शुक्रवार, 20 जुलाई 2007

उनका और तुम्हारा बचपन
















कोमल, निर्मल, निश्छल, निष्काम बचपन
किसका ?...उनका, तुम्हारा या हमारा अपना
आता है बचपन जीवन में एक बार ही
इसलिये संभाल कर रखना इसको
क्यों न करो कुछ ऐसा
भूल न पाएं बचपन की स्वर्णिम यादें तुमको
सहेज कर रखना उन यादों को
उन बातों को
जो याद दिलाती रहें पल-पल तुमको
बचपन की, उस निर्मल, निश्छल जीवन की
यद्यपि है निश्चित
यह बचपन नहीं चलेगा सदा साथ तुम्हारे
वरन एक दिन ऐसा भी आयगा
जब तुम खुद को समझने लगोगे
समझदार, खुद्दार
आवश्यकता नहीं महसूस होगी तुम्हें
बड़े-बुजुर्गों की
उनकी सलाह की, मार्गदर्शन की
क्योंकि तुम खुद ही हो जाओगे बड़े
बेशक कैसा भी रहा हो तुम्हारा बचपन
लेकिन वह अब तो बीत ही गया है
यदि हो गया है अतीत में विलीन तुम्हारा बचपन
खो गया है समय के अंधकार में
तो क्यों न अब तुम ही
अपने आस-पास के, बिन मां-बाप के
बच्चों का बचपन सहेजो, संवारो, निखारो
शायद इसी में तुम्हारा बचपन संलिप्त हो
परंतु याद रखना सदा इस बात को
इसमें तुम्हारा कोई निज स्वार्थ न निहित हो
क्योंकि बचपन तो भोला है, निस्वार्थ है
भला उसका संसार के झंझावतों से क्या वास्ता?
क्यों न देखें हम बचपन को उनकी ही नजर से
हम भी दूर हो जाएं दुनिया की तमाम बुराइयों से
और हम भी अपने आप को
अपनी भावनाओं, इच्छाओं को ढालें उन्हीं के अनुसार
जो लड़ते हैं कभी आपस में
लेकिन, पल भर के बाद ही
खेलने लगते हैं फिर से मिल-जुलकर
सब कुछ भूलकर।

(1993)

गुरुवार, 19 जुलाई 2007

जंगजू

पहले...

बहुत बोलता था
आज खामोश था
वह इसलिए कि
ना आज उसको होश था
दे-देकर सबको गालियां
मोल लेता था बुराइयां
तभी तो
लोगों से पिट-पिटाकर
हड्डियां तुड़वाकर

अब...

वह निष्क्रिय सा पड़ा हुआ था
लगता जैसे मरा हुआ था
तभी मरे से उस शरीर में
हलचल थोड़ी सी हुई
हुआ अचानक खड़ा वह
अभी नहीं था मरा वह।

कल...

वह फिर मंच पर चढ़ा हुआ था।

अब मैं कविता नहीं लिखता

अब मैं कविता नहीं लिखता
हो सकता है अब यह मुमकिन ही न हो
वास्तविकता कुछ भी हो
लकिन यह सच है कि
अब मुझे यह गलतफहमी नहीं है
कि मेरे भीतर भी एक कवि है।

अब मैं कविता नहीं लिखता
लेकिन पहले ऐसा नहीं था
मुझे भी यह गुमान था
कि मेरे अंदर भी एक कवि है
तब मुझे हर चीज में
कविता नजर आती थी
शब्दों की तुकबंदी
मुझे भी बहुत सुहाती थी
पर्वत, झरने, नदियां, परिंदे
ये सब मुझे बहुत लुभाते थे
शब्दों की लड़ियां
खुद-ब-खुद जुड़ जाती थीं
लेकिन...अब ऐसा नहीं होता


