सोमवार, 31 दिसंबर 2007

जो आने वाले हैं दिन उन्हें शुमार में रख...

देखते ही देखते एक साल और गुजर गया. अगर मुश्किल में गुजरें तो एक-एक पल गुजारना मुश्किल होता है. यहां तो 365 दिन गुजर गये. सोचकर अजीब लगता है. ये दिन, महीने, साल कैसे गुजर जाते हैं. इसी का नाम तो जिंदगी है. जिंदगी का कोई लम्हा बहुत ही खुशगवार बन जाता है. कोई लम्हा यादगार बन जाता है तो कोई कभी न भूलने वाला डरावना सपना भी. जो गुजर गया वो गुजर गया. जो याद रखने लायक नहीं है उसे भूल जाना ही ठीक है. खैर मैं तो उन बातो का जिक्र करना चाहूंगा जिन्हें मैं हमेशा याद रखना चाहूंगा. पाना-खोना तो लगा ही रहता है. इस साल मैंने भी बहुत कुछ पाया. इसी साल मैं आरकुट से भी रूबरू हुआ। इसके जरिये वाकई मुझे अपने कई पुराने दोस्त मिल गये। बिछड़े दोस्तों को मिलाने वाली ये...

शनिवार, 3 नवंबर 2007

चिट्ठाकारों के लिये एक प्रतियोगिता हो तो कैसा हो?

कल टेस्ट पोस्ट करने के कई फायदे हुये। पता चला कि नारद जी आजकल आराम फरमा रहे हैं। हिंदी ब्लाग डॉट कॉम भी काफी समय से अपडेट नहीं हो रहा है। दूसरा फायदा यह हुआ कि हमारे मना करने के बावजूद अनेक लोगों ने हमारी पोस्ट पर क्लिक कर ही दिया। इसका फायदा यह हुआ कि इसी बहाने से वो हमारे ब्लाग पर आ पहुंचे और हमारी कुछ नई पुरानी रचनायें भी पढ़ लीं। उन सभी पाठकों का हम तहे दिल से शुक्रिया अदा करते हैं। इतना ही नहीं कुछ उदार पाठकों ने टिप्पणी करके भी हमें अनुग्रहीत किया, हमारा हौसला बढ़ाया। लिहाजा अब हम सोच रहे हैं कि कुछ लिख ही डालें। फिलहाल सोच रहे हैं क्या लिखें। हमेशा की तरह विषय की तलाश में हैं। आपको कोई विषय समझ में आये तो जरूर सुझायें। हम आपके आभारी रहेंगे। साथ ही आपसे एक विचार बांटना चाहते थे। हम हिंदी चिट्ठाकारों के लिये एक प्रतियोगिता का आयोजन करना चाहते हैं। वह कविता, कहानी या लेख प्रतियोगिता हो...

शुक्रवार, 2 नवंबर 2007

यहां क्लिक करने की गलती न करें !

अरे नहीं। मना किया था फिर भी आप नहीं माने। जनाब यह सिर्फ टेस्ट पोस्ट है। यहां आपके पढ़ने के लिये कुछ नहीं है। दरअसल, बहुत दिनों से कुछ लिख नहीं पाया। इसलिये सोचा कि जरा चेक करके देखता हूं सारे एग्रीगेटर ठीक-ठाक काम कर रहे हैं या नहीं। अगर आपने कुछ पढ़ने के चक्कर में यहां क्लिक कर दिया तो जाहिर है आपको निराशा ही हाथ लगी होगी। छमा प्रार्थी ह...

गुरुवार, 25 अक्टूबर 2007

ब्लागरों को बधाई !

बीबीसी पर पढ़िये हिंदी ब्लागिंग पर विशेष रिपोर...

