मेरा कसूर सिर्फ इतना था कि मैंने बीबीसी की भाषा को लेकर एक सवाल उठाया था। सवाल यह था कि दुनिया का सबसे खतरनाक आतंकी और इंसानियत का दुश्मन ओसामा बिन लादेन सम्मान का हकदार कैसे? अभी तक तो हमने यही सुना है कि व्यक्ति के कर्म ही उसे महान बनाते हैं। कर्म ही सम्मान का हकदार बनाते हैं। लेकिन बीबीसी के लिए एक आतंकवादी भी सम्मानित है। कल्पना कीजिए कि अगर मुंबई हमले का गुनहगार आमिर अजमल कसाब बीमार हो जाए तो उसके बारे में लिखी गई बीबीसी की खबर का शीर्षक क्या होगा। शायद वह लिखेगा, 'बीमार हैं कसाब' या फिर 'बीमार हुए कसाब'। अब आप सोचिए कि कसाब के बारे में ऐसा संबोधन पढ़कर एक हिंदुस्तानी को कैसा लगेगा? हालांकि कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्हें बीबीसी के इन भाषाई तौर-तरीकों में कोई बुराई नजर नहीं आती। वो बड़ी ही बेशर्मी से इसे बीबीसी की 'निष्पक्ष' पत्रकारिता कहते हैं। ऐसे लोगों से मैं पूछना चाहता हूं कि क्या वो महात्मा गांधी के हत्यारे के लिए ऐसा सम्मानजनक संबोधन पसंद करेंगे? क्या वो इंदिरा गांधी के कातिल के लिए 'उन्हें' या 'वे' जैसे संबोधन स्वीकार कर पाएंगे?
टीवी चैनलों को भाषा ज्ञान देने वाले इस मुद्दे पर मौन हो जाते हैं। शायद उन्हें लगता है कि वो बीबीसी पर सवाल उठाएंगे तो 'सांप्रदायिक' की श्रेणी में आ जाएंगे। अन्यथा वो थोड़ा सा भाषा ज्ञान बीबीसी को भी क्यों नहीं देते? रुचिका मामले में सबने देखा कि मीडिया की भाषा कैसे रातोंरात बदल गई। जैसे ही हरियाणा के पूर्व डीजीपी एसपीएस राठौर की कारगुजारी दुनिया के सामने आई, वो मीडिया की नजर में सबसे बड़ा खलनायक बन गया। एक दिन पहले तक वो महज आरोपी 'थे', लेकिन 24 घंटे बाद ही वो 'गुनहगार' हो 'गया'। चैनल में साफ-साफ 'उसे' रुचिका का गुनहगार कहा जाने लगा। यहां भी यही साबित हुआ कि व्यक्ति के कर्म ही उसे सम्मान का हकदार बनाते हैं। जैसे ही राठौर के कुकर्म उजागर हुए, मीडिया ने उसके लिए सम्मानजनक भाषा का इस्तेमाल करना भी बंद कर दिया।
कुछ लोग तर्क दे सकते हैं कि भाषा सबके लिए एक समान होनी चाहिए। सभी को सम्मान पाने का हक है। बात ठीक है लेकिन उस व्यक्ति को सम्मान पाने लायक भी तो होना चाहिए। हिंदी में अंग्रेजी जैसा नहीं है। इसीलिए हिंदी में दो तरह के संबोधन हैं। तुम और आप। अंग्रेजी में ऐसा कुछ नहीं है। अंग्रेजी में किसी एक व्यक्ति (एक वचन) के लिए 'हैं' या 'वे' नहीं लिखा जाता। इसलिए अगर अंग्रेजी मानसिकता वाले हिंदी में वेबसाइट चलाते हैं तो उन्हें हिंदी भाषा के 'नेचर' और जनमानस का खयाल रखना ही होगा। सिर्फ ये कहकर नहीं बच सकते कि ये तो हमारी 'स्टाइल शीट' है। सवाल ये है कि स्टाइल शीट अगर है भी तो ऐसी क्यों है जिसमें एक आतंकी को सम्मानजनक विशेषण दिया जाता है? वेबसाइट हिंदी में है और हिंदी का पाठक यह कतई नहीं कबूल कर सकता कि लादेन के लिए लिखा जाए कि 'वो ऐसे दिखते होंगे?'
