मंच के साथ हिंदी कविता की दूरी यद्यपि छायावाद के जमाने से ही बढ़ने लगी थी लेकिन अभी बमुश्किल तीस वर्ष पहले तक मंचीय कविता को आज की तरह कविता की कोई भिन्न श्रेणी नहीं माना जाता था। आज भी शास्त्रीय रुचियों वाले कुछ कवि मंच पर प्रतिष्ठित हैं, लेकिन एक जाति एक जेनर के रूप में मंचीय कविता अब शास्त्रीय रुचि वाले लोगों के बीच कुजात घोषित हो चुकी है। इस विडंबना को लेकर और कुछ अन्य महत्वपूर्ण सवालों पर भी प्रस्तुत है मंचीय कविता के प्रतिष्ठित नाम शायर कुंवर 'बेचैन' के साथ कुछ अरसा पहले हुई रवीन्द्र रंजन की खास बातचीत के प्रमुख अंश-
कवि-सम्मेलनों और मुशायरों का जो स्तर पहले देखने को मिलता था वह इधर दिखाई नहीं दे रहा है। क्या आप को भी ऎसा लगता है कि मंचीय कविता का स्तर गिर रहा है?
-हां, यह सच है कि आज जो कविता मंच पर पढ़ी जा रही है, कलात्मक दृष्टि से उसका स्तर गिरा है। थोड़ा फूहड़पन भी आया है। कहा जाता है कि यह फूहड़पन हास्य कविता के जरिये ही आया है। हालांकि मैं इसे पूरी तौर पर सच नहीं मानता। मेरा मानना है कि रस कोई भी फूहड़ नहीं होता। उस रस में सुनाई जाने वाली कविता फूहड़ हो सकती है। लेकिन मंच पर अगर कुछ घटिया हो रहा है तो काफी कुछ अच्छा भी हो रहा है। दरअसल, हो यह रहा है कि जो लोग कभी कवि सम्मेलनों में नहीं जाते वे ही कवि सम्मेलनों की आलोचना कर रहे हैं। पूरी रचना सुने या पढ़े बगैर मात्र मीडिया से प्रसारित कुछ अंश सुनकर या पढ़कर ने निष्कर्ष निकाल रहे हैं। आज भी ऎसे कवि हैं जो मंच के माध्यम से एक बहुत बड़े वर्ग तक पहुंचकर विद्वेष मिटाने का काम कर रहे हैं। इसलिये आलोचकों को एकांगी नहीं होना चाहिये।
लेकिन यह तो एक आम बात है कि मंचों पर अब हल्के-फुल्के कवियों को ही ज्यादा कामयाबी मिल रही है। श्रोताओं की रुचि में इतना परिवर्तन आने की क्या वजह हो सकती है?
-जहां तक श्रोता का टेस्ट बदलने का सवाल है तो मैं कहूंगा कि आज का जो समाज है वह तीन चीजें लिये बैठा है-तनाव, आक्रोश और तेजी। गरीब से मिलकर अमीर, अनपढ़ से लेकर पढ़ा-लिखा तक, हर व्यक्ति आज किसी न किसी तनाव में जी रहा है। ऎसे में हास्य की अच्छी कविता हो या खराब या फिर चुटकुले ही क्यों न हों, उनके माध्यम से व्यक्ति तनाव से निकलना चाहता है। जैसे तनाव मुक्त करने वाली गोलियां-गोली कौन सी है इससे किसी को खास मतलब नहीं होता। उसे तनाव से मुक्ति मिल गई। वह कविता कैसी थी, तनाव मुक्त करने वाली गोली कौन सी थी इससे उसे कोई मतलब नहीं रहता। यह बात अलग रही कि घर जाने के बाद या कुछ दिनों बाद वह सोचे कि वह तो चुटकुला ही था।
दूसरी चीज है आक्रोश। आज हर आदमी एक आक्रोश लिये बैठा है। जब मंच से उसके आक्रोश की अभिव्यक्ति किसी कवि द्वारा व्यक्त होती है तो श्रोता को अच्छा लगता है। उसका स्तर क्या है यह बात उसके लिये बहुत ज्यादा मायने नहीं रखती। तीसरी चीज है तेजी अर्थात् गति। हर आदमी आज जल्दी में है। हमारे यहां कविता प्रतीकात्मक शैली में कहने का चलन रहा है। किंतु आज यदि हम ऎसा करते हैं तो हो सकता है कि कविता श्रोता की समझ में ही न आए। आज कविता का अर्थ श्रोता तक तपाक से पहुंचना चाहिये। यह तभी संभव है जब सीधी-सीधी बात कही जाए। सिर्फ अर्थ ही नहीं, सुनाने में भी गति चाहिये। क्योंकि आजकल हर व्यक्ति गाड़ी में ही दौड़ना चाहता है। जहां तक स्तर की बात है तो आज बहुत से मंचीय कवियों को स्तर की समझ नहीं है और न ही यह समझ श्रोताओं के पास है। हालांकि आज भी बहुत से कवि हैं जिन्होंने मंच पर भी स्तर कायम रखा है।
हिंदी कविता में गजल की स्थिति को लेकर आलोचकों में अभी भी मतभेद हैं। इसके बारे में आपकी क्या राय है?