गुरुवार, 4 अक्टूबर 2007

संपादक के नाम पत्र

परम आदरणीय संपादक महोदय,मैं आपके अखबार का पुराना पाठक हूं। उम्मीद है आप मुझे जानते होंगे। मैं पहले भी आपको कई पत्र लिख चुका हूं। हो सकता है वो आपको न मिले हों। मैंने अपनी कई रचनायें भी आपको प्रकाशनार्थ भेजी थीं, लेकिन पता नहीं क्यों वो प्रकाशित नहीं हुईं। जरूर वो आप जैसे विद्वान की आंखों के सामने से नहीं गुजर सकी होंगी। मैं बचनपन से ही आपके समाचार पत्र का नियमित पाठक हूं। आपके अखबार में प्रकाशित सारी सामग्री बेहद खोजपरक, रोचक व तथ्यपूर्ण होती है। आपके द्वारा लिखे गये संपादकीय विचारपरक और 'निष्पक्ष' होते है, जो हमें 'बहुत कुछ' सोचने को मजबूर कर देते हैं।हर रविवार को परिशिष्ट के प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित आपकी कविता तो अत्यंत उच्चकोटि की होती है। मेरा एक मित्र कहता है कि उसे समझ में ही नहीं आता कि आप अपनी कविता में कहना क्या चाहते हैं? इसमें भला उसका क्या दोष? 'बेचारे' की समझ 'छोटी' है। आपकी...

शुक्रवार, 28 सितंबर 2007

भगदड़ के रणबांकुरों के नाम

नारद में और भगदड़ डॉट ब्लाग पर मेरी रचना आपरेशन सुंदरी-लाइव फ्रॉम झंडूपुरा के संबंध में टिप्पणी पढ़कर सचमुच मुझे बेहद अफसोस हुआ। खैर इससे टीम की मानसिकता का पता तो चल ही गया। टीम में शामिल लोग यह मानकर चलते हैं कि पूरी दुनिया में दो लोग एक जैसा नहीं सोच सकते। भाषा भी ऐसी है कि जैसे मैं कोई जबरदस्ती का लेखक हूं और मुझे नेट पर झूठा नाम कमाने का बहुत शौक है। लिहाजा मैंने किसी दूसरे का आयडिया कॉपी करने कहानी लिख डाली और मैं इतना बेवकूफ हूं कि उसे अपने नाम से अपने ब्लाग पर डाल भी दिया। और उनकी नजर इतनी पैनी है कि उन्होंने मुझ रचना चोर को रंगे हाथ धर-दबोचा। अपनी पीठ भी ठोंक डाली। लो भइया देखो हमने कितना बड़ा तीर मार लिया। एक कहानी चोर को पकड़ लिया। वैसे जिसे ये लोग कहानी समझ रहे हैं वह कहानी नहीं यथार्थ है। और यथार्थ से कोई भी परिचित हो सकता है। पहले मैं सोच रहा था कि भैंस के आगे बीन बजाने से क्या...

गुरुवार, 27 सितंबर 2007

आपरेशन सुंदरी--लाइव फ्राम झंडूपुरा

मैं हूं अर्चना। ब्रेक के बाद हमारे चैनल में एक बार फिर आपका स्वागत है। अब हम फिर चलते हैं अपने विशेष संवाददाता आकाश के पास। आकाश सुबह से ही मुजफ्फरनगर के झंडूपुरा गांव में मौजूद हैं। जैसा कि आपको मालूम होगा वहां विदेशी नस्ल की एक भैंस तड़के एक गड्ढे में गिर गई थी। इस खबर को सबसे पहले ब्रेक किया था हमारे संवाददाता आकाश ने। आकाश सुबह से ही हमें वहां के हालात से रूबरू करा रहे हैं। तो आइये अब आकाश से ही पूछते हैं कि क्या माहौल है झंडूपुरा का। जी, आकाश बताइये...आठ घंटे पहले जो भैंस गड्ढे में गिरी थी अब उसकी हालत कैसी है? रिपोर्टर-अर्चना, सबसे पहले तो मैं बता दूं कि सुंदरी नाम की ये भैंस सुबह घास चरते वक्त वहां बने एक गहरे गड्ढे में जा गिरी। इस बात का पता लोगों को तब लगा जब उस गहरे गड्ढे के आसपास से गुजरने वालो ने भैंस के जोर-जोर से रंभाने की आवाज सुनी। भैंस की जान खतरे में है यह खबर पूरे गांव में...

शनिवार, 15 सितंबर 2007

हां, मैं भूत को जानता हूं !

