शुक्रवार, 15 फ़रवरी 2008

तुम्हारा नाम क्या है? ...(4)

मुझे तुम्हारे किसी सवाल का जवाब नहीं देना।
चलो प्रिया। जल्दी करो। आज तो इस पागल ने सबके सामने हमारा तमाशा बना दिया। पता नहीं किस जनम की दुश्मनी निकाल रहा है। हाथ धोकर पीछे पड़ गया है।
नेहा इतने तेज कदमों से चलने की कोशिश कर रही थी कि उसके कदम भी उसका साथ नहीं दे पा रहे थे। प्रिया उसे रुकने की आवाज देकर उसके पीछे-पीछे भाग रही थी।
आसपास के लोगों की नजरें नेहा और प्रिया पर ही थीं। लोगों को भी मुफ्त में अच्छा-खासा तमाशा जो देखने को मिल गया था।
प्रिया ने एक बार पीछे मुड़कर देखा। वह लड़का अब भी वहीं पर खड़े होकर उन्हें घूरे जा रहा था।
अब शायद प्रिया को उससे कुछ सहानुभूति होने लगी थी।
मन ही मन प्रिया ने पिछली सारी बातें दोबारा याद करने की कोशिश कीं।...नाम ही तो पूछ रहा था बेचारा। कोई उल्टी-सीधी बात तो नहीं की। कहीं होटल या क्लब में ले जाने की बात तो कर नहीं रहा था। मम्मी-पापा से ही तो मिलवाना चाहता है। तो क्या शादी...? यानी उसकी इरादा नेक है। लेकिन वो नहीं जानता कि...
अचानक प्रिया ने अपनी सोच पर विराम लाग दिया। इसके बावजूद वह लगातार सब कुछ समझने की पूरी कोशिश कर रही थी।
वहीं नेहा के कदम अब भी रुकने का नाम नहीं ले रहे थे।
प्रिया ने उसे आवाज दी, नेहा ने पीछे मुड़कर देखा और उसके कदम रुक गये।
प्रिया भाग कर गई और उससे लिपट गई। अब चलो भी। नेहा ने फिर दोहराया। उसका मूड अब भी ठीक नहीं हुआ था।
क्या बेशर्मी है। रोज का तमाशा हो गया है। पीछा ही नहीं छोड़ रहा है। लगता है मुझे यह नौकरी ही छोड़नी पड़ेगी। नेहा ने निराशा भरे स्वर में कहा।
नौकरी क्यों छोड़ेगी। तेरे लिये दूसरी नौकरी रक्खी है क्या? फिर घूमना इस कंपनी से उस कंपनी, दूसरी नौकरी की तलाश में। घर में तो बैठेगी नहीं? इतना तो मैं भी जानती हूं।
तेज कदमों की आवाज के सिवा अब नेहा और प्रिया के बीच कुछ नहीं था।
दोनों खामोश थीं।
हास्टल नजदीक ही था कि नेहा ने खामोशी तोड़ी। छुट्टी ले लेती हूं एक हफ्ते की।
उससे क्या होगा?
अरे, दो-तीन दिन बाद वो भी अपना रास्ता बदल देगा।
हां, ऐसा हो सकता है। लेट्स ट्राई! प्रिया को नेहा का यह आइडिया जंच गया।
लेकिन मैं अकेले तो आफिस में बोर हो जाउंगी और रास्ते में भी।
वो मेरे पीछे पड़ जाएगा। तुम्हारे बारे में पूछने लगेगा। तब मैं अकेली क्या करूंगी?
हमममम...ऐसा कर तू भी छुट्टी कर ले। नेहा यूं बोली जैसे उसके दिमाग में कोई शानदार आइडिया आ गया हो। (जारी...)

