार उठाया
तो खबर को महज सिंगल कॉलम में पाया
उसकी नासमझी पर हमें बेहद तरस आया
सचमुच जिसे चैनल वाले घंटों तान सकते थे
उसने सिंगल कॉलम में छपकर
अपनी अहमियत को खुद ही घटाया।

मंगलवार, 17 जुलाई 2007

क्या यह मुमकिन है?

कितनी आसानी से
तुमने कह दिया
मुझे भूल जाओ।
अब अपनी जिंदगी में
किसी और को ले आओ
ये चंद अल्फाज कहते हुये
क्या तुमने नहीं सोचा
इतना आसान होता है
किसी को भूल जाना?
कोशिश करके कई बार देखा है
अब तक तो तुम्हें नहीं भूल पाया
तुम तो मेरी रग-रग में समाए हो
फिर भला मैं तुम्हें
कैसे खुद से जुदा करूं?
कैसे तुम्हें भूल जाऊं
क्या यह मुमकिन है
कि अपनी जिंदगी में
अब किसी और को ले आऊं?

सोमवार, 16 जुलाई 2007

अपने-अपने भंवर


अच्छाई, बुराई, नैतिक-अनैतिक के
सवाल रूपी दोराहे पर खड़ा
वैचारिक मतभेद और
मानसिक द्वंद रूपी चौराहे की भीड़ में उलझा
सत्य-असत्य के आक्षेपों से जूझता
अनिश्चितताओं के भंवर में डूबता-उतराता
तीक्ष्ण अकाट्य तर्कों से
कतरा कर गुजरने के प्रयास में है व्यक्ति
व्यक्ति, जो कहता कुछ है, करता कुछ है
पर हो कुछ और जाता है
व्यक्ति जो गिरता जा रहा है
निर्जन, अंधेरी, भयावह खाई में
घिरता जा रहा है
क्षुद्र मानसिक, सांसारिक स्वार्थों के
अनजान भंवर में
भंवर विचारों का है, भंवर संस्कारों का है
सभी का अपना अंर्तद्वंद है
अपने-अपने भंवर हैं।
कोई प्यार के गागर में
तो कोई नफरत के सागर में
आकंठ डूब जाना चाहता है
शायद इसी माध्यम से मोक्ष पाना चाहता है
क्या यह मात्र एक व्यक्ति का मानसिक उद्देग है?
यकीनन नहीं...

आम आदमी की आंखों से
सपने भी चुरा लेने को तत्पर
यह आज के तथाकथित सभ्य लोगों की वास्तविकता है
जो अग्रसर हैं विकास में और चढ़ चुके हैं ऊंची सीढ़ियां
छूकर असीम ऊंचाइयां, नाप चुके हैं अनंत गहराइयां
लेकिन, ये क्या नाप पाए हैं
किसी के अंतर्मन को
भांप पाए हैं किसी असहाय दिल के
दुखद रूदन को?
समझ पाए हैं
किसी लाचार के करुण क्रंदन का अर्थ?
या फिर पढ़ पाये हैं
किसी की सूनी आंखों की भाषा?
बेशक नहीं...।
तो फिर किस चिकित्साशास्त्र की बात करते हैं?
अरे, दिल के भीतर जाने से डरते हैं
और दिलों का इलाज करते हैं...?
(1997)