मैंने कभी भूत को नहीं देखामैं भूत को देखना चाहता हूंमैंने भूतों के बारे में बहुत कुछ सुना हैमेरी नानी कहती थींभूत देखने में डरावना होता हैउसकी कोई आकृति नहीं होतीकोई निश्चित आकार भी नहीं होताफिर भी लोग उससे डरते हैंवह लोगों को डराता हैलेकिन क्यों?यह मेरी नानी भी नहीं जानतींवह कहती थीं...जब कोई इंसान बेमौत मर जाता हैतो भूत बन जाता हैवह भूत बनकर भटकता रहता हैमुक्ति की तलाश मेंअब मेरी नानी इस जहां में नहीं हैंमुझे उनकी सारी कहानियां याद हैंवह कहानियां जिन्हें सुनकरमेरे रोंगटे खड़े हो जाते थेमैं डरकर उनकी गोद में दुबक जाता थाउन कहानियों मेंएक से बढ़कर एकभूत, राक्षस और दानव होते थेउनके पास सारी शक्तियां होती थींअब मैं बड़ा और समझदार हो गया हूंलेकिन अब भी सुनना चाहता हूंभूतों की कहानियांअब मेरी नानी नहीं हैंफिर भी...मैं भूतों से आये दिन रूबरू होता हूंजब भी दिल करता हैभूतों के बारे में जानने काफौरन...

शनिवार, 25 अगस्त 2007

पहले ब्रेक...फिर ब्रेकिंग न्यूज

रात का वक्त था। दफ्तर से लौट रहा था। जाहिर है घर के लिए। तभी बीच सड़क पर सफेद रंग की एक आकृति देखकर चौंक गया। असल में वह एक सांप था। जीता-जागता, हिलता-डुलता। गाड़ी में ब्रेक लगाया। शुक्र मनाया कि सड़क के बीचोंबीच होने के बावजूद वह पहिये के नीचे आने से बच गया। दिमाग में आया क्यों न अपने पड़ोसी टीवी चैनल वाले को कॉल कर दूं। हमेशा न्यूज ब्रेक करने वाले न्यूज चैनल को एक और ब्रेकिंग न्यूज मिल जायेगी। फिर सोचा, यह नाग या नागिन तो है नहीं। यह तो शायद पानी वाला सांप है। सीधा-साधा। भोला-भाला। इसे तो फुंफकारना भी नहीं आता। ना ही यह किसी से बदला ले सकता है। न ही इसे नागिन फिल्म की धुन पर नचाया जा सकता है। फिर सोचा, इससे क्या फर्क पड़ता है। किसी भी सांप को नाग या नागिन बनाना तो चैनल वालों के बायें हाथ का खेल है। वैसे भी सांप-नेवले की स्टोरी में असली दृश्य होते ही कहां हैं। फिल्मों के विजुअल और गाने ही...

गुरुवार, 23 अगस्त 2007

कंपनी सार

दोस्तों, मेरे लिखे हुये को तो आप पिछले करीब तीन महीने से पढ़ (या शायद झेल) ही रहे हैं। आज मैं जो रचना आपके सामने प्रस्तुत करने जा रहा हूं वह हमारे इन मित्र ने पोस्ट की है। इनका नाम है विनय पाठक। यूं तो मैं भी खबरिया चैनल में ही काम करता हूं लेकिन अब मैं पत्रकार होने का दावा नहीं करता। लेकिन पाठक जी के बारे में मैं ताल ठोंककर कह सकता हूं कि यह जनाब टीवी पत्रकार हैं। हालांकि मेरा ऐसा कहना इन्हें पसंद आयेगा या नहीं मैं नहीं जानता। तो लीजिये पेश है इस तस्वीर में नजर आ रहे विनय पाठक की ताजातरीन रचना--- हे पार्थ,तुम्हें इंक्रीमेंट नहीं मिला, बुरा हुआटीडीएस बढ़ने से सैलरी भी कट गई, और भी बुरा हुआअब काम बढ़ने से एक्स्ट्रा शिफ्ट भी होगी, ये तो और भी बुरी...

