गुरुवार, 25 अक्टूबर 2007

ब्लागरों को बधाई !

बीबीसी पर पढ़िये हिंदी ब्लागिंग पर विशेष रिपोर्ट।

गुरुवार, 4 अक्टूबर 2007

संपादक के नाम पत्र

परम आदरणीय संपादक महोदय,
मैं आपके अखबार का पुराना पाठक हूं। उम्मीद है आप मुझे जानते होंगे। मैं पहले भी आपको कई पत्र लिख चुका हूं। हो सकता है वो आपको न मिले हों। मैंने अपनी कई रचनायें भी आपको प्रकाशनार्थ भेजी थीं, लेकिन पता नहीं क्यों वो प्रकाशित नहीं हुईं। जरूर वो आप जैसे विद्वान की आंखों के सामने से नहीं गुजर सकी होंगी। मैं बचनपन से ही आपके समाचार पत्र का नियमित पाठक हूं। आपके अखबार में प्रकाशित सारी सामग्री बेहद खोजपरक, रोचक व तथ्यपूर्ण होती है। आपके द्वारा लिखे गये संपादकीय विचारपरक और 'निष्पक्ष' होते है, जो हमें 'बहुत कुछ' सोचने को मजबूर कर देते हैं।
हर रविवार को परिशिष्ट के प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित आपकी कविता तो अत्यंत उच्चकोटि की होती है। मेरा एक मित्र कहता है कि उसे समझ में ही नहीं आता कि आप अपनी कविता में कहना क्या चाहते हैं? इसमें भला उसका क्या दोष? 'बेचारे' की समझ 'छोटी' है। आपकी कवितायें कोई उसके जैसे कम समझ वालों के लिये थोड़े ही हैं। इसके लिये तो कोई आप जैसा बुद्धिजीवी ही होना चाहिये। मुझे तो पूरे हफ्ते आपकी इस साप्ताहिक कविता का इंतजार रहता है। मुझे आश्चर्य होता है कि आप 'इतनी अच्छी' कविता हर सप्ताह कैसे लिख लेते हैं। अन्य कवियों को आपसे अवश्य ही जलन होती होगी कि आपने अब तक हजारों कवितायें लिखी ही नहीं, बल्कि वो 'प्रकाशित' भी हुई हैं।...और हर रविवार को अखबार के प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित आपके संपादकीय का तो कोई जवाब ही नहीं है। इसके बीच-बीच में आप जो शेरो-शायरी करते हैं उससे तो संपादकीय पढ़ने का 'मजा' और भी बढ़ जाता है। आपके संपादकीय पृष्ठ में छपने वाले स्तंभकारों के 'विचारों' का तो मैं कायल हो चुका हूं। हर हफ्ते उन्हीं लेखकों को अगर आप स्थान देते हैं तो इसमें कुछ गलत नहीं है। बार-बार उन्हीं नामों व विचारों को देख-पढ़कर मैं कतई बोर नहीं होता हूं। यह तो आपका 'विशेषाधिकार' है। और फिर, आजकल ऐसे लेखक हैं ही कितने जिनका लेखन इतना स्तरीय हो कि उसे आपके अखबार में जगह दी जा सके?
मैंने एक लेखक, जो मेरी नजर में तो महा टटपुंजिया ही है, को कहते सुना है कि आप अपने अखबार में लिखने वालों को पारिश्रमिक नहीं देते। ठीक ही तो है। जब लोग फ्री में लिखने के लिये तैयार हैं तो भला अनावश्यक पैसा बर्बाद करने की क्या जरूरत है? वह तो ये भी कह रहा था कि आप लेखकों के नाम का पैसा खुद हड़प लेते हैं। अरे भई, इसमें हड़पना कैसा? जिन पैसों की बचत आपने की वह तो स्वाभाविक रूप से आपका है। जरूर कभी आपने उसकी कोई रचना अस्वीकृत कर दी होगी तभी वह आपसे खार खाये बैठा होगा और आप के संबंध में ऐसी-वैसी बातें उड़ाता फिर रहा है। लेकिन मैं उस पर बिल्कुल यकीन नहीं करता। यकीनन आप भी नहीं करेंगे। करना भी नहीं चाहिये।
