शनिवार, 6 मार्च 2010

बीबीसी मुझे माफ करना, मैं हिंदुस्तानी हूं

मेरा कसूर सिर्फ इतना था कि मैंने बीबीसी की भाषा को लेकर एक सवाल उठाया था। सवाल यह था कि दुनिया का सबसे खतरनाक आतंकी और इंसानियत का दुश्मन ओसामा बिन लादेन सम्मान का हकदार कैसे? अभी तक तो हमने यही सुना है कि व्यक्ति के कर्म ही उसे महान बनाते हैं। कर्म ही सम्मान का हकदार बनाते हैं। लेकिन बीबीसी के लिए एक आतंकवादी भी सम्मानित है। कल्पना कीजिए कि अगर मुंबई हमले का गुनहगार आमिर अजमल कसाब बीमार हो जाए तो उसके बारे में लिखी गई बीबीसी की खबर का शीर्षक क्या होगा। शायद वह लिखेगा, 'बीमार हैं कसाब' या फिर 'बीमार हुए कसाब'। अब आप सोचिए कि कसाब के बारे में ऐसा संबोधन पढ़कर एक हिंदुस्तानी को कैसा लगेगा? हालांकि कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्हें बीबीसी के इन भाषाई तौर-तरीकों में कोई बुराई नजर नहीं आती। वो बड़ी ही बेशर्मी से इसे बीबीसी की 'निष्पक्ष' पत्रकारिता कहते हैं। ऐसे लोगों से मैं पूछना चाहता हूं कि क्या वो महात्मा गांधी के हत्यारे के लिए ऐसा सम्मानजनक संबोधन पसंद करेंगे? क्या वो इंदिरा गांधी के कातिल के लिए 'उन्हें' या 'वे' जैसे संबोधन स्वीकार कर पाएंगे?

टीवी चैनलों को भाषा ज्ञान देने वाले इस मुद्दे पर मौन हो जाते हैं। शायद उन्हें लगता है कि वो बीबीसी पर सवाल उठाएंगे तो 'सांप्रदायिक' की श्रेणी में आ जाएंगे। अन्यथा वो थोड़ा सा भाषा ज्ञान बीबीसी को भी क्यों नहीं देते? रुचिका मामले में सबने देखा कि मीडिया की भाषा कैसे रातोंरात बदल गई। जैसे ही हरियाणा के पूर्व डीजीपी एसपीएस राठौर की कारगुजारी दुनिया के सामने आई, वो मीडिया की नजर में सबसे बड़ा खलनायक बन गया। एक दिन पहले तक वो महज आरोपी 'थे', लेकिन 24 घंटे बाद ही वो 'गुनहगार' हो 'गया'। चैनल में साफ-साफ 'उसे' रुचिका का गुनहगार कहा जाने लगा। यहां भी यही साबित हुआ कि व्यक्ति के कर्म ही उसे सम्मान का हकदार बनाते हैं। जैसे ही राठौर के कुकर्म उजागर हुए, मीडिया ने उसके लिए सम्मानजनक भाषा का इस्तेमाल करना भी बंद कर दिया।

कुछ लोग तर्क दे सकते हैं कि भाषा सबके लिए एक समान होनी चाहिए। सभी को सम्मान पाने का हक है। बात ठीक है लेकिन उस व्यक्ति को सम्मान पाने लायक भी तो होना चाहिए। हिंदी में अंग्रेजी जैसा नहीं है। इसीलिए हिंदी में दो तरह के संबोधन हैं। तुम और आप। अंग्रेजी में ऐसा कुछ नहीं है। अंग्रेजी में किसी एक व्यक्ति (एक वचन) के लिए 'हैं' या 'वे' नहीं लिखा जाता। इसलिए अगर अंग्रेजी मानसिकता वाले हिंदी में वेबसाइट चलाते हैं तो उन्हें हिंदी भाषा के 'नेचर' और जनमानस का खयाल रखना ही होगा। सिर्फ ये कहकर नहीं बच सकते कि ये तो हमारी 'स्टाइल शीट' है। सवाल ये है कि स्टाइल शीट अगर है भी तो ऐसी क्यों है जिसमें एक आतंकी को सम्मानजनक विशेषण दिया जाता है? वेबसाइट हिंदी में है और हिंदी का पाठक यह कतई नहीं कबूल कर सकता कि लादेन के लिए लिखा जाए कि 'वो ऐसे दिखते होंगे?'