बुधवार, 22 अगस्त 2007

फिल्म सिटी का कुत्ता

वह फिल्म सिटी का कुत्ता हैउसने देखा हैहर प्रोड्यूसर को'प्रोड्यूसर' बनते हुये।हर पत्रकार को'जर्नलिस्ट' में बदलते हुये।उसने देखा हैबाटा की घिसी चप्पलों से'वुडलैंड' तक का सफरउसने देखा हैफुटपाथ की टी शर्ट से'पीटर इग्लैंड' तक का सफरउसने देखा हैघिसे टायरों वाली हीरो होंडा को'होंडा सीआरवी' में बदलते हुये।वह हर चैनल के प्रोड्यूसर कोअच्छी तरह पहचानता हैतभी तोएंकर और प्रोड्यूसर को देखते हीपूंछ हिलाता हैउन पर भोंकने की गुस्ताखी नहीं करतावह भोंकता हैबाहर से आने वालों परलेकिन...इस बात का इत्मीनान करने के बादकि वो शख्स भविष्य काएंकर या प्रोड्यूसर तो नहीं हैवह बाहरी कुत्तों पर भी भोंकता हैवो कुत्ते...जो उसकी तरह साफ-सुथरे नहीं होतेकिसी चैनल के प्रोड्यूसर की तरहखाये-पिये और तंदुरुस्त नहीं होतेवह खुद भी 'प्रोड्यूसर' की तरह ही हैखाया-पिया, अघाया, मुटायाइसलिये उसेमरियल और बीमार कुत्तेअपनी बिरादरी के नहीं लगतेवह...

शनिवार, 11 अगस्त 2007

राजू बन गया जैंटिलमैन

वह मेरा अनुज है। बहुत प्यारा इंसान है। जब भी मिलता है बेतकल्लुफ होकर। मेरी तरह वह भी पत्रकार बिरादरी से ताल्लुक रखता है। मैं भी एक खबरिया चैनल के क्राइम बुलेटिन में काम करता हूं और वह भी। मैं भी इलाहाबादी हूं और वह भी। मैं भी कभी-कभार कविता लिखता हूं और वह भी। मुझे उसकी रचनायें अच्छी लगती हैं। मेरी रचनायें उसे कैसी लगती हैं, मैं नहीं जानता। मैं उसे पढ़ता हूं। कई बार तो उसकी लेखनी मेरे अंदर एक स्फूर्ति का संचार कर देती है। कई बार कुछ कर गुजरने का उत्साह भर देती है। कई बार सोचता हूं, ये लड़का एक दिन जरूर क्रांति कर देगा। मुझे क्रांति का झंडा बुलंद करने वाले बेहद पसंद हैं।यह कल तक की बात थी। उसके बारे में मेरी राय थी। आज उसने मुझे निराश किया है।...

शुक्रवार, 10 अगस्त 2007

मुझे इन कांवड़ियों से बचाओ

दफ्तर के लिये लेट हो रहा था। आज मीटिंग थी। वक्त पर पहुंच जाऊं यह सोचकर मैंने अपनी गाड़ी की रफ्तार बढ़ा दी। लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। जल्द ही ब्रेक लगाना पडा़। अब गाड़ी बमुश्किल चालीस की रफ्तार से बढ़ रही थी वह भी रुक-रुक कर। इस कछुआ चाल की वजह यह थी कि मेन रोड के तकरीबन आधे हिस्सों को बैरीकेड लगाकर रिजर्व कर दिया गया था। जानते हैं किसके लिये? शिवभक्त कांवड़ियों के लिये। कांवड़ लेकर नंगे पांव सड़क नापने वाले भक्त (?) सफलता पू्र्वक अपनी मंजिल पर पहुंचें इसके लिये प्रशासन ने पूरे इंतजाम कर रखे हैं। जगह-जगह पुलिस भी तैनात रहती है। शिवभक्तों को पूरी तरह वीआईपी ट्रीटमेट मिलता है। क्या मजाल कि कांवड़ियों को कोई कष्ट हो जाये। सड़क पर तो वो यूं चलते हैं जैसे पूरी सड़क उनके बाप की है। आम लोगों के प्रति उनका रवैया ऐसा होता है जैसे कांवड़ ले जाकर वो खुद पर नहीं बल्कि देशवासियों पर कोई बहुत बड़ा ऐहसान...