-शुरू में उर्दू शायरों का भी कहना था कि हिंदी गजलकार गजल के मिज़ाज को जानते ही नहीं और अंट-शंट गजल कह रहे हैं। कुछ हद तक यह सच भी था। क्योंकि जब एक भाषा की विधा किसी दूसरी भाषा में प्रवेश करती है तो उसे एडजस्ट होने में कुछ समय तो लगता ही है। मेरा मानना है कि हिंदी गजल सबसे अधिक समन्वयकारी है। यह सबसे अधिक करीब लाने वाली, सांस्कृतिक एकता स्थापित करने वाली साबित हुई है। आज उर्दू शायर भी अपने गजल संग्रह देवनागरी में लिपि में छपवा रहे हैं। दुष्यंत ने जिस हिंदी गजल की शुरुआत की वह आज काफी फल-फूल रही है। हिंदी गजल ने अपने छोटे-छोटे पैरों से 30 साल की लंबी यात्रा तय कर ली है। इस दौरान हिंदी गजल ने बहुत से नए विषय दिये हैं, जिन्हें उर्दू वालों ने भी अपनाया। इसलिए हिंदी गजल का उदय हिंदी कविता और उर्दू कविता दोनों के ही लिये सुखद माना जा सकता है।
हिंदी गजल के इस समन्वयकारी प्रभाव के बारे में थोड़ा और विस्तार से बताएं।
-वैसे तो सारी विधाएं युग के अनुसार अपने स्वरूप में बदलाव लाती हैं। दोहों को भी नई भाषा, शिल्प, नए प्रतीकों के माध्यम से कहने का रिवाज चला है। उर्दु गजल ने भी अपने परंपरागत विषय हुस्न-इश्क को छोड़कर नए विषय अपनाए हैं। आधुनिक परिस्थितियों में व्यंग्यात्मक कविता भी बड़ी तेजी से उभरी है। ये प्रवृत्तियां उर्दू गजल में बहुत कम थीं, लेकिन जब से हिंदी कविता में दुष्यंत की गजलें सामने आईं तब से ये बदलाव देखने को मिले हैं। इमरजेंसी पीरियड में दुष्यंत ने जो गजलें कहीं उनसे व्यवस्था पर भारी चोट हुई। उनमें एक नयापन था जो उर्दू गजलों में कभी नहीं रहा। हिंदी के कवि भी इससे बहुत प्रभावित हुए। गीतकार, नवगीतकार भी हिंदी गजल की ओर उन्मुख हो गए।
इस समय यदि हिंदी कविताओं के संकलन उठाए जाएं तो उनमें 70 फीसदी संकलन गजलों के हैं। चाहे वे व्यक्तिगत संकलन हों या अलग-अलग कवियों के। हम कह सकते हैं कि हिंदी गजल आज तुकांत और लयबद्ध हिंदी कविता का पर्याय बन गई है। विधा कोई भी हो यदि वह लगातार एक सी बनी रहती है तो उसमें जड़ता आ ही जाती है। हिंदी कविता में गजल के प्रवेश ने उसकी इस जड़ता पर चोट की है। अज्ञेय जी जापान से हाइकू कविता लाए। त्रिलोचन जी ने सॉनेट लिखे। आज के उर्दू शायर दोहे लिख रहे हैं। हिंदी गजलों को इसी तरह की प्रयोगात्मक श्रेणी में लिया जाना चाहिए। यद्यपि उसका विस्तार आज अन्य किसी भी प्रयोग से ज्यादा हो गया है।
आपकी दृष्टि में वर्तमान उर्दू गजल किन परिवर्तनों से गुजर रही है? उसमें कौन से बुनियादी बदलाव आते दिखाई दे रहे हैं?
