गुरुवार, 25 फ़रवरी 2010

'फिदा' के जाने पर ये स्यापा क्यों?

-कुंदन शशिराज
मकबूल कतर जा रहे हैं। अब वहीं बसेंगे और वहीं से अपनी कूचियां चलाएंगे.. ये खबर सुनकर हिंदुस्तान में कुछ लोगों को बड़ा अफसोस हो रहा है। इस गम में वो आधे हुए जा रहे हैं कि कुछ अराजक तत्त्वों के चलते एक अच्छे कलाकार को हिंदुस्तान छोड़कर जाने के लिए मजबूर होना पड़ा। इस पूरे ड्रामे को देखकर उन तथाकथित सहिष्णु लोगों पर हंसी, हैरानी और गुस्सा आता है। 95 साल का एक बूढ़ा जो अब तक आम लोगों की भावनाओं को अपनी कला के जरिये ठेंगे पर दिखाने की कोशिश करता आया है, जब वो खुद अपनी मर्जी से, अपने क्षुद्र स्वार्थ के लिए हिंदुस्तान छोड़ कर जा रहा है तो फिर ऐसे लोगों का कलेजा भला क्यों फट रहा है..? क्यों.. क्योंकि उनके पास आधी-अधूरी जानकारी है। ऐसे लोगों को चाहिए कि वो इस पूरे ड्रामे को अपनी सहिष्णुता का झूठा चश्मा उतारकर ईमानदारी से देखें।

मकबूल कतर में बस रहे हैं क्योंकि वहां उन्हें शाही परिवार का चारण बनकर शाही परिवार के लिए पेंटिंग बनाने का काम मिल गया है और जाहिर तौर पर जिंदगी को विलासिता से जीने के लिए वो शाही परिवार इस कलाकार को बेशुमार पैसा दे रहा है। पैसा इस करोड़पति कलाकार की पुरानी कमजोरी रही है। ये तस्वीरें सिर्फ अमीरों के ड्राइंग रूम के लिए बनाते हैं। इनकी करोड़ों की पेंटिंग्स खरीदने वाले धनपशुओं के लिए समाज का मतलब उनकी पेज थ्री सोसायटी होती है और खाली वक्त में टीवी चैनलों पर बैठकर किसी को भी धर्मनिरपेक्ष और धर्मांध होने का सर्टिफिकेट बांटना उनका शौक होता है। सवाल ये है कि हुसैन ने कुछेक 'पेंटिंग' बनाने के अलावा इस देश के लिए क्या कुछ सार्थक किया है? क्या उन्होंने गरीब.. अनाथ बच्चों के लिए कोई एनजीओ खोला या क्या उन्होंने पेंटिंग के जरिये कमाई अपनी करोड़ों-अरबों की दौलत का एक छोटा सा हिस्सा भी इस देश के सैनिकों के लिए समर्पित किया? मकबूल ने जो कुछ भी किया सिर्फ अपने लिए किया।

तर्क देने वाले तर्क देते हैं कि एक कलाकार को कला की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। जरूर मिलनी चाहिए लेकिन इसका मतलब ये तो नहीं कि वो अपनी इस स्वतंत्रता का इस्तेमाल बार-बार दूसरों की सहनशक्ति का परीक्षण करने के लिए करें? कहते हैं अश्लील पेंटिंग्स का विरोध हुआ तो मकबूल व्यथित हो गए। सरकार ने सुरक्षा का भरोसा दिलाया, लेकिन मकबूल को भरोसा नहीं हुआ। दरअसल मकबूल को समझ में आ गया था कि सरकार पर भरोसा न करने से पब्लिसिटी कुछ ज्यादा ही मिल रही है। लोगों के बीच इमेज एक ऐसे 'निरीह प्रतिभावान' कलाकार की बन रही है, जो अतिवादियों का सताया हुआ है। ये तो वाकई कमाल है। दूसरों की भावनाएं आपके लिए कुत्सित कमाई का सामान हैं। उस पर अगर विरोध हो तो आप बौद्धिक बनकर उनके विरोध पर भी ऐतराज जताने लगें।