मंगलवार, 10 जुलाई 2007

अजनबी परछाई

अपने दरवाजे के आस-पास
किसी परछाई को देखकर
मैं अक्सर बहुत खुश हो जाता हूं
परछाई को निहारता हूं
उसके नजदीक आने का इंतजार करता हूं
परंतु अमूमन निराश हो जाता हूं
क्योंकि वह वास्तव में वह नहीं होता
जो दिखाई देता है
या फिर...
शायद मेरी ही आंखें धोखा खा जाती हैं
मन जिसे चाहता है
उसी का दीदार करती हैं
शायद मेरी खुशी के खातिर
मेरी आंखें मुझे ही भरमा देती हैं
अपनी आंखों की ये कोशिश
मुझे जरा भी नहीं भाती
क्योंकि आंखें खुलने पर
जब सामने कोई नजर नहीं आता
तब मुझसे मुखातिब होती है सच्चाई
जिससे मैं नजरें चुराने की कोशिश करता हूं
क्या करूं?
मेरे साथ अक्सर ऐसा ही होता है
जब मैं इस सच्चाई को नहीं समझ पाता
और हर बार खुश हो जाता हूं
एक और अजनबी परछाई को
अपनी ओर आता हुआ देखकर।(1997)

बुधवार, 4 जुलाई 2007

वस्तुस्थिति का भान

निकला था मैं मन में उमंगें लिए
काफी अर्से बाद अपने घर से बाहर
सोचा था चलूं
कुछ देर बिताऊंगा प्रकृति के सानिध्य में
मन में थीं तरह-तरह की कल्पनाएँ
कल्पनाओं में थीं
हिम आच्छादित पर्वत श्रंखलायें
दूर-दूर तक फैली हरयाली
मन मस्तिष्क में घूम रहे थे
हरे-भरे पेड-पौधों के अक्स
फूलों से लदी सुंदर लताएं
स्वच्छ सुगंधित वातावरण
हरी घास की मखमली चुनरी ओढ़े मैदान
मैदान में जीवों का स्वछंद विचरण
और परिंदों का कलरव
एकाकार हो जाना चाहता था मैं
प्रकृति के ऐसे अनूठे सौंदर्य में
बढ़ा जा रह था मैं वशीभूत सा होकर
सुध-बुध खोकर, सब कुछ भूलकर
तभी लगी पैर में एक ठोकर
संभल ना पाया गिरा हडबड़ाकर
यकायक तब वस्तुस्थिति का भान हुआ
जब स्वयं को एक निर्जन से स्थान में पाया
सोचा, अरे मैं ये कहां चला आया?
शायद घर से बहुत दूर निकल अया...
यहां तो सब कुछ बिल्कुल खामोश है
कहीँ दूर-दूर तक फैले रेगिस्तान
तो कहीं कचरे के ढेरों का श्मशान है।
कुछ दूर जब और बढ़ा
तो गर्मी ने तपा दिया
सूर्य की तीव्र किरणों ने झुलसा दिया
हाय, मानव की इस अंधी प्रगति ने
हरे-भरे जंगल तो क्या
मुझे एक पेड़ की छांव को तरसा दिया
यहां-वहां, जहां-तहां, कहां-कहां खोज आया
पर कोई छोटा सा पेड़ तक नहीं पाया
तब कहीं जाकर मैं लंबी नींदों से जागा
वास्तविकता में आया, कल्पनाओं को त्यागा
प्यास जब लगी तो नदियों की ओर भागा
लेकिन नदियों का पानी तो
कूड़े-करकट और रसायनों से
हो गया था प्रदूषित, पड़ गया था काला
जिसे पीकर मर-मरकर जीने से
मैंने प्यासा मरना बेहतर पाया
प्रगति के इस खेल ने मेरे साथ
ये कैसा गजब ढाया
इस जलमग्न पृथ्वी में
मैं पानी ढूंढ रहा हूं
कोई बचा ले मुझे...
आधुनिक सुख-सुविधाओं के इस युग में
मैं प्यास से अपना दम तोड़ रहा हूं।(1998)