सोमवार, 11 फ़रवरी 2008

तुम्हारा नाम क्या है?...(3)

अगला दिन और फिर वही डर। कहीं वह लड़का पीछे न पड़ जाए।
लगता है इस बस का इंतजार करने के सिवा उसके पास कोई काम-धाम ही नहीं है। नेहा ने प्रिया की राय जाननी चाही।
हां, बड़े बाप की बिगड़ैल औलाद लगता है। हां कर दे तेरी तो लाइफ बन जाएगी। प्रिया ने फिर चुहलबाजी की।
तू चुप रहेगी या दूं एक घुमा के। नेहा ने नकली गुस्सा दिखाते हुए कहा। क्योंकि यह बात कहते हुए उसके होठों पर भी हंसी तैर रही थी।
अभी तक बस नहीं आई...? लगता है आज जरूर लेट होंगे। कुछ देर चुप रहने के बाद नेहा ने आशंका जतायी।
इससे पहले कि प्रिया कुछ बोल पाती बस उनकी आंखों के सामने थी।
दोनों बिना एक पल गंवाए बस में सवार हो गईं।
लेकिन बस में दाखिल होते ही नेहा को जैसे सांप सूंघ गया। एक बार तो उसे लगा कि चलती बस से कूद जाए। वो चुपचाप आकर सीट पर बैठ गई। और प्रिया भी।
दरअसल वह लड़का आज पहले से ही बस में मौजूद था। नेहा को देखते ही वह उसके पास आकर खड़ा हो गया। नेहा लगातार खिड़की से बाहर की ओर देखे जा रही थी। उसका दिल तेजी से धड़क रहा था। एक बार तो उसे लगा कि वह आज उसे फटकार ही दे। लेकिन कुछ सोचकर वह चुप रह गई। नेहा चुप थी। प्रिया भी चुप थी। वह लड़का भी चुप था।
तभी खामोशी टूटी।
आज तुमने वो पिंक वाला सूट क्यों नहीं पहना? वह तुम पर बहुत फबता है। उस लड़के ने सवाल किया जिसमें उसकी राय भी शामिल थी।
नेहा मन ही मन बुदबुदाई। ये तो हद हो गई। वह आज अपना गुस्सा रोक नहीं पाई। सीट छोड़कर खड़ी हो गई।
तुम होते कौन हो, यह पूछने वाले कि मैंने ये क्यों नहीं पहना वो क्यों नहीं पहना। मेरी जो मर्जी मैं पहनूं। तुम यहां से जाते हो या....? प्रिया ने उसे बीच में ही रोक दिया। अरे यार, दिमाग खराब कर रखा है इतने दिनों से। कंटक्टर गाड़ी रुकवाओ। मैंने कहा न, गाड़ी रुकवाओ अभी। हमें यहीं उतरना है। नेहा की आवाज में गुस्सा था और रोष भी।
बस में शोर-शराबा देख ड्राइवर ने गाड़ी रोक दी। नेहा तुरंत नीचे उतरी। प्रिया भी उसके पीछे दौड़ी...और वो लड़का भी।
मेरी बात तो सुनो, मैं तुम्हें अपने मम्मी-पापा से मिलवाना चाहता हूं।
तुम एक बार उनसे मिल तो लो। प्लीज।
प्रिया ने उसकी बात को अनसुना कर दिया।
बस के यात्री अभी भी उनकी ओर ही ताक रहे थे। कोई हंस रहा था कोई चुपचाप देख रहा था तो कई लोग कमेंट करने से भी बाज नहीं आ रहे थे।
'भाभी को मना लेना' भाई, तभी किसी की आवाज आई।
बस चल पड़ी थी। नेहा का वश करता तो उस कमेंट करने वाले को नीचे खींचकर चप्पल से मारती। लेकिन गाड़ी जा चुकी थी।
बड़े बेशर्म हो तुम। मैंने कह दिया न मुझे तुमसे कोई लेना देना नहीं है। फिर क्यों मेरे पीछे पड़े हो। प्लीज, मुझे बख्श दो और मुझे अपने रास्ते जाने दो। तुम अपने रास्ते जाओ। नेहा ने खीझते हुए कहा।
मैं चला जाउंगा। लेकिन मेरे सवाल का जवाब तो दो। लड़के ने बड़े ही शांतिपूर्ण तरीके से सवाल किया। ((जारी...)