एक साहब हैं जो रोज बीबीसी पढ़ते हैं लेकिन उन्हें आज तक बीबीसी की भाषा में कोई खामी नजर नहीं आई। उल्टा वो हमें दोष देने लगे कि ये आपकी 'सोच' और देखने के नजरिये का दोष है। भई, अगर मुझे लादेन जैसे आतंकवादी को सम्मान देने में आपत्ति है तो मेरी 'सोच' खराब कैसे हो गई? फर्ज कीजिए अगर मैं उन साहब का और उनके परिवार का दुश्मन बन जाऊं। उनको और उनके पूरे परिवार को जान से खत्म करने की ठान लूं। उनके एक-दो रिश्तेदारों को मौत के घाट भी उतार दूं। तब क्या उनके दिल में मेरे लिए कोई सम्मान रहेगा? शायद नहीं। तो सवाल ये है कि हजारों-लाखों बेकसूर लोगों की जान लेने वाला आतंकी लादेन कैसे सम्मानित संबोधन का हकदार हो सकता है?

इसी तरह अगर हिंदी में खबर लिखी जा रही है और जिक्र महात्मा गांधी की मौत का हो रहा है तो नाथूराम गोडसे क्या सम्मानित संबोधन का हकदार हो सकता है? लादेन को 'हैं' और 'वे' जैसे संबोधन किसी भी कीमत पर नहीं दिए जा सकते। बीबीसी हिंदी की भाषा के पैरोकारों से मैं कहना चाहूंगा कि जरा आत्मविश्लेषण करके देखें कि निचले तबके में रहने वाले और उनकी नजर में साफ-सफाई जैसे तुच्छ काम करने वाले लोगों को वो कितनी बार 'आप' कहकर संबोधित करते हैं, जबकि हकीकत तो ये है कि वो लोग सम्मान के पूरे हकदार हैं क्योंकि वह अपना काम ईमानदारी से करते हैं। कोई भी काम छोटा-बड़ा नहीं होता। इसके बावजूद हकदार होते हुए भी हम उन्हें सम्मान देने में कतराते हैं। इसके विपरीत कातिल, गुनहगार और आतंकी को सम्मान देने में उन्हें बुराई नजर नहीं आती? शायद इसलिए क्योंकि ऐसा एक विदेशी संस्था कर रही है और विदेशी जो भी करते हैं वो ऐसे लोगों को महान नजर आता है। ऐसे लोगों को वो सिर आंखों पर बैठाते हैं। वह कचरा भी परोसे तो हमें सोना लगता है। ऐसे लोगों के लिए तो हम यही कहेंगे कि उन्हें अपनी आंखें खोलनी चाहिए और दिमाग के बंद दरवाजे को भी खुला रखना चाहिए।