अब मैं कविता नहीं लिखता
क्योंकि अब प्रकृति मुझे नहीं लुभाती
चिड़ियों की चहचहाहट नहीं सुहाती
अब मैं प्रेम की परिभाषा को समझने
या समझाने की कोशिश नहीं करता
जिंदगी के स्याह पहलुओं पर
अपना सर नहीं खपाता...
रास्ते पर पत्थर तोड़ती औरत
मैले-कुचैले कपड़ों में खेलते बच्चे
या किसी मजलूम का करुण क्रंदन
अब मुझे परेशान नहीं करते
क्योंकि...
अब मैं कविता नहीं लिखता।

और हां,
अब मैं 'फटीचर राइटर' नहीं कहलाता
साइकिल से नहीं, कार में चलता हूं
भले ही अब मैं
प्रकृति के सौंदर्य का वर्णन नहीं कर पाता
जिंदगी की पहेलियों को नहीं सुलझा पाता
लेकिन लिखता मैं अब भी हूं
अब मेरी उंगलियां कागज पर नहीं
कंप्यूटर पर थिरकती हैं।

अब मैं कविता नहीं लिखता।
अब मैं नाग-नागिन के प्रेम
और बदले की कहानियां लिखता हूं
भूतों के नाच, चुड़ैल का खौफ
तंत्र-मंत्र की कहानियां
मैं बाखूबी बयां करता हूं
सांप-नेवले की लड़ाई
पागल कुत्ते का कहर
और मियां-बीवी के झगड़े
ये अब मेरे मेरे मनपसंद विषय हैं
जी हां, अब मैं 'स्क्रिप्ट' लिखता हूं
मैं एक खबरिया चैनल में
'प्रोड्यूसर' हो गया हूं
इसलिए...
अब मैं कविता नहीं लिखता।

खबर तूने क्या किया

राह चलते एक दिन
एक खबर हमसे आ टकराई
खबर का हाल काफी बुरा था
सीने में छह इंच का छुरा था
हमने पूछा अरे खबर कहां चली
बोली अखबार के दफ्तर की गली
हम चकराये
उसकी मूर्खता पर झल्लाए
हमने कहा-
अखबार का दफ्तर छोड़ो
खबरिया चैनलों का पता लो
और सीधे स्टूडियो पहुंच जाओ
हमने मन में सोचा
कि इस खबर में ड्रामे के पूरे चांस हैं।
मुंह में आह और सीने में खंजर
चैनल के लिए बेहद मुफीद है ये मंजर
इस बार हमने उसे समझाया-
तुम्हारी तो किस्मत ही बदल जाएगी
हर घर में बस तुम ही नजर आओगी
कुछ समझी
रिकार्ड तोड़ टीआरपी पाओगी
रातोंरात हिट हो जाओगी
देर मत करो वर्ना पछताओगी।
लेकिन वह बेचारी तो नासमझ निकली
हमारी नेक सलाह उसके भेजे में नहीं घुस पाई
शायद इसीलिये...
उसे यह बात समझ में नहीं आई
उसने अपनी लाल दहकती आंखें तरेरीं
और अखबार के दफ्तर की तरफ हो ली
अगले दिन जब हमने अखबार उठाया
तो खबर को महज सिंगल कॉलम में पाया
उसकी नासमझी पर हमें बेहद तरस आया
सचमुच जिसे चैनल वाले घंटों तान सकते थे
उसने सिंगल कॉलम में छपकर
अपनी अहमियत को खुद ही घटाया।

मंगलवार, 17 जुलाई 2007

क्या यह मुमकिन है?

कितनी आसानी से
तुमने कह दिया
मुझे भूल जाओ।
अब अपनी जिंदगी में
किसी और को ले आओ
ये चंद अल्फाज कहते हुये
क्या तुमने नहीं सोचा
इतना आसान होता है
किसी को भूल जाना?
कोशिश करके कई बार देखा है
अब तक तो तुम्हें नहीं भूल पाया
तुम तो मेरी रग-रग में समाए हो
फिर भला मैं तुम्हें
कैसे खुद से जुदा करूं?
कैसे तुम्हें भूल जाऊं
क्या यह मुमकिन है
कि अपनी जिंदगी में
अब किसी और को ले आऊं?