शुक्रवार, 8 फ़रवरी 2008

तुम्हारा नाम क्या है? (2)

नेहा और प्रिया दो साल से एक गर्ल्स हास्टल में साथ-साथ रह रही थीं। पहले प्रिया दूसरी जगह नौकरी करती थी। लेकिन आठ महीने पहले उसे भी नेहा के आफिस में नौकरी मिल गई। उस पब्लिकेशन हाउस में प्रिया के आने से नेहा को तो जैसे मन मांगी मुराद मिल गई। अब दोनों ही एक साथ आफिस के लिये निकलतीं। एक साथ लौटतीं। दोनों ने अपना वीकली आफ भी एक ही दिन करवा लिया था। शनिवार। सब कुछ तो अच्छा चल रहा था। पता नहीं वो लड़का कहां से पीछे पड़ गया।
कहीं लौटते वक्त भी न मिल जाए। आफिस से निकलते हुए नेहा ने अपनी आशंका प्रिया के सामने रखी।
अरे नहीं यार, क्यों इतना टेंशन लेती है। प्रिया ने उसकी आशंका को निर्मूल बताते हुए कहा।
और मिल भी जाएगा तो क्या हुआ। लगता है बहुत पसंद करता है तुझे। तेरे पर दिल आ गया है बेचारे का। वैसे दिखने में तो बड़ा स्मार्ट है। प्रिया ने चुहलबाजी की।
चुप हो जा। बकवास मत कर। चुपचाप चल। नहीं तो घंटा भर खड़े रहना पड़ेगा बस स्टाप पर।
हां-हां, चल तो रही हूं। उड़ने तो नहीं लग जाउंगी। प्रिया ने पलटकर जवाब दिया।
नेहा को प्रिया की चुहलबाजी बिल्कुल अच्छी नहीं लग रही थी। रह-रह कर नेहा के सामने उसी लड़के का चेहरा आ जाता था। कहीं फिर मिल गया तो सबके सामने तमाशा बना देगा। पता नहीं क्यों मेरे पीछे पड़ा हुआ है। स्साला..प्रिया को गुस्सा आ रहा था।
अरे, भई! जब मिलेगा तब देखा जाएगा। अभी से क्यों दिमाग खराब कर रही है। प्रिया ने उसे समझाने की कोशिश की। आफिस से बस स्टाप चंद कदम की दूरी पर ही था।
अब नेहा और प्रिया बस स्टाप पर थीं। चुपचाप। खामोश।
शुक्र है आज बस जल्दी आ गई। प्रिया ने खामोशी तोड़ी और बस की तरफ बढ़ने लगी।
बस रुकी। प्रिया और नेहा उस पर चढ़ गईं।
बस में ज्यादा भीड़ नहीं थी। दोनों को सीट भी मिल गई।
नेहा चुपचाप थी। प्रिया भी चुपचाप उसके चेहरे के हावभाव पढ़ने की कोशिश कर रही थी।
प्रिया बहुत देर तक चुप नहीं रह सकती थी। चुप्पी तो जैसे उसे खाने को दौड़ती थी।
क्या हुआ यार, ऐसे चुप रहेगी तो मैं बस से कूद जाउंगी। कुछ तो बोल। यह कहते हुए प्रिया खिलखिला कर हंस दी।
नेहा के होठों पर भी मुस्कान तैर गई।
यही तो खूबी थी प्रिया की। हमेशा मुस्कराना और सामने वाले को भी हंसने के लिये मजबूर कर देना।
देखो हमारा स्टॉप आने वाला है और अब तक वो नहीं आया। अब तो खुश? प्रिया फिर चुहलबाजी के मूड में थीं।
हां खुश। नेहा ने भी हंसकर जवाब दिया।
अब वो आएगा भी नहीं। आज तो बच गये। कल की कल देखी जाएगी। नेहा का मूड अच्छा होते देखकर प्रिया चहक उठी।
बस स्टाप आ गया। दोनों नीचे उतर लीं और पैदल ही अपने हास्टल की तरफ चल पड़ीं। (जारी...)

तुम्हारा नाम क्या है?