बुधवार, 8 अगस्त 2007

टुच्चे लोग-टुच्ची बातें

सुबह-सुबह मोबाइल की मैसेज टोन सुनाई दी। देखा तो हैप्पी बर्थडे का मैसेज था। याद आया अरे आज तो हमारा जन्मदिन है। ये मोबाइल भी क्या चीज है। हमें वक्त पर याद दिला दिया हमारे जन्मदिन के बारे में। मैसेज भेजने वाले से ज्यादा हम मोबाइल के शुक्रगुजार थे। वो इसलिये कि हम यकीन के साथ कह सकते हैं कि अगर उन जनाब के पास मोबाइल नहीं होता तो शायद ही वो हमें जन्मदिन की बधाई देते। क्या पता मैसेज भेजने में जो एक अदद रुपये खर्च होते हैं वो भी उन्होंने खर्च न किये हों। अरे आजकल तो मोबाइल कंपनियां फ्री मैसेज की सुविधा देने लगी हैं...अब आप लोग सोचेंगे कि भइया हम तो बड़ी ही नकारात्मक सोच वाले शख्स हैं। क्या करें हमारी सोच ऐसी हो ही गई है। फिलहाल हमारे दिमाग में इसकी दो वजह आ रही हैं।पहली तो ये कि हमें जन्मदिन की शुभकामना भेजने वाले को हमसे कोई दिली या भावनात्मक लगाव नहीं है, यह हम अच्छी तरह जानते हैं। जब उन जनाब...

शुक्रवार, 20 जुलाई 2007

उनका और तुम्हारा बचपन

कोमल, निर्मल, निश्छल, निष्काम बचपनकिसका ?...उनका, तुम्हारा या हमारा अपनाआता है बचपन जीवन में एक बार हीइसलिये संभाल कर रखना इसकोक्यों न करो कुछ ऐसाभूल न पाएं बचपन की स्वर्णिम यादें तुमकोसहेज कर रखना उन यादों कोउन बातों कोजो याद दिलाती रहें पल-पल तुमकोबचपन की, उस निर्मल, निश्छल जीवन कीयद्यपि है निश्चितयह बचपन नहीं चलेगा सदा साथ तुम्हारेवरन एक दिन ऐसा भी आयगाजब तुम खुद को समझने लगोगेसमझदार, खुद्दारआवश्यकता नहीं महसूस होगी तुम्हेंबड़े-बुजुर्गों कीउनकी सलाह की, मार्गदर्शन कीक्योंकि तुम खुद ही हो जाओगे बड़ेबेशक कैसा भी रहा हो तुम्हारा बचपनलेकिन वह अब तो बीत ही गया हैयदि हो गया है अतीत में विलीन तुम्हारा बचपनखो गया है समय के अंधकार मेंतो क्यों न अब...

गुरुवार, 19 जुलाई 2007

जंगजू

पहले...बहुत बोलता थाआज खामोश थावह इसलिए किना आज उसको होश थादे-देकर सबको गालियांमोल लेता था बुराइयांतभी तोलोगों से पिट-पिटाकरहड्डियां तुड़वाकरअब...वह निष्क्रिय सा पड़ा हुआ थालगता जैसे मरा हुआ थातभी मरे से उस शरीर मेंहलचल थोड़ी सी हुईहुआ अचानक खड़ा वहअभी नहीं था मरा वह।कल...वह फिर मंच पर चढ़ा हुआ ...

अब मैं कविता नहीं लिखता

अब मैं कविता नहीं लिखताहो सकता है अब यह मुमकिन ही न होवास्तविकता कुछ भी होलकिन यह सच है किअब मुझे यह गलतफहमी नहीं हैकि मेरे भीतर भी एक कवि है।अब मैं कविता नहीं लिखतालेकिन पहले ऐसा नहीं थामुझे भी यह गुमान थाकि मेरे अंदर भी एक कवि हैतब मुझे हर चीज मेंकविता नजर आती थीशब्दों की तुकबंदीमुझे भी बहुत सुहाती थीपर्वत, झरने, नदियां, परिंदेये सब मुझे बहुत लुभाते थेशब्दों की लड़ियांखुद-ब-खुद जुड़ जाती थींलेकिन...अब ऐसा नहीं होताअब मैं कविता नहीं लिखताक्योंकि अब प्रकृति मुझे नहीं लुभातीचिड़ियों की चहचहाहट नहीं सुहातीअब मैं प्रेम की परिभाषा को समझनेया समझाने की कोशिश नहीं करताजिंदगी के स्याह पहलुओं परअपना सर नहीं खपाता...रास्ते पर पत्थर तोड़ती औरतमैले-कुचैले कपड़ों में खेलते बच्चेया किसी मजलूम का करुण क्रंदनअब मुझे परेशान नहीं करतेक्योंकि...अब मैं कविता नहीं लिखता।और हां,अब मैं 'फटीचर राइटर' नहीं कहलातासाइकिल...