अगर आपका दिल इतना ही बड़ा था तो आप एक माफी का छोटा सा बयान जारी कर खुद के एक दरियादिल कलाकार होने का परिचय दे सकते थे? मामले को शांत कर सकते थे। लेकिन आपके लिए न तो हिंदुस्तान के भावुक लोग कोई अहमियत रखते हैं और न ही हिंदुस्तान की न्याय व्यवस्था का आपके लिए कोई मतलब है। अश्लील पेंटिंग का मामला कोर्ट में गया तो इस 'कलाकार' ने एक बार भी कोर्ट में हाजिर होना जरूरी नहीं समझा। कोर्ट ने इसे अवमानना के तौर पर लिया और फिर मकबूल के खिलाफ गैर जमानती वारंट जारी कर दिया, फिर भी मकबूल को अक्ल नहीं आई। आती भी कैसे? अक्ल न आने की कीमत पर ही तो इतनी सारी पब्लिसिटी और करोड़पतियों के ड्राइंग रूम में पेंटिंग रखे जाने का कीमती तोहफा मिल रहा था। कतर में बसने की खबर भी मकबूल ने ऐसे फैलाई है, जैसे वो इसके जरिये हिंदुस्तान के मुंह पर तमाचा रसीद करने की खवाहिश पूरी कर रहे हों।

दुबई में डेरा डाले हुसैन ने एक अंग्रेजी दैनिक को खुद अपनी तस्वीरें भेजी और कतर की नागरिकता मिलने की खबर दी। एक अखबार को खबर देने का मतलब ये था कि ये खबर पूरे देश में फैले। सरकार के तमाम आश्वासनों के बावजूद मकबूल के दिल में इस मुल्क में बसने की कोई ख्वाहिश नहीं है। अगर ये ख्वाहिश होती तो फिर इस देश में लौट आने के कई बहाने मकबूल के पास होने चाहिए थे। अगर बात विरोध की ही थी तो जितना विरोध 'माई नेम इज खान' का हुआ, उतना मकबूल का तो कतई नहीं हुआ था। 'खान' बढ़िया तरीके से रिलीज भी हुई और शाहरूख आज भी अपने मन्नत में उसी शान के साथ रह रहे हैं, जैसे पहले रहते थे।

दरअसल मकबूल में खुद को सताया हुआ कलाकार दिखाने का शौक कुछ ज्यादा ही था। इसके साथ ही मकबूल का 'कला' बाजार दुबई और कतर जैसे अरब मुल्कों में खूब बढ़िया चलने भी लगा था। तेल भंडारों से बेशुमार पैसा निकाल रहे शेखों के पास अपने हरम पर खर्च करने के अलावा मकबूल की पेंटिंग खरीदने के लिए भी खूब पैसा है। मकबूल को और चाहिए भी क्या? सवाल ये है कि कतर में मकबूल को अपना बाजार दिख रहा है या फिर मकबूल को वाकई कतर में किसी कमाल की धर्मनिरपेक्षता और सहिष्णुता की आस है? अगर ऐसा है तो फिर मां सरस्वती की तरह ही कतर में मकबूल बस एक बार अपने 'परवरदिगार' की एक 'पेंटिंग' बना दें.. फिर देखते हैं, जिस कतर ने आशियाना दिया है वो कतर मकबूल को एक नया आशियाना ढूंढने का वक्त भी देता है या नहीं। (इस पोस्ट के लेखक कुंदन शशिराज एक हिंदी न्यूज चैनल में काम करते हैं)

पत्रकार के कातिल डॉक्टर पर कानून का शिकंजा

इस कहानी के दो अहम किरदार हैं। एक हाईप्रोफाइल और रसूखदार है, जो इस कहानी का खलनायक है। दूसरा पीड़ित है और एक अदना सा पत्रकार है, जो अब इस दुनिया में नहीं है। कहानी राजधानी दिल्ली से सटे नोएडा के एक जाने माने डॉक्टर और एक छोटे से अखबार में काम करने वाले पत्रकार के बीच अदावत की है। तारीख 16 अगस्त, 2007 थी। सुबह के करीब नौ बज रहे थे। नोएडा के सेक्टर 71 में रहने वाले महेश वत्स शायद अखबार के काम से ही घर से निकले थे।