शायद उसे नहीं मालूम कि संपादक पद पर पहुंचने के लिये कितनी योग्यता और संघर्ष की जरूरत होती है। मैं समझ सकता हूं कि आप एक 'सब एडीटर' पद से कितनी 'मेहनत' करके यहां तक पहुंचे हैं। तभी तो मैंने सुना है कि रोज सुबह आपको मीटिंग के लिये अपने घर बुलाते हैं। मेरा एक और मित्र है। मित्र क्या चिपकू है। आपके अखबार में ही काम करता है। कह रहा था कि हाईस्कूल पास एक रिश्तेदार को आपने संयुक्त संपादक बनवा दिया है। मैं कहता हूं भला इसमें बुराई क्या है? पत्रकारिता करने के लिये डिग्रियां किस काम कीं? इसके लिये तो बस पत्रकारिता के 'कुछ आवश्यक पहलुओं' की जानकारी होनी चाहिये, जो आपने उन्हें बखूबी दे ही दी होगी।
और हां, वह कह रहा था कि संपादक होने के बावजूद आपके नाम से मुख्य पृष्ठ पर समाचार छपता है। जबकि वास्तव में वह रिपोर्ट किसी औऱ की होती है। क्योंकि आप तो अपने केबिन से बाहर निकलते ही नहीं हैं। अब भला उसको कौन समझाए, भला संपादक पद पर बैठा हुआ व्यक्ति रिपोर्टिंग करेगा तो सारे रिपोर्टर किस लिये रखे गये हैं। फिर संवाददाताओं की सारी खबरों पर संपादक का ही तो अधिकार होता है। वह जिस तरह चाहे 'अखबार के हित में' उनका उपयोग करे। अरे मैं तो कहता हूं कि ऐसे रिपोर्टरों को तो और खुश होना चाहिये कि उनकी रिपोर्ट संपादक के नाम की बाईलाइन छपने के बाद कहीं अधिक पढ़ी जायेगी। लेकिन इनका भी क्या दोष है? इनमें इतनी बुद्धि ही कहां है कि ये इतनी दूर की सोच सकें। ये तो बस जल-कुढ़ कर आलोचना पर उतर आते हैं। मेरा सुझाव है कि ऐसे लोगों से आप विशेष सावधान रहें।
मुझे पता चला है कि आजकल वह...अरे वही, जिसने मुझसे ये सब बातें कहीं, अक्सर अखबार के मालिक के घर चक्कर काटा करता है। कहीं आपके संबंध में कुछ उल्टा-सीधा न भिड़ा दे औऱ आपकी 'छवि' खराब हो जाये। एक दिन कहने लगा हमारे संपादक को तो कुछ आता-जाता ही नहीं है। सरकारी नौकरी नहीं मिली तो तिकड़म करके पत्रकारिता में घुस गया। उसे क्या मालूम कि आप जैसा व्यक्ति अगर नौकरशाही में फंस जाता तो आज आपके जरिये पत्रकारिता ने जो मुकाम हासिल किया है उसका क्या होता? आपकी छत्रछाया और मार्गदर्शन में इतने बेरोजगार युवाओं ने पत्रकारिता में जो 'करिअऱ' हासिल किया है उसका क्या?
एक दिन कहने लगा कि आपने जिन लड़कों को नियुक्त किया है उनकी शैक्षिक डिग्रियां फर्जी हैं। मैं तो नहीं मानता। अगर यह सच है भी तो मेरी आपके प्रति श्रद्धा पहले से भी ज्यादा बढ़ गई है। क्योंकि एक तरह से आपने उन युवाओं, जो वास्तव में मामूली रूप से पढ़े-लिखे हैं, को तराश कर हीरा बना दिया है। आप पर तो देश के पत्रकारिता जगत को गर्व होना चाहिये।