सोमवार, 16 जुलाई 2007

अपने-अपने भंवर


अच्छाई, बुराई, नैतिक-अनैतिक के
सवाल रूपी दोराहे पर खड़ा
वैचारिक मतभेद और
मानसिक द्वंद रूपी चौराहे की भीड़ में उलझा
सत्य-असत्य के आक्षेपों से जूझता
अनिश्चितताओं के भंवर में डूबता-उतराता
तीक्ष्ण अकाट्य तर्कों से
कतरा कर गुजरने के प्रयास में है व्यक्ति
व्यक्ति, जो कहता कुछ है, करता कुछ है
पर हो कुछ और जाता है
व्यक्ति जो गिरता जा रहा है
निर्जन, अंधेरी, भयावह खाई में
घिरता जा रहा है
क्षुद्र मानसिक, सांसारिक स्वार्थों के
अनजान भंवर में
भंवर विचारों का है, भंवर संस्कारों का है
सभी का अपना अंर्तद्वंद है
अपने-अपने भंवर हैं।
कोई प्यार के गागर में
तो कोई नफरत के सागर में
आकंठ डूब जाना चाहता है
शायद इसी माध्यम से मोक्ष पाना चाहता है
क्या यह मात्र एक व्यक्ति का मानसिक उद्देग है?
यकीनन नहीं...

आम आदमी की आंखों से
सपने भी चुरा लेने को तत्पर
यह आज के तथाकथित सभ्य लोगों की वास्तविकता है
जो अग्रसर हैं विकास में और चढ़ चुके हैं ऊंची सीढ़ियां
छूकर असीम ऊंचाइयां, नाप चुके हैं अनंत गहराइयां
लेकिन, ये क्या नाप पाए हैं
किसी के अंतर्मन को
भांप पाए हैं किसी असहाय दिल के
दुखद रूदन को?
समझ पाए हैं
किसी लाचार के करुण क्रंदन का अर्थ?
या फिर पढ़ पाये हैं
किसी की सूनी आंखों की भाषा?
बेशक नहीं...।
तो फिर किस चिकित्साशास्त्र की बात करते हैं?
अरे, दिल के भीतर जाने से डरते हैं
और दिलों का इलाज करते हैं...?
(1997)

मंगलवार, 10 जुलाई 2007

अजनबी परछाई

अपने दरवाजे के आस-पास
किसी परछाई को देखकर
मैं अक्सर बहुत खुश हो जाता हूं
परछाई को निहारता हूं
उसके नजदीक आने का इंतजार करता हूं
परंतु अमूमन निराश हो जाता हूं
क्योंकि वह वास्तव में वह नहीं होता
जो दिखाई देता है
या फिर...
शायद मेरी ही आंखें धोखा खा जाती हैं
मन जिसे चाहता है
उसी का दीदार करती हैं
शायद मेरी खुशी के खातिर
मेरी आंखें मुझे ही भरमा देती हैं
अपनी आंखों की ये कोशिश
मुझे जरा भी नहीं भाती
क्योंकि आंखें खुलने पर
जब सामने कोई नजर नहीं आता
तब मुझसे मुखातिब होती है सच्चाई
जिससे मैं नजरें चुराने की कोशिश करता हूं
क्या करूं?
मेरे साथ अक्सर ऐसा ही होता है
जब मैं इस सच्चाई को नहीं समझ पाता
और हर बार खुश हो जाता हूं
एक और अजनबी परछाई को
अपनी ओर आता हुआ देखकर।(1997)

