बुधवार, 25 जून 2014

...जब 'अच्छे दिन' से मुलाकात हो गई


अचानक मेरी नजर सड़क के उस किनारे पर गई जहां सैकड़ों लोग जमा थे। शायद उन लोगों ने किसी को घेर रखा था। भीड़ से जोर-जोर की आवाजें भी आ रही थीं। सब एक साथ बोल रहे थे लिहाजा किसी एक की बात को समझ पाना मुश्किल था। अपने और उनके बीच की दूरी भी उनकी बातें समझने में बाधक बन रही थीं। देखते ही देखते भीड़ के कारण आसपास जाम लग गया। अब मेरे लिए भी वहां से निकलना तकरीबन नामुमकिन हो गया था। उत्सुकतावश मैं भी उस भीड़ की ओर बढ़ गया। यह देखने के लिए कि आखिर यहां हो क्या रहा है?

नजदीक पहुंचा तो देखा लोगों ने सूट-बूट, टाई और ब्रॉन्डेड कपड़ों से लैस एक नौजवान को चारों तरफ से घेर रखा है। ''कौन है यह? सब इसके पीछे क्यों पड़े हैं?" मैंने भीड़ की तरफ सवाल उछालते हुए जानने की कोशिश की। सवाल के जुबान से फूटने की देर थी कि सब लोगों ने मेरी तरफ घूरकर देखा।

मुझे अहसास हो चुका था कि उस नौजवान को न पहचानकर मैंने कोई बड़ा अपराध कर दिया है। जरूर वह कोई बड़ा आदमी होगा जिसे सब जानते हैं। उस भीड़ में मैं ही इकलौता ऐसा इंसान था जो उस नौजवान को नहीं जानता था।

'जानते नहीं ये भइया 'अच्छे दिन' हैं इसीलिए तो सब इन्हें अपने साथ ले जाना चाहते हैं।' भीड़ से एक बुजुर्ग ने समझाने वाले लहजे में मुझे बताया। कोई उसका हाथ पकड़कर अपनी तरफ खींच रहा था तो कोई उसके पैरों पर गिरा जा रहा है। मैंने देखा भीड़ में मौजूद 31 फीसदी लोग उसे अपनी तरफ खींच रहे हैं। उसे अपने साथ ले जाना चाहते हैं। कोई उससे साथ चलने की गुजारिश कर रहा है तो कोई खुद को किसी बड़े आदमी का दोस्त, रिश्तेदार या जान-पहचान वाला बताकर उस पर अपनी दावेदारी पेश कर रहा है। बाकी 69 प्रतिशत लोग खड़े तमाशा देख रहे हैं। मैं भी उन्हीं 69 फीसदी वालों में घुल-मिल गया।

मैं शर्म के मारे गड़ा जा रहा था,  यह सोचकर कि मैं 'अच्छे दिन' को नहीं पहचानता। ऐसे में भला मेरे दिन अच्छे कैसे बनेंगे। कोई गुंजाइश ही नहीं। 'अच्छे दिन' को पता चलेगा तो बहुत नाराज होगा। अपमानित महसूस करेगा। मेरे साथ तो भूलकर भी नहीं आ सकता। यह सोचकर मैं लौटने के लिए पलटा और 392 नंबर की डीटीसी बस में चढ़ गया।

शुक्र है सीट मिल गई। यह सोचकर मुझे ऐसा लग रहा था कि जैसे मेरे 'अच्छे दिन' आ गए हों। तभी ये देखकर मैं चौंक उठा कि 'अच्छे दिन' नाम का वो नौजवान मेरे बगल वाली सीट पर ही बैठा था। कुछ सकारात्मक जवाब की उम्मीद किए बिना ही मैंने उससे पूछ लिया- ''भाई अच्छे दिन, आप हमारे घर कब आएंगे?''

