शनिवार, 11 अक्तूबर 2008

कोफ्त

यह पोस्ट मुझे भेजी है मेरे दोस्त राजेश निरंजन ने। राजेश को मैं कई बरस से जानता हूं। वह सामाजिक मसलों को लेकर काफी संवेदनशील हैं। पेशे से पत्रकार हैं। लिहाजा व्यवस्थागत खामियों और तेजी से हो रहे समाजिक पतन को लेकर अक्सर उनकी कोफ्त सामने आ ही जाती है। एक पत्रकार होने के नाते ऐसा होना लाजिमी भी है। यहां ज्यादा महत्वपूर्ण वह दृश्य है जिसे राजेश निरंजन सबके सामने रखना चाहते हैं। आप भी पढ़ें और अपनी राय दें।

दोपहर के करीब 12 बजे का वक्त था। मैं दिल्ली मयूर विहार फेज-1 की लालबत्ती से गुजर रहा था। तभी मेरी नजर फुटपाथ पर खड़ी एक अर्धनग्न सांवली सलोनी युवती पर पड़ी। वह कुर्ते से अपने तन को ढकने की कोशिश कर रही थी। चेहरे पर बेबसी का आलम था। आसपास से गुजर रही थीं गाड़ियां और कानों से टकरा रही थीं कुछ हल्की-फुल्की टिप्पणियां।
वह दृश्य देख मैं कुछ विचलित-सा हुआ। मन में एकबारगी सोचा क्यों न इसे एक सलवार लाकर दे दूं। फिर दूसरा विचार उठा। चलो छोड़ो आफिस के लिए पहले ही लेट हो चुके हैं और फिर सलवार खरीदने पर पैसे खर्च होंगे सो अलग। फिर मोटरसाइकिल को अंदर की तरफ मोड़ दिया। लेकिन नजरों के सामने बार-बार उसी युवती का चेहरा घूमने लगा। तभी बाजार के सामने मोड़ पर मुझे कुछ बैनर गिरे हुए दिखे। मन में कुछ सोचा... कुछ ठिठका.. सोचा समाज क्या कहेगा, फिर मन की उलझन व शर्म को एक तरफ रख मोटरसाइकिल रोकी... मोटरसाइकिल से उतरा... इधर-उधर देखा फिर बैनर उठा कर चुपचाप मोटरसाइकिल उठाई और वापस नोएडा-अक्षरधाम रोड़ की तरफ मुड़ गया। उस युवती के पास पहुंचा तो देखा... वह फुटपाथ पर बैठकर कंकड़-पत्थर उठा- उठाकर सड़क पर फेंक रही है... मैंने चुपचाप कपड़े के बैनर उस युवती के पास फेंके और वापस मोटरसाइकिल घुमाई... देखा युवती ने बैनर उठाकर अपने सिर के ऊपर चुन्नी की तरह रखा हुआ था और सड़क को छोड़ अपने ऊपर कक्कड़-पत्थर डाल रही थी। मन में उसकी स्थिति को लेकर एक टीस लिए मैं अपने आफिस की तरफ बढ़ गया... फिर भी मन था बार-बार उसकी दुर्दशा की तरफ जा रहा था.. मन में बार-बार ये विचार उठ रहे थे... क्या मैंने उसकी आधी-अधूरी मदद करके ठीक किया।
आज तो वह जैसे-तैसे अपना तन ढक रही है... कल क्या होगा, जब ये कपड़े भी नहीं रहेंगे... क्या उन जैसे लोगों को कपड़े देने या साफ कहें तो कपड़े का बैनर पकड़ा देना समस्या का हल होगा... नहीं! क्या ऐसे लोगों के लिए स्थायी निवास, सुरक्षा व इलाज की जरूरत नहीं है... क्या आज हम लोग इतने स्वार्थी हो गए हैं कि ऐसे लोगों की मदद के लिए कुछ भी नहीं कर सकते.... क्या आज मुझमें और एक जानवर में कोई अंतर नहीं रह गया? जो केवल अपने बारे में ही सोचता है... । ऐसे ढेर सारे प्रश्न लेकर मैं अपने आफिस पहुंच गया। थोड़ी देर में ही काम में इतना व्यस्त हो गया कि सब कुछ भूल बैठा.. आज खुद मैं और वह सब लोग मुझे संवदेनहीन नजर आए जो उस युवती की दुर्दशा देख उसे भगवान भरोसे छोड़ आगे बढ़ गए। क्या यही समाज रह गया है हमारा...मुझे कोफ्त हो रही है इस समाज पर अपने आप पर।
-राजेश निरंजन

 
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