-आज उर्दू गजल के विषय भी वही हो गए हैं समकालीन हिंदी कविता के हैं। शायरी के परंपरागत विषयों को बरकरार रखते हुए भी शायरों ने आज की सोच, स्थिति, विद्रूपताओं को साफ-साफ कहना शुरू कर दिया है। जबकि शायरी में अपनी बात इशारों में कहने का चलन ज्यादा रहा है। हालांकि उर्दू शायरी मुख्य विषय आज भी मोहब्बत ही है। लेकिन आज शायर मोहब्बत पर भी जो कुछ कह रहे हैं, उसकी भाषा और विषय में समयानुसार स्पष्ट बदलाव देखा जा सकता है। बशीर बद्र, वसीम बरेलवी, निदा फाजली आदि की उर्दू भी हिंदी जैसी हो गई है। भाषा, बिंब, प्रतीक सभी में तेजी से परिवर्तन आया है। अब उर्दू के शायर भी मां, पिता, बहन, बेटी पर, नेताओं पर शेर कह रहे हैं। दूसरी तरफ रुबाइयों को उर्दू का कठिन छंद माना जाता है, लेकिन हिंदी में आज रुबाइयां लिखने का प्रचलन उर्दू से ज्यादा हो गया है। जहां तक खामियों का सवाल है, शायर का सीधा संबंध जब जनता से बनता है तो शास्त्रीयता वाला पक्ष कुछ कमजोर हो ही जाता है।
स्वतंत्रता के शुरुआती दशकों में नई कविता का दावा था कि आधुनिक विसंगतियों से भरे यथार्थ को वह ही सामने लाने में सक्षम है। उसके कवियों ने नवगीत की जबर्दस्त आलोचना भी की। लेकिन आज नवगीत के कुछ आलोचक भी नवगीत लिख रहे हैं, इसकी वजह क्या है?
-समालोचकों का कहना है कि नवगीत नई कविता के सामने आ खड़ा हुआ था। मेरा मानना है कि गीत एक सहज प्रक्रिया है। जैसे-जैसे व्यक्ति का परिवेश बदलता है, उसकी मानसिकता भी बदलती है। जैसे कस्बाई माहौल में आपसी प्रेम-भावना ज्यादा महत्वपूर्ण होती है। जबकि महानगर की स्थिति है...नयन गेह से निकले आंसू ऎसे डरे-डरे, भीड़ भरा चौराहा जैसे कोई पार करे...। मतलब यह की नवगीत की परंपरा सहज रूप में ही विकसित हुई। यह कहना कि कोई चीज सामने लाकर खड़ी कर दी गई, शायद उचित नहीं है। समय के अनुसार नए परिवर्तन आए तो कवियों ने उसे गीत में ढाला और एक सहज प्रक्रिया के तहत नवगीतों की परंपरा शुरू हुई। प्रारंभिक नवगीतकार जैसे राजेंद्र प्रसाद सिंह, शंभूनाथ सिंह, उमाकांत मालवीय, ओमप्रकाश आदि नवगीत में सहज रूप से ही आए। इन्हें नवगीत तो स्थापित करने का भी श्रेय जाता है।
गीत व नवगीत का भेद कहां तक उचित है? पुराने गीतकार तो नवगीत जैसे किसी शब्द को मान्यता देने को भी तैयार नहीं हैं। उनका कहना है कि गीत तो गीत होता है, फिर यह नवगीत क्या है?
