वह फिल्म सिटी का कुत्ता है
उसने देखा है
हर प्रोड्यूसर को
'प्रोड्यूसर' बनते हुये।
हर पत्रकार को
'जर्नलिस्ट' में बदलते हुये।
उसने देखा है
बाटा की घिसी चप्पलों से
'वुडलैंड' तक का सफर
उसने देखा है
फुटपाथ की टी शर्ट से
'पीटर इग्लैंड' तक का सफर
उसने देखा है
घिसे टायरों वाली हीरो होंडा को
'होंडा सीआरवी' में बदलते हुये।
वह हर चैनल के प्रोड्यूसर को
अच्छी तरह पहचानता है
तभी तो
एंकर और प्रोड्यूसर को देखते ही
पूंछ हिलाता है
उन पर भोंकने की गुस्ताखी नहीं करता
वह भोंकता है
बाहर से आने वालों पर
लेकिन...
इस बात का इत्मीनान करने के बाद
कि वो शख्स भविष्य का
एंकर या प्रोड्यूसर तो नहीं है
वह बाहरी कुत्तों पर भी भोंकता है
वो कुत्ते...
जो उसकी तरह साफ-सुथरे नहीं होते
किसी चैनल के प्रोड्यूसर की तरह
खाये-पिये और तंदुरुस्त नहीं होते
वह खुद भी 'प्रोड्यूसर' की तरह ही है
खाया-पिया, अघाया, मुटाया
इसलिये उसे
मरियल और बीमार कुत्ते
अपनी बिरादरी के नहीं लगते
वह जोर से भोंक कर
उन्हें फिल्म सिटी से खदेड़ देता है
और अगले ही पल
चाय की दुकान पर खड़े
प्रोड्यूसर और एंकर के सामने
पूंछ हिलाने लगता है
मानो कह रहा हो...
मैंने अपना काम कर दिया प्रोड्यूसर साहब !
अब आप अपना काम कीजिये
बटर टोस्ट का एक टुकड़ा
मेरी तरफ भी फेंक दिजिये।
चाय की दुकान पर आने वाला
हरेक प्रोड्यूसर, एंकर, रिपोर्टर
उस कुत्ते को अच्छी तरह पहचानता है
क्योंकि वह कुत्ता
उनके बारे में सब कुछ जानता है।
10 comments:
तुस्सी छा गये रवीन्दर जी, मुझे नहीं मालूम था कि मजाक में उठी एक छोटी सी बात का आप इतना खूबसूरत चित्र खींच देंगे। फिल्म सिटी के कुत्ते को प्रतीक के तौर पर इस्तेमाल कर आपने बड़ी ही कुशलता से सत्ता के चापलूसों की पूरी जमात का इतिहास और भूगोल सामने रख दिया है। लगे रहो...
सचमुच सर फिल्मसिटी के वो चेहरे और वो चाय की दुकानें मुझे भी याद आ गयीं जहां प्रोड्यूसर कुत्तों के दोस्त बन जाते हैं।
वाह, क्या अंदाज है..मजा आ गया.
Isko padhe ke baad Film City sare kutte aur sare boss apne aap ko is khance me phit baitha kar dekhne ki koshish kar rahe honge ki kis kis ke bare me ye likha hai. Waise ek baat hai Hum logon se aacha to Film city ka Kutta hi hai.
सुंदर रचना और सत्ता के दलालों के मुंह पर तमाचा।
क्या बात है साहेब...अच्छा चित्र खींचा है आपने..
आपकी रचनाएं बड़ी ही सहज और सटीक अभिव्यक्ति होती हैं मीडिया पर! बहुत खूब! लगता है कि लखनऊ में बैठे बैठे ही फिल्म सिटी पहुँच गये
shabdh ki c
"चाय की दुकान पर आने वाला
हरेक प्रोड्यूसर, एंकर, रिपोर्टर
उस कुत्ते को अच्छी तरह पहचानता है
क्योंकि वह कुत्ता
उनके बारे में सब कुछ जानता है।"
पाठक के ऊपर है कि
वह समझे ऊपर का
या असली.
जो समझे सतही तौर पर,
आनंद उसे भी आयगा,
लेकिन जो समझेगा इस
काव्य के मर्म को,
प्राप्त करेगा वह
दीर्घदृष्टि आनंद के
साथ !
-- शास्त्री जे सी फिलिप
हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है
http://www.Sarathi.info
वाह...वाह...!
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