अगर मैं कभी तुम्हारे दरवाजे पर
दस्तक दूं
अपने आप को मेहमान बताऊं
तो तुम दौड़कर
मेरा स्वागत नही करना
भगवान के बराबर तो क्या
तुम मुझे किंचित मात्र भी महत्व नहीं देना
मेरे सम्मान में
पलक-पावडे़ भी नहीं बिछाना
हो सके तो मुझे दुत्कार देना
यदि ऐसा कराने में संकोच हो तो
मुझे वापस लौटाने के लिए
मन मुताबिक तरकीबें अपनाना
खाने के लिए भी पूछ्ने की जरुरत नहीं
फिर भी मैं
बेशर्मी से खाना माँग ही लूं
तो तुम्हारे रसोई घर में
बासी रोटियां तो पड़ी ही होंगी
मुझे वही खिला देना
ज्यादा सूखी हों तो पानी लगा देना
यदि मैं
खाने की शिकायत करने जैसी धृष्टता करूं
तो तुम गुस्से ते आग-बबूला मत होना
बस कोई प्यारा सा बहाना बना देना
मैं जरा भी बुरा नहीं मानूंगा
क्योंकि मैं जानता हूं कि
मेहमान को भगवान समझाने की
मूर्खता करना
उसकी सेवा में
अपना अमूल्य समय बरबाद करना
ये सब पुरानी परम्पराएं हैं
पिछड़ेपन की निशानी हैं
मैं ये भी जानता हूँ कि
तुम इनके चक्कर में नहीं पड़ोगे
क्योंकि तुम तो आधुनिक हो
पुरानी सड़ी-गली परम्पराओं में
विश्वास नहीं रखते।(1998)


मंगलवार, जुलाई 03, 2007
Unknown
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