-हां, कुछ लोग ऎसा कहते हैं। उनका कहना है कि इसका नाम नवगीत नहीं होना चाहिये। मैं भी इस बात का पक्षधर हूं क्योंकि गीत तो गीत होता है, लेकिन किसी बात को खास पहचान देने के लिए एक विशेषण लगाना होता है। जो पुराने गीत चले आ रहे थे, उनसे ये कुछ हटकर हैं। इनकी भाषा, शिल्प, तेवर कुछ अलग है। कुल मिलाकर इसमे कुछ नयापन सा दिखा, इसलिए इसको नवगीत कह दिया गया। जहां तक नई कविता का प्रश्न है, उम्र के साथ-साथ इसके विचार तत्व में वृद्ध हुई है। यह स्वाभाविक है। उम्र के साथ-साथ विचार बढ़ते ही हैं।
पिछले करीब तीन दशक से से आप अध्यापन से जुड़े हैं आजकल जो छात्र हिंदी अध्ययन-अध्यापन में आ रहे हैं, वे हिंदी साहित्य में कितनी रुचि ले रहे हैं? हिंदी साहित्य के प्रति उनका क्या नजरिया है?
-सच्ची बात कही जाए तो आजकल हिंदी में बचा-खुचा माल आता है। जिस महाविद्यालय में मैं पढ़ाता हूं वहां बहुत सारे विषय हैं। छात्रों के पास ऑप्शन हैं। जब कहीं एडमिशन नहीं होता तभी वे हिंदी में आते हैं। घर में पड़े-पड़े क्या करेंगे, इसी बहाने घर से बाहर निकलने को तो मिलेगा। क्लास जाएं या न जाएं क्या फर्क पड़ता है। आजकल कोई ही छात्र होगा जो हिंदी में रुचि के कारण आता हो, पहले ऎसी स्थिति नहीं थी। कविता या साहित्य से लगाव के कारण आज कोई हिंदी में नहीं आ रहा है। यह वास्तविकता है। इसका प्रमुख कारण पब्लिक स्कूलों की संस्कृति है। हालत तो ये है कि ये बच्चे 'पैंसठ' तक नहीं जानते। इन्हें तो 'सिक्सटी फाइव' ही मालूम है। हालांकि इन सबके बीच अगर कोई अच्छा छात्र आ जाता है तो वह आगे जाकर अपनी प्रतिभा सिद्ध करता है। लेकिन फिलहाल ऎसी प्रतिभाएं कम ही आ रही हैं।
फिल्मों के लिए लिखने के बारे में आप क्या सोचते हैं? क्या फिल्मों के लिये लिखते हुए भी स्तर बरकरार रखा जा सकता है?
-जहां तक फिल्मों के लिये लिखने का सवाल है तो वहां कहानी की मांग के अनुसार ही गीतकार को शब्द पिरोने होते हैं। अब अगर कहानी की मांग घोर श्रृंगारिक है तो यहां गीतकार को सावधानी बरतनी पड़ती है। इस मामले में गुलजार और निदा फाजली की प्रशंसा करनी होगी, जिन्होंने अपना स्तर बनाए रखा है। गुलजार की शायरी में नयापन है। निदा फाजली भी बहुत उम्दा शायर हैं। उनकी शायरी की जो नवैय्यत है उसी के लोग कायल हैं। दबाव में अगर कहीं थोड़ी बहुत नंगेपन की भी संभावना होती है तो अच्छा शायर उसमें पर्दा डाल देता है, जिससे उसमें फूहड़ता नहीं आने पाती। जहां पर्दे की जरूरत है वहां पर्दा रहना चाहिए। शायरी में अगर थोड़ा-बहुत पर्दा रहे तो यह अच्छी बात है।
शुक्रवार, 2 मई 2008
जहां पर्दे की जरूरत है, वहां पर्दा होना चाहिए : कुंवर 'बेचैन'
शुक्रवार, मई 02, 2008
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4 comments:
रवीन्द्र रंजन जी,
कुंवर बैचैन जी का साक्षात्कार व उनके विचारों से अवगत हो कर तो मन प्रसन्न हुआ ही आपके प्रश्न भी चुनिन्दा सटीक व सारगर्भित थे। बधाई स्वीकारें...
***राजीव रंजन प्रसाद
bahut hi achchha laga kunvar bechain ji ke sakshatkar ko padh kar.... hamse bantane ka shukriya
धन्यवाद और बधाई रवीन्द्र रंजन साहब
बहुत अच्छा लगा कुंवर बैचैन जी का साक्षात्कार. बहुत आभार आपका इसे पेश करने के लिए.
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