कुछ संकुचित मानसिकता वाले लोगों ने तो मुझ पर एक अजीबोगरीब आरोप मढ़ डाला। वो खुद को सेकुलर साबित करना चाहते थे लिहाजा उन्होंने हम पर आरोप लगा दिया कि हम बीबीसी हिंदी पर ऐसे सवाल इसलिए उठा रहे हैं क्योंकि उसकी संपादक सलमा जैदी एक मुसलमान हैं। इसी आधार पर उन्होंने हमें दक्षिण चरमपंथी भी घोषित कर दिया। हमें तो तरस ही आई उनकी सोच पर। उन्होंने बीबीसी की एक-दो खबरों का उदाहरण देकर ये भी साबित कर दिया कि चूंकि बीबीसी बाला साहेब ठाकरे के लिए भी सम्मानजनक संबोधन इस्तेमाल करता है इसलिए लादेन भी सम्मान का हकदार है। चूंकि वो यह मान चुके हैं कि बीबीसी की भाषा पर सवाल उठाने वाला एक दक्षिण चरमपंथी है, इसीलिए शायद उन्होंने बाल ठाकरे का उदाहरण पेश किया। इस पर मैं कहना चाहूंगा कि बाल ठाकरे हों या राज ठाकरे अगर कोई संगीन गुनाह करते हैं तो वो भी सम्मान के जरा भी हकदार नहीं है। एक और साहब ने इसे बीबीसी की निष्पक्ष पत्रकारिता बताया। यानी आतंकी का सम्मान करना उनकी नजर में निष्पक्ष पत्रकारिता की श्रेणी में आता है। उन्होंने ये भी तर्क दिया कि पत्रकार को किसी का पक्ष नहीं लेना चाहिए। लेकिन जरा आप ही सोचिए कि लादेन के बारे में लिखते वक्त क्या पक्ष और विपक्ष की गुंजाइश रहती है?

गुरुवार, 25 फ़रवरी 2010

'फिदा' के जाने पर ये स्यापा क्यों?

-कुंदन शशिराज
मकबूल कतर जा रहे हैं। अब वहीं बसेंगे और वहीं से अपनी कूचियां चलाएंगे.. ये खबर सुनकर हिंदुस्तान में कुछ लोगों को बड़ा अफसोस हो रहा है। इस गम में वो आधे हुए जा रहे हैं कि कुछ अराजक तत्त्वों के चलते एक अच्छे कलाकार को हिंदुस्तान छोड़कर जाने के लिए मजबूर होना पड़ा। इस पूरे ड्रामे को देखकर उन तथाकथित सहिष्णु लोगों पर हंसी, हैरानी और गुस्सा आता है। 95 साल का एक बूढ़ा जो अब तक आम लोगों की भावनाओं को अपनी कला के जरिये ठेंगे पर दिखाने की कोशिश करता आया है, जब वो खुद अपनी मर्जी से, अपने क्षुद्र स्वार्थ के लिए हिंदुस्तान छोड़ कर जा रहा है तो फिर ऐसे लोगों का कलेजा भला क्यों फट रहा है..? क्यों.. क्योंकि उनके पास आधी-अधूरी जानकारी है। ऐसे लोगों को चाहिए कि वो इस पूरे ड्रामे को अपनी सहिष्णुता का झूठा चश्मा उतारकर ईमानदारी से देखें।

मकबूल कतर में बस रहे हैं क्योंकि वहां उन्हें शाही परिवार का चारण बनकर शाही परिवार के लिए पेंटिंग बनाने का काम मिल गया है और जाहिर तौर पर जिंदगी को विलासिता से जीने के लिए वो शाही परिवार इस कलाकार को बेशुमार पैसा दे रहा है। पैसा इस करोड़पति कलाकार की पुरानी कमजोरी रही है। ये तस्वीरें सिर्फ अमीरों के ड्राइंग रूम के लिए बनाते हैं। इनकी करोड़ों की पेंटिंग्स खरीदने वाले धनपशुओं के लिए समाज का मतलब उनकी पेज थ्री सोसायटी होती है और खाली वक्त में टीवी चैनलों पर बैठकर किसी को भी धर्मनिरपेक्ष और धर्मांध होने का सर्टिफिकेट बांटना उनका शौक होता है। सवाल ये है कि हुसैन ने कुछेक 'पेंटिंग' बनाने के अलावा इस देश के लिए क्या कुछ सार्थक किया है? क्या उन्होंने गरीब.. अनाथ बच्चों के लिए कोई एनजीओ खोला या क्या उन्होंने पेंटिंग के जरिये कमाई अपनी करोड़ों-अरबों की दौलत का एक छोटा सा हिस्सा भी इस देश के सैनिकों के लिए समर्पित किया? मकबूल ने जो कुछ भी किया सिर्फ अपने लिए किया।