अभी तक बस नहीं आई। लगता है आज फिर बॉस की डांट खानी पड़ेगी। ये बस भी तो रोज लेट हो जाती है। मैंने तुमसे पहले ही कहा था जल्दी करो लेकिन तुम हो कि तुम्हें सजने-संवरने से ही फुर्सत नहीं मिलती। पता नहीं कौन बैठा है वहां तुम्हारी खूबसूरती पर मर-मिटने के लिए। वो बुड्ढा खूसट बॉस...। नेहा बोले जा रही थी और प्रिया चुपचाप सुनती जा रही थी। उसे मालूम था कि यह गुस्सा लेट होने का नहीं है। यह गुस्सा बॉस की डांट खाने का भी नहीं है। वह बचपन से जानती है नेहा को। तब से जब दोनों स्कूल में साथ पढ़ती थीं। अब दोनो साथ-साथ नौकरी भी कर रही थीं।
शुक्र है आज सीट तो मिल गई !
कहते हुए नेहा बस के दायीं वाली सीट पर बैठ गई और साथ ही बैठ गई प्रिया। नेहा की सबसे अजीज दोस्त।
यह रोज का किस्सा था। कभी बस लेट हो जाती तो कभी वो दोनों लेट हो जातीं।
दरअसल असली किस्सा तो उनके बस में सवार होने के बाद शुरू होता था। जब अगले ही स्टाप पर वह लड़का उसी बस में सवार होता था। करीब दो हफ्ते से उसने नेहा की नाक में दम कर रखा था। जब तक वह बस में चढ़ता बस पूरी तरह भर चुकी होती थी।
जिस सीट पर नेहा बैठी होती थी वो लड़का भी वहीं आकर खड़ा हो जाता। कई बार तो भीड़ के कारण नेहा और प्रिया को भी सीट नहीं मिल पाती तब तो उसे बर्दाश्त करना मुश्किल हो जाता था। वह जानबूझकर वहीं खड़ा होता जहां प्रिया खड़ी होती।
तभी नेहा को लगा शायद कोई सवाल उसके कान से टकराया। अभी वह इस हकीकत को समझने की कोशिश कर ही रही थी कि वो सवाल एक बार फिर उसके सामने था।
क्या नाम है आपका? उस लड़के ने नेहा से सवाल किया था। वो भी इस अंदाज में जैसे वह नेहा को बहुत पहले से जानता है।
नेहा आवाक रह गई। जान न पहचान बड़ा आया मेरा नाम जानने चला। वह मन ही मन बुदबुदाई।
मैंने पूछा क्या नाम है तुम्हारा? वह तो जैसे नेहा के पीछे ही पड़ गया।
कोई नाम नहीं है मेरा, तुमसे मतलब? नेहा ने चिढ़कर जवाब दिया।
देखो मुझे अपना नाम बताओ, मैं नाम पूछ रहा हूं न। उसने इस तरह सवाल दागा जैसे नेहा उसका जवाब देने के लिये मजबूर हो।
कहा ना, कोई नाम नहीं है मेरा।
तुम्हारे मां-बाप ने कोई तो नाम रखा होगा तुम्हारा?
नहीं कोई नाम नहीं रखा।
बस में किसी ने उसे कुछ नहीं कहा। किसी ने उसे रोकने की कोशिश भी नहीं की। सारे यात्री बुत की तरह बैठे रहे। कई लोगों को तो उसकी हरकतों आनंद का अनुभव हो रहा था। उनके चेहरे पर मुस्कुराहट तैर रही थी।
नेहा ने तो जैसे होठ सी लिये। उसकी आंखें अब भी नेहा को घूर रही थीं। लेकिन इसके आगे वह कुछ बोल पाता कि नेहा का स्टाप आ गया।
वह और प्रिया बस से उतर लीं। बस आगे बढ़ गई।
उफ्फ जान छूटी। किस पागल से पाला पड़ गया है। नेहा चिल्लाई।
प्रिया ने कोई प्रतिक्रिया नहीं जाहिर की। आखिर वो कहती भी क्या। वह भी इसी उधेड़बुन में लगी थी कि उससे कैसे छुटकारा पाया जाए। अगर रूट बदलना है तो नेहा को यह नौकरी भी बदलनी पड़ेगी। इतनी आसानी से तो मिलती नहीं नौकरी। यहां तो स्टाफ भी अच्छा है। सैलरी भी अच्छी है।
कुछ और सोचना पड़ेगा। प्रिया ने दिमाग पर जोर डाला। लेकिन कुछ न सोच पाने की झुंझलाहट उसके चेहरे पर साफ नजर आ रही थी।
नेहा भी खामोश थी। बोलती भी क्या?
दोनों आफिस पहुंच चुकी थीं।
शुक्र है अभी बॉस नहीं आया। आज तो बच गये। नेहा ने प्रिया की ओर देखते हुए कहा और जल्द से जल्द अपने कंप्यूटर को लॉग-इन करने में जुट गई। (क्रमश:)Submit

