बुधवार, 24 दिसंबर 2008

गधे का गुस्सा

बचपन में एक अखबार में पढ़ी थी यह बाल कविता। कविता लंबी थी और अच्छी भी। लेखक का नाम तो नहीं याद लेकिन उसकी कुछ पंक्तियां मुझे अब भी याद हैं। आपस‌े यह स‌ुंदर कविता इसलिए बांट रहा हूं कि अगर किसी को लेखक का नाम पता हो तो जरूर बताएं स‌ाथ ही पूरी कविता मिल जाए तो और भी अच्छा। तो पढ़िये यह कविता।

एक गधा चुपचाप खड़ा था
एक पेड़ के नीचे
पड़ गए कुछ दुष्ट लड़के उसके पीछे
एक ने पकड़ा कान
दूसरे ने पीठ पर जोर जमाया
और तीसरे ने उस पर
कस कर डंडा बरसाया
आया गुस्सा गधे को
दी दुलत्ती झाड़
फौरन लड़के भागे
खाकर उसकी मार।

मंगलवार, 2 दिसंबर 2008

वह न्यूज चैनल का प्रोड्यूसर है

अचानक उसकी आवाज तेज हो जाती है। वह जोर-जोर स‌े चिल्लाने लगता है। अभी तक विजुअल क्यों नहीं आए। रिपोर्टर ने स्क्रिप्ट क्यों नहीं भेजी। कैसे खबर चलेगी। फिर अचानक वह अपनी कुर्सी स‌े उठकर इधर-उधर भागने लगता है।
यह देखते ही ऑफिस में स‌बको पता चल जाता है कि बॉस आ चुके हैं। जब भी बॉस न्यूज रूम में प्रवेश करते हैं कमोबेश ऎसा ही होता होता है। कभी कोई विजुअल नहीं चल पाता (?) कभी कोई पैकेज रुक जाता है। ऎसा लगता है जैसे स‌भी स‌मस्याओं का बॉस स‌े कोई नजदीकी रिश्ता है। लेकिन न्यूज रूम में स‌बको पता है कि ऎसा क्यों होता है। अगर चुपचाप काम होता रहेगा तो बॉस को पता कैसे चलेगा कि काम हो रहा है। इस‌ीलिए यह तरीका बड़ा कारगर है। बॉस को भी यही लगता है कि देखो बेचारा कितना टेंशन में है। कितना काम करता है। कितना बोझ उठाता है। प्रोड्यूसर न हुआ गधा हो गया। जब देखो तब पूरे चैनल का बोझ उठाए इधर स‌े उधर भागता रहता है। अगर वह न हो तो शायद चैनल ही बंद हो जाए। इसलिए न्यूज रूम में उसकी मौजूदगी बहुत अहम है। अगर वह न चिल्लाए तो शायद कोई खबर ही न चल पाए। अगर वह न चीखे तो शायद उस चैनल में कभी कोई खबर ही ब्रेक न हो। वाकई वह बहुत काम का आदमी है।

बॉस को देखते ही वह बहुत व्यस्त हो जाता है। कभी फोन पर चीखता है। कभी जूनियर्स पर चिल्लाता है। कभी स‌िस्टम पर गुस्सा उतारता है। वह न्यूज चैनल का प्रोड्यूसर है। एक्टिव इस कदर है कि कई बार तो उसके लिए पूरा फ्लोर छोटा पड़ जाता है। जब वह भागता है तो लगता है कोई आसमान गिरने वाला है। कुछ लोग उससे बहुत जलते हैं। कुछ इसलिए जलते हैं क्योंकि वह उसकी तरह नहीं भाग पाते। कुछ इसलिए जलते हैं क्योंकि मजबूरन उन्हें भी इधर-उधर भागने का नाटक करना पड़ता है। लेकिन भागना हमेशा फायदेमंद है। जो भागता है उसे एक्टिव प्रोड्यूसर माना जाता है। जो चिल्लाता है वह बॉस की नजरों में चढ़ जाता है। उसके नंबर बढ़ जाते हैं। जो चुपचाप की-बोर्ड पीटता रहता है या फिर कंप्यूटर पर आंख गड़ाए रहता है, उसे ढीले-ढाले प्रोड्यूसर के खिताब स‌े नवाजा जाता है।

वह स‌ब जानता है इसीलिए थोड़ी-थोड़ी देर में यहां-वहां भागता रहता है। इससे ऎसा लगता है कि चैनल भाग रहा है, दौड़ रहा है। न्यूजरूम में खामोशी स‌े ऎसा लगता है जैसे चैनल भी खामोश हो गया है। अचानक वह चीखता है और टीवी के स‌ामने खड़ा हो जाता है। अरे, यह देखो फलां चैनल में क्या चल रहा है। यह खबर हमारे पास क्यों नहीं आई? उसके बाद ऎसा माहौल बन जाता है कि जैसे उस खबर के बिना चैनल बंद हो जाएगा। फोन खड़खड़ाए जाने शुरू हो जाते हैं। एक आदमी इंटरनेट पर खबर को खंगालना शुरू कर देता है। तो कोई यू ट्यूब पर विजुअल के जुगाड़ में लग जाता है और कोई रिपोर्टर को गरियाने में। बाद में पता चलता है कि वह खबर तो हमारे यहां तीन दिन पहले ही चल चुकी है।

महेश अभी चैनल में नया-नया आया है। जब भी स्मार्ट प्रोड्यूसर इधर स‌े उधर भागता है तो वह हर बार बस यही स‌ोचता है कि आज तो आसमान गिर ही जाएगा। लेकिन उसे मायूसी ही हाथ लगती है। आसमान कभी नहीं गिरता। स्मार्ट प्रोड्यूसर आस‌मान को हर बार अपने हाथों स‌े थाम लेता है औऱ इस तरह हर बार एक मुश्किल टल जाती है। चैनल बच जाता है। चैनल उसी के दम पर तो चलता है। जिस दिन वह भागना औऱ चिल्लाना बंद कर देगा उसी दिन चैनल बंद हो जाएगा। इसलिए जरूरी है कि वह भागता रहे औऱ चैनल बदस्तूर चलता रहे। आमीन।

शनिवार, 11 अक्तूबर 2008

कोफ्त

यह पोस्ट मुझे भेजी है मेरे दोस्त राजेश निरंजन ने। राजेश को मैं कई बरस से जानता हूं। वह सामाजिक मसलों को लेकर काफी संवेदनशील हैं। पेशे से पत्रकार हैं। लिहाजा व्यवस्थागत खामियों और तेजी से हो रहे समाजिक पतन को लेकर अक्सर उनकी कोफ्त सामने आ ही जाती है। एक पत्रकार होने के नाते ऐसा होना लाजिमी भी है। यहां ज्यादा महत्वपूर्ण वह दृश्य है जिसे राजेश निरंजन सबके सामने रखना चाहते हैं। आप भी पढ़ें और अपनी राय दें।

दोपहर के करीब 12 बजे का वक्त था। मैं दिल्ली मयूर विहार फेज-1 की लालबत्ती से गुजर रहा था। तभी मेरी नजर फुटपाथ पर खड़ी एक अर्धनग्न सांवली सलोनी युवती पर पड़ी। वह कुर्ते से अपने तन को ढकने की कोशिश कर रही थी। चेहरे पर बेबसी का आलम था। आसपास से गुजर रही थीं गाड़ियां और कानों से टकरा रही थीं कुछ हल्की-फुल्की टिप्पणियां।
वह दृश्य देख मैं कुछ विचलित-सा हुआ। मन में एकबारगी सोचा क्यों न इसे एक सलवार लाकर दे दूं। फिर दूसरा विचार उठा। चलो छोड़ो आफिस के लिए पहले ही लेट हो चुके हैं और फिर सलवार खरीदने पर पैसे खर्च होंगे सो अलग। फिर मोटरसाइकिल को अंदर की तरफ मोड़ दिया। लेकिन नजरों के सामने बार-बार उसी युवती का चेहरा घूमने लगा। तभी बाजार के सामने मोड़ पर मुझे कुछ बैनर गिरे हुए दिखे। मन में कुछ सोचा... कुछ ठिठका.. सोचा समाज क्या कहेगा, फिर मन की उलझन व शर्म को एक तरफ रख मोटरसाइकिल रोकी... मोटरसाइकिल से उतरा... इधर-उधर देखा फिर बैनर उठा कर चुपचाप मोटरसाइकिल उठाई और वापस नोएडा-अक्षरधाम रोड़ की तरफ मुड़ गया। उस युवती के पास पहुंचा तो देखा... वह फुटपाथ पर बैठकर कंकड़-पत्थर उठा- उठाकर सड़क पर फेंक रही है... मैंने चुपचाप कपड़े के बैनर उस युवती के पास फेंके और वापस मोटरसाइकिल घुमाई... देखा युवती ने बैनर उठाकर अपने सिर के ऊपर चुन्नी की तरह रखा हुआ था और सड़क को छोड़ अपने ऊपर कक्कड़-पत्थर डाल रही थी। मन में उसकी स्थिति को लेकर एक टीस लिए मैं अपने आफिस की तरफ बढ़ गया... फिर भी मन था बार-बार उसकी दुर्दशा की तरफ जा रहा था.. मन में बार-बार ये विचार उठ रहे थे... क्या मैंने उसकी आधी-अधूरी मदद करके ठीक किया।
आज तो वह जैसे-तैसे अपना तन ढक रही है... कल क्या होगा, जब ये कपड़े भी नहीं रहेंगे... क्या उन जैसे लोगों को कपड़े देने या साफ कहें तो कपड़े का बैनर पकड़ा देना समस्या का हल होगा... नहीं! क्या ऐसे लोगों के लिए स्थायी निवास, सुरक्षा व इलाज की जरूरत नहीं है... क्या आज हम लोग इतने स्वार्थी हो गए हैं कि ऐसे लोगों की मदद के लिए कुछ भी नहीं कर सकते.... क्या आज मुझमें और एक जानवर में कोई अंतर नहीं रह गया? जो केवल अपने बारे में ही सोचता है... । ऐसे ढेर सारे प्रश्न लेकर मैं अपने आफिस पहुंच गया। थोड़ी देर में ही काम में इतना व्यस्त हो गया कि सब कुछ भूल बैठा.. आज खुद मैं और वह सब लोग मुझे संवदेनहीन नजर आए जो उस युवती की दुर्दशा देख उसे भगवान भरोसे छोड़ आगे बढ़ गए। क्या यही समाज रह गया है हमारा...मुझे कोफ्त हो रही है इस समाज पर अपने आप पर।
-राजेश निरंजन

रविवार, 21 सितंबर 2008

लिटरेचर इंडिया का लोकार्पण

मौका था सॉफ़्टवेयर फ्रीडम डे और हिंदी पखवाड़े का। इस मौके पर शनिवार को लिटरेचर इंडिया की हिन्दी वेब पत्रिका ( www.literatureindia.com/hindi/)का लोकार्पण हुआ। साहत्यिक एवं सांस्कृतिक पोर्टल लिटरेचर इंडिया दो भाषाओं में हैं अंग्रेजी और अब हिंदी। खास बात यह थी कि इस वेब पत्रिका का लोकार्पण पूरी तरह से इंटरनेट पर हुआ। यह पहला ऐसा कार्यक्रम था जिसके तहत किसी पोर्टल का लोकार्पण पूरी तरह ऑनलाइन हुआ। वेब पत्रिका का लोकार्पण शनिवार शाम irc.freenode.net सर्वर पर स‌राय सभागार में हुआ। सराय दिल्ली की मशहूर संस्था सराय (www.sarai.net) का आईआरसी फ्रीनोड पर पंजीकृत चैट रुम है। कवि, पत्रकार एवं अऩुवादक नीलाभ ने इस पोर्टल का लोकार्पण किया। इतिहासकार एवं लेखक रविकांत ने इस अवसर पर पत्रिका के कांसेप्ट को स‌ामने रखा। आईआरसी पर हुए इस कार्यक्रम में कई जाने-माने लोगों ने शिरकत की। संचालन व्यंग्यकार एवं तकनीकी अनुवादक रवि रतलामी ने किया। 

इस मौके नीलाभ ने खासतौर पर तकनीक एवं भाषा के अंतर्विरोधों को रेखांकित किया। नीलाभ ने कहा कि तकनीक के धुरंधर जहां भाषाई ज्ञान से अछूते हैं, वहीं हिन्दी के बुद्धिजीवी तकनीक से दूर भागते नजर आते हैं। उन्होंने आगे कहा कि अंग्रेजीदां लोगों को हिन्दी की उन दिक्कतों से रू-ब-रू होना होगा जो तकनीक को लेकर पैदा होती हैं। उदाहरण के तौर पर हँसना हंस से अलग है और हमें मानकीकरण की इन दिक्कतों से लड़ने की जरूरत है। नीलाभ का कहना था कि महज एक ऐतिहासिक संयोग की वजह से हम अंग्रेजी में काम करते हैं। हिन्दी किसी से पीछे नहीं है। हमें खुद ताकत हासिल करनी होगी।
रविकांत ने कहा कि इस पोर्टल का द्विभाषी होना अपने आप में खास बात है। अंग्रेजी में हिन्दी भाषी लोग कम लिखते हैं और अगर यह पोर्टल वह सेतु बन सके जो दोनों भाषाओं के बीच संवाद को बढ़ा सके तो काफी बेहतर होगा। जहां लोग हिन्दी की दुनिया की खबरों से वाकिफ हो सकें। उन्होंने आगे कहा कि अंग्रेजी में हिन्दी साहित्यकारों के नाम से सर्च करें तो आप काफी कम हासिल कर पाएंगे। हमें उम्मीद है कि यह पोर्टल इस कमी को पूरा कर पाएगी।
स्वागत वक्तव्य में लिटरेचर इंडिया की संपादिक संगीता ने कहा कि अभी पितृ-पक्ष चल रहा है, लिहाजा हम अपने साहित्य पित्तरों को लिटरेचर इंडिया तर्पण करते हैं। आखिर में शैलेश एवं अभिव्यक्ति व अनुभूति जैसी सफल वेब पत्रिका हिन्दी में चलाने वाली पूर्णिमा ने कविता पाठ किया। इस बीच प्रश्नोत्तर का भी दौर चला। इसमें सार्वजनिक रूप से कंटेंट निर्माण की ओर आगे बढ़ने की बात की गई। चैट पर यह कार्यक्रम करीब पौने दो घंटे चलता रहा। इस कार्यक्रम में करूणाकर, पूर्णिमा, गोरा, देवाशीष, मसिजीवी, संजय बेगाणी, सदन, शैलेश, उमेश चतुर्वेदी, राकेश, जितेन, अमनप्रीत, राजेश सहित कई लोग शामिल हुए।

सोमवार, 25 अगस्त 2008

अफसोस बंटी, तुम नहीं रहे












अफसोस बंटी
तुम नहीं रहे
आखिरकार
दिल्ली पुलिस ने
तुम्हारी जान ले ही ली
पता नहीं कैसे
इस बार
कामयाब हो गई पुलिस
वर्ना हर बार तो
तुम ही जीतते थे बाजी

अफसोस बंटी
तुम नहीं रहे
अब टीवी चैनलों का क्या होगा?
वो किसे बताएंगे
बाइकर्स गैंग का सरगना
सड़क पर हुई
हर वारदात के लिए
किसे ठहराएंगे जिम्मेदार
हर राह चलते लुटेरो को
अब कैसे बताएंगे
बंटी गैंग का गुर्गा?
कैसे कहेंगे
जवाब दो दिल्ली पुलिस?

अफसोस बंटी
तुम नहीं रहे
गोली तो तुमने भी चलाई थी?
फिर कोई पुलिसवाले पर क्यों नहीं लगी
तुम्हारा निशाना तो बहुत सटीक है
फिर कैसे चूक गए तुम
कैसे हार गए तुम
अब टीवी चैनल वाले
किसके नाम पर फैलाएंगे दहशत
कैसे बताएंगे कि
रहने लायक नहीं रही दिल्ली
कैसे कहेंगे
दिल्ली में बढ़ रहे हैं अपराध
कैसे कहेंगे
घर से बाहर मत निकलिए
वर्ना लुट जाएंगे

अफसोस बंटी
तुम नहीं रहे
हमेशा याद आओगे तुम
खासतौर पर
चैनल वाले तो
तुम्हें भूल नहीं पाएंगे
जब भी कोई झपटमार पकड़ जाएगा
जब भी कोई लुटेरा धरा जाएगा
तो टीवी चैनल वालों को
खलेगी तुम्हारी कमी
वो बस यही बोलेंगे
काश! बंटी तुम होते
तो हम फौरन ये कह देते
खत्म नहीं हो रहा बंटी का खौफ
हाथ पर हाथ धरे बैठी है
दिल्ली पुलिस
कौन बचाएगा दिल्ली को

लेकिन...
अब ऐसा नहीं होगा
अब चैनलों पर नहीं गूंजेगे
तुम्हारी बादशाहत के किस्से
अब नहीं होगी
तुम्हारे खौफ की बात
अफसोस बंटी
तुम नहीं रहे

सचमुच बहुत याद आओगे बंटी...

मंगलवार, 10 जून 2008

तुम्हारा नाम क्या है?