तर्क देने वाले तर्क देते हैं कि एक कलाकार को कला की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। जरूर मिलनी चाहिए लेकिन इसका मतलब ये तो नहीं कि वो अपनी इस स्वतंत्रता का इस्तेमाल बार-बार दूसरों की सहनशक्ति का परीक्षण करने के लिए करें? कहते हैं अश्लील पेंटिंग्स का विरोध हुआ तो मकबूल व्यथित हो गए। सरकार ने सुरक्षा का भरोसा दिलाया, लेकिन मकबूल को भरोसा नहीं हुआ। दरअसल मकबूल को समझ में आ गया था कि सरकार पर भरोसा न करने से पब्लिसिटी कुछ ज्यादा ही मिल रही है। लोगों के बीच इमेज एक ऐसे 'निरीह प्रतिभावान' कलाकार की बन रही है, जो अतिवादियों का सताया हुआ है। ये तो वाकई कमाल है। दूसरों की भावनाएं आपके लिए कुत्सित कमाई का सामान हैं। उस पर अगर विरोध हो तो आप बौद्धिक बनकर उनके विरोध पर भी ऐतराज जताने लगें।

अगर आपका दिल इतना ही बड़ा था तो आप एक माफी का छोटा सा बयान जारी कर खुद के एक दरियादिल कलाकार होने का परिचय दे सकते थे? मामले को शांत कर सकते थे। लेकिन आपके लिए न तो हिंदुस्तान के भावुक लोग कोई अहमियत रखते हैं और न ही हिंदुस्तान की न्याय व्यवस्था का आपके लिए कोई मतलब है। अश्लील पेंटिंग का मामला कोर्ट में गया तो इस 'कलाकार' ने एक बार भी कोर्ट में हाजिर होना जरूरी नहीं समझा। कोर्ट ने इसे अवमानना के तौर पर लिया और फिर मकबूल के खिलाफ गैर जमानती वारंट जारी कर दिया, फिर भी मकबूल को अक्ल नहीं आई। आती भी कैसे? अक्ल न आने की कीमत पर ही तो इतनी सारी पब्लिसिटी और करोड़पतियों के ड्राइंग रूम में पेंटिंग रखे जाने का कीमती तोहफा मिल रहा था। कतर में बसने की खबर भी मकबूल ने ऐसे फैलाई है, जैसे वो इसके जरिये हिंदुस्तान के मुंह पर तमाचा रसीद करने की खवाहिश पूरी कर रहे हों।

दुबई में डेरा डाले हुसैन ने एक अंग्रेजी दैनिक को खुद अपनी तस्वीरें भेजी और कतर की नागरिकता मिलने की खबर दी। एक अखबार को खबर देने का मतलब ये था कि ये खबर पूरे देश में फैले। सरकार के तमाम आश्वासनों के बावजूद मकबूल के दिल में इस मुल्क में बसने की कोई ख्वाहिश नहीं है। अगर ये ख्वाहिश होती तो फिर इस देश में लौट आने के कई बहाने मकबूल के पास होने चाहिए थे। अगर बात विरोध की ही थी तो जितना विरोध 'माई नेम इज खान' का हुआ, उतना मकबूल का तो कतई नहीं हुआ था। 'खान' बढ़िया तरीके से रिलीज भी हुई और शाहरूख आज भी अपने मन्नत में उसी शान के साथ रह रहे हैं, जैसे पहले रहते थे।

दरअसल मकबूल में खुद को सताया हुआ कलाकार दिखाने का शौक कुछ ज्यादा ही था। इसके साथ ही मकबूल का 'कला' बाजार दुबई और कतर जैसे अरब मुल्कों में खूब बढ़िया चलने भी लगा था। तेल भंडारों से बेशुमार पैसा निकाल रहे शेखों के पास अपने हरम पर खर्च करने के अलावा मकबूल की पेंटिंग खरीदने के लिए भी खूब पैसा है। मकबूल को और चाहिए भी क्या? सवाल ये है कि कतर में मकबूल को अपना बाजार दिख रहा है या फिर मकबूल को वाकई कतर में किसी कमाल की धर्मनिरपेक्षता और सहिष्णुता की आस है? अगर ऐसा है तो फिर मां सरस्वती की तरह ही कतर में मकबूल बस एक बार अपने 'परवरदिगार' की एक 'पेंटिंग' बना दें.. फिर देखते हैं, जिस कतर ने आशियाना दिया है वो कतर मकबूल को एक नया आशियाना ढूंढने का वक्त भी देता है या नहीं। (इस पोस्ट के लेखक कुंदन शशिराज एक हिंदी न्यूज चैनल में काम करते हैं)