मंगलवार, 3 जुलाई 2007

मैं जानता हूँ

अगर मैं कभी तुम्हारे दरवाजे पर
दस्तक दूं
अपने आप को मेहमान बताऊं
तो तुम दौड़कर
मेरा स्वागत नही करना
भगवान के बराबर तो क्या
तुम मुझे किंचित मात्र भी महत्व नहीं देना
मेरे सम्मान में
पलक-पावडे़ भी नहीं बिछाना
हो सके तो मुझे दुत्कार देना
यदि ऐसा कराने में संकोच हो तो
मुझे वापस लौटाने के लिए
मन मुताबिक तरकीबें अपनाना
खाने के लिए भी पूछ्ने की जरुरत नहीं
फिर भी मैं
बेशर्मी से खाना माँग ही लूं
तो तुम्हारे रसोई घर में
बासी रोटियां तो पड़ी ही होंगी
मुझे वही खिला देना
ज्यादा सूखी हों तो पानी लगा देना
यदि मैं
खाने की शिकायत करने जैसी धृष्टता करूं
तो तुम गुस्से ते आग-बबूला मत होना
बस कोई प्यारा सा बहाना बना देना
मैं जरा भी बुरा नहीं मानूंगा
क्योंकि मैं जानता हूं कि
मेहमान को भगवान समझाने की
मूर्खता करना
उसकी सेवा में
अपना अमूल्य समय बरबाद करना
ये सब पुरानी परम्पराएं हैं
पिछड़ेपन की निशानी हैं
मैं ये भी जानता हूँ कि
तुम इनके चक्कर में नहीं पड़ोगे
क्योंकि तुम तो आधुनिक हो
पुरानी सड़ी-गली परम्पराओं में
विश्वास नहीं रखते।(1998)

बड़े काम की खोज है भइया !

एजेंसियों के हवाले से खबर आई है कि शिकागो के जीव वै...निकों ने एक बड़ी कामयाबी हासिल की है। कामयाबी यह है कि उनकी टीम ने एक बैक्टीरिया के पूरे जीनोम को बदलकर उसे दूसरी प्रजाति में तब्दील करने का कमाल कर दिखाया है। जाहिर है शिकागों के वै..निकों की यह सफलता बेहद क्रांतिकारी साबित हो सकती है। यानी दो कदम और बढ़ जायें तो कई आश्चर्यजनक परिणाम सामने आ सकते हैं। कई लोगों की कई समस्यायें दूर हो सकती हैं। काम में खामियां निकालकर अपने माताहतों पर चीखने चिल्लाने वाले बॉस टाइप के लोगों को इससे मुक्ति मिल सकती है। वह इसलिये कि अब बॉस टाइप के लोगों को जैसा कर्मचारी चाहिये होगा वो फौरन आर्डर देकर तैयार करवा लेंगे। यानी जैसा चाहिये, आर्डर दीजिये माल तैयार। ट्राई करके देखिए, पसंद न आए तो लौटा दीजिये। आखिर जमाना उपभोक्ता जागरूकता का है। एक तरीका यह भी हो सकता है कि ट्रायल के दौरान उसकी कमियां नोट करते जायें ताकि आपकी कंपलेन पर कंपनी आपके लिये तैयार किये गये प्रोडक्ट में सुधार कर सके। सच, यह तो बहुत बढ़िया हो जाएगा। जिसे जो चाहिये मिल जाएगा। डॉक्टर को बेटे के लिए डॉक्टर बहू चाहिए, मिल जाएगी। वकील के लिए वकीलन चाहिए, आर्डर दो आ जाएगी। फिल्म प्रोड्यूसर को अपनी नई फिल्म के लिए खूबसूरत हीरोईन चाहिए, नया चेहरा चाहिए? जरा हटकर चाहिए, फिक्र नॉट मिल जाएगा। बस आर्डर दो और आर्डर लिस्ट भी, जिसमें सिर्फ यह बताना होगा कि आंखें मधुबाला जैसी चाहिए या श्रीदेवी जैसी। कमर आशा पारिख जैसी हो या फिर उर्मिला मातोंडकर जैसी? डोंट वरी सब मिल जाएगा। टीवी न्यूज चैनल वालों की भी मौज, एंकर खूबसूरत होने के साथ-साथ इंटेलिजेंट भी होनी चाहिए (जो वाकई में मिलना मुश्किल है) लेकिन शिकागो के वै..निकों की क्रांतिकारी खोज से यह मुश्किल भी बेहद आसान हो जाएगी। यानी जहां तक सोचें फायदा ही फायदा। और फायदों के बारे में अब मैं कल सोचूंगा। तब तक आप भी सोचिए।

सोमवार, 2 जुलाई 2007

अनकही

जब मैं चुप था
तब वो चुप थे
जब मैं बोला तो बोल पडे
कुछ उसने सुना
कुछ हमने कहा
पर बात अभी कुछ रह ही गई.