मंगलवार, 5 फ़रवरी 2008

अब भी जलाए बैठे हैं उम्मीद का चिराग (मेरी रेल यात्रा-3)

ट्रेन में भीड़भाड़ कम होने का नाम नहीं ले रही थी। अब तो मुझे उस खूबसूरत लड़की से ईर्ष्या होने लगी थी। वो इसलिए क्योंकि ट्रेन में इतनी भीड़-भाड़ होने के बावजूद उसे बर्थ में लेटने का सौभाग्य प्राप्त था। वैसे सोचता हूं कि मेरी यह ईर्ष्या इस बात की कम और इस बात की अधिक हो सकती है कि कहां तो वह मेरे बगल में बैठी थी और कहां उस बर्थ (या उसके चाचा !@$%^&*()_+) मुझे उससे दूर कर दिया। बुरा हो उस बर्थ का या फिर उसके...। सच कहूं तो मुझे गुस्सा आ रहा था उसके चाचा पर। महाशय अच्छे भले बर्थ पर सो रहे थे पता नहीं क्या सूझी कि नीचे तशरीफ ले आए और उस मोहतरमा को भेज दिया ऊपर। वैसे एक-दो बार मैंने बहाने से ऊपर देखा तो वह सोई नहीं थी, बल्कि लेटे हुए टुकुर-टुकुर ताक रही थी। यहां-वहां। इतनी भीड़ और शोरगुल में 'बेचारी' को नींद आ भी कैसे सकती थी? यह बात भला उसके चाचा को कौन समझाता? खैर, मुझे उससे बातचीत करना अच्छा लग रहा था। ऐसा स्वाभाविक भी है। लेकिन अब उससे बातचीत कर पाना मुमकिन नहीं था। खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे की तर्ज पर मैं मन ही मन उसके चाचा को कोसे जा रहा था। (और कर भी क्या सकता था?)
हालांकि ईर्ष्या तो मुझे उन लोगों से भी होने लगी थी जो फर्श पर इधर-उधर लुढ़के हुए नींद का आनंद ले रहे थे। और मैं यह सोचकर बैठे-बैठे ही रात बिता रहा था कि मैं भला यहां कैसे सो सकता हूं? वैसे अगर मैं वहां सोना चाहता भी तो यह मुमकिन नहीं था। वहां पैर रखने तक की जगह नहीं थी। एक तो उसके चाचा और दूसरे बीडी़ के धुयें ने मुझे काफी परेशान कर रखा था। अब धुयें के अलावा डिब्बे के वातावरण में बदबू भी महसूस होने लगी थी, जिसका भभका थोड़ी-थोड़ी देर में उठकर परेशान कर देता था।