बुधवार, 4 जुलाई 2007

वस्तुस्थिति का भान

निकला था मैं मन में उमंगें लिए
काफी अर्से बाद अपने घर से बाहर
सोचा था चलूं
कुछ देर बिताऊंगा प्रकृति के सानिध्य में
मन में थीं तरह-तरह की कल्पनाएँ
कल्पनाओं में थीं
हिम आच्छादित पर्वत श्रंखलायें
दूर-दूर तक फैली हरयाली
मन मस्तिष्क में घूम रहे थे
हरे-भरे पेड-पौधों के अक्स
फूलों से लदी सुंदर लताएं
स्वच्छ सुगंधित वातावरण
हरी घास की मखमली चुनरी ओढ़े मैदान
मैदान में जीवों का स्वछंद विचरण
और परिंदों का कलरव
एकाकार हो जाना चाहता था मैं
प्रकृति के ऐसे अनूठे सौंदर्य में
बढ़ा जा रह था मैं वशीभूत सा होकर
सुध-बुध खोकर, सब कुछ भूलकर
तभी लगी पैर में एक ठोकर
संभल ना पाया गिरा हडबड़ाकर
यकायक तब वस्तुस्थिति का भान हुआ
जब स्वयं को एक निर्जन से स्थान में पाया
सोचा, अरे मैं ये कहां चला आया?
शायद घर से बहुत दूर निकल अया...
यहां तो सब कुछ बिल्कुल खामोश है
कहीँ दूर-दूर तक फैले रेगिस्तान
तो कहीं कचरे के ढेरों का श्मशान है।
कुछ दूर जब और बढ़ा
तो गर्मी ने तपा दिया
सूर्य की तीव्र किरणों ने झुलसा दिया
हाय, मानव की इस अंधी प्रगति ने
हरे-भरे जंगल तो क्या
मुझे एक पेड़ की छांव को तरसा दिया
यहां-वहां, जहां-तहां, कहां-कहां खोज आया
पर कोई छोटा सा पेड़ तक नहीं पाया
तब कहीं जाकर मैं लंबी नींदों से जागा
वास्तविकता में आया, कल्पनाओं को त्यागा
प्यास जब लगी तो नदियों की ओर भागा
लेकिन नदियों का पानी तो
कूड़े-करकट और रसायनों से
हो गया था प्रदूषित, पड़ गया था काला
जिसे पीकर मर-मरकर जीने से
मैंने प्यासा मरना बेहतर पाया
प्रगति के इस खेल ने मेरे साथ
ये कैसा गजब ढाया
इस जलमग्न पृथ्वी में
मैं पानी ढूंढ रहा हूं
कोई बचा ले मुझे...
आधुनिक सुख-सुविधाओं के इस युग में
मैं प्यास से अपना दम तोड़ रहा हूं।(1998)

मंगलवार, 3 जुलाई 2007

मैं जानता हूँ

अगर मैं कभी तुम्हारे दरवाजे पर
दस्तक दूं
अपने आप को मेहमान बताऊं
तो तुम दौड़कर
मेरा स्वागत नही करना
भगवान के बराबर तो क्या
तुम मुझे किंचित मात्र भी महत्व नहीं देना
मेरे सम्मान में
पलक-पावडे़ भी नहीं बिछाना
हो सके तो मुझे दुत्कार देना
यदि ऐसा कराने में संकोच हो तो
मुझे वापस लौटाने के लिए
मन मुताबिक तरकीबें अपनाना
खाने के लिए भी पूछ्ने की जरुरत नहीं
फिर भी मैं
बेशर्मी से खाना माँग ही लूं
तो तुम्हारे रसोई घर में
बासी रोटियां तो पड़ी ही होंगी
मुझे वही खिला देना
ज्यादा सूखी हों तो पानी लगा देना
यदि मैं
खाने की शिकायत करने जैसी धृष्टता करूं
तो तुम गुस्से ते आग-बबूला मत होना
बस कोई प्यारा सा बहाना बना देना
मैं जरा भी बुरा नहीं मानूंगा
क्योंकि मैं जानता हूं कि
मेहमान को भगवान समझाने की
मूर्खता करना
उसकी सेवा में
अपना अमूल्य समय बरबाद करना
ये सब पुरानी परम्पराएं हैं
पिछड़ेपन की निशानी हैं
मैं ये भी जानता हूँ कि
तुम इनके चक्कर में नहीं पड़ोगे
क्योंकि तुम तो आधुनिक हो
पुरानी सड़ी-गली परम्पराओं में
विश्वास नहीं रखते।(1998)

बड़े काम की खोज है भइया !