ना रह उजाला जीवन में
अब लंबी-लंबी रातें हैं
जागाहूँ लंबी नींदों से
पर रात अभी कुछ रह ही गई.

उठता है दर्द सा सीने में
आंखों में है कुछ तूफां सा
दिन-रात रह मयखानों में
पर प्यास अभी कुछ रह ही गई.(1997)

शुक्रवार, 29 जून 2007

क्षणिका

(1)
वह अपने दिल पर
पत्थर रख कर सो गया
ये सोचकर
कि कहीँ
ज़ज्बात की आंधी आये
और...
उसे उडा ना ले जाये।
(2)
वो मिटा दें अपने वजूद को
ये उनकी मरजी है
रहते हैं आँधियों में
और...
हवा से एलर्जी है।
(3)
ख्वाब को उस शख्स ने
हक़ीक़त में बदल दिया
तारों को तोड़ लाया
और ...चांद पर घर लिया.(1999)

गुरुवार, 28 जून 2007

चार लाईना

जब रोज-रोज उनसे होती मुलाकातें थीं
तब कहने को दिल में कुछ रहती नहीं बातें थीं
अब कहने को उनसे कितनी ही बातें हैं
लेकिन अब नहीं होती मुलाकातें हैं. (1995)

क्रिकेट का बुखार

अम्पायर मैदान में
दौडा-दौडा आया
फिर झटपट
पिच पर उसने
स्टंप लगाया।
लो हो गया तैयार विकेट
अब खेला जायेगा क्रिकेट।

दो बल्लेबाज़
जो दिखते थे उस्ताद
बैट लेकर दौड़ते आये।
किस्मत पर अपनी इतराए
एक ने आकर बैट जमाया
दूजा रनर बनकर आया।

गेंदबाज
गेंद लेकर घिसता आया
अपनी की रफ्तार तेज़
गेंद दी तेज़ी से फ़ेंक

बल्लेबाज़ संभला
घुमाया बल्ला मारा छक्का
गेंदबाज यह देखकर
गया हक्का-बक्का।
तब, दर्शक दीर्घा से
तालियों की आवाज आयी
गेंद की होने लगी धुनाई
देखते ही देखते
स्कोर बोर्ड पर
रनों का अम्बार हो गया
दर्शक बैठे खुश होते थे
क्रिकेट का दीदार हो गया।

जिधर भी देखो क्रिकेट-क्रिकेट
क्रिकेट का बुखार हो गया
क्रिकेट चाहे जिस दिन भी हो
वह दिन तो इतवार हो गया.(1994)

अजीब पहेली है

ज़ुरासिक पार्क में दो ड़ायनासोर
आपस में करते थे बातचीत
भाई, आज के आदमी के भी क्या कहने
जो प्रगति के नाम पर
पर्यावरण प्रदूषित कर
जंगलों को काटकर
वर्तमान में जीवित प्राणियों के
अस्तित्त्व को मिटाता है
वहीँ अतीत में...
विलुप्त हो चुके प्राणियों का
तरह-तरह से अनुसंधान कर
उन्हें जीवित करने का प्रयास करता है
तो कभी उनकी अस्थियाँ खोजकर
उनका आकार बनता है
जीवित पर अत्याचार
और विलुप्त पर इतना प्यार
ये कैसे अजीब पहेली है
हम ड़ायनासोर की तो
कुछ समझ में नहीं आता है।(1994)

 
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