गुरुवार, 23 अगस्त 2007

कंपनी सार




दोस्तों, मेरे लिखे हुये को तो आप पिछले करीब तीन महीने से पढ़ (या शायद झेल) ही रहे हैं। आज मैं जो रचना आपके सामने प्रस्तुत करने जा रहा हूं वह हमारे इन मित्र ने पोस्ट की है। इनका नाम है विनय पाठक। यूं तो मैं भी खबरिया चैनल में ही काम करता हूं लेकिन अब मैं पत्रकार होने का दावा नहीं करता। लेकिन पाठक जी के बारे में मैं ताल ठोंककर कह सकता हूं कि यह जनाब टीवी पत्रकार हैं। हालांकि मेरा ऐसा कहना इन्हें पसंद आयेगा या नहीं मैं नहीं जानता। तो लीजिये पेश है इस तस्वीर में नजर आ रहे विनय पाठक की ताजातरीन रचना---



हे पार्थ,
तुम्हें इंक्रीमेंट नहीं मिला, बुरा हुआ
टीडीएस बढ़ने से सैलरी भी कट गई, और भी बुरा हुआ
अब काम बढ़ने से एक्स्ट्रा शिफ्ट भी होगी, ये तो और भी बुरी बात होगी।
इसलिए हे अर्जुन,
न तो तुम पिछला इंक्रीमेंट नहीं मिलने का पश्चाताप करो
और न ही अगला इंक्रीमेंट मिलने का इंतजार करो
बस अपनी सैलरी यानी जो भी थोड़ा कुछ मिल रहा है उसी से संतुष्ट रहो
इंक्रीमेंट नहीं भी आया तो तुम्हारे पॉकेट से क्या गया
और जब कुछ गया ही नहीं तो रोते क्यों हो।
हे कौन्तेय,
एक बात याद रखो
जब तुम नहीं थे कंपनी तब भी चल रही थी
और जब तुम नहीं रहोगे तब भी कंपनी चलती रहेगी
कंपनी को तुम्हारी जरूरत नहीं, कंपनी तुम्हारी जरूरत है
वैसे भी तुमने कौन सा ऐसा आइडिया दिया जो तुम्हारा अपना था
सब कुछ तो कट-कॉपी-पेस्ट का ही खेल था
इस बात को लेकर भी दुखी मत हो कि कट-कॉपी-पेस्ट वाले आइडिया का क्रेडिट भी तुम्हें नहीं मिला
सारा क्रेडिट अगर बॉस मार लेते हैं तो उन्हें मारने दो
क्रेडिट मारना तो बॉस का हक है और यही एक काम वो ईमानदारी के साथ करते हैं।
हे पांडु पुत्र,
इन बातों के साथ ही एक बात ये भी याद रखो
तुम कोई एक्सपीरियंस लेकर नहीं आए थे
जो एक्सपीरियंस मिला यहीं पर मिला
कोरी डिग्री लेकर आए थे एक्सपीरियंस लेकर जाओगे
मतलब अगर नौकरी छोड़ी तो यहां से कुछ लेकर ही जाओगे
ये बताओ कि कंपनी को क्या देकर जाओगे।
हे तीरंदाज द ग्रेट,
जो सिस्टम (कम्प्यूटर) आज तुम्हारा है
वो कल किसी और का था....
कल किसी और का होगा और परसों किसी और का
तुम इसे अपना समझ कर क्यों मगन हो रहे हो
कुछ भी तुम्हारा नहीं है, सब एक दिन छिन जाएगा
दरअसल, यही तुम्हारे टेंशन का कारण है।
इसलिए हे धनंजय,
क्यों व्यर्थ चिंता करते हो
किससे व्यर्थ डरते हो
कौन तुम्हें निकाल सकता है
ये नौकरी तुम्हारी थी ही कब, ये तो सिर्फ और सिर्फ बॉस की मर्जी है
और जब नौकरी तुम्हारी है ही नहीं तो तुम्हें कौन निकाल सकता है और कौन तुम्हें निकालेगा।
हे पांडव श्रेष्ठ,
ध्यान से एक बात को समझो
पॉलिसी चेंज तो कंपनी का एक रूल है
जिसे तुम पॉलिसी चेंज समझते हो, वो दरअसल कंपनी की एक ट्रिक है
एक ही पल में तुम सुपर स्टार और हीरो नंबर वन बन जाते हो
और दूसरे ही पल वर्स्ट परफॉर्मर और कूड़ा नंबर वन हो जाते हो।
इसलिए हे गांडीवधारी,
इंक्रीमेंट, इनसेन्टिव, एप्रेजल, प्रोमोशन, रिटायरमेंट वगैरह वगैरह को मन से निकाल दो
ये सब न तो तुम्हारे लिए है और न तुम इसके लिए हो
हां, जब तक बॉस खुश है तबतक काम करो या न करो, जॉब सिक्योर है
फिर टेंशन क्यो लेते हो
तुम खुद को कंपनी और बॉस के लिए अर्पित कर दो
यही सबसे बड़ा गोल्डेन रूल है
जो इस गोल्डेन रूल को जानता है
वो इंक्रीमेंट, इनसेन्टिव, एप्रेजल, प्रोमोशन, रिटायरमेंट वगैरह वगैरह के झंझट से
सदा के लिए मुक्त हो जाता है।
इसलिए हे धनुर्धर श्रेष्ठ,
चिन्ता छोड़ो और खुद को कंपनी के लिए होम कर दो
तभी जिन्दगी का सही आनन्द उठा सकोगे।