एक साहब हैं जो रोज बीबीसी पढ़ते हैं लेकिन उन्हें आज तक बीबीसी की भाषा में कोई खामी नजर नहीं आई। उल्टा वो हमें दोष देने लगे कि ये आपकी 'सोच' और देखने के नजरिये का दोष है। भई, अगर मुझे लादेन जैसे आतंकवादी को सम्मान देने में आपत्ति है तो मेरी 'सोच' खराब कैसे हो गई? फर्ज कीजिए अगर मैं उन साहब का और उनके परिवार का दुश्मन बन जाऊं। उनको और उनके पूरे परिवार को जान से खत्म करने की ठान लूं। उनके एक-दो रिश्तेदारों को मौत के घाट भी उतार दूं। तब क्या उनके दिल में मेरे लिए कोई सम्मान रहेगा? शायद नहीं। तो सवाल ये है कि हजारों-लाखों बेकसूर लोगों की जान लेने वाला आतंकी लादेन कैसे सम्मानित संबोधन का हकदार हो सकता है?
इसी तरह अगर हिंदी में खबर लिखी जा रही है और जिक्र महात्मा गांधी की मौत का हो रहा है तो नाथूराम गोडसे क्या सम्मानित संबोधन का हकदार हो सकता है? लादेन को 'हैं' और 'वे' जैसे संबोधन किसी भी कीमत पर नहीं दिए जा सकते। बीबीसी हिंदी की भाषा के पैरोकारों से मैं कहना चाहूंगा कि जरा आत्मविश्लेषण करके देखें कि निचले तबके में रहने वाले और उनकी नजर में साफ-सफाई जैसे तुच्छ काम करने वाले लोगों को वो कितनी बार 'आप' कहकर संबोधित करते हैं, जबकि हकीकत तो ये है कि वो लोग सम्मान के पूरे हकदार हैं क्योंकि वह अपना काम ईमानदारी से करते हैं। कोई भी काम छोटा-बड़ा नहीं होता। इसके बावजूद हकदार होते हुए भी हम उन्हें सम्मान देने में कतराते हैं। इसके विपरीत कातिल, गुनहगार और आतंकी को सम्मान देने में उन्हें बुराई नजर नहीं आती? शायद इसलिए क्योंकि ऐसा एक विदेशी संस्था कर रही है और विदेशी जो भी करते हैं वो ऐसे लोगों को महान नजर आता है। ऐसे लोगों को वो सिर आंखों पर बैठाते हैं। वह कचरा भी परोसे तो हमें सोना लगता है। ऐसे लोगों के लिए तो हम यही कहेंगे कि उन्हें अपनी आंखें खोलनी चाहिए और दिमाग के बंद दरवाजे को भी खुला रखना चाहिए।
कुछ संकुचित मानसिकता वाले लोगों ने तो मुझ पर एक अजीबोगरीब आरोप मढ़ डाला। वो खुद को सेकुलर साबित करना चाहते थे लिहाजा उन्होंने हम पर आरोप लगा दिया कि हम बीबीसी हिंदी पर ऐसे सवाल इसलिए उठा रहे हैं क्योंकि उसकी संपादक सलमा जैदी एक मुसलमान हैं। इसी आधार पर उन्होंने हमें दक्षिण चरमपंथी भी घोषित कर दिया। हमें तो तरस ही आई उनकी सोच पर। उन्होंने बीबीसी की एक-दो खबरों का उदाहरण देकर ये भी साबित कर दिया कि चूंकि बीबीसी बाला साहेब ठाकरे के लिए भी सम्मानजनक संबोधन इस्तेमाल करता है इसलिए लादेन भी सम्मान का हकदार है। चूंकि वो यह मान चुके हैं कि बीबीसी की भाषा पर सवाल उठाने वाला एक दक्षिण चरमपंथी है, इसीलिए शायद उन्होंने बाल ठाकरे का उदाहरण पेश किया। इस पर मैं कहना चाहूंगा कि बाल ठाकरे हों या राज ठाकरे अगर कोई संगीन गुनाह करते हैं तो वो भी सम्मान के जरा भी हकदार नहीं है। एक और साहब ने इसे बीबीसी की निष्पक्ष पत्रकारिता बताया। यानी आतंकी का सम्मान करना उनकी नजर में निष्पक्ष पत्रकारिता की श्रेणी में आता है। उन्होंने ये भी तर्क दिया कि पत्रकार को किसी का पक्ष नहीं लेना चाहिए। लेकिन जरा आप ही सोचिए कि लादेन के बारे में लिखते वक्त क्या पक्ष और विपक्ष की गुंजाइश रहती है?
