गुरुवार, 19 जुलाई 2007

अब मैं कविता नहीं लिखता

अब मैं कविता नहीं लिखता
हो सकता है अब यह मुमकिन ही न हो
वास्तविकता कुछ भी हो
लकिन यह सच है कि
अब मुझे यह गलतफहमी नहीं है
कि मेरे भीतर भी एक कवि है।

अब मैं कविता नहीं लिखता
लेकिन पहले ऐसा नहीं था
मुझे भी यह गुमान था
कि मेरे अंदर भी एक कवि है
तब मुझे हर चीज में
कविता नजर आती थी
शब्दों की तुकबंदी
मुझे भी बहुत सुहाती थी
पर्वत, झरने, नदियां, परिंदे
ये सब मुझे बहुत लुभाते थे
शब्दों की लड़ियां
खुद-ब-खुद जुड़ जाती थीं
लेकिन...अब ऐसा नहीं होता


अब मैं कविता नहीं लिखता
क्योंकि अब प्रकृति मुझे नहीं लुभाती
चिड़ियों की चहचहाहट नहीं सुहाती
अब मैं प्रेम की परिभाषा को समझने
या समझाने की कोशिश नहीं करता
जिंदगी के स्याह पहलुओं पर
अपना सर नहीं खपाता...
रास्ते पर पत्थर तोड़ती औरत
मैले-कुचैले कपड़ों में खेलते बच्चे
या किसी मजलूम का करुण क्रंदन
अब मुझे परेशान नहीं करते
क्योंकि...
अब मैं कविता नहीं लिखता।

और हां,
अब मैं 'फटीचर राइटर' नहीं कहलाता
साइकिल से नहीं, कार में चलता हूं
भले ही अब मैं
प्रकृति के सौंदर्य का वर्णन नहीं कर पाता
जिंदगी की पहेलियों को नहीं सुलझा पाता
लेकिन लिखता मैं अब भी हूं
अब मेरी उंगलियां कागज पर नहीं
कंप्यूटर पर थिरकती हैं।

अब मैं कविता नहीं लिखता।
अब मैं नाग-नागिन के प्रेम
और बदले की कहानियां लिखता हूं
भूतों के नाच, चुड़ैल का खौफ
तंत्र-मंत्र की कहानियां
मैं बाखूबी बयां करता हूं
सांप-नेवले की लड़ाई
पागल कुत्ते का कहर
और मियां-बीवी के झगड़े
ये अब मेरे मेरे मनपसंद विषय हैं
जी हां, अब मैं 'स्क्रिप्ट' लिखता हूं
मैं एक खबरिया चैनल में
'प्रोड्यूसर' हो गया हूं
इसलिए...
अब मैं कविता नहीं लिखता।

3 comments:

कंचन सिंह चौहान ने कहा…

बहुत खूब रवीन्द्र जी, समाचार चैनलों का रोज़ क्या खूब उकेरा है!

Vikash ने कहा…

bahut maja aaya padhkar :)

sanjay patel ने कहा…

कविता के खरी सरज़मीन अपह्र्त है इन दिनों.ज़िन्दगी के तल्ख़ इरादों से लील गया है परिवेश...आपकी कविता अब मै कविता नहीं लिखता ...ये कहलवा रही है कि अब मै कविता कभी कभी पढ़ता हूं...जैसे कि आज पढ़ गया...साधुवाद

 
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