---विनय पाठक


4 comments:

Unknown ने कहा…

भाई र. रंजन जी
अव्वल तो मैं ये स्पष्ट कर दूं कि मैं महज एक पत्रकार हू। ये सच है कि आजकल कुछ क्षुद्र मानसिकता वाले तथाकथित पत्रकारों ने टीवी पत्रकार, प्रिंट का पत्रकार जैसी जातीय संज्ञाओं का सहारा लेकर पत्रकार बिरादरी के ही लोगों को अपमानित करने का काम शुरू कर दिया है। लेकिन मैं उन महान पत्रकारों की श्रेणी से खुद को अलग रखना चाहता हूं और साथ ही ये भी समझता हूं कि आप भी शायद मुझे अपमानित करना नहीं चाहते होंगे। इसलिए आपसे यही आग्रह करना चाहूंगा कि कृपया मुझे पत्रकार ही कहें, टीवी पत्रकार न कहें। अगर आज मैं टीवी पत्रकार हूं तो जब मैं वेबदुनिया डॉट कॉम में या नेटजाल डॉट कॉम था तब क्या मैं साइबर पत्रकार था या फिर उसके पहले जब मैं अखबार में काम करता था तो सिर्फ प्रिंट का पत्रकार था। मैं तब भी सिर्फ एक पत्रकार था और आज भी सिर्फ एक पत्रकार हूं। इस टिप्पणी के लिए जो शायद आपको पसंद न भी आए, मैं क्षमाप्रार्थी हूं।
भवदीय
विनय पाठक

Shastri JC Philip ने कहा…

विश्लेषण है गजब का,
लिखा गया है काव्य विधा में,
पाठक को देता है आनंद,
साथ में सोचने के लिये बहुत से
मर्म,
यदि सोचना उसकी आदत हो तो.

-- शास्त्री जे सी फिलिप

हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है
http://www.Sarathi.info

Jitendra Chaudhary ने कहा…

भाई साहब माफ़ी चाहूंगा, ये रचना किसकी है, ये तो शायद नही पता, लेकिन लगभग दो साल पहले मेरे को किसी ने इसे फारवर्ड किया था, इसे मैने अपने ब्लॉग पर पोस्ट भी किया था ये रहा लिंक

http://www.jitu.info/merapanna/?p=352

Unknown ने कहा…

जीतेंद्र जी, मेरा मानना है कि अगर हम किसी दूसरे की रचना अपने ब्लाग पर प्रस्तुत करते हैं तो सबसे पहला कर्तव्य होता है कि लेखक का नाम जरूर दिया जाये। अमिता श्रीवास्तव ने आपको यह रचना भेजते हुये यही गलती की। हो सकता है यह गलती अनजाने में हुई हो। शायद इसीलिये आपके मन में यह खयाल आया कि यह रचना किसकी है? मैं स्पष्ट करना चाहूंगा कि 'कंपनी सार' शीर्षक रचना विनय पाठक जी की ही है। इसे उन्होंने करीब दो साल पहले लिखा था। चूंकि मेरे ब्लाग को तकरीबन तीन महीने ही हुये हैं। इसलिये कुछ दिन पहले उन्होंने जब ये रचना मुझ भेजी तो मैंने ज्यादा पाठकों तक पहुंचाने के लिये इसे अपने ब्लाग पर उनकी तस्वीर सहित प्रस्तुत कर दिया।

 
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