एजेंसियों के हवाले से खबर आई है कि शिकागो के जीव वै...निकों ने एक बड़ी कामयाबी हासिल की है। कामयाबी यह है कि उनकी टीम ने एक बैक्टीरिया के पूरे जीनोम को बदलकर उसे दूसरी प्रजाति में तब्दील करने का कमाल कर दिखाया है। जाहिर है शिकागों के वै..निकों की यह सफलता बेहद क्रांतिकारी साबित हो सकती है। यानी दो कदम और बढ़ जायें तो कई आश्चर्यजनक परिणाम सामने आ सकते हैं। कई लोगों की कई समस्यायें दूर हो सकती हैं। काम में खामियां निकालकर अपने माताहतों पर चीखने चिल्लाने वाले बॉस टाइप के लोगों को इससे मुक्ति मिल सकती है। वह इसलिये कि अब बॉस टाइप के लोगों को जैसा कर्मचारी चाहिये होगा वो फौरन आर्डर देकर तैयार करवा लेंगे। यानी जैसा चाहिये, आर्डर दीजिये माल तैयार। ट्राई करके देखिए, पसंद न आए तो लौटा दीजिये। आखिर जमाना उपभोक्ता जागरूकता का है। एक तरीका यह भी हो सकता है कि ट्रायल के दौरान उसकी कमियां नोट करते जायें ताकि आपकी कंपलेन पर कंपनी आपके लिये तैयार किये गये प्रोडक्ट में सुधार कर सके। सच, यह तो बहुत बढ़िया हो जाएगा। जिसे जो चाहिये मिल जाएगा। डॉक्टर को बेटे के लिए डॉक्टर बहू चाहिए, मिल जाएगी। वकील के लिए वकीलन चाहिए, आर्डर दो आ जाएगी। फिल्म प्रोड्यूसर को अपनी नई फिल्म के लिए खूबसूरत हीरोईन चाहिए, नया चेहरा चाहिए? जरा हटकर चाहिए, फिक्र नॉट मिल जाएगा। बस आर्डर दो और आर्डर लिस्ट भी, जिसमें सिर्फ यह बताना होगा कि आंखें मधुबाला जैसी चाहिए या श्रीदेवी जैसी। कमर आशा पारिख जैसी हो या फिर उर्मिला मातोंडकर जैसी? डोंट वरी सब मिल जाएगा। टीवी न्यूज चैनल वालों की भी मौज, एंकर खूबसूरत होने के साथ-साथ इंटेलिजेंट भी होनी चाहिए (जो वाकई में मिलना मुश्किल है) लेकिन शिकागो के वै..निकों की क्रांतिकारी खोज से यह मुश्किल भी बेहद आसान हो जाएगी। यानी जहां तक सोचें फायदा ही फायदा। और फायदों के बारे में अब मैं कल सोचूंगा। तब तक आप भी सोचिए।

सोमवार, 2 जुलाई 2007

अनकही

जब मैं चुप था
तब वो चुप थे
जब मैं बोला तो बोल पडे
कुछ उसने सुना
कुछ हमने कहा
पर बात अभी कुछ रह ही गई.

ना रह उजाला जीवन में
अब लंबी-लंबी रातें हैं
जागाहूँ लंबी नींदों से
पर रात अभी कुछ रह ही गई.

उठता है दर्द सा सीने में
आंखों में है कुछ तूफां सा
दिन-रात रह मयखानों में
पर प्यास अभी कुछ रह ही गई.(1997)

 
Design by Free WordPress Themes | Bloggerized by Lasantha - Premium Blogger Themes | Best Buy Coupons