निकला था मैं मन में उमंगें लिए
काफी अर्से बाद अपने घर से बाहर
सोचा था चलूं
कुछ देर बिताऊंगा प्रकृति के सानिध्य में
मन में थीं तरह-तरह की कल्पनाएँ
कल्पनाओं में थीं
हिम आच्छादित पर्वत श्रंखलायें
दूर-दूर तक फैली हरयाली
मन मस्तिष्क में घूम रहे थे
हरे-भरे पेड-पौधों के अक्स
फूलों से लदी सुंदर लताएं
स्वच्छ सुगंधित वातावरण
हरी घास की मखमली चुनरी ओढ़े मैदान
मैदान में जीवों का स्वछंद विचरण
और परिंदों का कलरव
एकाकार हो जाना चाहता था मैं
प्रकृति के ऐसे अनूठे सौंदर्य में
बढ़ा जा रह था मैं वशीभूत सा होकर
सुध-बुध खोकर, सब कुछ भूलकर
तभी लगी पैर में एक ठोकर
संभल ना पाया गिरा हडबड़ाकर
यकायक तब वस्तुस्थिति का भान हुआ
जब स्वयं को एक निर्जन से स्थान में पाया
सोचा, अरे मैं ये कहां चला आया?
शायद घर से बहुत दूर निकल अया...
यहां तो सब कुछ बिल्कुल खामोश है
कहीँ दूर-दूर तक फैले रेगिस्तान
तो कहीं कचरे के ढेरों का श्मशान है।
कुछ दूर जब और बढ़ा
तो गर्मी ने तपा दिया
सूर्य की तीव्र किरणों ने झुलसा दिया
हाय, मानव की इस अंधी प्रगति ने
हरे-भरे जंगल तो क्या
मुझे एक पेड़ की छांव को तरसा दिया
यहां-वहां, जहां-तहां, कहां-कहां खोज आया
पर कोई छोटा सा पेड़ तक नहीं पाया
तब कहीं जाकर मैं लंबी नींदों से जागा
वास्तविकता में आया, कल्पनाओं को त्यागा
प्यास जब लगी तो नदियों की ओर भागा
लेकिन नदियों का पानी तो
कूड़े-करकट और रसायनों से
हो गया था प्रदूषित, पड़ गया था काला
जिसे पीकर मर-मरकर जीने से
मैंने प्यासा मरना बेहतर पाया
प्रगति के इस खेल ने मेरे साथ
ये कैसा गजब ढाया
इस जलमग्न पृथ्वी में
मैं पानी ढूंढ रहा हूं
कोई बचा ले मुझे...
आधुनिक सुख-सुविधाओं के इस युग में
मैं प्यास से अपना दम तोड़ रहा हूं।(1998)
3 comments:
प्रतीकों का प्रयोग बहुत अच्छा किया गया है
रवीन्द्र रंजन जी एक सुनहरे ख्वाब के माध्यम से आपने, जो नष्ट होती प्रकृति, प्रदूषित जल का जो चित्र उकेरा है वह बहुत सज़ीव बन पड़ा है। बधाई स्वीकारें। सारथी के माध्यम से आपका ब्लॉग देखा।
रवींद्र बहुत ही सही चित्रण किया है । पहली बार आपका लिखा पढा और इसके लिए हम सारथी का शुक्रिया अदा करते है।
एक टिप्पणी भेजें