अभी तक बस नहीं आई। लगता है आज फिर बॉस की डांट खानी पड़ेगी। ये बस भी तो रोज लेट हो जाती है। मैंने तुमसे पहले ही कहा था जल्दी करो लेकिन तुम हो कि तुम्हें सजने-संवरने से ही फुर्सत नहीं मिलती। पता नहीं कौन बैठा है वहां तुम्हारी खूबसूरती पर मर-मिटने के लिए। वो बुड्ढा खूसट बॉस...। नेहा बोले जा रही थी और प्रिया चुपचाप सुनती जा रही थी। उसे मालूम था कि यह गुस्सा लेट होने का नहीं है। यह गुस्सा बॉस की डांट खाने का भी नहीं है। वह बचपन से जानती है नेहा को। तब से जब दोनों स्कूल में साथ पढ़ती थीं। अब दोनो साथ-साथ नौकरी भी कर रही थीं।
शुक्र है आज सीट तो मिल गई !
कहते हुए नेहा बस के दायीं वाली सीट पर बैठ गई और साथ ही बैठ गई प्रिया। नेहा की सबसे अजीज दोस्त।
यह रोज का किस्सा था। कभी बस लेट हो जाती तो कभी वो दोनों लेट हो जातीं।
दरअसल असली किस्सा तो उनके बस में सवार होने के बाद शुरू होता था। जब अगले ही स्टाप पर वह लड़का उसी बस में सवार होता था। करीब दो हफ्ते से उसने नेहा की नाक में दम कर रखा था। जब तक वह बस में चढ़ता बस पूरी तरह भर चुकी होती थी।
जिस सीट पर नेहा बैठी होती थी वो लड़का भी वहीं आकर खड़ा हो जाता। कई बार तो भीड़ के कारण नेहा और प्रिया को भी सीट नहीं मिल पाती तब तो उसे बर्दाश्त करना मुश्किल हो जाता था। वह जानबूझकर वहीं खड़ा होता जहां प्रिया खड़ी होती।
तभी नेहा को लगा शायद कोई सवाल उसके कान से टकराया। अभी वह इस हकीकत को समझने की कोशिश कर ही रही थी कि वो सवाल एक बार फिर उसके सामने था।
क्या नाम है आपका? उस लड़के ने नेहा से सवाल किया था। वो भी इस अंदाज में जैसे वह नेहा को बहुत पहले से जानता है।
नेहा आवाक रह गई। जान न पहचान बड़ा आया मेरा नाम जानने चला। वह मन ही मन बुदबुदाई।
मैंने पूछा क्या नाम है तुम्हारा? वह तो जैसे नेहा के पीछे ही पड़ गया।
कोई नाम नहीं है मेरा, तुमसे मतलब? नेहा ने चिढ़कर जवाब दिया।
देखो मुझे अपना नाम बताओ, मैं नाम पूछ रहा हूं न। उसने इस तरह सवाल दागा जैसे नेहा उसका जवाब देने के लिये मजबूर हो।
कहा ना, कोई नाम नहीं है मेरा।
तुम्हारे मां-बाप ने कोई तो नाम रखा होगा तुम्हारा?
नहीं कोई नाम नहीं रखा।
बस में किसी ने उसे कुछ नहीं कहा। किसी ने उसे रोकने की कोशिश भी नहीं की। सारे यात्री बुत की तरह बैठे रहे। कई लोगों को तो उसकी हरकतों आनंद का अनुभव हो रहा था। उनके चेहरे पर मुस्कुराहट तैर रही थी।
नेहा ने तो जैसे होठ सी लिये। उसकी आंखें अब भी नेहा को घूर रही थीं। लेकिन इसके आगे वह कुछ बोल पाता कि नेहा का स्टाप आ गया।
वह और प्रिया बस से उतर लीं। बस आगे बढ़ गई।
उफ्फ जान छूटी। किस पागल से पाला पड़ गया है। नेहा चिल्लाई।
प्रिया ने कोई प्रतिक्रिया नहीं जाहिर की। आखिर वो कहती भी क्या। वह भी इसी उधेड़बुन में लगी थी कि उससे कैसे छुटकारा पाया जाए। अगर रूट बदलना है तो नेहा को यह नौकरी भी बदलनी पड़ेगी। इतनी आसानी से तो मिलती नहीं नौकरी। यहां तो स्टाफ भी अच्छा है। सैलरी भी अच्छी है।
कुछ और सोचना पड़ेगा। प्रिया ने दिमाग पर जोर डाला। लेकिन कुछ न सोच पाने की झुंझलाहट उसके चेहरे पर साफ नजर आ रही थी।
नेहा भी खामोश थी। बोलती भी क्या?
दोनों आफिस पहुंच चुकी थीं।
शुक्र है अभी बॉस नहीं आया। आज तो बच गये। नेहा ने प्रिया की ओर देखते हुए कहा और जल्द से जल्द अपने कंप्यूटर को लॉग-इन करने में जुट गई।
नेहा और प्रिया दो साल से एक गर्ल्स हास्टल में साथ-साथ रह रही थीं। पहले प्रिया दूसरी जगह नौकरी करती थी। लेकिन आठ महीने पहले उसे भी नेहा के आफिस में नौकरी मिल गई। उस पब्लिकेशन हाउस में प्रिया के आने से नेहा को तो जैसे मन मांगी मुराद मिल गई। अब दोनों ही एक साथ आफिस के लिये निकलतीं। एक साथ लौटतीं। दोनों ने अपना वीकली आफ भी एक ही दिन करवा लिया था। शनिवार। सब कुछ तो अच्छा चल रहा था। पता नहीं वो लड़का कहां से पीछे पड़ गया।
कहीं लौटते वक्त भी न मिल जाए। आफिस से निकलते हुए नेहा ने अपनी आशंका प्रिया के सामने रखी।
अरे नहीं यार, क्यों इतना टेंशन लेती है। प्रिया ने उसकी आशंका को निर्मूल बताते हुए कहा।
और मिल भी जाएगा तो क्या हुआ। लगता है बहुत पसंद करता है तुझे। तेरे पर दिल आ गया है बेचारे का। वैसे दिखने में तो बड़ा स्मार्ट है। प्रिया ने चुहलबाजी की।
चुप हो जा। बकवास मत कर। चुपचाप चल। नहीं तो घंटा भर खड़े रहना पड़ेगा बस स्टाप पर।
हां-हां, चल तो रही हूं। उड़ने तो नहीं लग जाउंगी। प्रिया ने पलटकर जवाब दिया।
नेहा को प्रिया की चुहलबाजी बिल्कुल अच्छी नहीं लग रही थी। रह-रह कर नेहा के सामने उसी लड़के का चेहरा आ जाता था। कहीं फिर मिल गया तो सबके सामने तमाशा बना देगा। पता नहीं क्यों मेरे पीछे पड़ा हुआ है। स्साला..प्रिया को गुस्सा आ रहा था।
अरे, भई! जब मिलेगा तब देखा जाएगा। अभी से क्यों दिमाग खराब कर रही है। प्रिया ने उसे समझाने की कोशिश की। आफिस से बस स्टाप चंद कदम की दूरी पर ही था।
अब नेहा और प्रिया बस स्टाप पर थीं। चुपचाप। खामोश।
शुक्र है आज बस जल्दी आ गई। प्रिया ने खामोशी तोड़ी और बस की तरफ बढ़ने लगी।
बस रुकी। प्रिया और नेहा उस पर चढ़ गईं।
बस में ज्यादा भीड़ नहीं थी। दोनों को सीट भी मिल गई।
नेहा चुपचाप थी। प्रिया भी चुपचाप उसके चेहरे के हावभाव पढ़ने की कोशिश कर रही थी।
प्रिया बहुत देर तक चुप नहीं रह सकती थी। चुप्पी तो जैसे उसे खाने को दौड़ती थी।
क्या हुआ यार, ऐसे चुप रहेगी तो मैं बस से कूद जाउंगी। कुछ तो बोल। यह कहते हुए प्रिया खिलखिला कर हंस दी।
नेहा के होठों पर भी मुस्कान तैर गई।
यही तो खूबी थी प्रिया की। हमेशा मुस्कराना और सामने वाले को भी हंसने के लिये मजबूर कर देना।
देखो हमारा स्टॉप आने वाला है और अब तक वो नहीं आया। अब तो खुश? प्रिया फिर चुहलबाजी के मूड में थीं।
हां खुश। नेहा ने भी हंसकर जवाब दिया।
अब वो आएगा भी नहीं। आज तो बच गये। कल की कल देखी जाएगी। नेहा का मूड अच्छा होते देखकर प्रिया चहक उठी।
बस स्टाप आ गया। दोनों नीचे उतर लीं और पैदल ही अपने हास्टल की तरफ चल पड़ीं।
अगला दिन और फिर वही डर। कहीं वह लड़का पीछे न पड़ जाए।
लगता है इस बस का इंतजार करने के सिवा उसके पास कोई काम-धाम ही नहीं है। नेहा ने प्रिया की राय जाननी चाही।
हां, बड़े बाप की बिगड़ैल औलाद लगता है। हां कर दे तेरी तो लाइफ बन जाएगी। प्रिया ने फिर चुहलबाजी की।
तू चुप रहेगी या दूं एक घुमा के। नेहा ने नकली गुस्सा दिखाते हुए कहा। क्योंकि यह बात कहते हुए उसके होठों पर भी हंसी तैर रही थी।
अभी तक बस नहीं आई...? लगता है आज जरूर लेट होंगे। कुछ देर चुप रहने के बाद नेहा ने आशंका जतायी।
इससे पहले कि प्रिया कुछ बोल पाती बस उनकी आंखों के सामने थी।
दोनों बिना एक पल गंवाए बस में सवार हो गईं।
लेकिन बस में दाखिल होते ही नेहा को जैसे सांप सूंघ गया। एक बार तो उसे लगा कि चलती बस से कूद जाए। वो चुपचाप आकर सीट पर बैठ गई। और प्रिया भी।
दरअसल वह लड़का आज पहले से ही बस में मौजूद था। नेहा को देखते ही वह उसके पास आकर खड़ा हो गया। नेहा लगातार खिड़की से बाहर की ओर देखे जा रही थी। उसका दिल तेजी से धड़क रहा था। एक बार तो उसे लगा कि वह आज उसे फटकार ही दे। लेकिन कुछ सोचकर वह चुप रह गई। नेहा चुप थी। प्रिया भी चुप थी। वह लड़का भी चुप था।
तभी खामोशी टूटी।
आज तुमने वो पिंक वाला सूट क्यों नहीं पहना? वह तुम पर बहुत फबता है। उस लड़के ने सवाल किया जिसमें उसकी राय भी शामिल थी।
नेहा मन ही मन बुदबुदाई। ये तो हद हो गई। वह आज अपना गुस्सा रोक नहीं पाई। सीट छोड़कर खड़ी हो गई।
तुम होते कौन हो, यह पूछने वाले कि मैंने ये क्यों नहीं पहना वो क्यों नहीं पहना। मेरी जो मर्जी मैं पहनूं। तुम यहां से जाते हो या....? प्रिया ने उसे बीच में ही रोक दिया। अरे यार, दिमाग खराब कर रखा है इतने दिनों से। कंटक्टर गाड़ी रुकवाओ। मैंने कहा न, गाड़ी रुकवाओ अभी। हमें यहीं उतरना है। नेहा की आवाज में गुस्सा था और रोष भी।
बस में शोर-शराबा देख ड्राइवर ने गाड़ी रोक दी। नेहा तुरंत नीचे उतरी। प्रिया भी उसके पीछे दौड़ी...और वो लड़का भी।
मेरी बात तो सुनो, मैं तुम्हें अपने मम्मी-पापा से मिलवाना चाहता हूं।
तुम एक बार उनसे मिल तो लो। प्लीज।
प्रिया ने उसकी बात को अनसुना कर दिया।
बस के यात्री अभी भी उनकी ओर ही ताक रहे थे। कोई हंस रहा था कोई चुपचाप देख रहा था तो कई लोग कमेंट करने से भी बाज नहीं आ रहे थे।
'भाभी को मना लेना' भाई, तभी किसी की आवाज आई।
बस चल पड़ी थी। नेहा का वश करता तो उस कमेंट करने वाले को नीचे खींचकर चप्पल से मारती। लेकिन गाड़ी जा चुकी थी।
बड़े बेशर्म हो तुम। मैंने कह दिया न मुझे तुमसे कोई लेना देना नहीं है। फिर क्यों मेरे पीछे पड़े हो। प्लीज, मुझे बख्श दो और मुझे अपने रास्ते जाने दो। तुम अपने रास्ते जाओ। नेहा ने खीझते हुए कहा।
मैं चला जाउंगा। लेकिन मेरे सवाल का जवाब तो दो। लड़के ने बड़े ही शांतिपूर्ण तरीके से सवाल किया।
मुझे तुम्हारे किसी सवाल का जवाब नहीं देना।
चलो प्रिया। जल्दी करो। आज तो इस पागल ने सबके सामने हमारा तमाशा बना दिया। पता नहीं किस जनम की दुश्मनी निकाल रहा है। हाथ धोकर पीछे पड़ गया है।
नेहा इतने तेज कदमों से चलने की कोशिश कर रही थी कि उसके कदम भी उसका साथ नहीं दे पा रहे थे। प्रिया उसे रुकने की आवाज देकर उसके पीछे-पीछे भाग रही थी।
आसपास के लोगों की नजरें नेहा और प्रिया पर ही थीं। लोगों को भी मुफ्त में अच्छा-खासा तमाशा जो देखने को मिल गया था।
प्रिया ने एक बार पीछे मुड़कर देखा। वह लड़का अब भी वहीं पर खड़े होकर उन्हें घूरे जा रहा था।
अब शायद प्रिया को उससे कुछ सहानुभूति होने लगी थी।
मन ही मन प्रिया ने पिछली सारी बातें दोबारा याद करने की कोशिश कीं।...नाम ही तो पूछ रहा था बेचारा। कोई उल्टी-सीधी बात तो नहीं की। कहीं होटल या क्लब में ले जाने की बात तो कर नहीं रहा था। मम्मी-पापा से ही तो मिलवाना चाहता है। तो क्या शादी...? यानी उसकी इरादा नेक है। लेकिन वो नहीं जानता कि...
अचानक प्रिया ने अपनी सोच पर विराम लाग दिया। इसके बावजूद वह लगातार सब कुछ समझने की पूरी कोशिश कर रही थी।
वहीं नेहा के कदम अब भी रुकने का नाम नहीं ले रहे थे।
प्रिया ने उसे आवाज दी, नेहा ने पीछे मुड़कर देखा और उसके कदम रुक गये।
प्रिया भाग कर गई और उससे लिपट गई। अब चलो भी। नेहा ने फिर दोहराया। उसका मूड अब भी ठीक नहीं हुआ था।
क्या बेशर्मी है। रोज का तमाशा हो गया है। पीछा ही नहीं छोड़ रहा है। लगता है मुझे यह नौकरी ही छोड़नी पड़ेगी। नेहा ने निराशा भरे स्वर में कहा।
नौकरी क्यों छोड़ेगी। तेरे लिये दूसरी नौकरी रक्खी है क्या? फिर घूमना इस कंपनी से उस कंपनी, दूसरी नौकरी की तलाश में। घर में तो बैठेगी नहीं? इतना तो मैं भी जानती हूं।
तेज कदमों की आवाज के सिवा अब नेहा और प्रिया के बीच कुछ नहीं था।
दोनों खामोश थीं।
हास्टल नजदीक ही था कि नेहा ने खामोशी तोड़ी। छुट्टी ले लेती हूं एक हफ्ते की।
उससे क्या होगा?
अरे, दो-तीन दिन बाद वो भी अपना रास्ता बदल देगा।
हां, ऐसा हो सकता है। लेट्स ट्राई! प्रिया को नेहा का यह आइडिया जंच गया।
लेकिन मैं अकेले तो आफिस में बोर हो जाउंगी और रास्ते में भी।
वो मेरे पीछे पड़ जाएगा। तुम्हारे बारे में पूछने लगेगा। तब मैं अकेली क्या करूंगी?
हमममम...ऐसा कर तू भी छुट्टी कर ले। नेहा यूं बोली जैसे उसके दिमाग में कोई शानदार आइडिया आ गया हो।
ठीक है ! मैं कल ही बॉस से बात करती हूं। दोनों छुट्टी कर लेते हैं। वैसे मुझे नहीं लगता छुट्टी मिलने में कोई प्राब्लम आएगी।
हां, वो तो है। देख लो बात करके। प्रिया ने उदासीन लहजे में जवाब दिया।
हर दिन की तरह अगले दिन भी नेहा और प्रिया सुबह आफिस के लिये तैयार होने में जुटी थीं। हमेशा की तरह तैयार होने में देरी के लिये प्रिया ने नेहा की डांट खायी। हमेशा की तरह प्रिया ने उसकी बात एक कान से सुनी और दूसरे कान से निकाल दी।
अरे, इस लड़की ने तो मेरी जिंदगी का कबाड़ा कर दिया है। जब देखो आर्डर झाड़ती रहती है। एक पल को चैन नहीं लेने देती। आफिस में तो हैं ही सब बॉस बनने के लिये और कमरे पर आकर यह मेरी बॉस बन जाती है। जल्दी करो-जल्दी करो!! पता नहीं कौन सा तीर मारना है जल्दी पहुंचकर।
ज्यादा से ज्यादा वो रोहन यही ताना मारेगा न कि आज फिर लेट हो। बॉस के पास थोड़े चला जाएगा। अगर उसने ज्यादा स्मार्ट बनने की कोशिश की न तो मैं उसे एक ही दिन में सीधा कर दूंगी। तू चिंता मत कर और मुझे अपने तरीके से तैयार होने दे। प्रिया बोलती जा रही थी और नेहा सुने जा रही थी।
नेहा ने प्रिया को घूर कर देखा और प्रिया खिलखिलाकर हंस दी। नेहा के होठों पर भी मुस्कुराहट तैर गई।
अच्छा अब कमरा बंद करो और चलो। बकवास मत करो।
ठीक है बबा ! चल तो रही हूं। क्यों किसी और का गुस्सा मेरे ऊपर निकालने में जुटी हो। यह कहते हुये प्रिया की आखों में शरारत साफ नजर आ रही थी।
प्रिया का इशारा नेहा अच्छी तरह समझ गई थी। शायद इसीलिये उसने खामोशी ओढ़ ली।
बस आई, दोनों उस पर चढ़ गईं। सीट भी मिल गई। लेकिन नेहा ने एक शब्द भी नहीं बोला। प्रिया भी शायद उसे टोकने की हिम्मत नहीं कर पाई।
नेहा की यह चुप्पी ज्यादा देर तक कायम नहीं रह सकी।
अगले बस स्टाप पर वो लड़का एक बार फिर उसकी नजरों के सामने था। उस पर नजर पड़ते ही नेहा का तो जैसे खून खौल गया।
उस लड़के को देखते ही नेहा का ब्लडप्रेशर बढ़ जाता था।
हालांकि अभी तक उसने नेहा से कभी कोई ऐसी बात नहीं कही थी जिससे उस पर बदमाश या लफंगा लड़का होने का लेबल लगाया जा सके।
'आज आप लेट हो गईं?' उस लड़के ने नेहा की सीट पर आकर पूछा।
नेहा ने कोई जवाब नहीं दिया।
प्रिया की नजरें दोनों को चुपके से घूर रहीं थी। शायद उसे इंतजार था नेहा के कुछ बोलने का।
आपने कोई जवाब नहीं दिया....
अच्छा आज तो अपना नाम बता दीजिये...
अच्छा मैं अपना नाम तो बता ही देता हूं....
मेरा नाम है मनीष और आपका...?
'मैंने तुमसे कहा था न कोई नाम नहीं है मेरा।' नेहा ने चुप्पी तोड़ी।
नाराज क्यों होती हो। नाम ही तो पूछा है। कोई गाली तो नहीं दे दी।
क्यों मेरा नाम जानना चाहते हो?
बताओ क्यों जानना चाहते हो मेरा नाम?
जवाब दो...
अब उस लड़के ने खामोशी ओढ़ ली।
अब चुप क्यों हो? बताओ क्यों पूछना चाहते हो मेरा नाम? नेहा ने खीझकर अपना सवाल रिपीट किया।
अभी नहीं, पहले वादा करो तुम मेरे साथ मेरे घर चलोगी।
दिमाग खराब हैं क्या?
क्यों चलूंगी तुम्हारे घर....तुम कोई मेरे रिश्तेदार लगते हो?
नहीं, मैंने कहा था न, मैं तुम्हें अपने मम्मी-पापा से मिलाना चाहता हूं।
किसलिए? मुझे न तुममे कोई इंट्रेस्ट है औऱ न ही तुम्हारे मम्मी-पापा में। बस मेरा पीछ छोड़ दो।
इतना कहकर नेहा ने फिर खामोशी ओढ़ ली।
बस में बैठे सारे लोगों की निगाहें नेहा की तरफ ही टिकी थीं।
रोज आने-जाने वाले यात्री तो नेहा और उस लड़के से अच्छी तरह वाकिफ हो चुके थे।
इसके बावजूद आज तक किसी ने उस लड़के को एक शब्द नहीं बोला।
शायद बस यात्रियों के लिये भी वो दोनों टाइम पास का साधन बन चुके थे।
नेहा का मूड बहुत खराब हो चुका था। वह उस लड़के स‌े बुरी तरह तंग आ चुकी थी। स‌मझ नहीं पा रही थी क्या करे? ऊपर स‌े यह प्रिया, जब देखो तब इसे मजाक स‌ूझता रहता है। पता नहीं मेरी दोस्त है या दुश्मन?
बस स‌े उतर कर प्रिया और नेहा ऑफिस की तरफ चल दीं। आज तो दफ्तर के बाहर ही महेश मिल गया।
हाय! महेश ने हाथ हिलाया।
नेहा और प्रिया ने इशारे में ही उसके हाय का जवाब दिया और दफ्तर में दाखिल हो गईं।
क्या हुआ, आज तुम दोनों फिर लेट हो गईं। बॉस ने घूरते हुए स‌वाल किया।
क्या बताऊं स‌र, वो बस में.....
बस में क्या...?
स‌ाफ-साफ बताओ। बास ने जरा कड़क आवाज में पूछा।
बेवजह की डांट खाना नेहा को कतई पसंद नहीं था। उसी पल उसने तय कर लिया कि आज बॉस को स‌ब बता देगी।