पत्रकार के कातिल डॉक्टर पर कानून का शिकंजा

इस कहानी के दो अहम किरदार हैं। एक हाईप्रोफाइल और रसूखदार है, जो इस कहानी का खलनायक है। दूसरा पीड़ित है और एक अदना सा पत्रकार है, जो अब इस दुनिया में नहीं है। कहानी राजधानी दिल्ली से सटे नोएडा के एक जाने माने डॉक्टर और एक छोटे से अखबार में काम करने वाले पत्रकार के बीच अदावत की है। तारीख 16 अगस्त, 2007 थी। सुबह के करीब नौ बज रहे थे। नोएडा के सेक्टर 71 में रहने वाले महेश वत्स शायद अखबार के काम से ही घर से निकले थे।

चश्मदीदों के मुताबिक पहले तो एक कार वाले ने उनके स्कूटर पर टक्कर मारी और फिर उस कार वाले समेत कई लोगों ने मिलकर लाठी और लोहे के रॉड से महेश वत्स पर कई वार किए। महेश के स्कूटर को टक्कर मारने वाले शख्स का नाम था डॉ. वीपी सिंह। डॉ. वीपी सिंह नोएडा के मशहूर अस्पताल के मालिक हैं। डॉक्टर साहब पर सिर्फ पत्रकार महेश वत्स के साथ मारपीट का ही इल्जाम नहीं है, बल्कि इल्जाम ये भी है कि वो मारपीट के बाद जख्मी हुए महेश वत्स को अपने दो गुर्गों की मदद से उठाकर अपने अस्पताल ले गए और अज्ञात जगह पर छिपा दिया। हालांकि इस घटना की खबर जब नोएडा पुलिस को मिली तो पुलिस ने प्रयाग अस्पताल पर छापा मारा और वहां से महेश वत्स की लाश को बरामद कर लिया।

उस वक्त पुलिस ने डॉ. वीपी सिंह के खिलाफ महेश वत्स के अपहरण का मामला दर्ज किया था। लेकिन डॉ. वीपी सिंह अपने रसूख और पहुंच की वजह से बचते रहे। इसके बावजूद महेश वत्स के परिवारवालों ने हार नहीं मानी। वो यह सोचकर कानून की लड़ाई लड़ते रहे कि एक न एक दिन उन्हें इंसाफ जरूर मिलेगा। अभी उनकी ये लड़ाई अंजाम तक तो नहीं पहुंची है लेकिन इंसाफ का आगाज जरूर हो चुका है। गौतम बुद्ध नगर की फास्ट ट्रैक कोर्ट ने डॉ. वीपी सिंह को महेश वत्स के खिलाफ साजिश रचने और अपहरण करके उनकी हत्या करने का दोषी पाया है। कोर्ट ने नोएडा पुलिस को आदेश दिया है कि वो धारा 302, 364 और 120बी के तहत डॉ. वीपी सिंह के खिलाफ मुकदमा दर्ज करे।