खबर तूने क्या किया

राह चलते एक दिनएक खबर हमसे आ टकराईखबर का हाल काफी बुरा थासीने में छह इंच का छुरा थाहमने पूछा अरे खबर कहां चलीबोली अखबार के दफ्तर की गलीहम चकरायेउसकी मूर्खता पर झल्लाएहमने कहा-अखबार का दफ्तर छोड़ोखबरिया चैनलों का पता लोऔर सीधे स्टूडियो पहुंच जाओहमने मन में सोचाकि इस खबर में ड्रामे के पूरे चांस हैं।मुंह में आह और सीने में खंजरचैनल के लिए बेहद मुफीद है ये मंजरइस बार हमने उसे समझाया-तुम्हारी तो किस्मत ही बदल जाएगीहर घर में बस तुम ही नजर आओगीकुछ समझीरिकार्ड तोड़ टीआरपी पाओगीरातोंरात हिट हो जाओगीदेर मत करो वर्ना पछताओगी।लेकिन वह बेचारी तो नासमझ निकलीहमारी नेक सलाह उसके भेजे में नहीं घुस पाईशायद इसीलिये...उसे यह बात समझ में नहीं आईउसने अपनी लाल दहकती आंखें तरेरींऔर अखबार के दफ्तर की तरफ हो लीअगले दिन जब हमने अखबार उठायातो खबर को महज सिंगल कॉलम में पायाउसकी नासमझी पर हमें बेहद तरस आयासचमुच जिसे चैनल...

मंगलवार, 17 जुलाई 2007

क्या यह मुमकिन है?

कितनी आसानी सेतुमने कह दियामुझे भूल जाओ।अब अपनी जिंदगी मेंकिसी और को ले आओये चंद अल्फाज कहते हुयेक्या तुमने नहीं सोचाइतना आसान होता हैकिसी को भूल जाना?कोशिश करके कई बार देखा हैअब तक तो तुम्हें नहीं भूल पायातुम तो मेरी रग-रग में समाए होफिर भला मैं तुम्हेंकैसे खुद से जुदा करूं?कैसे तुम्हें भूल जाऊंक्या यह मुमकिन हैकि अपनी जिंदगी मेंअब किसी और को ले आ...

सोमवार, 16 जुलाई 2007

अपने-अपने भंवर

अच्छाई, बुराई, नैतिक-अनैतिक केसवाल रूपी दोराहे पर खड़ावैचारिक मतभेद औरमानसिक द्वंद रूपी चौराहे की भीड़ में उलझासत्य-असत्य के आक्षेपों से जूझताअनिश्चितताओं के भंवर में डूबता-उतरातातीक्ष्ण अकाट्य तर्कों सेकतरा कर गुजरने के प्रयास में है व्यक्तिव्यक्ति, जो कहता कुछ है, करता कुछ हैपर हो कुछ और जाता हैव्यक्ति जो गिरता जा रहा हैनिर्जन, अंधेरी, भयावह खाई मेंघिरता जा रहा हैक्षुद्र मानसिक, सांसारिक स्वार्थों केअनजान भंवर मेंभंवर विचारों का है, भंवर संस्कारों का हैसभी का अपना अंर्तद्वंद हैअपने-अपने भंवर हैं।कोई प्यार के गागर मेंतो कोई नफरत के सागर मेंआकंठ डूब जाना चाहता हैशायद इसी माध्यम से मोक्ष पाना चाहता हैक्या यह मात्र एक व्यक्ति का मानसिक उद्देग है?यकीनन...