टीवी चैनलों को भाषा ज्ञान देने वाले इस मुद्दे पर मौन हो जाते हैं। शायद उन्हें लगता है कि वो बीबीसी पर सवाल उठाएंगे तो 'सांप्रदायिक' की श्रेणी में आ जाएंगे। अन्यथा वो थोड़ा सा भाषा ज्ञान बीबीसी को भी क्यों नहीं देते? रुचिका मामले में सबने देखा कि मीडिया की भाषा कैसे रातोंरात बदल गई। जैसे ही हरियाणा के पूर्व डीजीपी एसपीएस राठौर की कारगुजारी दुनिया के सामने आई, वो मीडिया की नजर में सबसे बड़ा खलनायक बन गया। एक दिन पहले तक वो महज आरोपी 'थे', लेकिन 24 घंटे बाद ही वो 'गुनहगार' हो 'गया'। चैनल में साफ-साफ 'उसे' रुचिका का गुनहगार कहा जाने लगा। यहां भी यही साबित हुआ कि व्यक्ति के कर्म ही उसे सम्मान का हकदार बनाते हैं। जैसे ही राठौर के कुकर्म उजागर हुए, मीडिया ने उसके लिए सम्मानजनक भाषा का इस्तेमाल करना भी बंद कर दिया।
कुछ लोग तर्क दे सकते हैं कि भाषा सबके लिए एक समान होनी चाहिए। सभी को सम्मान पाने का हक है। बात ठीक है लेकिन उस व्यक्ति को सम्मान पाने लायक भी तो होना चाहिए। हिंदी में अंग्रेजी जैसा नहीं है। इसीलिए हिंदी में दो तरह के संबोधन हैं। तुम और आप। अंग्रेजी में ऐसा कुछ नहीं है। अंग्रेजी में किसी एक व्यक्ति (एक वचन) के लिए 'हैं' या 'वे' नहीं लिखा जाता। इसलिए अगर अंग्रेजी मानसिकता वाले हिंदी में वेबसाइट चलाते हैं तो उन्हें हिंदी भाषा के 'नेचर' और जनमानस का खयाल रखना ही होगा। सिर्फ ये कहकर नहीं बच सकते कि ये तो हमारी 'स्टाइल शीट' है। सवाल ये है कि स्टाइल शीट अगर है भी तो ऐसी क्यों है जिसमें एक आतंकी को सम्मानजनक विशेषण दिया जाता है? वेबसाइट हिंदी में है और हिंदी का पाठक यह कतई नहीं कबूल कर सकता कि लादेन के लिए लिखा जाए कि 'वो ऐसे दिखते होंगे?'
एक साहब हैं जो रोज बीबीसी पढ़ते हैं लेकिन उन्हें आज तक बीबीसी की भाषा में कोई खामी नजर नहीं आई। उल्टा वो हमें दोष देने लगे कि ये आपकी 'सोच' और देखने के नजरिये का दोष है। भई, अगर मुझे लादेन जैसे आतंकवादी को सम्मान देने में आपत्ति है तो मेरी 'सोच' खराब कैसे हो गई? फर्ज कीजिए अगर मैं उन साहब का और उनके परिवार का दुश्मन बन जाऊं। उनको और उनके पूरे परिवार को जान से खत्म करने की ठान लूं। उनके एक-दो रिश्तेदारों को मौत के घाट भी उतार दूं। तब क्या उनके दिल में मेरे लिए कोई सम्मान रहेगा? शायद नहीं। तो सवाल ये है कि हजारों-लाखों बेकसूर लोगों की जान लेने वाला आतंकी लादेन कैसे सम्मानित संबोधन का हकदार हो सकता है?