स‌र वो बस में रोज हमें....प्रिया ने कुहनी मारकर उसे रोकने की कोशिश की....
नेहा ने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया और बोलना जारी रखा...
स‌र एक लड़का हमें काफी दिनों स‌े तंग कर रहा है। रोज बस में मिल जाता है। पीछे ही पड़ गया है। कहता है शादी करना चाहता हूं तुमसे....
हां, तो प्राब्लम क्या है?
क्या स‌र....?
अरे मेरा मतलब है कौन है वह लड़का, क्या नाम है उसका? नाम तो स‌र मुझे नहीं मालूम।
मनीष नाम है स‌र उसका, प्रिया ने बीच में ही जवाब दिया।
अच्छा, प्रिया तुम्हें तो उसका नाम भी मालूम है। औऱ क्या मालूम है उसके बारे में...बताओ मुझे। प्रिया बॉस स‌े मुखातिब थी और नेहा लगातार उसे घूरे जा रही थी।
आखिर प्रिया चुप हो गई।
नेहा ने बोलना शुरू किया। शुरू स‌े लेकर आखिर तक स‌ब बता दिया।
इसी बीच महेश भी पीछे आ खड़ा हुआ था..उसने भी स‌ारी बातें स‌ुन लीं।
थोड़ी ही देर में पूरे ऑफिस में यह बात फैल गई।
हर कोई नेहा और प्रिया स‌े मनीष के बारे में पूछने लगा।
कहो तो स्साले के हाथ-पैर तुड़वा दूं? आकाश बोला।
उसके लिए तो मैं अकेला काफी हूं। नरेश ने भी हीरो बनने की कोशिश की।
चुप रहो। तुम लोगों ने ये स‌ब क्या लगा रखा है। जाओ अपना-अपना काम करो। आशीष स‌र ने स‌बको डांटने के लहजे में कहा। स‌ब चुपचाप वहां स‌े खिस‌क लिए।
तुम दोनों फिक्र मत करो। कल अगर वो बस में नजर भी आए तो बस मुझे एक फोन कर देना। मैं स‌ब स‌ंभाल लूंगा। आशीष स‌र ने कहा।
अच्छा अब जाओ, कुछ काम कर लो। उसके बारे में स‌ोचकर परेशान होने की जरूरत नहीं है।
नेहा चुपचाप अपनी चेयर पर जाकर बैठ गई। प्रिया के लिए तो जैसे कुछ हुआ ही नहीं था। उसके होठों पर अब भी मुस्कान तैर रही थी।
इतने लोगों की बातें और हाव-भाव देखकर नेहा स‌मझ चुकी थी उसका तमाशा बन चुका है। किसी को कुछ करने की जरूरत नहीं है मेरी प्राब्लम है, मैं खुद निबट लूंगी...नेहा मन ही मन बुदबुदाई।
आज नेहा को आफिस में पल-पल काटना मुश्किल हो रहा था। उसे बस यही लग रहा था कि जाकर कमरे में स‌ो जाए और बस स‌ोती ही रहे।
किसी तरह छह बजे। ऑफिस स‌े निकलने का वक्त हो गया। चलो अभी तुम फ्री नहीं हुई। चलो अब निकलते हैं। बाकी काम कल देख लेना। मुझे बहुत नींद आ रही है। चलती हूं बस पांच मिनट। प्रिया ने नेहा को रुकने के लिए कहा और कंप्यूटर शट डाउन करने लगी। कुछ कागजात टेबल स‌े उठाकर ड्रार में रखे और लॉक करने के बाद वो अपना टुपट्टा स‌ंभालती हुई खड़ी हो गई। चलो।
एक मिनट रुको, जरा मैं आशीष स‌र को बता दूं कि कल मैं छुट्टी पर हूं। अचानक छुट्टी क्यों? प्रिया ने स‌वाल किया। लेकिन उसके स‌वाल का जवाब दिए बिना ही नेहा आशीष स‌र के केबिन में गई और छुट्टी की बात कर बाहर आ गई। उसके चेहरा बता रहा था कि आशीष स‌र ने उसे छुट्टी दे दी है।
चलो अब, नेहा ने कहा। चल तो रही हूं, लेकिन बता तो कल छुट्टी लेकर क्या कर रही है? कुछ नहीं, बस है न कुछ जरूरी काम। चल तो तू भी स‌ब स‌मझ जाएगी।
शायद नेहा के दिमाग में कुछ चल रहा था, जिसस‌े उस‌की बेस्ट फ्रैंड प्रिया भी नहीं पढ़ पा रही थी। दोनों बस स्टाप की तरफ बढ़ रहीं थीं। स‌ुबह की तरह ही खामोशी स‌े..कुछ स‌ुनाई दे रहा था तो स‌िर्फ उनके पैरों की आवाज और ट्रैफिक का शोर। लेकिन नेहा के कानों तक शायद ये आवाजें नहीं जा रही थीं। वो चुपचाप थी, लेकिन दिमाग लगातार स‌ोच रहा था।
क्या बात है कुछ तो बता..?
नेहा ने प्रिया के स‌वाल को कोई तवज्जो नहीं दिया। वो चुपचाप चली जा रही थी। वो जल्द स‌े जल्द बस स्टॉप पहुंचना चाहती थी। बस स्टॉप आ गया। नेहा और प्रिया चुपचाप बस का इंतजार करने लगीं।
आधा घंटा इंतजार के बाद बस नहीं आई। बहुत भीड़ थी बस में। प्रिया ने कहा थोड़ा रुक लेते हैं अलगी बस में चलेंगे। लेकिन नेहा उसकी बात को अनसुना कर बस में चढ़ने लगी। वास्तव में बस में काफी भीड़ थी। नेहा और प्रिया बस के गेट पर ही अटक गईं। अचानक किसी ने हाथ बढ़ाया और नेहा को बस में खींच लिया। उसके बाद प्रिया के स‌ाथ भी ऎस‌ा ही हुआ।
बस में मौजूद वह व्यक्ति मनीष ही था। वह चुपचाप खड़ा थी। बस में इस कदर भीड़ थी कि उसके लिए कुछ बोलना मुनासिब भी नहीं था। अगले स्टॉप में ही बस की भी़ काफी कम हो गई। नेहा और प्रिया बाईं तरफ वाली स‌ीट मिल गई। मनीष अब भी खड़ा था। नेहा ने उसे इशारे स‌े बुलाया और अपनी स‌ीट पर बैठने के इशारा किया।
यह देखकर प्रिया की आंखें फटी की फटी रह गईं। मनीष को भी नेहा के इस व्यवहार पर आश्चर्य हो रहा था...वह चुपचाप स‌ीट पर आकर नेहा के बगल में बैठ गया। खिड़की की तरफ प्रिया थी और बीच में नेहा।
लोगों की आंखें अब नेहा को घूर रही थीं। किसी को अपनी आंखों पर यकीन नहीं हो रहा था।
'भाभी मान गईं.....'
'लड़की पट गई भाई.....'
'मुबारक हो, भाईजान! मेहनत रंग लाई'
पीछे स‌े कुछ लोगों ने कमेंट पास किए। ये वही लोग थे जिनका रोज इस बस स‌े आना-जाना होता था। ये लोग नेहा और मनीष की कहानी स‌े अच्छी तरह वाकिफ थे।
मनीष! तुम मेरा नाम जानना चाहते हो न? मेरा नाम नेहा है। मैं इलाहाबाद की रहने वाली हूं। यह लो मेरा मोबाइल नंबर। कल स‌ुबह नौ बजे मुझे फोन करना। मनीष बुत की तरह उसकी बात स‌ुन रहा था। उसने हां में स‌िर हिलाया और अपने मोबाइल में नेहा का नंबर स्टोर कर लिया। खुशी उस‌के चेहरे स‌े झलक रही थी।
शायद आज बोलने की बारी नेहा की थी। यह देखकर प्रिया की परेशानी बढ़ती ही जा रही थी। अचानक इसे यह क्या हो गया? जिससे स‌ीधे मुंह बात नहीं करती थी, उसे खुद अपना नाम बता रही है। मोबाइल नंबर भी दे दिया। क्या कर रही है यह लड़की? कल की छुट्टी भी ले रखी है.....। बताती भी तो नहीं। पता नहीं क्या करने जा रही है?
मनीष हतप्रभ था। हमेशा नेहा पर हावी होने की कोशिश करने वाला मनीष अच्छे बच्चों की तरह चुपचाप बैठा था। उसकी तो बोलती ही बंद हो चुकी थी। न उस‌ने कुछ पूछा और न ही उसकी जुबान स‌े कोई लब्ज फूटा। हां, वह खुश बेहद था। जैस‌े स‌ारे जहां की खुशियां उसे मिल गई हों। यह स‌ाफ हो चुका था कि मनीष जैसा खुद को दिखाता था असल में वैसा नहीं था।
बस तेज रफ्तार स‌े दौड़ रही थी। प्रिया का दिल तेजी स‌े धड़क रहा था। मनीष का दिल भी तेजी स‌े धड़क रहा था। लेकिन नेहा बिल्कुल नार्मल दिख रही थी। बेफिक्र। बेखौफ। शांत। आज तो लग ही नहीं रहा था कि यह वही नेहा है जिसका ब्लडप्रेशर मनीष को देखते ही बढ़ जाता था।
अचानक बस रुकी और मनीष चुपचाप अपनी स‌ीट स‌े उठा। एक बार मुड़कर नेहा की तरफ देखकर बॉय किया और नीचे उतर गया। नेहा ने आंखों ने उसस‌े क्या कहा, ये स‌िर्फ वही जान पाया। प्रिया बस दोनों को देखे ही जा रही थी। उसके दिमाग में स‌ैकड़ों स‌वाल उठ रहे थे। प्रिया ने फिर उससे कुछ पूछने की कोशिश की, लेकिन नेहा ने उसे चुप रहने का इशारा किया।
थोड़ी देर में उनका भी स्टॉप आ गया। दस पंद्रह मिनट बाद नेहा और प्रिया अपने कमरे में थीं।
अब तो बता क्या खिचड़ी पका रही है तू अपने दिमाग में?
कुछ नहीं। तू चेंज कर ले। फिर आराम स‌े बात करते हैं न। नेहा ने कहा।
अब तो प्रिया यंत्रवत नेहा की हर बात मान रही थी। बिना एक पल गवांए ही वो कपड़े चेंज करके उसके पास फिर आ धमकी।
अब बता। बताती हूं। जरा स‌ांस तो लेने दे। तू तो हाथ धोकर मेरे पीछे ही पड़ गई है। नेहा का मूड अच्छा नजर आ रहा था।
उसे अपना मोबाइल नंबर क्यों दिया। फोन करने को क्यों कहा?
'मैं कल उससे मिल रही हूं'
क्या...? प्रिया को लगा कि शायद उसके कान कुछ गलत स‌ुन रहे हैं।
हां, मैं कल मनीष स‌े मिल रही हूं।
क्या करेगी उससे मिलकर? मुझे तो बहुत डर लग रहा है। मैं भी स‌ाथ चलूंगे तेरे।
तू क्यों डरी जा रही है मैं हूं न स‌ब देख लूंगी। मिल ही तो रही हूं उससे कोई शादी थोड़े कर रही हूं। और हां, तुझे मेरे स‌ाथ चलने की कोई जरूरत नहीं है। नेहा ने खीझकर कहा।
तो क्या उसकी मम्मी स‌े मिलने उसके घर भी जाएगी?
प्रिया ने ताना मारने वाले अंदाज में स‌वाल किया?
हां, जाऊंगी। तुझसे मतलब? नेहा ने तुनक कर जवाब दिया।
प्रिया चुप हो गई।
थोड़ी देर के लिए कमरे में खामोशी छा गई।
इस खामोशी को नेहा ने ही तोड़ा। अरे, बाबा इतना परेशान होने की जरूरत नहीं है। अच्छा ठीक है तू भी चलना स‌ाथ में। अब तो ठीक। खुश...?
दोनों खिलखिलाकर हंस पड़ीं। कमरे का जो माहौल थोड़ी देर पहले बोझिल हो रहा था उस‌े दोनों की हंस‌ी ने खुशगवार बना दिया।
ध्यान स‌े स‌ुन, तू मेरे स‌ाथ तो जाएगी, लेकिन मेरे स‌ाथ नहीं रहेगी। मैं उससे अकेले ही मिलूंगी। स‌मझी। तू कहीं आस‌पास रहना। ओके?
ओके, बॉस! प्रिया ने चहकते हुए कहा। लेकिन प्लानिंग क्या है तेरी ये तो बता।
बस मैं उससे मिल रही हूं और क्या। अब मिलूंगी तो बात भी करूंगी।
क्या बात करेगी तू उससे? यही तो पूछ रही हूं तुझसे।
तेरी शादी की बात करूंगी।
देख मसखरी मत कर। मैं स‌ीरियसली पूछ रही हूं। बता न।
पहले बात कर लूं फिर बताऊंगी। चल अब खान खाने चलते हैं वर्ना कैंटीन बंद हो जाएगी। दोनों को बात करते-करते काफी देर हो चुकी थी।
नेहा और प्रिया कैंटीन स‌े खाना खाकर लौटीं तो घड़ी रात के नौ बजा रही थी। नौ बजे की बात स‌े फिर प्रिया की आंखों के स‌ामने मनीष का चेहरे घूमने लगा। स‌ुबह नौ बजे ही तो फोन करने वाला हो वो प्रिया को। पता नहीं क्या करने वाली है प्रिया? यही स‌ोचते-स‌ोचते प्रिया ने नेहा की तरफ देखा, नेहा स‌ो चुकी थी।
देखो महारानी को कैसे बेफिक्र होकर स‌ो रही है और एक मैं हूं जो इस‌के बारे में स‌ोच-सोच कर अपना दिमाग खाली कर रहूं हूं।
प्रिया एक मैगजीन उठाकर पढ़ने की कोशिश करने लगी। लेकिन दिमाग में नेहा और मनीष ही घूमते रहे। इस‌ी तरह प्रिया की भी आंख लग गई।
आंख तब खुली जब स‌ुबह नेहा ने उसे झिंझोड़ा कितना स‌ोएगी? उठ चलना नहीं है क्या?
कहां? अरे मनीष स‌े मिलने औऱ कहां?
बड़ी बेताब हो रही है उससे मिलने के लिए....कहीं तेरा दिल तो नहीं आ गया उस पर। प्रिया ने चुहलाबजी करते हुए नेहा के गाल पर किस कर लिया।
चल-चल उठ ज्यादा प्यार मत दिखा। तैयार हो नहीं तो देर हो जाएगी।
अरे, अभी तो उसका फोन भी नहीं आया?
आएगा बबा आएगा। नौ बजे फोन करेगा न।
तू इतने दावे के स‌ाथ कैसे कह स‌कती है कि वह फोन करेगा ही? प्रिया को स‌ब कुछ बड़ा आश्चर्यजनक लग रहा था।
कह रही हूं न कि करेगा तो करेगा। नौ तो बजने दे।
प्रिया जल्दी-जल्दी तैयार होने लगी। उसकी नजर घड़ी पर ही टिकी हुई थी। कब नौ बजे और कब मनीष का फोन आए। वह भी तो स‌ुने क्या बात करती है नेहा उससे, कहां मिलने को कहती है उस‌े।
तभी नेहा के मोबाइल की घंटी बजी। नेहा ने फोन उठाया।
अरे, तू क्यों परेशान हो रही है, उसका फोन नहीं है मकान मालिक का। कह रहा था कि कल टंकी का नल खुला छोड़ दिया था।
अभी तो नौ नहीं बजे हैं। इंतजार कर थोड़ा।
कहां हो मैडम? नौ बज चुके हैं। जरा घड़ी पर नजर तो डालो।
इधर नेहा ने घड़ी की तरफ देखा और उधर उसके मोबाइल की घंटी फिर बज उठी।
नेहा ने फोन रिसीव किया। फोन मनीष का ही था।
उड्डपी में आ जाओ। कितनी देर में पहुंचोगे?
ठीक है। 11 बजे मैं भी पहुंच जाउंगी।
नेहा और प्रिया तय वक्त पर उड्डपी पहुंच गईं। नेहा अंदर चली गई और प्रिया बाहर ही उसका इंतजार करने लगी।
नेहा ने अंदर प्रवेश किया तो देखा कि एक टेबल पर मनीष पहले स‌े उसका इंतजार कर रहा है। नेहा जाकर निसंकोच उसके पास बैठ गई।
'अब बताओ क्या बात करना चाहते हो मुझसे' नेहा ने कहा।
'मैं तुमस‌े प्यार करता हूं'
तुमसे शादी करना चाहता हूं
लेकिन मैं तो तुमसे प्यार नहीं करती?
'क्या कमी है मुझमें? मेरा विश्वास करो, मैं तुम्हें बहुत खुश रखूंगा।'
विश्वास-अविश्वास की कोई बात ही नहीं है मनीष। मैंने कहा न मैं तुमसे प्यार नहीं करती। तो तुम ही बताओ...शादी जैसा फैसला मैं कैसे कर स‌कती हूं?
मनीष चुप हो गया।
अगर तुम मुझे नहीं मिली तो मैं जी नहीं पाऊंगा।
लगता है तुम फिल्में बहुत देखते हो। फिल्म और हकीकत में फर्क होता है मनीष। स‌मझने की कोशिश करो।
मैं जानता हूं कि फर्क होता है लेकिन मैं जो कह रहा हूं वह हकीकत है।
अगर मैं कहूं कि मैं किसी और स‌े प्यार करती हूं तो?
मैं कैसे यकीन कर लूं? मुझे नहीं लगता तुम्हारी जिंदगी में कोई है
क्यों तुम्हे ऎसा क्यों लगता है। क्या मेरा कोई ब्वायफ्रैंड नहीं हो स‌कता?
नहीं, मेरे कहने का यह मतलब नहीं है।
मेरा मतलब है कि इतने दिनों में मैंने तो कभी तुम्हारे स‌ाथ किसी लड़के को नहीं देखा।
तुम्हें क्या मालूम, तुमने मुझे आफिस के रास्ते और बस में ही तो देखा है।
नहीं, मैंने तुम्हें तुम्हारे हॉस्टल तक देखा है।
अच्छा, तो तुम मेरा पीछा भी कर चुके हो?
मनीष थोड़ी देर चुप रहा। फिर बोला, मैं स‌मझ रहा हूं तुम मुझसे पीछा छुड़ाने के लिए ऎसा कह रही हो।
आखिर क्या कमी है मुझमें?
तुममें कोई कमी नहीं है मनीष। लेकिन आई एम ऑलरेडी इंगेज्ड।
कौन है वो?
वो बचपन में मेरे स‌ाथ पढ़ता था। परसों रात पांच स‌ाल बाद उसने मुझे फोन किया और पहली बार में ही प्रपोज कर दिया।
और तुमने उसे हां भी कह दिया।
हां,
क्या तुम भी उसे प्यार करती हो।
हां, हम दोनों अच्छे दोस्त थे, लेकिन मैंने उससे कभी नहीं कहा।
तुम्हें मेरा खयाल नहीं आया?
आया था, लेकिन मेरे लिए इससे बड़ी बात क्या हो स‌कती है कि मैं जिसे बचपन स‌े पस‌ंद करती हूं वह मुझे मिल गया।
अभी कहां है वो?
वो बनारस में रहता है। थोडी देर में वो यहां पहुंचने वाला है। खुद ही मिल लेना उससे।
तुम स‌च कह रही हो? मनीष को नेहा की बातों पर यकीन नहीं हो रहा था।
हां मैं स‌च कह रही हूं।
मनीष फिर चुप हो गया।
नेहा ने अपने मोबाइल स‌े प्रिया को कॉल किया।
प्रिया अंदर आकर उनके स‌ाथ बैठ गई।
तुम दोनों स‌ाथ आई थी?
हां, प्रिया ने जवाब दिया।
अच्छा प्रिया तुम बताओ, क्या नेहा स‌च कह रही है, क्या इसका कोई ब्वायफ्रैंड है।
प्रिया ने नेहा की तरफ घूरकर देखा....लेकिन इससे पहले कि वो कुछ बोल पाती नेहा ने ही बोल पड़ी, अरे प्रिया उसके बारे में कुछ नहीं जानती।
ऎसा कैसे हो स‌कता है? मनीष उसकी बातों पर विश्वास करने को तैयार ही नहीं था।
तभी एक लड़का उनकी टेबल की तरफ आया। उसे देखते ही नेहा खड़ी हो गई और उछलकर उसके गले स‌े लिपट गई।
मनीष और प्रिया दोनों के लिए यह वक्त स‌रप्राइज्ड होने का था।
नेहा ने उस लड़के स‌े पहले मनीष का परिचय कराया...मनीष यह है राजेश..और राजेश यह है मनीष और यह है मेरी प्यारी स‌हेली प्रिया।
प्रिया ने रूठने के अंदाज में नेहा की तरफ देखा। जैसे आंखों ही आखों में कहना चाहती हो कि तुमने राजेश के बारे में मुझे नहीं बताया। अपनी स‌बसे पक्की स‌हेली को नहीं बताया।
मुझे पता है मनीष तुम्हें मुझसे मिलकर खुशी नहीं हुई होगी, क्योंकि मैं तुम्हारी फीलिंग स‌मझ स‌कता हूं। मैं तुम्हें नेहा तो नहीं दे स‌कता लेकिन हम दोनों अच्छे दोस्त तो बन ही स‌कते हैं। राजेश स‌ब कुछ एक ही स‌ांस में बोल गया।
ओके, राजेश। ओके प्रिया। अब मैं चलता हूं। अब मैं तुम्हें कभी परेशान नहीं करूंगा। बॉय नेहा, बॉय राजेश, बॉय प्रिया। यह कहकर मनीष वहां स‌े निकल गया। किसी ने उसे रोकने की कोशिश नहीं की।
अब चलें प्रिया? नेहा ने पूछा।
हां, चलो। अभी तो मुझे तुमसे बहुत स‌ारी बातें करनी हैं
'मैं जानती हूं तुम्हें क्या बातें करनी है'
आज तो स‌ारी रात तू झगड़ने ही वाली है मुझसे।
झगड़े वाली बात ही है। इतनी बड़ी बात तुमने मुझे नहीं बताई। राजेश के बारे में मुझे नहीं बताया।
अरे, बबा! कल तक ऎसा कुछ था ही नहीं तो क्या बताती खाक?
अच्छा अब चल, कमरे में चलकर झगड़ लेना जितना झगड़ना हो। चलो राजेश, तुम्हें तो आज ही बनारस लौटना भी है।
हां, चलो! तीनों स‌ाथ चल दिए। प्रिया की आंखों में मनीष का मायूस चेहरा घूम रहा था। लेकिन क्या हो स‌कता है...यही तो जिंदगी है। प्रिया ने खुद को स‌मझाने की कोशिश की और उनसे स‌ाथ अपने भी कदम बढ़ा दिए। (समाप्त)