मंगलवार, 10 जुलाई 2007

अजनबी परछाई

अपने दरवाजे के आस-पासकिसी परछाई को देखकरमैं अक्सर बहुत खुश हो जाता हूंपरछाई को निहारता हूंउसके नजदीक आने का इंतजार करता हूंपरंतु अमूमन निराश हो जाता हूंक्योंकि वह वास्तव में वह नहीं होताजो दिखाई देता हैया फिर...शायद मेरी ही आंखें धोखा खा जाती हैंमन जिसे चाहता हैउसी का दीदार करती हैंशायद मेरी खुशी के खातिरमेरी आंखें मुझे ही भरमा देती हैंअपनी आंखों की ये कोशिशमुझे जरा भी नहीं भातीक्योंकि आंखें खुलने परजब सामने कोई नजर नहीं आतातब मुझसे मुखातिब होती है सच्चाईजिससे मैं नजरें चुराने की कोशिश करता हूंक्या करूं?मेरे साथ अक्सर ऐसा ही होता हैजब मैं इस सच्चाई को नहीं समझ पाताऔर हर बार खुश हो जाता हूंएक और अजनबी परछाई कोअपनी ओर आता हुआ देखकर।(19...

बुधवार, 4 जुलाई 2007

वस्तुस्थिति का भान

निकला था मैं मन में उमंगें लिएकाफी अर्से बाद अपने घर से बाहरसोचा था चलूंकुछ देर बिताऊंगा प्रकृति के सानिध्य मेंमन में थीं तरह-तरह की कल्पनाएँकल्पनाओं में थींहिम आच्छादित पर्वत श्रंखलायेंदूर-दूर तक फैली हरयालीमन मस्तिष्क में घूम रहे थेहरे-भरे पेड-पौधों के अक्सफूलों से लदी सुंदर लताएंस्वच्छ सुगंधित वातावरणहरी घास की मखमली चुनरी ओढ़े मैदानमैदान में जीवों का स्वछंद विचरणऔर परिंदों का कलरवएकाकार हो जाना चाहता था मैंप्रकृति के ऐसे अनूठे सौंदर्य मेंबढ़ा जा रह था मैं वशीभूत सा होकरसुध-बुध खोकर, सब कुछ भूलकरतभी लगी पैर में एक ठोकरसंभल ना पाया गिरा हडबड़ाकरयकायक तब वस्तुस्थिति का भान हुआजब स्वयं को एक निर्जन से स्थान में पायासोचा, अरे मैं ये कहां चला आया?शायद घर से बहुत दूर निकल अया...यहां तो सब कुछ बिल्कुल खामोश हैकहीँ दूर-दूर तक फैले रेगिस्तानतो कहीं कचरे के ढेरों का श्मशान है।कुछ दूर जब और बढ़ातो...

मंगलवार, 3 जुलाई 2007

मैं जानता हूँ

अगर मैं कभी तुम्हारे दरवाजे परदस्तक दूंअपने आप को मेहमान बताऊंतो तुम दौड़करमेरा स्वागत नही करनाभगवान के बराबर तो क्यातुम मुझे किंचित मात्र भी महत्व नहीं देनामेरे सम्मान मेंपलक-पावडे़ भी नहीं बिछानाहो सके तो मुझे दुत्कार देनायदि ऐसा कराने में संकोच हो तो मुझे वापस लौटाने के लिएमन मुताबिक तरकीबें अपनानाखाने के लिए भी पूछ्ने की जरुरत नहींफिर भी मैंबेशर्मी से खाना माँग ही लूंतो तुम्हारे रसोई घर मेंबासी रोटियां तो पड़ी ही होंगीमुझे वही खिला देनाज्यादा सूखी हों तो पानी लगा देनायदि मैंखाने की शिकायत करने जैसी धृष्टता करूंतो तुम गुस्से ते आग-बबूला मत होनाबस कोई प्यारा सा बहाना बना देनामैं जरा भी बुरा नहीं मानूंगाक्योंकि मैं जानता हूं किमेहमान को भगवान समझाने कीमूर्खता करनाउसकी सेवा मेंअपना अमूल्य समय बरबाद करनाये सब पुरानी परम्पराएं हैंपिछड़ेपन की निशानी हैंमैं ये भी जानता हूँ कितुम इनके चक्कर में...

बड़े काम की खोज है भइया !