इसी तरह अगर हिंदी में खबर लिखी जा रही है और जिक्र महात्मा गांधी की मौत का हो रहा है तो नाथूराम गोडसे क्या सम्मानित संबोधन का हकदार हो सकता है? लादेन को 'हैं' और 'वे' जैसे संबोधन किसी भी कीमत पर नहीं दिए जा सकते। बीबीसी हिंदी की भाषा के पैरोकारों से मैं कहना चाहूंगा कि जरा आत्मविश्लेषण करके देखें कि निचले तबके में रहने वाले और उनकी नजर में साफ-सफाई जैसे तुच्छ काम करने वाले लोगों को वो कितनी बार 'आप' कहकर संबोधित करते हैं, जबकि हकीकत तो ये है कि वो लोग सम्मान के पूरे हकदार हैं क्योंकि वह अपना काम ईमानदारी से करते हैं। कोई भी काम छोटा-बड़ा नहीं होता। इसके बावजूद हकदार होते हुए भी हम उन्हें सम्मान देने में कतराते हैं। इसके विपरीत कातिल, गुनहगार और आतंकी को सम्मान देने में उन्हें बुराई नजर नहीं आती? शायद इसलिए क्योंकि ऐसा एक विदेशी संस्था कर रही है और विदेशी जो भी करते हैं वो ऐसे लोगों को महान नजर आता है। ऐसे लोगों को वो सिर आंखों पर बैठाते हैं। वह कचरा भी परोसे तो हमें सोना लगता है। ऐसे लोगों के लिए तो हम यही कहेंगे कि उन्हें अपनी आंखें खोलनी चाहिए और दिमाग के बंद दरवाजे को भी खुला रखना चाहिए।
कुछ संकुचित मानसिकता वाले लोगों ने तो मुझ पर एक अजीबोगरीब आरोप मढ़ डाला। वो खुद को सेकुलर साबित करना चाहते थे लिहाजा उन्होंने हम पर आरोप लगा दिया कि हम बीबीसी हिंदी पर ऐसे सवाल इसलिए उठा रहे हैं क्योंकि उसकी संपादक सलमा जैदी एक मुसलमान हैं। इसी आधार पर उन्होंने हमें दक्षिण चरमपंथी भी घोषित कर दिया। हमें तो तरस ही आई उनकी सोच पर। उन्होंने बीबीसी की एक-दो खबरों का उदाहरण देकर ये भी साबित कर दिया कि चूंकि बीबीसी बाला साहेब ठाकरे के लिए भी सम्मानजनक संबोधन इस्तेमाल करता है इसलिए लादेन भी सम्मान का हकदार है। चूंकि वो यह मान चुके हैं कि बीबीसी की भाषा पर सवाल उठाने वाला एक दक्षिण चरमपंथी है, इसीलिए शायद उन्होंने बाल ठाकरे का उदाहरण पेश किया। इस पर मैं कहना चाहूंगा कि बाल ठाकरे हों या राज ठाकरे अगर कोई संगीन गुनाह करते हैं तो वो भी सम्मान के जरा भी हकदार नहीं है। एक और साहब ने इसे बीबीसी की निष्पक्ष पत्रकारिता बताया। यानी आतंकी का सम्मान करना उनकी नजर में निष्पक्ष पत्रकारिता की श्रेणी में आता है। उन्होंने ये भी तर्क दिया कि पत्रकार को किसी का पक्ष नहीं लेना चाहिए। लेकिन जरा आप ही सोचिए कि लादेन के बारे में लिखते वक्त क्या पक्ष और विपक्ष की गुंजाइश रहती है?