मुझे यकीन है कि पुलित्जर पुरस्कार देने वालों की नजर एक न एक दिन आपके गौरवमयी योगदान पर जरूर पड़ेगी। वैसे मुझे तो उस टटपुंजिया पत्रकार की सारी गतिविधियां ही 'संदेहास्पद' लगती हैं। कह रहा था कि हाल ही में आपने जो बंगला लिया है उसके लिये आपने पेमेंट नहीं किया। वह आपको एक बिल्डर ने भेंट किया है। आपने प्रधानमंत्री से उसका कोई 'बहुत बड़ा काम' करवा दिया है। तो इसमें क्या हो गया? आपको पारिश्रमिक देने से परहेज है। पारिश्रमिक लेने में क्या हर्ज है? और अगर कोई अपनी खुशी से कुछ देता है तो इनकार करना भई तो अच्छा नहीं लगता। अगर जनप्रतिनिधि जनता के कार्य करने के अपने कर्तव्य को ठीक से नहीं निभाते हैं और आपने उनके कार्य को अपना कर्तव्य समझ के कर दिया तो आप प्रशंसा के हकदार हैं।
छोड़िये जाने दीजिये। आप एक कुशल संपादक की तरह अपने 'अखबार पर ध्यान' दे रहे हैं यह किसी को नहीं दिखाई देता। चिंता मत कीजिये। पाठक तो हैं आपके काम को सराहने वाले। इन टटपुंजिया पत्रकारों की आपके सामने औकात ही क्या है? अऱे हां, पिछले रविवार को आपने 'हिंदुत्व' पर जो लेख लिखा था, काफी उत्कृष्ट था। और वो जो आपने एक नया स्तंभ शुरू किया है राजनीतिक गतिविधियों पर, वह भी काफी अच्छा है। वह पत्रकार (वही आपके अखबार में काम करने वाला) कह रहा था कि उसमें आप एक विशेष पार्टी का ही बखान करते रहते हैं। कह रहा था कि इस तरह से आप उस पार्टी के जरिये राज्यसभा में पहुंचना चाहते हैं। तो मैं कहता हूं, भला इसमें बुराई क्या है? संपादक जैसा 'बुद्धिजीवी' व्यक्ति अगर राज्यसभा पहुंचता है तो इससे राज्यसभा की गरिमा बढ़ेगी ही। आप खुद ही देखिये, आज कई बड़े पत्रकार सरकार में हैं। वह कितना बेहतर काम कर रहे हैं। यहां तक कि वहां भी वह अपनी 'निष्पक्षता' वाली कार्यशैली नहीं भूले हैं। पिछले दिनों कई पत्रकारों पर हमले हुये, उन्हें झूठे मुकदमों (उनके अनुसार) में फंसाया गया। लेकिन सरकार में बैठे पत्रकार उनके समर्थन में एक शब्द तक नहीं बोले। अरे भई, अगर वे ऐसा करते तो लोग उन पर आरोप लगाने लगते कि ये नेता पत्रकार बिरादरी का है इसलिये उनका पक्ष ले रहा है। जरूर ये अपने समय में 'निष्पक्ष पत्रकार' नहीं रहा होगा।
अंत में यही कहना चाहूंगा कि आप इसी तरह अपने पाठकों का हमेशा खयाल रखते रहें। आज आपका अखबार देश में 'नंबर वन' है, वह दिन दूर नहीं जब यह दुनिया भर में नंबर वन हो जायेगा। बस आप लगे रहें इसी तरह।
कृपया अन्यथा न लें, आपके सम्मानित समाचार पत्र में प्रकाशनार्थ एक रचना संलग्न कर रहा हूं उसे व्यक्तिगत रूचि लेकर प्रकाशित करने का कष्ट करें। मेरा पत्र तो खैर आप प्रकाशित करेंगे ही। धन्यवाद।
आपका
रवींद्र रंजन