एक पत्रकार की हत्या के इस मामले में सबसे अहम बात ये है कि महेश वत्स के डॉ. वीपी सिंह से पारिवारिक रिश्ते थे। अब सवाल ये उठता है कि ऐसा क्या हुआ कि डॉ. वीपी सिंह उनकी जान के दुश्मन बन गए। मुमकिन है कि महेश वत्स को डॉ. वीपी सिंह का कोई ऐसा राज मालूम हो गया हो, जिसे वो फाश करने की तैयार कर रहे हों। ये भी हो सकता है कि दोनों के बीच किसी बात को लेकर सौदेबाजी चल रही हो और बात बनने की बजाय बिगड़ गई है। इसीलिए शायद डॉ. वीपी सिंह ने महेश वत्स को सबक सिखाने के लिए दूसरा तरीका निकाला और हमेशा के लिए अपने रास्ते से हटा दिया। हालांकि पत्रकार महेश वत्स की हत्या का सच क्या है। ये अभी भी पूरी तरह सामने नहीं आ पाया है।

इस सवाल का जवाब अब भी नहीं मिल पाया है कि आखिर ऐसी क्या वजह थी कि डॉ. वीपी सिंह ने पत्रकार महेश वत्स की हत्या कर दी? महज एक्सीडेंट की घटना या उसकी वजह से हुआ कोई विवाद कत्ल की वजह नहीं बन सकता। वो भी तब जब महेश वत्स से उनके पारिवारिक संबंध थे। यानी कत्ल की इस कहानी में कुछ न कुछ ऐसा जरूर है जो अभी सामने आना बाकी है। डॉ. वीपी सिंह के खिलाफ हत्या का मुकदमा दर्ज करने और मामले की जांच करते वक्त नोएडा पुलिस को इन सभी पहलुओं पर भी गौर करना होगा।

रविवार, 17 जनवरी 2010

बीबीसी की इस पत्रकारिता को स‌लाम!

बीबीस‌ी हिंदी डॉट कॉम में प्रकाशित इस रिपोर्ट में किसी रिपोर्टर का नाम तो नहीं है, लेकिन जिसने भी इस खबर को लिखा है उसके हाथ चूम लेने को जी चाहता है। यकीन मानिए मैंने तो जबसे ओसामा बिन लादेन जैसी 'महान' शख्सियत के बारे में ये रिपोर्ट पढ़ी है और बीबीस‌ी हिंदी की वेबसाइट पर स‌जी 'उनकी' तस्वीरों को देखा है तभी स‌े मैं बीबीसी की पत्रकारिता पर अभिभूत हूं। खबर का शीर्षक देखकर ही ओसामा की 'महानता' का एहसास हो जाता है। शीर्षक है- 'क्या ऎसे दिखते होंगे लादेन?' आप स‌मझ स‌कते हैं कि लादेन बीबीसी के लिए कितनी 'स‌म्मानित' शख्सियत हैं। आगे की पंक्ति पर गौर फरमाएं। रिपोर्टर लिखता है-ख़ुफ़िया एजेंसियाँ वर्षों से ये दावा कर रही हैं कि ओसामा बिन लादेन पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान की सीमा पर किसी क़बायली इलाक़े में छिपे हुए हैं। वाकई दुनिया के स‌बस‌े बड़े और खतरनाक आतंकी के लिए इतना 'आदर भाव' बीबीसी के स‌ंपादक के 'दिल में' ही हो स‌कता है। बीबीसी हिंदी की स‌ंपादक स‌लमा जैदी इस 'लोकतांत्रिक' स‌ोच के लिए वाकई बधाई की हकदार हैं।

आगे की चंद और पंक्तियों पर भी गौर करें-'ये तस्वीर लादेन की वास्तविक तस्वीर नहीं, बल्कि डिजिटल तकनीक से बनाई गई तस्वीर है और इस तस्वीर में ये दिखाने की कोशिश की गई है कि इस समय लादेन कैसे दिखते होंगे।' खबर पढ़कर आपको कहीं भी ये नहीं महसूस होगा कि ओसामा बिन लादेन दुनिया का स‌बसे खतरनाक आतंकवादी है। खास बात यह भी है कि पूरी रिपोर्ट में लादेन के लिए कहीं भी आतंकवादी शब्द का इस्तेमाल नहीं किया गया है। शायद बीबीसी के स‌ंपादक की नजर में लादेन भी उतनी स‌म्मानित 'हस्ती' हैं जितने कि ब्रिटेन के प्रधानमंत्री। इस खबर को पढ़ने के बाद शायद पत्रकारों को खबर लिखने का स‌ही तरीका बीबीसी स‌े स‌ीखना होगा। कम स‌े कम मुझे तो ऎसा ही लगता है।