मंगलवार, 20 मई 2008

अलगौझा*

चाचा आप क्यों गुस्सा हो गए?
आप तो मुझे रोज चूमा करते थे
अब कटे-कटे स‌े क्यों रहते हैं?
आपने चुन्नू भैया को डांटा क्यों नहीं?
उसने आपकी लाई मिठाई मुझे नहीं दी।
मुन्नी दीदी भी अब मेरे स‌ाथ लूडो नहीं खेलतीं
कहती हैं जाओ-अपने भाई के स‌ाथ खेलो
बताओ चाचा, तुम मुन्नी दीदी को डांटोगे न?

भला चाचा तुम्हें याद है कितने दिन हो गए
मुझे कंधे पर बिठाकर हाट घुमाए हुए
कोने वाले कमरे में अब ताला क्यों बंद रहता है?
वह तो हमारे खेलने का कमरा था
चाची तो मुझे गोद पर स‌ुलाया करती थीं
उस दिन दुखते स‌िर को दबाने को कहा
तो क्यों झिड़क दीं?
जानते हो चाचा,
चाची के कमरे में जाने पर
स‌ब मुझे स‌हमी-सहमी निगाह स‌े देखते हैं
बताओ न चाचा, ऎसा क्यों हो रहा है?
मुझे बहुत डर लगता है।
**********************
बच्चा केवल स‌वाल करता है
वह नहीं जानता कि
आंगन वाली दीवार की ऊंचाई
कब दिलों को पार कर गई
(मेरे अजीज दोस्त प्रमोद कुमार की कविता जो प्रमोद ने मुझे 16-11-1998 को अपनी पाती के स‌ाथ वाराणसी स‌े भेजी थी)
*विभाजन

गुरुवार, 8 मई 2008

मुझे इस‌स‌े क्या लेना-देना?

पहुंचते-पहुंचते लेट हो गया। ऑफिस के ही स‌हायक वर्मा की डेथ हो गई थी। मातमपुर्सी में जाना था। पहुंच गया। अंदर पहुंचते ही मरघट स‌ा स‌न्नाटा महसूस हुआ। बहरहाल, वर्मा के परिजनों स‌े मिलकर दुख प्रकट किया। जहां तक हो स‌का रोनी स‌ूरत बनाई, मुंह लटकाया।
स‌भी स‌िर झुकाए बैठे थे। मैं भी बैठ गया। थोड़ी-थोड़ी देर में देख लेता था...कौन क्या कर रहा है...(वाकई शोक स‌भा में बैठना बड़ा बोरिंग काम है) इस स‌क्सेना को देखो ऎसे मुंह लटकाए बैठा है जैसे इसी के घर स‌े जनाजा निकलने वाला हो। बड़ा अपना बनता है, वर्मा स‌े इसकी बिल्कुल भी नहीं पटती थी। लेकिन मुझे इससे क्या लेना-देना।
बॉस को देखो...शोक प्रकट करने आया है। यहां भी अपनी स‌ेक्रेटरी को स‌ाथ लाना नहीं भूला। इसके तो ऎश हैं। वर्मा की पे रोक रखी थी। मरते ही चेक काट दिया। बड़ा अपना पन दिखा रहा है। आज तक अपनी स‌ेक्रेटरी की पे नहीं रोकी...वह तो जब चाहे आए, जब चाहे जाए। वैसे वह आती अक्सर देर स‌े ही है। लेकिन मुझे इससे क्या लेना-देना।
मिसेज वर्मा पर भी क्या मुसीबत का पहाड़ टूट पड़ा। बच्चे तो हैं नहीं। चलो अच्छा है। कुछ दिनों बाद उस अस्थाना स‌े...बहुत घर आता-जाता था। अब भी देखो कैसे सट कर बैठा है मिसेज वर्मा स‌े। माहौल का भी खयाल नहीं रखता स्साला। मन ही मन तो खुश ही हो रहा होगा। वर्मा अच्छा चला गया। जरूर इसी की बददुआ लगी होगी बेचारे को। अव्वल दर्जे का कमीना है। अब तो कोई रोकने-टोकने वाला भी नहीं है। जहां चाहे वहां ले जाए। लेकिन मैं यह स‌ब क्यों स‌ोचने लगा। आखिर मुझे इसस‌े क्या लेना-देना।
वैसे कुछ भी हो वर्मा ने मकान बड़ा आलीशान बनवाया है। क्या खूब है। इतना बडा़ घर? इस अकेली के लिए? शायद बेचने की स‌ोच रही हो...एक दो दिन में बात करता हूं। बात बन जाए तो अच्छा ही है। अस्थाना का तो अपना मकान है ही...फिर इसकी क्या जरूरत? 'बेचेंगे' तो अच्छा ही है। नहीं तो मकानों की कमी थोड़े ही है। कहीं और देख लूंगा। ये अस्थाना ही टांग अड़ा स‌कता है। बहुत चालू चीज है। लेकिन मुझे इससे क्या लेना-देना।
रमेश भी आया है। अब इसका क्या होगा? इसकी फाइलें तो वर्मा ही निबटाता था। शायद इसीलिए स‌बसे 'रियल' दुखी नजर आ रहा है। पता नहीं कैसे पटा रखा था वर्मा को। खुद तो मोना स‌े दरबार करता रहता था और वर्मा बेचारा काम में लगा रहता था। अच्छा ही हुआ। अब बेचारे वर्मा की आत्मा को शांति मिलेगी। लेकिन अब इस रमेश को पता चलेगा। बहुत होशियार बनता है खुद को। कैसे बार-बार आंखों में रुमाल फेर रहा है। शर्म भी नहीं आती घड़ियाली आंसू बहाने में। पाखंडी कहीं का। इसका भी बहुत आना-जाना था वर्मा के यहां। मिसेज वर्मा को पति की जगह लगवाने की बात कह रहा था। बड़ा इंटरेस्ट ले रहा था। जरूर इसका कोई मतलब होगा...मतलबी तो नंबर एक का है। कहीं अब अपनी फाइलें मिस‌ेज वर्मा स‌े तो नहीं निबटवाने की तैयारी...? लेकिन मुझे इससे क्या लेना-देना।

मोना को देखो, क्लर्क है, लेकिन बनती ऎसे है जैसे खुद ही बॉस हो। स‌ादे कपड़ों में आना तो मजबूरी है। फिर भी मेकअप करना नहीं भूली। इसे भला वर्मा के रहने न रहने का कैसा दुख? उल्टे ये तो और खुश हो रही होगी कि अब वर्मा की पोस्ट इसे ही मिलेगी। तभी तो चेहरे पर दुख की एक भी लकीर नजर नहीं आ रही है। जाने दो, मुझे इस‌ स‌बसे क्या लेना-देना।

अरे, यह राजेश यहां क्या कर रहा है? शोक स‌भा में आने की तमीज भी नहीं है। वही कपड़े पहने चला आया। चपरासी है पर अकड़ ऎसी कि क्या कहने...एक चाय मंगाने के लिये दस बार कहना पड़ता है। ऊपर स‌े एक चाय एक्सट्रा, उसका गला तर करने के लिए। खड़ा तो ऎसे है जैसे बड़ा भोला है। मोना की चाय तुरंत आ जाती है। हमारा काम तो पचास नखरे जैसे तनख्वाह ही नहीं लेता। अहमक कहीं का।

अच्छा, ये गणेश भी आया है। ऑफिस में तो शक्ल ही नहीं दिखाई देती। यहां कैसे आ गया? मुफ्त की तनख्वाह लेता है। पता नहीं बॉस के घरवालों को कौन स‌ी घुट्टी पिला रखी है। शायद बॉस की बीवी को....। इसकी हाजिरी तो ऑफिस की जगह घर पर लगती है। आज पूरे एक महीने बाद शक्ल दिखाई है। वह भी यहां। ऑफिस जाएगा लेकिन बस पे लेने। काम स‌े इसका क्या वास्ता? बॉस ने जो लिफ्ट दे रखी है। लगता है बॉस की कोई कमजोर नस इसके हाथ आ गई है। तभी तो बॉस ने इसे आज तक रोका-टोका नहीं है। ये करता क्या है? जरूर कोई स‌ाइड बिजनेस शुरू कर रखा होगा। तभी तो कार स‌े चलता है। लगता है काफी कमाई हो रही है। होने दो, मुझे इसस‌े क्या लेना-देना।

स‌चमुच वर्मा के जाने स‌े मैं बहुत दुखी हूं। मैं तो हमेशा स‌े उसका, उसके परिवार का शुभचिंतक रहा हूं। बाकी लोग कैसे हैं इससे मुझे क्या लेना देना।

शोक स‌भा में स‌भी अपनी राय प्रकट कर रहे थे। बडा़ अच्छा आदमी था...कभी किसी स‌े टेढ़े होकर बात नहीं की। स‌बसे अच्छा व्यवहार और काम पर ध्यान, यही तो खूबियां थीं वर्मा की। वैस‌े मरने के बाद हर आदमी बहुत अच्छा हो जाता है। उसकी बुराइयां दूर होते देर नहीं लगती। मेरी राय में वर्मा स‌चमुच बहुत अच्छा आदमी था। मगर अच्छा हो या बुरा, अब तो मर खप गया। अब भला मुझे उसस‌े क्या लेना-देना?

मंगलवार, 6 मई 2008

एक गधे का एक्सक्लूसिव इंटरव्यू

आपका जन्म कब और कहां हुआ?
-मुझे ठीक-ठीक तो नहीं मालूम, किंतु मेरे दादा, परदादा कहा करते थे हम स‌ीधे स्वर्ग स‌े उतरे हैं। और जहां तक हमारे जन्म के स‌मय की बात है तो निश्चय ही वह कोई शुभ घड़ी रही होगी।

जैसा कि आपने बताया कि आपका आगमन स्वर्ग स‌े हुआ है, तो क्या अब आज के हालात में आपको दोबारा मृत्युलोक छोड़कर स्वर्ग जाने का मन नहीं करता?
-करता तो बहुत है, लेकिन धरती पर भी तो हमारी कुछ जिम्मेदारियां हैं। अब एकदम स‌े उनसे मुंह मोड़ना भी तो ठीक नहीं लगता और फिर, हमारा मालिक भी तो इतना कड़क और निर्दयी है हम कहीं इधर-उधर जाने की स‌ोच भी नहीं स‌कते। अगर कोशिश भी करते हैं तो उसे पता नहीं कहां स‌े पहले ही खबर हो जाती है। हर जगह उसने अपने जासूस छोड़ रखे हैं।

तो आप स‌ब मिलकर एक पार्टी गठित करके स्वयं ही क्यों नहीं मालिक बन जाते?
-यह भी कोशिश की थी हमने, किंतु पर्याप्त स‌मर्थन नहीं मिल पाया। हमारे कुछ स‌ाथी लालचवश मालिकों स‌े जा मिले और कुछ दल बदलू निकले।

तो आप किसी अन्य दल स‌े गठबंधन क्यों नहीं कर लेते?
-हां, इस पर हम विचार-विमर्श कर रहे हैं। हम देख रहे हैं कि किस दल की स‌ोच हमारी स‌ोच है और उसका वोट बैंक कितना है।

आपकी पार्टी का चुनाव चिह्न क्या है?
-आदमी

बड़ा अजीब चुनाव चिह्न है। आपको तो अपनी ही बिरादरी स‌े कोई चुनाव चिह्न रखना चाहिए था।
-लगता है इस क्षेत्र में आपकी जानकारी थोड़ी कम है। अरे जब हमारे पड़ोसी देश के मनुष्यों की एक पार्टी हमें अपना चुनाव चिह्न बना स‌कती है तो फिर हम उन्हें क्यों नहीं।

आपकी पार्टी के मुद्दे क्या होंगे?
-यही कि हमें भी स‌माज में अन्य जानवरों मसलन गाय, भैंस जैसा स्थान मिले। रिटायर्ड गधों को पेंशन और हमारी नई पीढ़ी को आरक्षण की स‌ुविधा मिले।

यदि मनुष्यों की पार्टी ने स‌रकार बनाने के लिए आपकी पार्टी का समर्थन मांगा तो आपका क्या रवैया रहेगा?
-हम उन्हें मुद्दों पर आधारित स‌मर्थन देंगे। अपने मुद्दे हम पहले ही बता चुके हैं। बाकी स‌मय आने पर मिल-बैठकर तय कर लेंगे।

ऎसे में क्या आपकी पार्टी स‌रकार में शामिल होगी?
-नहीं, हम स‌रकार को बाहर स‌े स‌मर्थन करेंगे। क्योंकि मनुष्यों के स‌ाथ काम करने में हमारे लोगों को मुश्किल होगी। वो बातों स‌े काम लेते हैं और हम लातों स‌े। मनुष्यों में चापलूसी की बीमारी भी बहुत ज्यादा होती है। जो हमें कतई पसंद नहीं। ऎसे में उन्हें हमारी कार्यशैली शायद पसंद न आए।

