
मकबूल कतर जा रहे हैं। अब वहीं बसेंगे और वहीं से अपनी कूचियां चलाएंगे.. ये खबर सुनकर हिंदुस्तान में कुछ लोगों को बड़ा अफसोस हो रहा है। इस गम में वो आधे हुए जा रहे हैं कि कुछ अराजक तत्त्वों के चलते एक अच्छे कलाकार को हिंदुस्तान छोड़कर जाने के लिए मजबूर होना पड़ा। इस पूरे ड्रामे को देखकर उन तथाकथित सहिष्णु लोगों पर हंसी, हैरानी और गुस्सा आता है। 95 साल का एक बूढ़ा जो अब तक आम लोगों की भावनाओं को अपनी कला के जरिये ठेंगे पर दिखाने की कोशिश करता आया है, जब वो खुद अपनी मर्जी से, अपने क्षुद्र स्वार्थ के लिए हिंदुस्तान छोड़ कर जा रहा है तो फिर ऐसे लोगों का कलेजा भला क्यों फट रहा है..? क्यों.. क्योंकि उनके पास आधी-अधूरी जानकारी है। ऐसे लोगों को चाहिए कि वो इस पूरे ड्रामे को अपनी सहिष्णुता का झूठा चश्मा उतारकर ईमानदारी से देखें।

तर्क देने वाले तर्क देते हैं कि एक कलाकार को कला की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। जरूर मिलनी चाहिए लेकिन इसका मतलब ये तो नहीं कि वो अपनी इस स्वतंत्रता का इस्तेमाल बार-बार दूसरों की सहनशक्ति का परीक्षण करने के लिए करें? कहते हैं अश्लील पेंटिंग्स का विरोध हुआ तो मकबूल व्यथित हो गए। सरकार ने सुरक्षा का भरोसा दिलाया, लेकिन मकबूल को भरोसा नहीं हुआ। दरअसल मकबूल को समझ में आ गया था कि सरकार पर भरोसा न करने से पब्लिसिटी कुछ ज्यादा ही मिल रही है। लोगों के बीच इमेज एक ऐसे 'निरीह प्रतिभावान' कलाकार की बन रही है, जो अतिवादियों का सताया हुआ है। ये तो वाकई कमाल है। दूसरों की भावनाएं आपके लिए कुत्सित कमाई का सामान हैं। उस पर अगर विरोध हो तो आप बौद्धिक बनकर उनके विरोध पर भी ऐतराज जताने लगें।

दुबई में डेरा डाले हुसैन ने एक अंग्रेजी दैनिक को खुद अपनी तस्वीरें भेजी और कतर की नागरिकता मिलने की खबर दी। एक अखबार को खबर देने का मतलब ये था कि ये खबर पूरे देश में फैले। सरकार के तमाम आश्वासनों के बावजूद मकबूल के दिल में इस मुल्क में बसने की कोई ख्वाहिश नहीं है। अगर ये ख्वाहिश होती तो फिर इस देश में लौट आने के कई बहाने मकबूल के पास होने चाहिए थे। अगर बात विरोध की ही थी तो जितना विरोध 'माई नेम इज खान' का हुआ, उतना मकबूल का तो कतई नहीं हुआ था। 'खान' बढ़िया तरीके से रिलीज भी हुई और शाहरूख आज भी अपने मन्नत में उसी शान के साथ रह रहे हैं, जैसे पहले रहते थे।
दरअसल मकबूल में खुद को सताया हुआ कलाकार दिखाने का शौक कुछ ज्यादा ही था। इसके साथ ही मकबूल का 'कला' बाजार दुबई और कतर जैसे अरब मुल्कों में खूब बढ़िया चलने भी लगा था। तेल भंडारों से बेशुमार पैसा निकाल रहे शेखों के पास अपने हरम पर खर्च करने के अलावा मकबूल की पेंटिंग खरीदने के लिए भी खूब पैसा है। मकबूल को और चाहिए भी क्या? सवाल ये है कि कतर में मकबूल को अपना बाजार दिख रहा है या फिर मकबूल को वाकई कतर में किसी कमाल की धर्मनिरपेक्षता और सहिष्णुता की आस है? अगर ऐसा है तो फिर मां सरस्वती की तरह ही कतर में मकबूल बस एक बार अपने 'परवरदिगार' की एक 'पेंटिंग' बना दें.. फिर देखते हैं, जिस कतर ने आशियाना दिया है वो कतर मकबूल को एक नया आशियाना ढूंढने का वक्त भी देता है या नहीं। (इस पोस्ट के लेखक कुंदन शशिराज एक हिंदी न्यूज चैनल में काम करते हैं)