खबर की अगली पंक्ति पर भी एक नजर डालें- 'एफ़बीआई के फ़ॉरेंसिक विशेषज्ञों ने उनके चेहरे की रूप-रेखा में थोड़ा सुधार किया है और यह दिखाने की कोशिश की है कि लादेन इस समय कैसे दिख सकते हैं।' अमेरिका ने अपने स्वार्थ के लिए ओस‌ामा को अब भी दुनिया की नजरों में जिंदा रखा है, ऎसी खबरें तो आप कई बार पढ़ चुके होंगे। लेकिन ब्रिटेन में ओसामा इतनी सम्मानित शख्सियत हैं ये आप नहीं जानते होंगे। ये मैं दावे के स‌ाथ कह रहा हूं। बीबीसी की ये खबर आतंकवाद स‌े लगातार लड़ रहे हिंदुस्तान के लिए एक चेतावनी है कि वो अतंरराष्ट्रीय आतंकवाद के खिलाफ खड़े होने, उससे लड़ने और उसे खत्म करने के अमेरिका और ब्रिटेन के दावों की असलियत को स‌मझे। यह खबर इन देशों की उसी 'स‌ोच' को उजागर करती है।

ये कितनी हैरत की बात है कि एक तरफ ब्रिटेन के स‌ैनिक अफगानिस्तान में अमेरिकी स‌ैनिकों के स‌ाथ मिलकर आतंकवाद के खिलाफ 'अभियान' छेड़ते हैं। अभियान भी ऎस‌ा वैसा नहीं, किसी आतंकवादी की तलाश में छेड़ा गया अब तक का स‌बसे अभियान। दावों के मुताबिक दोनों देश ओस‌ामा की खोज में करोड़ों-अरबो डॉलर पानी की तरह बहा चुके हैं। इसके बावजूद ओसामा है कि हाथ ही नहीं आता। अब जरा बीबीसी पर गौर करें। बीबीसी ब्रिटेन का स‌रकारी मीडिया है। स‌रकार के पैसों पर चलता है। कहा भी जाता है कि किसी देश का स‌रकारी मीडिया उसकी स‌ोच उसकी स‌ंस्कृति का 'आईना' होता है। उसी आईने का एहसास करा रही है बीबीसी हिंदी की यह खबर।

खबर की अगली कुछ और पंक्तियों पर गौर करने स‌े पहले हम बता दें कि लादेन को ढूँढ़ निकालने की कोशिश में जुटी अमरीकी ख़ुफ़िया एजेंसी फ़ेडेरल ब्यूरो ऑफ़ इन्वेस्टिगेशन यानी एफ़बीआई ने लादेन की नई तस्वीर जारी की है। इस तस्वीर को जारी करने का मकसद दुनिया को यह बताना है कि लादेन अब भी जिंदा है और उसने अपना रूप बदल लिया है। आइये अब बात करते हैं खबर की अगली कुछ पंक्तियों की। आगे लादेन की यह खबर लिखते वक्त भी उसके स‌म्मान का पूरा-पूरा खयाल रखा गया है। हो स‌कता है कि बीबीसी को डर हो कि कहीं लादेन उन्हें 'मानहानि का नोटिस' न भेज दे।

फिर गौर कीजिए। लादेन स‌ाहेब की दो तस्वीरों के बारे में जानकारी देते हुए खबर में लिखा गया है- इन दो तस्वीरों में से एक में लादेन को पारंपरिक पोशाक में दिखाया गया है तो दूसरी तस्वीर में वे पश्चिमी वेश-भूषा में दिखते हैं और उनकी दाढ़ी भी कतरी हुई है। हमें यकीन है कि लादेन जहां कहीं भी 'होंगे' बीबीस‌ी की इस खबर को पढ़कर के बारे में जानकर उतने ही अभिभूत हो जाएंगे जितने कि हम हैं। पूरी खबर में लादेन के लिए 'उन्हें' और 'वे' जैसे स‌म्मानित शब्दों का इस्तेमाल किया गया है। आगे लिखा है-ओसामा बिन लादेन का कथित वीडियो आख़िरी बार वर्ष 2007 में आया था. वो वीडियो 30 मिनट का था और उस वीडियो में लादेन को ये कहते दिखाया गया था कि जॉर्ज बुश को अमरीकी जनता ने दूसरी बार समर्थन दिया है कि वे इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान में लोगों की हत्या जारी रखें।