मान लीजिए आप अकेले स‌त्ता में आ जाएं तो वर्तमान व्यवस्था में क्या फेरबदल करेंगे?
-बहुत कुछ बदलना होगा। स‌बसे पहले तो आवास विकास और भवन निर्माण स‌े स‌ंबंधित स‌भी विभागों के कार्य की दिशा में परिवर्तन लाएंगे। इंजीनियरों को मकान गिराकर बड़े-बड़े मैदान बनाने और वहां पर्याप्त मात्रा में हरी-हरी विलायती घास लगवाने का काम स‌ौंपा जाएगा। हम कॉलोनियों को हरे-भरे मैदानों में तब्दील करवा देंगे। ताकि हमारे भाई-बंधु मुफ्त में ही वहां उच्च क्वालिटी की घास चर स‌कें। एक चारा विभाग का भी गठन हम करेंगे। इसके अलावा अन्य जरूरी विधेयक भी पेश किए जाएंगे।


यह स‌ब तो ठीक है, किंतु गधा रहेगा गधा स‌दा, इस पर आप क्या कहेंगे?
-आपके इस स‌वाल की वजह मैं स‌मझ स‌कता हूं (नाराज होते हुए) आप इंसानों को अपनी कुर्सी छिनती नजर आ रही है, इसीलिये व्यक्तिगत कमेंट पर उतर आए। लेकिन हमें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। हम गधे हैं तो गधे ही रहेंगे। हम इंसान बन कर अपनी तौहीन भी नहीं कराना चाहते। हम उनमें स‌े नहीं हैं जो दूसरों की संस्कृति स‌े प्रभावित होकर अपनी भाषा, स‌ंस्कार, पहनावा यहां तक कि अपनी पहचान तक खो देते हैं। हां, कुछ मूर्ख वैज्ञानिक जरूर हमारी पहचान को नष्ट करने की लगातार कोशिश कर रहे हैं, लेकिन करने दीजिए। हम भी कुछ कम नहीं। आखिर गधे हैं हम और रहेंगे स‌दा।

छोड़िए कोई और बात करते हैं। अच्छा, जरूरत पड़ने पर गधे को भी अपना बाप बनाना पड़ता है, इस पर आपके क्या विचार हैं?
-विचार की क्या बात है, आपके स‌माज में मनुष्य की एक विशेष प्रजाति है। उसे नेता कहते हैं। अक्सर स‌ुनने में आता है कि अमुक नेता ने आज फलां पार्टी की स‌दस्यता ग्रहण कर ली, तो फिर कल फिर दल बदल लिया। स‌ब जरूरत की दुनिया है। जरूरत पड़ी तो...मेरा आशय स‌मझ गए होंगे आप...। हम भी वैसा ही करेंगे।

यदि कोई आदमी दूसरे आदमी को गधा कह दे और आप स‌ुन लें तो क्या प्रतिक्रिया रहेगी आपकी?
-(नराजगी स‌े) यह हम कतई नहीं बर्दाश्त करेंगे कि कोई हमारी तुलना आदमियों स‌े करे। यह तो स‌रासर हमारा अपमान है। आखिर हमारी भी कोई पहचान है, अपना स्टेटस है।

अच्छा यह बताइए, गधे कितने प्रकार के होते हैं?
-स‌िर्फ दो प्रकार के। देशी और विलायती।

विदेशी और देशी गधे में क्या फर्क है?
-बहुत फर्क है। विदेशों में मात्र चार पैर वाले गधे पाए जाते हैं, जबकि हमारे देश में 'चार स‌े कम' पैर वाले गधे बहुतायत में मिलते हैं। विदेशी गधों के मुकाबले देशी गधे अधिक चतुर और स‌मझदार होते हैं।

वह कैसे?
-यह तो आपको इलेक्शन के पश्चात पता चल ही जाता है।

कुछ लोगों का कहना है कि भारत आपकी स‌रजमीं नहीं है?
-(तीव्रता स‌े आक्रोश में) झूठ कहते हैं वो। यही हमारी स‌रजमीं है। और यहीं हम स‌बसे अधिक मात्रा में पाए जाते हैं। स‌बसे बड़ी बात तो यह है कि यहीं हमारी कौम स‌बसे ज्यादा स‌ुरक्षित है औऱ यहीं उसका भविष्य स‌बसे ज्यादा उज्ज्वल है।

शुक्रवार, 2 मई 2008

जहां पर्दे की जरूरत है, वहां पर्दा होना चाहिए : कुंवर 'बेचैन'

मंच के स‌ाथ हिंदी कविता की दूरी यद्यपि छायावाद के जमाने स‌े ही बढ़ने लगी थी लेकिन अभी बमुश्किल तीस वर्ष पहले तक मंचीय कविता को आज की तरह कविता की कोई भिन्न श्रेणी नहीं माना जाता था। आज भी शास्त्रीय रुचियों वाले कुछ कवि मंच पर प्रतिष्ठित हैं, लेकिन एक जाति एक जेनर के रूप में मंचीय कविता अब शास्त्रीय रुचि वाले लोगों के बीच कुजात घोषित हो चुकी है। इस विडंबना को लेकर और कुछ अन्य महत्वपूर्ण स‌वालों पर भी प्रस्तुत है मंचीय कविता के प्रतिष्ठित नाम शायर कुंवर 'बेचैन' के स‌ाथ कुछ अरसा पहले हुई रवीन्द्र रंजन की खास बातचीत के प्रमुख अंश-

कवि-सम्मेलनों और मुशायरों का जो स्तर पहले देखने को मिलता था वह इधर दिखाई नहीं दे रहा है। क्या आप को भी ऎसा लगता है कि मंचीय कविता का स्तर गिर रहा है?
-हां, यह स‌च है कि आज जो कविता मंच पर पढ़ी जा रही है, कलात्मक दृष्टि स‌े उसका स्तर गिरा है। थोड़ा फूहड़पन भी आया है। कहा जाता है कि यह फूहड़पन हास्य कविता के जरिये ही आया है। हालांकि मैं इसे पूरी तौर पर स‌च नहीं मानता। मेरा मानना है कि रस कोई भी फूहड़ नहीं होता। उस रस में स‌ुनाई जाने वाली कविता फूहड़ हो स‌कती है। लेकिन मंच पर अगर कुछ घटिया हो रहा है तो काफी कुछ अच्छा भी हो रहा है। दरअसल, हो यह रहा है कि जो लोग कभी कवि स‌म्मेलनों में नहीं जाते वे ही कवि स‌म्मेलनों की आलोचना कर रहे हैं। पूरी रचना स‌ुने या पढ़े बगैर मात्र मीडिया स‌े प्रसारित कुछ अंश स‌ुनकर या पढ़कर ने निष्कर्ष निकाल रहे हैं। आज भी ऎसे कवि हैं जो मंच के माध्यम स‌े एक बहुत बड़े वर्ग तक पहुंचकर विद्वेष मिटाने का काम कर रहे हैं। इसलिये आलोचकों को एकांगी नहीं होना चाहिये।

लेकिन यह तो एक आम बात है कि मंचों पर अब हल्के-फुल्के कवियों को ही ज्यादा कामयाबी मिल रही है। श्रोताओं की रुचि में इतना परिवर्तन आने की क्या वजह हो स‌कती है?
-जहां तक श्रोता का टेस्ट बदलने का स‌वाल है तो मैं कहूंगा कि आज का जो स‌माज है वह तीन चीजें लिये बैठा है-तनाव, आक्रोश और तेजी। गरीब स‌े मिलकर अमीर, अनपढ़ स‌े लेकर पढ़ा-लिखा तक, हर व्यक्ति आज किस‌ी न किसी तनाव में जी रहा है। ऎसे में हास्य की अच्छी कविता हो या खराब या फिर चुटकुले ही क्यों न हों, उनके माध्यम स‌े व्यक्ति तनाव स‌े निकलना चाहता है। जैसे तनाव मुक्त करने वाली गोलियां-गोली कौन स‌ी है इससे किसी को खास मतलब नहीं होता। उसे तनाव स‌े मुक्ति मिल गई। वह कविता कैसी थी, तनाव मुक्त करने वाली गोली कौन स‌ी थी इससे उसे कोई मतलब नहीं रहता। यह बात अलग रही कि घर जाने के बाद या कुछ दिनों बाद वह स‌ोचे कि वह तो चुटकुला ही था।
दूसरी चीज है आक्रोश। आज हर आदमी एक आक्रोश लिये बैठा है। जब मंच स‌े उसके आक्रोश की अभिव्यक्ति किसी कवि द्वारा व्यक्त होती है तो श्रोता को अच्छा लगता है। उस‌का स्तर क्या है यह बात उसके लिये बहुत ज्यादा मायने नहीं रखती। तीसरी चीज है तेजी अर्थात् गति। हर आदमी आज जल्दी में है। हमारे यहां कविता प्रतीकात्मक शैली में कहने का चलन रहा है। किंतु आज यदि हम ऎस‌ा करते हैं तो हो स‌कता है कि कविता श्रोता की स‌मझ में ही न आए। आज कविता का अर्थ श्रोता तक तपाक स‌े पहुंचना चाहिये। यह तभी स‌ंभव है जब स‌ीधी-सीधी बात कही जाए। स‌िर्फ अर्थ ही नहीं, स‌ुनाने में भी गति चाहिये। क्योंकि आजकल हर व्यक्ति गाड़ी में ही दौड़ना चाहता है। जहां तक स्तर की बात है तो आज बहुत स‌े मंचीय कवियों को स्तर की स‌मझ नहीं है और न ही यह स‌मझ श्रोताओं के पास है। हालांकि आज भी बहुत स‌े कवि हैं जिन्होंने मंच पर भी स्तर कायम रखा है।

हिंदी कविता में गजल की स्थिति को लेकर आलोचकों में अभी भी मतभेद हैं। इसके बारे में आपकी क्या राय है?
-शुरू में उर्दू शायरों का भी कहना था कि हिंदी गजलकार गजल के मिज़ाज को जानते ही नहीं और अंट-शंट गजल कह रहे हैं। कुछ हद तक यह स‌च भी था। क्योंकि जब एक भाषा की विधा किसी दूसरी भाषा में प्रवेश करती है तो उसे एडजस्ट होने में कुछ स‌मय तो लगता ही है। मेरा मानना है कि हिंदी गजल स‌बसे अधिक स‌मन्वयकारी है। यह स‌बसे अधिक करीब लाने वाली, सांस्कृतिक एकता स्थापित करने वाली स‌ाबित हुई है। आज उर्दू शायर भी अपने गजल स‌ंग्रह देवनागरी में लिपि में छपवा रहे हैं। दुष्यंत ने जिस हिंदी गजल की शुरुआत की वह आज काफी फल-फूल रही है। हिंदी गजल ने अपने छोटे-छोटे पैरों स‌े 30 स‌ाल की लंबी यात्रा तय कर ली है। इस दौरान हिंदी गजल ने बहुत स‌े नए विषय दिये हैं, जिन्हें उर्दू वालों ने भी अपनाया। इसलिए हिंदी गजल का उदय हिंदी कविता और उर्दू कविता दोनों के ही लिये स‌ुखद माना जा स‌कता है।

हिंदी गजल के इस स‌मन्वयकारी प्रभाव के बारे में थोड़ा और विस्तार से बताएं।
-वैसे तो स‌ारी विधाएं युग के अनुसार अपने स्वरूप में बदलाव लाती हैं। दोहों को भी नई भाषा, शिल्प, नए प्रतीकों के माध्यम स‌े कहने का रिवाज चला है। उर्दु गजल ने भी अपने परंपरागत विषय हुस्न-इश्क को छोड़कर नए विषय अपनाए हैं। आधुनिक परिस्थितियों में व्यंग्यात्मक कविता भी बड़ी तेजी स‌े उभरी है। ये प्रवृत्तियां उर्दू गजल में बहुत कम थीं, लेकिन जब स‌े हिंदी कविता में दुष्यंत की गजलें स‌ामने आईं तब स‌े ये बदलाव देखने को मिले हैं। इमरजेंसी पीरियड में दुष्यंत ने जो गजलें कहीं उनसे व्यवस्था पर भारी चोट हुई। उनमें एक नयापन था जो उर्दू गजलों में कभी नहीं रहा। हिंदी के कवि भी इससे बहुत प्रभावित हुए। गीतकार, नवगीतकार भी हिंदी गजल की ओर उन्मुख हो गए।
इस स‌मय यदि हिंदी कविताओं के स‌ंकलन उठाए जाएं तो उनमें 70 फीसदी स‌ंकलन गजलों के हैं। चाहे वे व्यक्तिगत स‌ंकलन हों या अलग-अलग कवियों के। हम कह स‌कते हैं कि हिंदी गजल आज तुकांत और लयबद्ध हिंदी कविता का पर्याय बन गई है। विधा कोई भी हो यदि वह लगातार एक स‌ी बनी रहती है तो उसमें जड़ता आ ही जाती है। हिंदी कविता में गजल के प्रवेश ने उसकी इस जड़ता पर चोट की है। अज्ञेय जी जापान स‌े हाइकू कविता लाए। त्रिलोचन जी ने स‌ॉनेट लिखे। आज के उर्दू शायर दोहे लिख रहे हैं। हिंदी गजलों को इसी तरह की प्रयोगात्मक श्रेणी में लिया जाना चाहिए। यद्यपि उसका विस्तार आज अन्य किसी भी प्रयोग स‌े ज्यादा हो गया है।

आपकी दृष्टि में वर्तमान उर्दू गजल किन परिवर्तनों स‌े गुजर रही है? उसमें कौन स‌े बुनियादी बदलाव आते दिखाई दे रहे हैं?
-आज उर्दू गजल के विषय भी वही हो गए हैं स‌मकालीन हिंदी कविता के हैं। शायरी के परंपरागत विषयों को बरकरार रखते हुए भी शायरों ने आज की स‌ोच, स्थिति, विद्रूपताओं को स‌ाफ-साफ कहना शुरू कर दिया है। जबकि शायरी में अपनी बात इशारों में कहने का चलन ज्यादा रहा है। हालांकि उर्दू शायरी मुख्य विषय आज भी मोहब्बत ही है। लेकिन आज शायर मोहब्बत पर भी जो कुछ कह रहे हैं, उसकी भाषा और विषय में स‌मयानुसार स्पष्ट बदलाव देखा जा स‌कता है। बशीर बद्र, वसीम बरेलवी, निदा फाजली आदि की उर्दू भी हिंदी जैसी हो गई है। भाषा, बिंब, प्रतीक स‌भी में तेजी स‌े परिवर्तन आया है। अब उर्दू के शायर भी मां, पिता, बहन, बेटी पर, नेताओं पर शेर कह रहे हैं। दूसरी तरफ रुबाइयों को उर्दू का कठिन छंद माना जाता है, लेकिन हिंदी में आज रुबाइयां लिखने का प्रचलन उर्दू स‌े ज्यादा हो गया है। जहां तक खामियों का स‌वाल है, शायर का स‌ीधा स‌ंबंध जब जनता स‌े बनता है तो शास्त्रीयता वाला पक्ष कुछ कमजोर हो ही जाता है।

स्वतंत्रता के शुरुआती दशकों में नई कविता का दावा था कि आधुनिक विसंगतियों स‌े भरे यथार्थ को वह ही स‌ामने लाने में स‌क्षम है। उसके कवियों ने नवगीत की जबर्दस्त आलोचना भी की। लेकिन आज नवगीत के कुछ आलोचक भी नवगीत लिख रहे हैं, इसकी वजह क्या है?
-समालोचकों का कहना है कि नवगीत नई कविता के स‌ामने आ खड़ा हुआ था। मेरा मानना है कि गीत एक स‌हज प्रक्रिया है। जैसे-जैसे व्यक्ति का परिवेश बदलता है, उसकी मानसिकता भी बदलती है। जैसे कस्बाई माहौल में आपसी प्रेम-भावना ज्यादा महत्वपूर्ण होती है। जबकि महानगर की स्थिति है...नयन गेह स‌े निकले आंसू ऎसे डरे-डरे, भीड़ भरा चौराहा जैसे कोई पार करे...। मतलब यह की नवगीत की परंपरा स‌हज रूप में ही विकसित हुई। यह कहना कि कोई चीज स‌ामने लाकर खड़ी कर दी गई, शायद उचित नहीं है। स‌मय के अनुसार नए परिवर्तन आए तो कवियों ने उसे गीत में ढाला और एक स‌हज प्रक्रिया के तहत नवगीतों की परंपरा शुरू हुई। प्रारंभिक नवगीतकार जैसे राजेंद्र प्रसाद स‌िंह, शंभूनाथ स‌िंह, उमाकांत मालवीय, ओमप्रकाश आदि नवगीत में स‌हज रूप स‌े ही आए। इन्हें नवगीत तो स्थापित करने का भी श्रेय जाता है।

गीत व नवगीत का भेद कहां तक उचित है? पुराने गीतकार तो नवगीत जैसे किसी शब्द को मान्यता देने को भी तैयार नहीं हैं। उनका कहना है कि गीत तो गीत होता है, फिर यह नवगीत क्या है?
-हां, कुछ लोग ऎसा कहते हैं। उनका कहना है कि इसका नाम नवगीत नहीं होना चाहिये। मैं भी इस बात का पक्षधर हूं क्योंकि गीत तो गीत होता है, लेकिन किसी बात को खास पहचान देने के लिए एक विशेषण लगाना होता है। जो पुराने गीत चले आ रहे थे, उनसे ये कुछ हटकर हैं। इनकी भाषा, शिल्प, तेवर कुछ अलग है। कुल मिलाकर इस‌मे कुछ नयापन स‌ा दिखा, इसलिए इसको नवगीत कह दिया गया। जहां तक नई कविता का प्रश्न है, उम्र के स‌ाथ-साथ इसके विचार तत्व में वृद्ध हुई है। यह स्वाभाविक है। उम्र के स‌ाथ-साथ विचार बढ़ते ही हैं।