बैठे-बैठे कमर दुखने लगी थी। पैर सुन्न हो रहे थे। क्योंकि पैर पसारने की जरा भी गुंजाइश नहीं थी। अब मेरी 'एकमात्र खुशी' भी छिन जाने से मैं मन ही मन उस घड़ी को कोस रहा था जब मैं उस ट्रेन में चढ़ा था। तभी कोई छोटा स्टेशन आ गया। गाड़ी रुक गई। बाहर से चाय-चाय की आवाजें आने लगीं। वेंडर खाने-पीने की चीजें लिये डिब्बे में घुसने की कोशिश करने लगे। हालांकि उन्हें इस कोशिश में कामयाबी नहीं मिली। लिहाजा वे बाहर खिड़कियों से ही यात्रियों को लुभाने की कोशिश करने लगे। चाय बेचने वालों ने तो यात्रियों को लुभाने में सफलता भी पा ली थी। खाने की तली-भुनी चीजें लिये भी कुछ वेंडर मुसाफिरों की भूख मिटाने का दावा कर रहे थे। उनका यह दावा कितना सही था इस बात का पता तो उन बासी से लगने वाले खाद्य पदार्थों को खाकर ही लगाया जा सकता था। मैं अब भी असमंजस में था कि चाय पी लूं या नहीं। मेरे बगल वाले सज्जन तो अब तक चाय की चुस्कियों में मशगूल हो चुके थे। मैंने उनसे पूछा, भाई साहब ! कैसी है चाय? इस पर उन्होंने चाय का यूं बखान किया कि जैसे चाय नहीं अमृत पी रह हों। शायद उन्हें लग रहा था कि चाय पीकर वह उस डिब्बे में बेहद अहम हो गये हैं।
रात के एक बज चुके थे। मेरी मंजिल भी करीब आ रही थी। अब मेरा ध्यान डिब्बे के अंदर की गतिविधियों की बजाय बाहर की ओर टिक गया था। वह खूबसूरत लड़की अब भी जाग रही थी। मैंने आखिरी बार उसकी ओर देखा। फिर दूसरे यात्रियों पर एक सरसरी नजर डाली। लोग अब भी ऊंघ रहे थे। जिन्हें जगह नसीब थी वो नींद के आगोश में समाये हुये थे। जो सोने की सुविधा मे महरूम थे वो अब भी बीड़ी जलाकर नींद से लड़ने का प्रयास कर रहे थे। अपनी मंजिल आने की खुशी में मेरे अंदर स्फूर्ति का संचार होने लगा था। मैं अपना सूटकेस संभाल रहा था तभी गाड़ी के पहिये चिंचियाकर थम गये। मरी मंजिल आ चुकी थी। मैं जल्दी से गेट की तरफ लपका और नीचे स्टेशन पर उतर गया। वहां उतरने वाले काफी थे। शायद उस स्टेशन के बाद डिब्बे में पर्याप्त जगह हो चुकी थी। लेकिन वह जगह मेरे किस काम की। मैं रिक्शे पर सवार हुआ और नानी के घर की तरफ चल पड़ा। उस दिन से आज तक मेरी नजरें उस लड़की को तलाश रही हैं। हमने अब तक उम्मीद का चिराग जलाए रखा है। अभी तक बैठे हैं कुंवारे। यकीन है एक दिन वो हमें जरूर मिल जाएगी। आप भी दुआ कीजिएगा। मेरे लिये। (समाप्त)