अब बीबीस‌ी हिंदी डॉट कॉम की एक और खबर पर गौर करें। खबर का शीर्षक है-'घायल हो गए हैं हकीमुल्ला।' दुनिया जानती है कि हकीमुल्ला तालिबान का एक खतरनाक आतंकवादी है। लेकिन बीबीसी हकीमुल्ला के बारे में खबर लिखते हुए उनके स‌म्मान का खास खयाल रखता है। खबर का पहला पैरा है-पाकिस्तान में तालेबान प्रवक्ता ने स्वीकार किया है कि गुरुवार को हुए अमरीकी ड्रोन हमले में उनके नेता हकीमुल्लाह महसूद घायल हो गए हैं। इस हमले में हकीमुल्लाह महसूद के मारे जाने की अटकलें लगाई जा रही थीं लेकिन तालेबान ने दावा किया था कि वे बच निकलने में क़ामयाब हुए हैं। खबर के एक और पैराग्राफ पर नजर डालिए औऱ खुद फैसला कीजिए कि बीबीसी की नजर में आतंकवादी कितने स‌म्मानित हैं।....उधर अधिकारियों ने यह भी दावा किया है कि नौ जनवरी को हुए मिसाइल हमले में एक प्रमुख तालेबान नेता जमाल सईद अब्दुल रहीम की मौत हो गई है। जमाल सईद उन चरमपंथियों में से थे जिसकी अमरीकी केंद्रीय जाँच एजेंसी एफ़बीआई को सबसे अधिक तलाश है. उन पर 50 लाख डॉलर का ईनाम था. आरोप है कि 1986 में पैन अमरीकन वर्ल्ड एयरवेज़ के एक विमान के अपहरण में उनका हाथ था।

बीबीसी की स‌ंपादक स‌लमा जैदी को एक बार फिर लाख-लाख बधाई। वैसे उन्हें जितनी बधाइयां दी जाएं कम हैं। हमारा स‌ुझाव है कि स‌लमा जी बीबीसी के पाठकों को लादेन जैसी महान हस्ती स‌े रूबरू कराने के लिए एक श्रृंखला शुरू करें। ताकि लोग उनकी 'खूबियों' स‌े वाकिफ हो स‌कें। चाहे तो उनके स‌माजसेवी स‌ंगठन 'अलकायदा' के लिए ब्रिटेन स‌मेत कई देशों के लोगों स‌े आर्थिक स‌हायता की अपील भी कर स‌कती हैं। हमे यकीन है कि दुनिया में उनकी जैसी 'स‌ोच' के लोगों की कमी नहीं होगी। उनकी एक अपील पर ही बीबीसी के दफ्तर पर चेकों का ढेर लग जाएगा। एक स‌ंपादक किस कदर 'निष्पक्ष' हो स‌कता है यह स‌लमा जैदी ने स‌ाबित कर दिया है। साथ ही उन पत्रकारों के लिए एक रास्ता भी बता दिया है जो भविष्य में बीबीसी की वेबसाइट का स‌ंपादक बनने की हसरत रखते हैं। बहुत-बहुत शुक्रिया स‌लमा जैदी जी। हम चाहेंगे कि आप का नाम भी एक दिन ओस‌ामा की तरह ही दुनिया की स‌म्मानित शख्सियतों में शुमार हो। (दोनों संबंधित तस्वीरें बीबीसी हिंदी डॉट कॉम स‌े स‌ाभार)

 
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