पिछले करीब तीन दशक स‌े स‌े आप अध्यापन स‌े जुड़े हैं आजकल जो छात्र हिंदी अध्ययन-अध्यापन में आ रहे हैं, वे हिंदी स‌ाहित्य में कितनी रुचि ले रहे हैं? हिंदी स‌ाहित्य के प्रति उनका क्या नजरिया है?
-सच्ची बात कही जाए तो आजकल हिंदी में बचा-खुचा माल आता है। जिस महाविद्यालय में मैं पढ़ाता हूं वहां बहुत स‌ारे विषय हैं। छात्रों के पास ऑप्शन हैं। जब कहीं एडमिशन नहीं होता तभी वे हिंदी में आते हैं। घर में पड़े-पड़े क्या करेंगे, इसी बहाने घर स‌े बाहर निकलने को तो मिलेगा। क्लास जाएं या न जाएं क्या फर्क पड़ता है। आजकल कोई ही छात्र होगा जो हिंदी में रुचि के कारण आता हो, पहले ऎसी स्थिति नहीं थी। कविता या स‌ाहित्य स‌े लगाव के कारण आज कोई हिंदी में नहीं आ रहा है। यह वास्तविकता है। इसका प्रमुख कारण पब्लिक स्कूलों की संस्कृति है। हालत तो ये है कि ये बच्चे 'पैंसठ' तक नहीं जानते। इन्हें तो 'स‌िक्सटी फाइव' ही मालूम है। हालांकि इन स‌बके बीच अगर कोई अच्छा छात्र आ जाता है तो वह आगे जाकर अपनी प्रतिभा स‌िद्ध करता है। लेकिन फिलहाल ऎसी प्रतिभाएं कम ही आ रही हैं।

फिल्मों के लिए लिखने के बारे में आप क्या सोचते हैं? क्या फिल्मों के लिये लिखते हुए भी स्तर बरकरार रखा जा स‌कता है?
-जहां तक फिल्मों के लिये लिखने का स‌वाल है तो वहां कहानी की मांग के अनुसार ही गीतकार को शब्द पिरोने होते हैं। अब अगर कहानी की मांग घोर श्रृंगारिक है तो यहां गीतकार को स‌ावधानी बरतनी पड़ती है। इस मामले में गुलजार और निदा फाजली की प्रशंस‌ा करनी होगी, जिन्होंने अपना स्तर बनाए रखा है। गुलजार की शायरी में नयापन है। निदा फाजली भी बहुत उम्दा शायर हैं। उनकी शायरी की जो नवैय्यत है उसी के लोग कायल हैं। दबाव में अगर कहीं थोड़ी बहुत नंगेपन की भी स‌ंभावना होती है तो अच्छा शायर उसमें पर्दा डाल देता है, जिससे उसमें फूहड़ता नहीं आने पाती। जहां पर्दे की जरूरत है वहां पर्दा रहना चाहिए। शायरी में अगर थोड़ा-बहुत पर्दा रहे तो यह अच्छी बात है।

शनिवार, 1 मार्च 2008

तुम्हारा नाम क्या है? ...(5)

[गतांक से आगे] ठीक है ! मैं कल ही बॉस से बात करती हूं। दोनों छुट्टी कर लेते हैं। वैसे मुझे नहीं लगता छुट्टी मिलने में कोई प्राब्लम आएगी।
हां, वो तो है। देख लो बात करके। प्रिया ने उदासीन लहजे में जवाब दिया।
हर दिन की तरह अगले दिन भी नेहा और प्रिया सुबह आफिस के लिये तैयार होने में जुटी थीं। हमेशा की तरह तैयार होने में देरी के लिये प्रिया ने नेहा की डांट खायी। हमेशा की तरह प्रिया ने उसकी बात एक कान से सुनी और दूसरे कान से निकाल दी।
अरे, इस लड़की ने तो मेरी जिंदगी का कबाड़ा कर दिया है। जब देखो आर्डर झाड़ती रहती है। एक पल को चैन नहीं लेने देती। आफिस में तो हैं ही सब बॉस बनने के लिये और कमरे पर आकर यह मेरी बॉस बन जाती है। जल्दी करो-जल्दी करो!! पता नहीं कौन सा तीर मारना है जल्दी पहुंचकर।
ज्यादा से ज्यादा वो रोहन यही ताना मारेगा न कि आज फिर लेट हो। बॉस के पास थोड़े चला जाएगा। अगर उसने ज्यादा स्मार्ट बनने की कोशिश की न तो मैं उसे एक ही दिन में सीधा कर दूंगी। तू चिंता मत कर और मुझे अपने तरीके से तैयार होने दे। प्रिया बोलती जा रही थी और नेहा सुने जा रही थी।
नेहा ने प्रिया को घूर कर देखा और प्रिया खिलखिलाकर हंस दी। नेहा के होठों पर भी मुस्कुराहट तैर गई।
अच्छा अब कमरा बंद करो और चलो। बकवास मत करो।
ठीक है बबा ! चल तो रही हूं। क्यों किसी और का गुस्सा मेरे ऊपर निकालने में जुटी हो। यह कहते हुये प्रिया की आखों में शरारत साफ नजर आ रही थी।
प्रिया का इशारा नेहा अच्छी तरह समझ गई थी। शायद इसीलिये उसने खामोशी ओढ़ ली।
बस आई, दोनों उस पर चढ़ गईं। सीट भी मिल गई। लेकिन नेहा ने एक शब्द भी नहीं बोला। प्रिया भी शायद उसे टोकने की हिम्मत नहीं कर पाई।
नेहा की यह चुप्पी ज्यादा देर तक कायम नहीं रह सकी।
अगले बस स्टाप पर वो लड़का एक बार फिर उसकी नजरों के सामने था। उस पर नजर पड़ते ही नेहा का तो जैसे खून खौल गया।
उस लड़के को देखते ही नेहा का ब्लडप्रेशर बढ़ जाता था।
हालांकि अभी तक उसने नेहा से कभी कोई ऐसी बात नहीं कही थी जिससे उस पर बदमाश या लफंगा लड़का होने का लेबल लगाया जा सके।
'आज आप लेट हो गईं?' उस लड़के ने नेहा की सीट पर आकर पूछा।
नेहा ने कोई जवाब नहीं दिया।
प्रिया की नजरों दोनों को चुपके से घूर रहीं थी। शायद उसे इंतजार था नेहा के कुछ बोलने का।
आपने कोई जवाब नहीं दिया....
अच्छा आज तो अपना नाम बता दीजिये...
अच्छा मैं अपना नाम तो बता ही देता हूं....
मेरा नाम है मनीष और आपका...?
'मैंने तुमसे कहा था न कोई नाम नहीं है मेरा।' नेहा ने चुप्पी तोड़ी।
नाराज क्यों होती हो। नाम ही तो पूछा है। कोई गाली तो नहीं दे दी।
क्यों मेरा नाम जानना चाहते हो?
बताओ क्यों जानना चाहते हो मेरा नाम?
जवाब दो...
अब उस लड़के ने खामोशी ओढ़ ली।
अब चुप क्यों हो? बताओ क्यों पूछना चाहते हो मेरा नाम? नेहा ने खीझकर अपना सवाल रिपीट किया।
अभी नहीं, पहले वादा करो तुम मेरे साथ मेरे घर चलोगी।
दिमाग खराब हैं क्या?
क्यों चलूंगी तुम्हारे घर....तुम कोई मेरे रिश्तेदार लगते हो?
नहीं, मैंने कहा था न, मैं तुम्हें अपने मम्मी-पापा से मिलाना चाहता हूं।
किसलिए? मुझे न तुममे कोई इंट्रेस्ट है औऱ न ही तुम्हारे मम्मी-पापा में। बस मेरा पीछ छोड़ दो।
इतना कहकर नेहा ने फिर खामोशी ओढ़ ली।
बस में बैठे सारे लोगों की निगाहें नेहा की तरफ ही टिकी थीं।
रोज आने-जाने वाले यात्री तो नेहा और उस लड़के से अच्छी तरह वाकिफ हो चुके थे।
इसके बावजूद आज तक किसी ने उस लड़के को एक शब्द नहीं बोला।
शायद बस यात्रियों के लिये भी वो दोनों टाइम पास का साधन बन चुके थे। (जारी...)

शुक्रवार, 15 फ़रवरी 2008

तुम्हारा नाम क्या है? ...(4)

मुझे तुम्हारे किसी सवाल का जवाब नहीं देना।
चलो प्रिया। जल्दी करो। आज तो इस पागल ने सबके सामने हमारा तमाशा बना दिया। पता नहीं किस जनम की दुश्मनी निकाल रहा है। हाथ धोकर पीछे पड़ गया है।
नेहा इतने तेज कदमों से चलने की कोशिश कर रही थी कि उसके कदम भी उसका साथ नहीं दे पा रहे थे। प्रिया उसे रुकने की आवाज देकर उसके पीछे-पीछे भाग रही थी।
आसपास के लोगों की नजरें नेहा और प्रिया पर ही थीं। लोगों को भी मुफ्त में अच्छा-खासा तमाशा जो देखने को मिल गया था।
प्रिया ने एक बार पीछे मुड़कर देखा। वह लड़का अब भी वहीं पर खड़े होकर उन्हें घूरे जा रहा था।
अब शायद प्रिया को उससे कुछ सहानुभूति होने लगी थी।
मन ही मन प्रिया ने पिछली सारी बातें दोबारा याद करने की कोशिश कीं।...नाम ही तो पूछ रहा था बेचारा। कोई उल्टी-सीधी बात तो नहीं की। कहीं होटल या क्लब में ले जाने की बात तो कर नहीं रहा था। मम्मी-पापा से ही तो मिलवाना चाहता है। तो क्या शादी...? यानी उसकी इरादा नेक है। लेकिन वो नहीं जानता कि...
अचानक प्रिया ने अपनी सोच पर विराम लाग दिया। इसके बावजूद वह लगातार सब कुछ समझने की पूरी कोशिश कर रही थी।
वहीं नेहा के कदम अब भी रुकने का नाम नहीं ले रहे थे।
प्रिया ने उसे आवाज दी, नेहा ने पीछे मुड़कर देखा और उसके कदम रुक गये।
प्रिया भाग कर गई और उससे लिपट गई। अब चलो भी। नेहा ने फिर दोहराया। उसका मूड अब भी ठीक नहीं हुआ था।
क्या बेशर्मी है। रोज का तमाशा हो गया है। पीछा ही नहीं छोड़ रहा है। लगता है मुझे यह नौकरी ही छोड़नी पड़ेगी। नेहा ने निराशा भरे स्वर में कहा।
नौकरी क्यों छोड़ेगी। तेरे लिये दूसरी नौकरी रक्खी है क्या? फिर घूमना इस कंपनी से उस कंपनी, दूसरी नौकरी की तलाश में। घर में तो बैठेगी नहीं? इतना तो मैं भी जानती हूं।
तेज कदमों की आवाज के सिवा अब नेहा और प्रिया के बीच कुछ नहीं था।
दोनों खामोश थीं।
हास्टल नजदीक ही था कि नेहा ने खामोशी तोड़ी। छुट्टी ले लेती हूं एक हफ्ते की।
उससे क्या होगा?
अरे, दो-तीन दिन बाद वो भी अपना रास्ता बदल देगा।
हां, ऐसा हो सकता है। लेट्स ट्राई! प्रिया को नेहा का यह आइडिया जंच गया।
लेकिन मैं अकेले तो आफिस में बोर हो जाउंगी और रास्ते में भी।
वो मेरे पीछे पड़ जाएगा। तुम्हारे बारे में पूछने लगेगा। तब मैं अकेली क्या करूंगी?
हमममम...ऐसा कर तू भी छुट्टी कर ले। नेहा यूं बोली जैसे उसके दिमाग में कोई शानदार आइडिया आ गया हो। (जारी...)

सोमवार, 11 फ़रवरी 2008

तुम्हारा नाम क्या है?...(3)

अगला दिन और फिर वही डर। कहीं वह लड़का पीछे न पड़ जाए।
लगता है इस बस का इंतजार करने के सिवा उसके पास कोई काम-धाम ही नहीं है। नेहा ने प्रिया की राय जाननी चाही।
हां, बड़े बाप की बिगड़ैल औलाद लगता है। हां कर दे तेरी तो लाइफ बन जाएगी। प्रिया ने फिर चुहलबाजी की।
तू चुप रहेगी या दूं एक घुमा के। नेहा ने नकली गुस्सा दिखाते हुए कहा। क्योंकि यह बात कहते हुए उसके होठों पर भी हंसी तैर रही थी।
अभी तक बस नहीं आई...? लगता है आज जरूर लेट होंगे। कुछ देर चुप रहने के बाद नेहा ने आशंका जतायी।
इससे पहले कि प्रिया कुछ बोल पाती बस उनकी आंखों के सामने थी।
दोनों बिना एक पल गंवाए बस में सवार हो गईं।
लेकिन बस में दाखिल होते ही नेहा को जैसे सांप सूंघ गया। एक बार तो उसे लगा कि चलती बस से कूद जाए। वो चुपचाप आकर सीट पर बैठ गई। और प्रिया भी।
दरअसल वह लड़का आज पहले से ही बस में मौजूद था। नेहा को देखते ही वह उसके पास आकर खड़ा हो गया। नेहा लगातार खिड़की से बाहर की ओर देखे जा रही थी। उसका दिल तेजी से धड़क रहा था। एक बार तो उसे लगा कि वह आज उसे फटकार ही दे। लेकिन कुछ सोचकर वह चुप रह गई। नेहा चुप थी। प्रिया भी चुप थी। वह लड़का भी चुप था।
तभी खामोशी टूटी।
आज तुमने वो पिंक वाला सूट क्यों नहीं पहना? वह तुम पर बहुत फबता है। उस लड़के ने सवाल किया जिसमें उसकी राय भी शामिल थी।
नेहा मन ही मन बुदबुदाई। ये तो हद हो गई। वह आज अपना गुस्सा रोक नहीं पाई। सीट छोड़कर खड़ी हो गई।
तुम होते कौन हो, यह पूछने वाले कि मैंने ये क्यों नहीं पहना वो क्यों नहीं पहना। मेरी जो मर्जी मैं पहनूं। तुम यहां से जाते हो या....? प्रिया ने उसे बीच में ही रोक दिया। अरे यार, दिमाग खराब कर रखा है इतने दिनों से। कंटक्टर गाड़ी रुकवाओ। मैंने कहा न, गाड़ी रुकवाओ अभी। हमें यहीं उतरना है। नेहा की आवाज में गुस्सा था और रोष भी।
बस में शोर-शराबा देख ड्राइवर ने गाड़ी रोक दी। नेहा तुरंत नीचे उतरी। प्रिया भी उसके पीछे दौड़ी...और वो लड़का भी।
मेरी बात तो सुनो, मैं तुम्हें अपने मम्मी-पापा से मिलवाना चाहता हूं।
तुम एक बार उनसे मिल तो लो। प्लीज।
प्रिया ने उसकी बात को अनसुना कर दिया।
बस के यात्री अभी भी उनकी ओर ही ताक रहे थे। कोई हंस रहा था कोई चुपचाप देख रहा था तो कई लोग कमेंट करने से भी बाज नहीं आ रहे थे।
'भाभी को मना लेना' भाई, तभी किसी की आवाज आई।
बस चल पड़ी थी। नेहा का वश करता तो उस कमेंट करने वाले को नीचे खींचकर चप्पल से मारती। लेकिन गाड़ी जा चुकी थी।
बड़े बेशर्म हो तुम। मैंने कह दिया न मुझे तुमसे कोई लेना देना नहीं है। फिर क्यों मेरे पीछे पड़े हो। प्लीज, मुझे बख्श दो और मुझे अपने रास्ते जाने दो। तुम अपने रास्ते जाओ। नेहा ने खीझते हुए कहा।
मैं चला जाउंगा। लेकिन मेरे सवाल का जवाब तो दो। लड़के ने बड़े ही शांतिपूर्ण तरीके से सवाल किया। ((जारी...)

शुक्रवार, 8 फ़रवरी 2008

तुम्हारा नाम क्या है? (2)

नेहा और प्रिया दो साल से एक गर्ल्स हास्टल में साथ-साथ रह रही थीं। पहले प्रिया दूसरी जगह नौकरी करती थी। लेकिन आठ महीने पहले उसे भी नेहा के आफिस में नौकरी मिल गई। उस पब्लिकेशन हाउस में प्रिया के आने से नेहा को तो जैसे मन मांगी मुराद मिल गई। अब दोनों ही एक साथ आफिस के लिये निकलतीं। एक साथ लौटतीं। दोनों ने अपना वीकली आफ भी एक ही दिन करवा लिया था। शनिवार। सब कुछ तो अच्छा चल रहा था। पता नहीं वो लड़का कहां से पीछे पड़ गया।
कहीं लौटते वक्त भी न मिल जाए। आफिस से निकलते हुए नेहा ने अपनी आशंका प्रिया के सामने रखी।
अरे नहीं यार, क्यों इतना टेंशन लेती है। प्रिया ने उसकी आशंका को निर्मूल बताते हुए कहा।
और मिल भी जाएगा तो क्या हुआ। लगता है बहुत पसंद करता है तुझे। तेरे पर दिल आ गया है बेचारे का। वैसे दिखने में तो बड़ा स्मार्ट है। प्रिया ने चुहलबाजी की।
चुप हो जा। बकवास मत कर। चुपचाप चल। नहीं तो घंटा भर खड़े रहना पड़ेगा बस स्टाप पर।
हां-हां, चल तो रही हूं। उड़ने तो नहीं लग जाउंगी। प्रिया ने पलटकर जवाब दिया।
नेहा को प्रिया की चुहलबाजी बिल्कुल अच्छी नहीं लग रही थी। रह-रह कर नेहा के सामने उसी लड़के का चेहरा आ जाता था। कहीं फिर मिल गया तो सबके सामने तमाशा बना देगा। पता नहीं क्यों मेरे पीछे पड़ा हुआ है। स्साला..प्रिया को गुस्सा आ रहा था।
अरे, भई! जब मिलेगा तब देखा जाएगा। अभी से क्यों दिमाग खराब कर रही है। प्रिया ने उसे समझाने की कोशिश की। आफिस से बस स्टाप चंद कदम की दूरी पर ही था।
अब नेहा और प्रिया बस स्टाप पर थीं। चुपचाप। खामोश।
शुक्र है आज बस जल्दी आ गई। प्रिया ने खामोशी तोड़ी और बस की तरफ बढ़ने लगी।
बस रुकी। प्रिया और नेहा उस पर चढ़ गईं।
बस में ज्यादा भीड़ नहीं थी। दोनों को सीट भी मिल गई।
नेहा चुपचाप थी। प्रिया भी चुपचाप उसके चेहरे के हावभाव पढ़ने की कोशिश कर रही थी।
प्रिया बहुत देर तक चुप नहीं रह सकती थी। चुप्पी तो जैसे उसे खाने को दौड़ती थी।
क्या हुआ यार, ऐसे चुप रहेगी तो मैं बस से कूद जाउंगी। कुछ तो बोल। यह कहते हुए प्रिया खिलखिला कर हंस दी।
नेहा के होठों पर भी मुस्कान तैर गई।
यही तो खूबी थी प्रिया की। हमेशा मुस्कराना और सामने वाले को भी हंसने के लिये मजबूर कर देना।
देखो हमारा स्टॉप आने वाला है और अब तक वो नहीं आया। अब तो खुश? प्रिया फिर चुहलबाजी के मूड में थीं।
हां खुश। नेहा ने भी हंसकर जवाब दिया।
अब वो आएगा भी नहीं। आज तो बच गये। कल की कल देखी जाएगी। नेहा का मूड अच्छा होते देखकर प्रिया चहक उठी।
बस स्टाप आ गया। दोनों नीचे उतर लीं और पैदल ही अपने हास्टल की तरफ चल पड़ीं। (जारी...)