एजेंसियों के हवाले से खबर आई है कि शिकागो के जीव वै...निकों ने एक बड़ी कामयाबी हासिल की है। कामयाबी यह है कि उनकी टीम ने एक बैक्टीरिया के पूरे जीनोम को बदलकर उसे दूसरी प्रजाति में तब्दील करने का कमाल कर दिखाया है। जाहिर है शिकागों के वै..निकों की यह सफलता बेहद क्रांतिकारी साबित हो सकती है। यानी दो कदम और बढ़ जायें तो कई आश्चर्यजनक परिणाम सामने आ सकते हैं। कई लोगों की कई समस्यायें दूर हो सकती हैं। काम में खामियां निकालकर अपने माताहतों पर चीखने चिल्लाने वाले बॉस टाइप के लोगों को इससे मुक्ति मिल सकती है। वह इसलिये कि अब बॉस टाइप के लोगों को जैसा कर्मचारी चाहिये होगा वो फौरन आर्डर देकर तैयार करवा लेंगे। यानी जैसा चाहिये, आर्डर दीजिये माल तैयार। ट्राई करके देखिए, पसंद न आए तो लौटा दीजिये। आखिर जमाना उपभोक्ता जागरूकता का है। एक तरीका यह भी हो सकता है कि ट्रायल के दौरान उसकी कमियां नोट करते जायें...

सोमवार, 2 जुलाई 2007

अनकही

जब मैं चुप थातब वो चुप थेजब मैं बोला तो बोल पडेकुछ उसने सुनाकुछ हमने कहापर बात अभी कुछ रह ही गई.ना रह उजाला जीवन मेंअब लंबी-लंबी रातें हैंजागाहूँ लंबी नींदों सेपर रात अभी कुछ रह ही गई.उठता है दर्द सा सीने मेंआंखों में है कुछ तूफां सादिन-रात रह मयखानों मेंपर प्यास अभी कुछ रह ही गई.(19...

शुक्रवार, 29 जून 2007

क्षणिका

(1)वह अपने दिल परपत्थर रख कर सो गयाये सोचकरकि कहीँज़ज्बात की आंधी आयेऔर...उसे उडा ना ले जाये।(2)वो मिटा दें अपने वजूद कोये उनकी मरजी हैरहते हैं आँधियों मेंऔर...हवा से एलर्जी है।(3)ख्वाब को उस शख्स नेहक़ीक़त में बदल दियातारों को तोड़ लायाऔर ...चांद पर घर लिया.(19...

गुरुवार, 28 जून 2007

चार लाईना

जब रोज-रोज उनसे होती मुलाकातें थींतब कहने को दिल में कुछ रहती नहीं बातें थींअब कहने को उनसे कितनी ही बातें हैंलेकिन अब नहीं होती मुलाकातें हैं. (19...

क्रिकेट का बुखार

अम्पायर मैदान मेंदौडा-दौडा आयाफिर झटपटपिच पर उसनेस्टंप लगाया।लो हो गया तैयार विकेटअब खेला जायेगा क्रिकेट।दो बल्लेबाज़जो दिखते थे उस्तादबैट लेकर दौड़ते आये।किस्मत पर अपनी इतराएएक ने आकर बैट जमायादूजा रनर बनकर आया।गेंदबाजगेंद लेकर घिसता आयाअपनी की रफ्तार तेज़गेंद दी तेज़ी से फ़ेंकबल्लेबाज़ संभलाघुमाया बल्ला मारा छक्कागेंदबाज यह देखकरगया हक्का-बक्का।तब, दर्शक दीर्घा सेतालियों की आवाज आयीगेंद की होने लगी धुनाईदेखते ही देखतेस्कोर बोर्ड पररनों का अम्बार हो गयादर्शक बैठे खुश होते थेक्रिकेट का दीदार हो गया।जिधर भी देखो क्रिकेट-क्रिकेटक्रिकेट का बुखार हो गयाक्रिकेट चाहे जिस दिन भी होवह दिन तो इतवार हो गया.(19...

अजीब पहेली है

ज़ुरासिक पार्क में दो ड़ायनासोरआपस में करते थे बातचीतभाई, आज के आदमी के भी क्या कहनेजो प्रगति के नाम परपर्यावरण प्रदूषित करजंगलों को काटकरवर्तमान में जीवित प्राणियों केअस्तित्त्व को मिटाता हैवहीँ अतीत में...विलुप्त हो चुके प्राणियों कातरह-तरह से अनुसंधान करउन्हें जीवित करने का प्रयास करता हैतो कभी उनकी अस्थियाँ खोजकरउनका आकार बनता हैजीवित पर अत्याचारऔर विलुप्त पर इतना प्यारये कैसे अजीब पहेली हैहम ड़ायनासोर की तोकुछ समझ में नहीं आता है।(19...
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