'आएंगे-आएंगे, आपके घर भी आएंगे, लेकिन अभी तो मैं जरा जल्दी में हूं। ये बस तो एयरपोर्ट की तरफ ही जाती है ना? मुझे थोड़ी देर में मुंबई की फ्लाइट पकड़नी है। एंटालिया में मेरी एक बहुत महत्वपूर्ण मीटिंग है।'

''एंटालिया में ?'' मैंने कन्फर्म करने के लिए पूछा। ''हां वहीं'', अच्छे दिन ने बहुत ही संक्षिप्त में जवाब दिया और खिड़की से बाहर की ओर झांकने लगा। शायद वह मुझे खास अहमियत नहीं देना चाहता था, इसीलिए इग्नोर कर रहा था। मेरी उससे कोई जान-पहचान भी तो नहीं थी। अब मैं समझ चुका था कि 'अच्छे दिन' साहब फिलहाल मेरे घर तो चलने से रहे। फिर भी मैंने बातचीत का सिलसिला आगे बढ़ाने की कोशिश की।

''आप उन लोगों के साथ क्यों नहीं गए? कितना प्यार करते हैं वो सब आपको। हर कोई आपको अपने साथ ले जाना चाहता है। और आप हैं कि आपको उनकी भावनाओं की कद्र ही नहीं।''

''नहीं ऐसी बात नहीं है। आजकल मैं जरा ज्यादा बिजी हो गया हूं। आम लोगों से मिलना-जुलना कम ही हो पाता है। वैसे भी इन लोगों को तो आदत है कि मुझे देखकर ही खुश और संतुष्ट हो लेते हैं। अब भी वैसे ही चलेगा। अब आप ही बताओ की मेरे लिए एंटालिया में होने वाली मीटिंग ज्यादा महत्वपूर्ण है या फिर ये भूखे-नंगे लोग? वैसे मैं बता दूं कि इन्ही लोगों के लिए तो मैं इतनी दौड़-भाग करता हूं। बड़े-बड़े लोगों के साथ मीटिंग करता हूं। सबकी जिंदगी में पॉजिटिव बदलाव लाने की कोशिश करता हूं।''

''भाई साहब, मुझे भी कोई टिप्स दीजिए, आजकल बड़ी आर्थिक तंगी चल रही है। वो पड़ोस वाला टिंकू तो कह रहा था कि जल्द ही सारी प्रॉब्लम खत्म हो जाएंगी। सबके अच्छे दिन शुरू हो जाएंगे। लेकिन ऐसा तो कुछ भी नहीं हुआ।''

''आपको पैसे की प्रॉब्लम है ना? तो आप लोन क्यों नहीं ले लेते? रिलायंस फाइनेंस में अच्छा ऑफर चल रहा है। मैं दिलवा दूंगा। एक पर्सेंट कम भी करवा दूंगा। मेरी अच्छी जान-पहचान है। आसान किस्तों में लौटा देना। सिंपल। सारी प्रॉब्लम खत्म। जैसे चाहो खर्च करो। ऐश करो। पिछले एक महीने से तो मैंने कई लोगों को पर्सनल लोन दिलवाया है। आप भी ले लीजिए।''

''अच्छा ये बताइये कि आपका नाम 'अच्छे दिन' किसने रखा? क्यों रखा?'' उसकी सलाह को अनसुना करते हुए मैंने लगातार  दो सवाल दाग दिए।

''ये लो, आपको इतना भी नहीं पता। मेरे नामकरण पर इतना लंबा चौड़ा प्रोग्राम हुआ था। देश भर से लोग बुलाए गए थे। तमाम शहरों में जा-जाकर न्योता दिया गया था और आप पूछ रहे हैं कि नाम किसने रखा? बीस हजार करोड़ रुपये खर्च किए गए थे मेरे नामकरण में, समझे।''

''जी समझ गया।" मैं निरुत्तर था। चुप हो गया। 'अच्छे दिन' भी खामोश ही बैठा रहा। इस खामोशी को भी मैंने ही तोड़ा। अच्छे दिन से उसका पता पूछकर। जवाब में उसने मुझे अपना विजिटिंग कार्ड पकड़ा दिया और मिलते हैं कभी कहकर अगले ही बस स्टॉप पर उतर गया। मैंने विजटिंग कार्ड देखा तो उसमें 7आरसीआर, नई दिल्ली का पता लिखा था। मैंने उसे संभालकर रख लिया, यह सोचकर कि कभी 'अच्छे दिन' से मिलने जरूर जाऊंगा।

 
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