तुम्हारा नाम क्या है?

अभी तक बस नहीं आई। लगता है आज फिर बॉस की डांट खानी पड़ेगी। ये बस भी तो रोज लेट हो जाती है। मैंने तुमसे पहले ही कहा था जल्दी करो लेकिन तुम हो कि तुम्हें सजने-संवरने से ही फुर्सत नहीं मिलती। पता नहीं कौन बैठा है वहां तुम्हारी खूबसूरती पर मर-मिटने के लिए। वो बुड्ढा खूसट बॉस...। नेहा बोले जा रही थी और प्रिया चुपचाप सुनती जा रही थी। उसे मालूम था कि यह गुस्सा लेट होने का नहीं है। यह गुस्सा बॉस की डांट खाने का भी नहीं है। वह बचपन से जानती है नेहा को। तब से जब दोनों स्कूल में साथ पढ़ती थीं। अब दोनो साथ-साथ नौकरी भी कर रही थीं।
शुक्र है आज सीट तो मिल गई !
कहते हुए नेहा बस के दायीं वाली सीट पर बैठ गई और साथ ही बैठ गई प्रिया। नेहा की सबसे अजीज दोस्त।
यह रोज का किस्सा था। कभी बस लेट हो जाती तो कभी वो दोनों लेट हो जातीं।
दरअसल असली किस्सा तो उनके बस में सवार होने के बाद शुरू होता था। जब अगले ही स्टाप पर वह लड़का उसी बस में सवार होता था। करीब दो हफ्ते से उसने नेहा की नाक में दम कर रखा था। जब तक वह बस में चढ़ता बस पूरी तरह भर चुकी होती थी।
जिस सीट पर नेहा बैठी होती थी वो लड़का भी वहीं आकर खड़ा हो जाता। कई बार तो भीड़ के कारण नेहा और प्रिया को भी सीट नहीं मिल पाती तब तो उसे बर्दाश्त करना मुश्किल हो जाता था। वह जानबूझकर वहीं खड़ा होता जहां प्रिया खड़ी होती।
तभी नेहा को लगा शायद कोई सवाल उसके कान से टकराया। अभी वह इस हकीकत को समझने की कोशिश कर ही रही थी कि वो सवाल एक बार फिर उसके सामने था।
क्या नाम है आपका? उस लड़के ने नेहा से सवाल किया था। वो भी इस अंदाज में जैसे वह नेहा को बहुत पहले से जानता है।
नेहा आवाक रह गई। जान न पहचान बड़ा आया मेरा नाम जानने चला। वह मन ही मन बुदबुदाई।
मैंने पूछा क्या नाम है तुम्हारा? वह तो जैसे नेहा के पीछे ही पड़ गया।
कोई नाम नहीं है मेरा, तुमसे मतलब? नेहा ने चिढ़कर जवाब दिया।
देखो मुझे अपना नाम बताओ, मैं नाम पूछ रहा हूं न। उसने इस तरह सवाल दागा जैसे नेहा उसका जवाब देने के लिये मजबूर हो।
कहा ना, कोई नाम नहीं है मेरा।
तुम्हारे मां-बाप ने कोई तो नाम रखा होगा तुम्हारा?
नहीं कोई नाम नहीं रखा।
बस में किसी ने उसे कुछ नहीं कहा। किसी ने उसे रोकने की कोशिश भी नहीं की। सारे यात्री बुत की तरह बैठे रहे। कई लोगों को तो उसकी हरकतों आनंद का अनुभव हो रहा था। उनके चेहरे पर मुस्कुराहट तैर रही थी।
नेहा ने तो जैसे होठ सी लिये। उसकी आंखें अब भी नेहा को घूर रही थीं। लेकिन इसके आगे वह कुछ बोल पाता कि नेहा का स्टाप आ गया।
वह और प्रिया बस से उतर लीं। बस आगे बढ़ गई।
उफ्फ जान छूटी। किस पागल से पाला पड़ गया है। नेहा चिल्लाई।
प्रिया ने कोई प्रतिक्रिया नहीं जाहिर की। आखिर वो कहती भी क्या। वह भी इसी उधेड़बुन में लगी थी कि उससे कैसे छुटकारा पाया जाए। अगर रूट बदलना है तो नेहा को यह नौकरी भी बदलनी पड़ेगी। इतनी आसानी से तो मिलती नहीं नौकरी। यहां तो स्टाफ भी अच्छा है। सैलरी भी अच्छी है।
कुछ और सोचना पड़ेगा। प्रिया ने दिमाग पर जोर डाला। लेकिन कुछ न सोच पाने की झुंझलाहट उसके चेहरे पर साफ नजर आ रही थी।
नेहा भी खामोश थी। बोलती भी क्या?
दोनों आफिस पहुंच चुकी थीं।
शुक्र है अभी बॉस नहीं आया। आज तो बच गये। नेहा ने प्रिया की ओर देखते हुए कहा और जल्द से जल्द अपने कंप्यूटर को लॉग-इन करने में जुट गई। (क्रमश:)Submit

मंगलवार, 5 फ़रवरी 2008

अब भी जलाए बैठे हैं उम्मीद का चिराग (मेरी रेल यात्रा-3)

ट्रेन में भीड़भाड़ कम होने का नाम नहीं ले रही थी। अब तो मुझे उस खूबसूरत लड़की से ईर्ष्या होने लगी थी। वो इसलिए क्योंकि ट्रेन में इतनी भीड़-भाड़ होने के बावजूद उसे बर्थ में लेटने का सौभाग्य प्राप्त था। वैसे सोचता हूं कि मेरी यह ईर्ष्या इस बात की कम और इस बात की अधिक हो सकती है कि कहां तो वह मेरे बगल में बैठी थी और कहां उस बर्थ (या उसके चाचा !@$%^&*()_+) मुझे उससे दूर कर दिया। बुरा हो उस बर्थ का या फिर उसके...। सच कहूं तो मुझे गुस्सा आ रहा था उसके चाचा पर। महाशय अच्छे भले बर्थ पर सो रहे थे पता नहीं क्या सूझी कि नीचे तशरीफ ले आए और उस मोहतरमा को भेज दिया ऊपर। वैसे एक-दो बार मैंने बहाने से ऊपर देखा तो वह सोई नहीं थी, बल्कि लेटे हुए टुकुर-टुकुर ताक रही थी। यहां-वहां। इतनी भीड़ और शोरगुल में 'बेचारी' को नींद आ भी कैसे सकती थी? यह बात भला उसके चाचा को कौन समझाता? खैर, मुझे उससे बातचीत करना अच्छा लग रहा था। ऐसा स्वाभाविक भी है। लेकिन अब उससे बातचीत कर पाना मुमकिन नहीं था। खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे की तर्ज पर मैं मन ही मन उसके चाचा को कोसे जा रहा था। (और कर भी क्या सकता था?)
हालांकि ईर्ष्या तो मुझे उन लोगों से भी होने लगी थी जो फर्श पर इधर-उधर लुढ़के हुए नींद का आनंद ले रहे थे। और मैं यह सोचकर बैठे-बैठे ही रात बिता रहा था कि मैं भला यहां कैसे सो सकता हूं? वैसे अगर मैं वहां सोना चाहता भी तो यह मुमकिन नहीं था। वहां पैर रखने तक की जगह नहीं थी। एक तो उसके चाचा और दूसरे बीडी़ के धुयें ने मुझे काफी परेशान कर रखा था। अब धुयें के अलावा डिब्बे के वातावरण में बदबू भी महसूस होने लगी थी, जिसका भभका थोड़ी-थोड़ी देर में उठकर परेशान कर देता था।
बैठे-बैठे कमर दुखने लगी थी। पैर सुन्न हो रहे थे। क्योंकि पैर पसारने की जरा भी गुंजाइश नहीं थी। अब मेरी 'एकमात्र खुशी' भी छिन जाने से मैं मन ही मन उस घड़ी को कोस रहा था जब मैं उस ट्रेन में चढ़ा था। तभी कोई छोटा स्टेशन आ गया। गाड़ी रुक गई। बाहर से चाय-चाय की आवाजें आने लगीं। वेंडर खाने-पीने की चीजें लिये डिब्बे में घुसने की कोशिश करने लगे। हालांकि उन्हें इस कोशिश में कामयाबी नहीं मिली। लिहाजा वे बाहर खिड़कियों से ही यात्रियों को लुभाने की कोशिश करने लगे। चाय बेचने वालों ने तो यात्रियों को लुभाने में सफलता भी पा ली थी। खाने की तली-भुनी चीजें लिये भी कुछ वेंडर मुसाफिरों की भूख मिटाने का दावा कर रहे थे। उनका यह दावा कितना सही था इस बात का पता तो उन बासी से लगने वाले खाद्य पदार्थों को खाकर ही लगाया जा सकता था। मैं अब भी असमंजस में था कि चाय पी लूं या नहीं। मेरे बगल वाले सज्जन तो अब तक चाय की चुस्कियों में मशगूल हो चुके थे। मैंने उनसे पूछा, भाई साहब ! कैसी है चाय? इस पर उन्होंने चाय का यूं बखान किया कि जैसे चाय नहीं अमृत पी रह हों। शायद उन्हें लग रहा था कि चाय पीकर वह उस डिब्बे में बेहद अहम हो गये हैं।
रात के एक बज चुके थे। मेरी मंजिल भी करीब आ रही थी। अब मेरा ध्यान डिब्बे के अंदर की गतिविधियों की बजाय बाहर की ओर टिक गया था। वह खूबसूरत लड़की अब भी जाग रही थी। मैंने आखिरी बार उसकी ओर देखा। फिर दूसरे यात्रियों पर एक सरसरी नजर डाली। लोग अब भी ऊंघ रहे थे। जिन्हें जगह नसीब थी वो नींद के आगोश में समाये हुये थे। जो सोने की सुविधा मे महरूम थे वो अब भी बीड़ी जलाकर नींद से लड़ने का प्रयास कर रहे थे। अपनी मंजिल आने की खुशी में मेरे अंदर स्फूर्ति का संचार होने लगा था। मैं अपना सूटकेस संभाल रहा था तभी गाड़ी के पहिये चिंचियाकर थम गये। मरी मंजिल आ चुकी थी। मैं जल्दी से गेट की तरफ लपका और नीचे स्टेशन पर उतर गया। वहां उतरने वाले काफी थे। शायद उस स्टेशन के बाद डिब्बे में पर्याप्त जगह हो चुकी थी। लेकिन वह जगह मेरे किस काम की। मैं रिक्शे पर सवार हुआ और नानी के घर की तरफ चल पड़ा। उस दिन से आज तक मेरी नजरें उस लड़की को तलाश रही हैं। हमने अब तक उम्मीद का चिराग जलाए रखा है। अभी तक बैठे हैं कुंवारे। यकीन है एक दिन वो हमें जरूर मिल जाएगी। आप भी दुआ कीजिएगा। मेरे लिये। (समाप्त)

सोमवार, 4 फ़रवरी 2008

कुछ न कुछ तो जरूर होना है (मेरी रेल यात्रा-2)

रात के दस बज चले थे। मैं अभी भी अपनी नींद पर काबू करने में कामयाब था। हां तो.., यह जिक्र करना सबसे जरूरी है उस सफर में मेरे बगल में एक खूबसूरत लड़की भी बैठी थी। रात करीब साढ़े दस बजे तक मैं भी नींद के आगे विवश होने लगा था। मुझे याद है कि एक-दो बार मेरा सिर उस खूबसूरत लड़की के कांधे पर टिक गया और हर बार चौंक कर मेरी नींद उड़ गई। बहरहाल, थोड़ी देर बाद ही मैंने उससे काफी कुछ परिचय बना लिया था। बात-बात पता चला कि वह इंदौर की रहने वाली है। उसने बड़े फक्र से बताया कि वह इंटर साइंस की छात्रा है। (तब मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय से ग्रेजुएशन-Ist year कर रहा था) थोड़ी देर में पता यह भी चल गया कि उसके साथ उसके चाचा भी हैं, जो ऊपर बर्थ पर सो रहे हैं। उसने मुझे अपनी वह खास अंगूठी भी दिखाई जिसमें छोटी सी घड़ी भी लगी थी। मैंने उसकी अंगूठी की तारीफ की। उसे अच्छा लगा। वैस तारीफ झूठी नहीं थी। अब शायद मैं उसकी भी तारीफ करता लेकिन इसकी शुरुआत से पहले ही उसके चाचा जी नीचे आ गये और उस खूबसूरत लड़की को ऊपर बर्थ पर सोने के लिये भेज दिया। खैर...।
अब तक रात के 11 बज चुके थे। सभी लोग नींद के आगोश में समाने लगे थे। सामान रखने वाली पतली सी बर्थ पर लेटे हुये लोग भी अब सो चुके थे। इस बीच कई छोटे-मोटे स्टेशन गुजर चुके थे। लेकिन भीड़ में कोई कमी नहीं आई थी। उल्टा उसमें बढ़ोत्तरी ही होती रही। जिनके लिए अपनी जरा सी जगह पर सो पाना मुश्किल था या जिनकी ओर उनके बगल वाला कई बार इसलिये आंखें तरेर चुका था कि वे नींद के आलम में उस पर कई बार गिर चुके थे। वे मजबूरी ने बीड़ी सुलगाकर नींद भगाने का प्रयास कर रहे थे। कुछ तंबाकू खा-खिलाकर टाइम पास कर रहे थे और नजरें बचाकर इधर-उधर थूक दे रहे थे। डिब्बे में ही। हालांकि यह उनकी विवशता थी क्योंकि खिड़की के 'नजदीक' होने का सौभाग्य उन्हें प्राप्त नहीं था।
बीड़ी का धुआं और तंबाकू ठोकने की भस डिब्बे में भर चुकी थी। वैसे शायद किसी को उससे असुविधा नहीं हो रही थी। मुझे इस पर आश्चर्य था। बेहद। लेकिन मुमकिन है कि वो इस वातावरण के अभ्यस्त रहे होंगे। पीने वालों को या न पीने वालों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि रेलगाड़ी में धूम्रपान निषेध है। वैसे भी बुंदेलखंड की ट्रेनों में कोई नियम-कानून नहीं चलता। धूम्रपान निषेध तो बिल्कुल नहीं।
रात के 12 बजे होंगे। कहीं से डिब्बे में एक टीटी घुस आया। मुझे यह देखकर बेहद आश्चर्य हुआ कि वह टीटी किसी से टिकट नहीं मांग रहा था। कुछ लोग अपने आप ही टिकट निकालकर उसे दिखाने की कोशिश करते लेकिन वह बिना देखे ही उन्हें टिकट वापस रख लेने का इशारा करता और आगे बढ़ जाता। कुछ लोग उसे दस-बीस रुपये का नोट थमा रहे थे और वह चुपचाप उनकी 'भेंट' को स्वीकार कर आगे बढ़ता जा रहा था। बिना कुछ बोलो। बिना कोई प्रतिक्रिया किए। मुझे यह बात काफी परेशान कर रही थी, लेकिन बाकी लोगों को नहीं। शायद इसलिये कि वह इस बात के अभ्यस्त रहे होंगे। उनके लिये यह रोज की बात रही होगी। बाद में पता चला कि उन लोगों के पास टिकट नहीं था। पता यह भी चला कि इस ट्रेन में रोज ऐसा ही होता है। टिकट लेने की जरूरत नहीं, बस टीटी की जेब गर्म कर दो। सस्ते में निबट जाओगे। अपना भी फायदा। टीटी का भी फायदा। रेलवे जाए भाड़ में। वैसे भी रेल तो उन्हीं की संपत्ति है। बहरहाल, अब मुझे भी बार-बार झपकियां आने लगी थीं। (अगली कड़ी में जानिए मेरा उस खूबसूरत लड़की से ईर्ष्या का सबब)

शनिवार, 2 फ़रवरी 2008

सफर भी एक संघर्ष है भाई ! (मेरी रेल यात्रा-1)

बरस 1999.मौका था होली की छुट्टी का। शाम के पांच बजे थे। मैं इलाहाबाद के प्रयाग रेलवे स्टेशन पर बुंदेलखंड एक्सप्रेस का इंतजार कर रहा था। ट्रेन शायद पांच मिनट बाद ही आ गई थी। छुट्टी में घर जाने का हर व्यक्ति के दिल में एक अलग ही उत्साह होता है। फिर मैं तो अपनी नानी के यहां जा रहा था। लिहाजा मैं कुछ ज्यादा ही खुश और उत्साहित था। हालांकि यात्रायें सब एक जैसी ही होती हैं। लेकिन यह मेरे लिये कुछ विशेष थी इसलिये कि इसमें मुझे कुछ अनुभव (वैसे बहुत खास भी नहीं हैं) ऐसे हुये जो यादगार बन पड़े। नानी के घर जाने का कार्यक्रम जल्दी में बना था। इसलिये मुझे बिन रिजर्वेशन के ही जाना पड़ा। जाहिर सी बात है इतनी जल्दबाजी में रिजर्वेशन तो मिलने से रहा।
खैर, ट्रेन आ गई और मैं उस पर सवार हो लिया। डिब्बे में दाखिल होने के लिये काफी कवायद करनी पड़ी। जनरल बोगी थी। यात्री ठुंसे हुये थे। ज्यादातर बुंदेलखंडी। हालांकि ननिहाल में मेरे बचपन का अच्छा-खासा वक्त गुजरा। इस लिहाज से मैं भी खुद को बुंदेलखंडी कह सकता हूं। लेकिन पिता जी की सरकारी नौकरी के कारण मैं ज्यादातर अलग-अलग शहरों में रहा। इसलिये मुझे उन यात्रियों की भाषा भी कुछ अटपटी सी लग रही थी। जिसे समझने के लिये दिमाग पर जोर देना पड़ता था। बहरहाल मेरा सफर शुरू हो चुका था। चूंकि सामान्य बोगी थी इसलिये सीट मिलने का तो कोई सवाल ही नहीं पैदा होता था। यात्री, जिनमें ज्यादातर ग्रामीण थे, बोगी में अपने लिए जगह बनाने की कवायद में जुट गए थे। मैं अब भी संकोचवश ऐसे खड़ा था जैसे किसी गलत जगह आ गया हूं। मेरे हाथ में एक सूटकेस भी था, जिसे रखने की भी कहीं जगह नहीं थी। तभी एक व्यक्ति ने मेरी परेशानी भांप कर सामान इधर-उधर करवाकर मेरा सूटकेस रखवा दिया। मैंने मन ही मन उसका शुक्रिया अदा किया। एक व्याक्ति ने मुझे उसी सूटकेस में बैठने की सलाह दी। मैं बैठ गया। लेकिन आधा ध्यान इस ओर लगा था कि कहीं मेरा 'कीमती' सूटकेस टूट न जाये। भीड़ इतनी थी कि डिब्बे के गेट तक लोग ठुंसे हुये थे।
अब घड़ी शाम के छह बजा रही थी। लोग धीरे-धीरे अपने बैठने की जगह बना चुके थे। दोनों ओर की सीटों के बीच की खाली जगह ठसाठस भर चुकी थी। कुछ लोग जहां फर्श पर ही बैठकर संतुष्ट थे वहीं सीटों पर बैठे लोग खुद को किसी बादशाह से कम नहीं समझ रहे थे। वो इसलिये परेशान थे कि उन्हें पैर पसारने की जगह नहीं मिल रही थी। कुछ लड़के सामान रखने वाली पतली सी बर्थ पर लेटने की असफल कोशिश कर रहे थे। असफल इसलिये क्योंकि लेटने के बावजूद उनका सारा ध्यान इस ओर था कि कहीं गिर न जाएं और नीचे बैठे लोग पिच्चे हो जाएं।
अब तक मुझे सीट पर थोड़ी सी जगह मिल चुकी थी। लिहाजा मैं भी उन 'बादशाहों' की श्रेणी में आ गया था जिन्हें सीट पर बैठने का 'गौरव' या कहें सुख हासिल था। रात के नौ बजने को थे। लोगों ने बैठे-बैठे ऊंघना शुरू कर दिया था। कुछ लोग फर्श पर लुढ़के थे तो कुछ अपने बगल वालों के कंधे का सहारा लेकर नींद से लड़ रहे थे। सामान वाली पतली सी बर्थ पर लेटे हुये लोग अब भी टकटकी लगाकर ऊपर की बर्थ (जो वाकई सोने के लिए ही होती है) पर लेटे लोगों को हसरत भरी निगाहों से देख रहे थे। नींद उन्हें अभी भी नहीं आ रही थी या शायद गिरने का डर उन्हें सोने नहीं दे रहा था। नींद के सामने लोग कैसे लाचार हो जाते हैं, उसका प्रत्यक्ष प्रमाण देखने को मिल रहा था। (अगली कड़ी में जिक्र उस खूबसूरत लड़की का जो खुशकिस्मती से मेरी ही सीट पर और मेरे ही बगल में आसीन थी..)