सोमवार, 4 फ़रवरी 2008

कुछ न कुछ तो जरूर होना है (मेरी रेल यात्रा-2)

रात के दस बज चले थे। मैं अभी भी अपनी नींद पर काबू करने में कामयाब था। हां तो.., यह जिक्र करना सबसे जरूरी है उस सफर में मेरे बगल में एक खूबसूरत लड़की भी बैठी थी। रात करीब साढ़े दस बजे तक मैं भी नींद के आगे विवश होने लगा था। मुझे याद है कि एक-दो बार मेरा सिर उस खूबसूरत लड़की के कांधे पर टिक गया और हर बार चौंक कर मेरी नींद उड़ गई। बहरहाल, थोड़ी देर बाद ही मैंने उससे काफी कुछ परिचय बना लिया था। बात-बात पता चला कि वह इंदौर की रहने वाली है। उसने बड़े फक्र से बताया कि वह इंटर साइंस की छात्रा है। (तब मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय से ग्रेजुएशन-Ist year कर रहा था) थोड़ी देर में पता यह भी चल गया कि उसके साथ उसके चाचा भी हैं, जो ऊपर बर्थ पर सो रहे हैं। उसने मुझे अपनी वह खास अंगूठी भी दिखाई जिसमें छोटी सी घड़ी भी लगी थी। मैंने उसकी अंगूठी की तारीफ की। उसे अच्छा लगा। वैस तारीफ झूठी नहीं थी। अब शायद मैं उसकी भी तारीफ करता लेकिन इसकी शुरुआत से पहले ही उसके चाचा जी नीचे आ गये और उस खूबसूरत लड़की को ऊपर बर्थ पर सोने के लिये भेज दिया। खैर...।
अब तक रात के 11 बज चुके थे। सभी लोग नींद के आगोश में समाने लगे थे। सामान रखने वाली पतली सी बर्थ पर लेटे हुये लोग भी अब सो चुके थे। इस बीच कई छोटे-मोटे स्टेशन गुजर चुके थे। लेकिन भीड़ में कोई कमी नहीं आई थी। उल्टा उसमें बढ़ोत्तरी ही होती रही। जिनके लिए अपनी जरा सी जगह पर सो पाना मुश्किल था या जिनकी ओर उनके बगल वाला कई बार इसलिये आंखें तरेर चुका था कि वे नींद के आलम में उस पर कई बार गिर चुके थे। वे मजबूरी ने बीड़ी सुलगाकर नींद भगाने का प्रयास कर रहे थे। कुछ तंबाकू खा-खिलाकर टाइम पास कर रहे थे और नजरें बचाकर इधर-उधर थूक दे रहे थे। डिब्बे में ही। हालांकि यह उनकी विवशता थी क्योंकि खिड़की के 'नजदीक' होने का सौभाग्य उन्हें प्राप्त नहीं था।
बीड़ी का धुआं और तंबाकू ठोकने की भस डिब्बे में भर चुकी थी। वैसे शायद किसी को उससे असुविधा नहीं हो रही थी। मुझे इस पर आश्चर्य था। बेहद। लेकिन मुमकिन है कि वो इस वातावरण के अभ्यस्त रहे होंगे। पीने वालों को या न पीने वालों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि रेलगाड़ी में धूम्रपान निषेध है। वैसे भी बुंदेलखंड की ट्रेनों में कोई नियम-कानून नहीं चलता। धूम्रपान निषेध तो बिल्कुल नहीं।
रात के 12 बजे होंगे। कहीं से डिब्बे में एक टीटी घुस आया। मुझे यह देखकर बेहद आश्चर्य हुआ कि वह टीटी किसी से टिकट नहीं मांग रहा था। कुछ लोग अपने आप ही टिकट निकालकर उसे दिखाने की कोशिश करते लेकिन वह बिना देखे ही उन्हें टिकट वापस रख लेने का इशारा करता और आगे बढ़ जाता। कुछ लोग उसे दस-बीस रुपये का नोट थमा रहे थे और वह चुपचाप उनकी 'भेंट' को स्वीकार कर आगे बढ़ता जा रहा था। बिना कुछ बोलो। बिना कोई प्रतिक्रिया किए। मुझे यह बात काफी परेशान कर रही थी, लेकिन बाकी लोगों को नहीं। शायद इसलिये कि वह इस बात के अभ्यस्त रहे होंगे। उनके लिये यह रोज की बात रही होगी। बाद में पता चला कि उन लोगों के पास टिकट नहीं था। पता यह भी चला कि इस ट्रेन में रोज ऐसा ही होता है। टिकट लेने की जरूरत नहीं, बस टीटी की जेब गर्म कर दो। सस्ते में निबट जाओगे। अपना भी फायदा। टीटी का भी फायदा। रेलवे जाए भाड़ में। वैसे भी रेल तो उन्हीं की संपत्ति है। बहरहाल, अब मुझे भी बार-बार झपकियां आने लगी थीं। (अगली कड़ी में जानिए मेरा उस खूबसूरत लड़की से ईर्ष्या का सबब)

शनिवार, 2 फ़रवरी 2008

सफर भी एक संघर्ष है भाई ! (मेरी रेल यात्रा-1)