शुक्रवार, 28 सितंबर 2007

भगदड़ के रणबांकुरों के नाम

नारद में और भगदड़ डॉट ब्लाग पर मेरी रचना आपरेशन सुंदरी-लाइव फ्रॉम झंडूपुरा के संबंध में टिप्पणी पढ़कर सचमुच मुझे बेहद अफसोस हुआ। खैर इससे टीम की मानसिकता का पता तो चल ही गया। टीम में शामिल लोग यह मानकर चलते हैं कि पूरी दुनिया में दो लोग एक जैसा नहीं सोच सकते। भाषा भी ऐसी है कि जैसे मैं कोई जबरदस्ती का लेखक हूं और मुझे नेट पर झूठा नाम कमाने का बहुत शौक है। लिहाजा मैंने किसी दूसरे का आयडिया कॉपी करने कहानी लिख डाली और मैं इतना बेवकूफ हूं कि उसे अपने नाम से अपने ब्लाग पर डाल भी दिया। और उनकी नजर इतनी पैनी है कि उन्होंने मुझ रचना चोर को रंगे हाथ धर-दबोचा। अपनी पीठ भी ठोंक डाली। लो भइया देखो हमने कितना बड़ा तीर मार लिया। एक कहानी चोर को पकड़ लिया। वैसे जिसे ये लोग कहानी समझ रहे हैं वह कहानी नहीं यथार्थ है। और यथार्थ से कोई भी परिचित हो सकता है। पहले मैं सोच रहा था कि भैंस के आगे बीन बजाने से क्या फायदा। फिर मैंने सोचा कि कुछ तो कहना ही पड़ेगा नहीं तो लोग सोचेंगे कि भगदड़ वाले सही कह रहे हैं। मैं साहित्यजगत का कोई प्रोफेशनल चोर हूं।
खैर, ईमानदारी से मैं बस इतना ही कह सकता हूं कि मैंने आज से पहले बुनो कहानी वाली वह रचना नहीं पढ़ी थी। अच्छा हुआ कि आपने उसका लिंक दे दिया। मैंने उसे पढ़ा। आपका शुक्रिया। मेरी रचना को पढ़कर हर उस व्यक्ति को ऐसा लग सकता है कि मेरा आयडिया मौलिक नहीं है। लेकिन मैं फिर कहना चाहूंगा कि यह महज एक संयोग है। इसलिये भी कि यह मेरी लिये कोई कहानी नहीं है। मैं खुद एक खबरिया चैनल में हूं इसलिये इस तरह की बातें, इस तरह की चर्चा किसी भी चैनल में आम है। हम जिस माहौल में रहते हैं जिस वातावरण में काम करते हैं हमारा लेखन भी उसी से प्रभावित होता है। सबसे बड़ी बात यह है कि चैनल की नौकरी ऐसी होती है कि आपको पढने का ज्यादा वक्त ही नहीं मिलता। और पढ़ने के बाद कोई मूर्ख ही उसी बात को दोबारा लिखना पसंद करेगा। मैं फिर आपकी गलतफहमी दूर करने के लिये कहना चाहूंगा कि यह मेरी लिये कहानी नहीं है। यह चैनल के लिये बहुत सामान्य सी बात है। इसलिये मैं इसे व्यंग्यात्मक शैली में बड़ी आसानी से लिखता गया। न ही मुझे कोई कहानी बुननी पड़ी और न ही कोई कल्पना करनी पड़ी। मै कोई सफाई पेश नहीं करना चाहता लेकिन मुझे इस बात का बेहद अफसोस है कि भगदड़ टीम ने बिना मेरा पक्ष सुने मुझ पर बेहद घटिया आरोप लगा दिया। अंत में मैं सिर्फ एक बात कहना चाहूंगा कि मैं जबरदस्ती नहीं लिखता। कोई चीज जब लिखने को मजबूर कर देती है तभी मैं लिखता हूं। इसलिये कहानी बुनना या फिर किसी के आयडिये को कापी करना मैं बेहद शर्मनाक मानता हूं। और क्या कहूं मुझे खुद समझ में नहीं आ रहा है। लेकिन भगदड़ टीम के इस आरोप ने मुझे सचमुच काफी दुख पहुंचाया है। बस नेट पर मौजूद लोगों से एक ही अनुरोध है कि बिना जाने-समझे किसी पर कोई आरोप न लगायें। इंटरनेट एक अथाह सागर की तरह है। यह जरूरी नहीं कि हर किसी ने हरेक सामग्री का अध्ययन किया हो। अब औऱ क्या कहूं...शब्द नहीं मिल रहे हैं। बस यही सोच रहा हूं कि आपके इस आरोप की वजह से मेरे बाकी मित्र मेरे बारे में क्या सोच रहे होंगे।