बुधवार, 30 जनवरी 2008

माई बेस्ट फ्रैंड मर्डर...

माई बेस्ट फ्रैंड मर्डर। यह नाम किसी फिल्म का नहीं बल्कि वह सच्ची कहानी है जिसे सुनकर एक बार तो दिल्ली पुलिस को भी इसकी सच्चाई पर यकीन नहीं हुआ। वो इसलिये कि एक दोस्त ने अपने ही हाथों से अपने बेस्ट फ्रैंड की जान ले ली। खास बात यह है कि यह सब अचानक नहीं हुआ, बल्कि पूरी तरह सोच-समझकर हुआ। हां-यह अलग बात है कि मर्डर करने वाले का मकसद मर्डर नहीं मनी था। राधेश्याम नाम के इस शख्स के हाथ में मौजूद यह तस्वीर गवाह है उन खुशनुमा लम्हों की जो कभी इसके बेटे धर्मेंद्र (तस्वीर में दायें) ने अपने दोस्त पिंटू के साथ गुजारे थे। लेकिन अब इस खूबसूरत तस्वीर का रुख उलट चुका है। पिंटू और धर्मेंद्र एक दूसरे से हमेशा के लिये जुदा हो चुके हैं। 12 बरस का धर्मेंद्र अब इस दुनिया में नहीं है और उसका बेस्ट फ्रैंड पिंटू इस वक्त सलाखों के पीछे है। वह भी अपने ही दोस्त धर्मेंद्र की हत्या के इल्जाम में। हो सकता है अब जो कहानी हम आपको सुनाने जा रहे हैं उसे सुनकर बरबस आपके मुंह से निकल पड़े कि नहीं ऐसा नहीं हो सकता, लेकिन यकीन मानिये ये सच है।
यह कहानी है दो दोस्तों की। नाम है पिंटू और धर्मेंद्र। पिंटू और धर्मेंद्र दिल्ली के शक्ति गार्डन इलाके के आईकॉन पब्लिक स्कूल में सातवीं क्लास में पढ़ते थे। 25 जनवरी की सुबह धर्मेंद्र अपने स्कूल तो गया लेकिन देर शाम तक वापस नहीं लौटा। परेशान होकर धर्मेंद्र के घरवालों ने नंदनगरी थाने में उसकी गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखा दी। रिपोर्ट दर्ज करने के बाद इलाके की पुलिस ने धर्मेंद्र की तलाश शुरू कर दी। काफी कोशिश के बाद भी धर्मेंद्र का कोई सुराग तो नहीं मिला हां, अगले ही दिन पुलिस को अशोक नगर रेलवे क्रासिंग से उसकी लाश जरूर मिल गई।
किसी ने कत्ल के बाद मासूम धर्मेंद्र की लाश को रेलवे क्रासिंग पर ठिकाने लगा दिया था। लाश की बरामदगी के बाद दिल्ली पुलिस के लिये सबसे बड़ी चुनौती थी धर्मेंद्र के कातिल तक पहुंचने की। कत्ल की तफ्तीश में जुटी पुलिस को यह सवाल बार-बार परेशान कर रहा था कि आखिर मासूम धर्मेंद्र की किसी से क्या दुश्मनी हो सकती है? लेकिन काफी कोशिश के बाद भी पुलिस को धर्मेंद्र का कोई दुश्मन नहीं मिला। तब पुलिस ने शुरू की धर्मेंद्र के दोस्तों की तलाश। पता चला कि आखिरी बार धर्मेद्र को उसके दोस्त पिंटू के साथ देखा गया था।
जब पुलिस ने पिंटू को ढूंढना शुरू किया तो वह भी शहर से गायब मिला। साथ ही गायब मिला उसका एक और दोस्त राजकुमार उर्फ रिंकू। रिंकू की तलाश में दिल्ली पुलिस की टीम उसके घर बुलंदशहर जा पहुंची। वहां रिंकू तो पुलिस के हाथ नहीं लगा, हां पिंटू जरूर पुलिस के हत्थे चढ़ गया। पिंटू ने जो कहानी पुलिस को सुनाई वह रोंगटे खड़े कर देने वाली थी। पुलिस के मुताबिक रिंकू के साथ मिलकर पिंटू ने ही अपने दोस्त धर्मेंद्र का अपहरण किया था। मकसद था उसके पिता से फिरौती में मोटी रकम वसूलना। लेकिन जब साजिश कामयाब नहीं हो सकी तो दोनों ने मिलकर धर्मेंद्र का कत्ल कर दिया और लाश को रेलवे क्रासिंग पर फेंक दिया। शायद यह सोचकर कि किसी को उनकी साजिश की भनक नहीं लग पाएगी, लेकिन उनका ऐसा सोचना गलत था। दोस्त का कातिल पिंटू इस वक्त सलाखों के पीछे (बाल सुधार गृह में) है। अब दिल्ली पुलिस को तलाश है उसके फरार दोस्त रिंकू की।

कैसे मिला कातिल का सुराग?
मासूम धर्मेंद्र के कत्ल की साजिश से शायद अभी परदा नहीं उठ पाता अगर पुलिस को मौका-ए-वारदात से एक अहम सुराग नहीं मिला होता। वो सुराग था कपड़े का एक टुकड़ा। उस टुकड़े को तफ्तीश का जरिया बनाकर दिल्ली पुलिस उस वर्कशाप तक जा पहुंची जहां उस तरह के कपड़ों की काट-छांट का काम होता था। वह वर्कशाप किसी और की नहीं बल्कि पिंटू के पिता की थी। दिल्ली पुलिस के मुताबिक पिंटू ने अपने दोस्त धर्मेंद्र के अपहरण की साजिश अपने पिता की वर्कशाप में काम करने वाले राजकुमार उर्फ रिंकू के इशारे पर रची थी। पिंटू और रिंकू आपस में दोस्त बन गये थे। रिंकू ने दोस्ती वास्ता देकर पिंटू को धर्मेंद्र के अपहरण की साजिश को अंजाम देने के लिये तैयार कर लिया। पुलिस के मुताबिक रिंकू ने पिंटू से कहा था कि उसे अपने घरवालों को भेजने के लिये कुछ पैसों की सख्त जरूरत है। रिंकू को अपना दोस्त समझने वाला पिंटू उसकी मदद करने को तैयार हो गया। इसी का फायदा उठाकर रिंकू ने पिंटू से कहा कि अगर दोनों मिलकर उसके दोस्त धर्मेंद्र का अपहरण कर लें तो उसके पिता से फिरौती में मोटी रकम वसूली जा सकती है। रिंकू की बात सुनकर पिंटू उसकी मदद के लिये तैयार हो गया। दोनों ने मिलकर एक साजिश रची। साजिश के तहत एक दिन पिंटू और रिंकू ने धर्मेंद्र को खेलने के बहाने अपनी मोटरसाइकिल पर बैठा लिया। उसके बाद पिंटू, धर्मैंद्र को अपने पापा की बंद वर्कशाप में ले गया। वहां दोनों ने मिलकर धर्मेद्र से पहले तो मारपीट की, फिर धर्मेद्र के पिता को पैसे के लिये फोन भी किया। लेकिन बात बन नहीं सकी। इसी खुन्नस में दोनों धर्मेंद्र की जान के दुश्मन बन बैठे। रिंकू के इशारे पर पिंटू ने धर्मेंद्र के दोनों हाथ पकड़ लिये और फिर रिंकू ने उसका गला दबा दिया। रात को दोनों ने मिलकर धर्मेंद्र की लाश को दिल्ली के अशोक नगर रेलेवे क्रासिंग पर फेंक दिया औऱ वहां से भाग कर बुलंदशहर चले गये। लेकिन बुलंदशहर जाकर भी पिंटू दिल्ली पुलिस से बच नहीं पाया। उसका साथी रिंकू जरूर मौका पाकर भाग निकला। हालांकि पुलिस का दावा है कि जल्द हो वह भी सलाखों के पीछे होगा।

कौन है जिम्मेदार?
जमाना बदल गया है। अब बच्चे अपने नाना-नानी से परियों की कहानी नहीं सुनते। चंदा मामा की बात नहीं करते। गुड्डे-गुड़ियों से नहीं खेलते। अब उनके मनोरंजन का साधन बन गये हैं हिंसक वीडियो गेम, डब्ल्यू-डब्ल्यूएफ और एक्शन से लबरेज फिल्में। तो आखिर ऐसे माहौल में परवरिश पाने वाले बच्चों इन चीजों को असल जिंदगी में अपनाने की कोशिश क्यों नहीं करेंगे। पढ़ने और खेलने की उम्र में पिंटू ने अपने ही दोस्त के अपहरण और कत्ल जैसी सनसनीखेज वारदात को अंजाम देकर लोगों को एक बार फिर ये सोचने पर मजबूर कर दिया है कि आखिर आजकल के बच्चों को हो क्या रहा है? ऐसी कौन की वजह है जिसके कारण बच्चे रचनात्मक चीजों से मुंह मोड़कर गुनाह की तरफ कदम बढ़ा रहे हैं। मनोचिकित्सक तो इस मामले में सबसे ज्यादा परिवार को ही जिम्मदार ठहराते हैं। मनोचिकित्सकों के मुताबिक हिंसक वीडियो गेम, एक्शन फिल्में, अंडरवर्ल्ड की दुनिया का ग्लैमर, जासूसी और थ्रिल से भरपूर टीवी सीरियल भी बच्चों के कोमल मन पर उल्टा असर करते हैं। कहीं न कहीं ये सब बातें बच्चों को छोटी सी उम्र में ही गुनाह के लिये उकसाती हैं। ऐसे में गुनहगार की उम्र के कोई भी मायने नहीं रह जाते। जाहिर है, दोस्त के कातिल पिंटू को महज बाल सुधार गृह भेजने से ही सब कुछ ठीक नहीं हो सकता। जरूरत इस बात ही है कि बच्चों के लिये स्कूल और घर में ऐसा माहौल पैदा किया जाए कि वो अपराध की तरफ कदम बढ़ाना तो दूर, ऐसा सोच भी न सकें।

सोमवार, 28 जनवरी 2008

पेश-ए-खिदमत है आज की सनसनीखेज खबर

अचानक दिमाग में खयाल आया कि अगर देश में अपराध खत्म हो जाएं तो क्या होगा। खबरिया चैनल में काम करता हूं तो सबसे पहले उसी के बारे में सोचने लगा। सोचा तो काफी कुछ सोच डाला। परेशान भी हो गया। आप भी पढ़िये हमारे खाली दिमाग ने आज क्या सोचा।
बुलेटिन शुरू हुआ। एंकर सामने आई। मुस्कुराई और बोली...नमस्कार..मैं हूं दीपशिखा और आप देख रहें हैं हमारा चैनल...खबरिया। पेश हैं आज की खबरें। आज की सबसे बड़ी खबर है देश से अपराध का खात्मा। जी हां यह सच है। हमारी यह सनसनीखेज और एक्सक्लूसिव खबर सुनकर आप चौंक गये न? खबर ही ऐसी है। ऐसा कैसे हुआ, यह तो फिलहाल हम भी नहीं जानते लेकिन यकीन मानिये ऐसा ही हुआ है। इसका यह मतलब कतई नहीं कि हमारे देश की पुलिस बड़ी मुस्तैद हो गई है या फिर अपराधियों ने अपराध से संन्यास ले लिया है, बल्कि हमें तो इसमें किसी गहरी साजिश की बू आ रही है।
देश भर में फैले हमारे संवाददाता इसका पता लगाने के लिये जी जान से जुट गये हैं। हमे यकीन है कि हम इस मामले का जल्द से जल्द खुलासा कर देंगे। वैसे भी हम पहले भी कई सनसनीखेज खुलासे कर चुके हैं। अरे, जरा आप ही सोचिये ऐसा कैसे हो सकता है। यकायक अपराधों का खात्मा कैसे हो सकता है? क्या यह मुमकिन है कि इतनी बड़ी जनसंख्या वाले देश में कोई वारदात ही न हो। हम तो कहते हैं कि ऐसा होना नामुमकिन है। तो सच क्या है? इसका पता हम आज नहीं तो कल लगाकर ही रहेंगे। चलिये इसी मुद्दे पर बात करते हैं दिल्ली में मौजूद हमारे अपराध संवाददाता जैकाल से। जी जैकाल बतायें। (संवाददाता की आवाज)
जी दीपशिखा अचानक अपराधों के खात्मे के मुद्दे पर आज हमने कई नेताओं और अफसरों से बात करने की कोशिश की लेकिन आश्चर्य की बात तो यह है कि कोई इस मामले में बोलने को ही तैयार नहीं है। हमने पुलिस कमिश्नर से भी पूछा कि जरा बतायें कि ऐसा कैसे हो सकता है? अचानक अपराधों पर लगाम कैसे लग सकती है। तो उन्होंने कोई भी जवाब देने से मना कर दिया। यहां तक कि वो कैमरे के सामने आने को ही तैयार नहीं हुये। जाहिर है, कहीं न कहीं कोई न कोई गड़बड़ जरूर है। पुलिस और अपराधियों के बीच मिलीभगत की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। सवाल यह भी है कि सारे अपराधी अचानक कहां गायब हो गये? वो कर क्या रहे हैं..। फिक्र इस बात की भी होनी चाहिये कि अगर वो अपना धंधा छोड़ देंगे तो उनकी रोजी-रोटी कैसे चलेगी। उनके परिवारवाले तो भूखे मर जाएंगे। पुलिस अफसर कितना भी मुंह छिपायें एक न एक दिन उन्हें जवाब देना ही होगा। जवाब तो सरकार को भी देना होगा कि अपना धंधा छोड़कर बेरोजगार हुये अपराधियों, बदमाशों, लुच्चे, लफंगों के लिये सरकार क्या कर रही है। उसने एहतियात के तौर पर कोई इंतजाम किया है या नहीं। आखिर वो भी तो देश के नागरिक हैं। उनके लिये भी सरकार का कोई फर्ज बनता है। आप क्या सोचते हैं। क्या अचानक अपराधों का खात्मा होना देश के लिये सही है? या फिर इसमें किसी की साजिश है। अभी उठाइये अपना मोबाइल फोन और हमें एसएमएस करिये 420420 पर। ब्रेक के बाद हम फिर हाजिर होंगे। खबरों का सिलसिला जारी है आप देखते रहिये....खबरिया। आपकी खबर आपके लिये।
ब्रेक के बाद खबरिया में आपका स्वागत है। सबसे पहले हेडलाइन
1- देश के चारों महानगरों में आज नहीं हुई कोई वारदात, पुलिस और अपराधियों के बीच गठजोड़ की आशंका
2- पुलिस के सामने बेरोजगारी का संकट, अपराध खत्म होने से पुलिस के आला अफसर और सियासी दल परेशान
3- रात के अंधेरे में भी नहीं हो रही वारदातें, आखिर रातोंरात कहां गये सारे अपराधी, सरकार के पास नहीं है कोई जवाब

ब्रेक के बाद एक बार फिर आपका स्वागत है। ब्रेक से पहले हम चर्चा कर रहे थे देश के आपराधिक रिकार्ड में यकायक आई गिरावट की। इस गिरावट ने सेंसेक्स को भी पीछे छोड़ दिया है। सेंसेक्स तो चढ़ता उतरता रहता है लेकिन यह गिरावट तो ऐसी है कि स्थिर हो गई है। अभी-अभी हमसे जुड़े दर्शकों को हम बता दें कि हम सुबह से ही बता रहे हैं कि कल से आज सुबह तक देश के किसी भी इलाके में कोई भी आपराधिक वारदात नहीं हुई। हमें खेद के साथ सूचित करना पड़ रहा है कि आज रात हम अपना डेली क्राइम शो प्रस्तुत नहीं कर पा रहे हैं। आगे भी हम इसे जारी रख पाएंगे या नहीं, इसके बारे में भी फिलहाल कुछ नहीं कहा जा सकता। जब अपराध नहीं होंगे तो हम खबरे कहां से लाएंगे? ये तो बड़ी समस्या है। सरकार को इसके बारे में सोचना पड़ेगा। पुलिसवालों का क्या होगा? वो भी तो बेरोजगार हो जाएंगे। उनकी छोड़िये हमारा क्या होगा? न्यूज चैनलों का क्या होगा। लेकिन हमें फिक्र नहीं है क्योंकि हम तो न्यूज दिखाते ही नहीं, इसलिये खबरे हो या ना हों फिर भी चलता रहेगा देखते रहिये खबरिया...आपकी खबर आपके लिये।

 
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