चश्मदीदों के मुताबिक पहले तो एक कार वाले ने उनके स्कूटर पर टक्कर मारी और फिर उस कार वाले समेत कई लोगों ने मिलकर लाठी और लोहे के रॉड से महेश वत्स पर कई वार किए। महेश के स्कूटर को टक्कर मारने वाले शख्स का नाम था डॉ. वीपी सिंह। डॉ. वीपी सिंह नोएडा के मशहूर अस्पताल के मालिक हैं। डॉक्टर साहब पर सिर्फ पत्रकार महेश वत्स के साथ मारपीट का ही इल्जाम नहीं है, बल्कि इल्जाम ये भी है कि वो मारपीट के बाद जख्मी हुए महेश वत्स को अपने दो गुर्गों की मदद से उठाकर अपने अस्पताल ले गए और अज्ञात जगह पर छिपा दिया। हालांकि इस घटना की खबर जब नोएडा पुलिस को मिली तो पुलिस ने प्रयाग अस्पताल पर छापा मारा और वहां से महेश वत्स की लाश को बरामद कर लिया।

उस वक्त पुलिस ने डॉ. वीपी सिंह के खिलाफ महेश वत्स के अपहरण का मामला दर्ज किया था। लेकिन डॉ. वीपी सिंह अपने रसूख और पहुंच की वजह से बचते रहे। इसके बावजूद महेश वत्स के परिवारवालों ने हार नहीं मानी। वो यह सोचकर कानून की लड़ाई लड़ते रहे कि एक न एक दिन उन्हें इंसाफ जरूर मिलेगा। अभी उनकी ये लड़ाई अंजाम तक तो नहीं पहुंची है लेकिन इंसाफ का आगाज जरूर हो चुका है। गौतम बुद्ध नगर की फास्ट ट्रैक कोर्ट ने डॉ. वीपी सिंह को महेश वत्स के खिलाफ साजिश रचने और अपहरण करके उनकी हत्या करने का दोषी पाया है। कोर्ट ने नोएडा पुलिस को आदेश दिया है कि वो धारा 302, 364 और 120बी के तहत डॉ. वीपी सिंह के खिलाफ मुकदमा दर्ज करे।

एक पत्रकार की हत्या के इस मामले में सबसे अहम बात ये है कि महेश वत्स के डॉ. वीपी सिंह से पारिवारिक रिश्ते थे। अब सवाल ये उठता है कि ऐसा क्या हुआ कि डॉ. वीपी सिंह उनकी जान के दुश्मन बन गए। मुमकिन है कि महेश वत्स को डॉ. वीपी सिंह का कोई ऐसा राज मालूम हो गया हो, जिसे वो फाश करने की तैयार कर रहे हों। ये भी हो सकता है कि दोनों के बीच किसी बात को लेकर सौदेबाजी चल रही हो और बात बनने की बजाय बिगड़ गई है। इसीलिए शायद डॉ. वीपी सिंह ने महेश वत्स को सबक सिखाने के लिए दूसरा तरीका निकाला और हमेशा के लिए अपने रास्ते से हटा दिया। हालांकि पत्रकार महेश वत्स की हत्या का सच क्या है। ये अभी भी पूरी तरह सामने नहीं आ पाया है।

इस सवाल का जवाब अब भी नहीं मिल पाया है कि आखिर ऐसी क्या वजह थी कि डॉ. वीपी सिंह ने पत्रकार महेश वत्स की हत्या कर दी? महज एक्सीडेंट की घटना या उसकी वजह से हुआ कोई विवाद कत्ल की वजह नहीं बन सकता। वो भी तब जब महेश वत्स से उनके पारिवारिक संबंध थे। यानी कत्ल की इस कहानी में कुछ न कुछ ऐसा जरूर है जो अभी सामने आना बाकी है। डॉ. वीपी सिंह के खिलाफ हत्या का मुकदमा दर्ज करने और मामले की जांच करते वक्त नोएडा पुलिस को इन सभी पहलुओं पर भी गौर करना होगा।

 
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