बरस 1999.मौका था होली की छुट्टी का। शाम के पांच बजे थे। मैं इलाहाबाद के प्रयाग रेलवे स्टेशन पर बुंदेलखंड एक्सप्रेस का इंतजार कर रहा था। ट्रेन शायद पांच मिनट बाद ही आ गई थी। छुट्टी में घर जाने का हर व्यक्ति के दिल में एक अलग ही उत्साह होता है। फिर मैं तो अपनी नानी के यहां जा रहा था। लिहाजा मैं कुछ ज्यादा ही खुश और उत्साहित था। हालांकि यात्रायें सब एक जैसी ही होती हैं। लेकिन यह मेरे लिये कुछ विशेष थी इसलिये कि इसमें मुझे कुछ अनुभव (वैसे बहुत खास भी नहीं हैं) ऐसे हुये जो यादगार बन पड़े। नानी के घर जाने का कार्यक्रम जल्दी में बना था। इसलिये मुझे बिन रिजर्वेशन के ही जाना पड़ा। जाहिर सी बात है इतनी जल्दबाजी में रिजर्वेशन तो मिलने से रहा।
खैर, ट्रेन आ गई और मैं उस पर सवार हो लिया। डिब्बे में दाखिल होने के लिये काफी कवायद करनी पड़ी। जनरल बोगी थी। यात्री ठुंसे हुये थे। ज्यादातर बुंदेलखंडी। हालांकि ननिहाल में मेरे बचपन का अच्छा-खासा वक्त गुजरा। इस लिहाज से मैं भी खुद को बुंदेलखंडी कह सकता हूं। लेकिन पिता जी की सरकारी नौकरी के कारण मैं ज्यादातर अलग-अलग शहरों में रहा। इसलिये मुझे उन यात्रियों की भाषा भी कुछ अटपटी सी लग रही थी। जिसे समझने के लिये दिमाग पर जोर देना पड़ता था। बहरहाल मेरा सफर शुरू हो चुका था। चूंकि सामान्य बोगी थी इसलिये सीट मिलने का तो कोई सवाल ही नहीं पैदा होता था। यात्री, जिनमें ज्यादातर ग्रामीण थे, बोगी में अपने लिए जगह बनाने की कवायद में जुट गए थे। मैं अब भी संकोचवश ऐसे खड़ा था जैसे किसी गलत जगह आ गया हूं। मेरे हाथ में एक सूटकेस भी था, जिसे रखने की भी कहीं जगह नहीं थी। तभी एक व्यक्ति ने मेरी परेशानी भांप कर सामान इधर-उधर करवाकर मेरा सूटकेस रखवा दिया। मैंने मन ही मन उसका शुक्रिया अदा किया। एक व्याक्ति ने मुझे उसी सूटकेस में बैठने की सलाह दी। मैं बैठ गया। लेकिन आधा ध्यान इस ओर लगा था कि कहीं मेरा 'कीमती' सूटकेस टूट न जाये। भीड़ इतनी थी कि डिब्बे के गेट तक लोग ठुंसे हुये थे।
अब घड़ी शाम के छह बजा रही थी। लोग धीरे-धीरे अपने बैठने की जगह बना चुके थे। दोनों ओर की सीटों के बीच की खाली जगह ठसाठस भर चुकी थी। कुछ लोग जहां फर्श पर ही बैठकर संतुष्ट थे वहीं सीटों पर बैठे लोग खुद को किसी बादशाह से कम नहीं समझ रहे थे। वो इसलिये परेशान थे कि उन्हें पैर पसारने की जगह नहीं मिल रही थी। कुछ लड़के सामान रखने वाली पतली सी बर्थ पर लेटने की असफल कोशिश कर रहे थे। असफल इसलिये क्योंकि लेटने के बावजूद उनका सारा ध्यान इस ओर था कि कहीं गिर न जाएं और नीचे बैठे लोग पिच्चे हो जाएं।
अब तक मुझे सीट पर थोड़ी सी जगह मिल चुकी थी। लिहाजा मैं भी उन 'बादशाहों' की श्रेणी में आ गया था जिन्हें सीट पर बैठने का 'गौरव' या कहें सुख हासिल था। रात के नौ बजने को थे। लोगों ने बैठे-बैठे ऊंघना शुरू कर दिया था। कुछ लोग फर्श पर लुढ़के थे तो कुछ अपने बगल वालों के कंधे का सहारा लेकर नींद से लड़ रहे थे। सामान वाली पतली सी बर्थ पर लेटे हुये लोग अब भी टकटकी लगाकर ऊपर की बर्थ (जो वाकई सोने के लिए ही होती है) पर लेटे लोगों को हसरत भरी निगाहों से देख रहे थे। नींद उन्हें अभी भी नहीं आ रही थी या शायद गिरने का डर उन्हें सोने नहीं दे रहा था। नींद के सामने लोग कैसे लाचार हो जाते हैं, उसका प्रत्यक्ष प्रमाण देखने को मिल रहा था। (अगली कड़ी में जिक्र उस खूबसूरत लड़की का जो खुशकिस्मती से मेरी ही सीट पर और मेरे ही बगल में आसीन थी..)

 
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