गुरुवार, 27 सितंबर 2007

आपरेशन सुंदरी--लाइव फ्राम झंडूपुरा

मैं हूं अर्चना। ब्रेक के बाद हमारे चैनल में एक बार फिर आपका स्वागत है। अब हम फिर चलते हैं अपने विशेष संवाददाता आकाश के पास। आकाश सुबह से ही मुजफ्फरनगर के झंडूपुरा गांव में मौजूद हैं। जैसा कि आपको मालूम होगा वहां विदेशी नस्ल की एक भैंस तड़के एक गड्ढे में गिर गई थी। इस खबर को सबसे पहले ब्रेक किया था हमारे संवाददाता आकाश ने। आकाश सुबह से ही हमें वहां के हालात से रूबरू करा रहे हैं। तो आइये अब आकाश से ही पूछते हैं कि क्या माहौल है झंडूपुरा का। जी, आकाश बताइये...आठ घंटे पहले जो भैंस गड्ढे में गिरी थी अब उसकी हालत कैसी है?
रिपोर्टर-अर्चना, सबसे पहले तो मैं बता दूं कि सुंदरी नाम की ये भैंस सुबह घास चरते वक्त वहां बने एक गहरे गड्ढे में जा गिरी। इस बात का पता लोगों को तब लगा जब उस गहरे गड्ढे के आसपास से गुजरने वालो ने भैंस के जोर-जोर से रंभाने की आवाज सुनी। भैंस की जान खतरे में है यह खबर पूरे गांव में जंगल में आग की तरह फैल गई। देखते ही देखते यहां कई अखबारों के संवाददाताओं का जमवाड़ा लग गया। खबरिया चैनलों में यहां तक पहुंचने वालों में सबसे पहले हम थे (रिपोर्टर यह बताते हुये गर्व से भर उठा) उसके बाद ही दूसरे चैनलों में यह खबर चली। फिर तो यह खबर झंडूपुरा गांव से निकलकर पूरे देश तक जा पहुंची। अर्चना, मैं अपने दर्शकों को बताना चाहूंगा कि यहां दूर-दूर से लोग सुंदरी को देखने आ रहे हैं। हर किसी को बस एक ही बात की चिंता है कि सुंदरी को सही सलामत बचाया जा सकेगा या नहीं? लोगों में इस बात को लेकर रोष भी है कि अब तक यहां सेना नहीं पहुंची है। न ही मुख्यमंत्री ने अब तक सुंदरी की कोई खैर-खबर लेने की कोशिश की है। हां, इलाके के विधायक और सांसद जरूर मौके पर मौजूद हैं। हम उन्हीं से पूछते हैं कि वो सुंदरी को बचाने के लिये क्या कर रहे हैं। जी, विधायक जी पहले आप बताइये?विधायक- हम पूरी कोशिश कर रहे हैं। खुद हमारे मुख्यमंत्री हमसे इस घटना की जानकारी मांग चुके हैं। हमें भरोसा है कि हम सुंदरी को जल्द ही मुसीबत से बाहर निकाल लेंगे। अच्छा सांसद जी आप बताइये? क्या बतायें? यह सरकार का निकम्मापन है कि सुंदरी अभी तक गड्ढे में ही है। राज्य में हमारी सरकार होती तो अव्वल तो गड्ढा ही नहीं होता। अगर गड्ढा होता भी तो उसमें भैंस नहीं गिरती। अगर गिरती भी तो उसे फौरन सही-सलामत बाहर निकाल लिया गया होता.....।अच्छा आकाश जरा हमें वहां के माहौल के बारे में बतायें। क्या माहौल है वहां का?
अर्चना, जैसा कि आप देख सकती हैं यहां हजारों की भीड़ है। लोगों ने पूजा अर्चना भी शुरू कर दी है। यहां से कुछ किलोमीटर की दूरी पर हवन भी शुरू हो चुका है। मौके पर लोगों का आना लगातार जारी है। हालांकि बचाव कार्य को लेकर लोगों में अब रोष भी दिखने लगा है। सुंदरी को गड्ढे में गिरे आठ घंटे से भी ज्यादा हो चुके हैं। इसके बावजूद अब तक यह भरोसा नहीं है कि उसे बचा लिया जायेगा। अभी तक न तो खुदायी की मशीनें यहां पहुंची हैं औऱ न ही सेना का हेलीकाफ्टर दिखाई दिया है। जी, अर्चना? आकाश, आप वहीं मौजूद रहिये और पल-पल की अपडेट हमें देते रहिये। एक ब्रेक के बाद हम लगातार इस खबर पर बने रहेंगे। आप देखते रहिये....खबिरया, आपका चैनल-आपके लिये।

शनिवार, 15 सितंबर 2007

हां, मैं भूत को जानता हूं !

मैंने कभी भूत को नहीं देखा
मैं भूत को देखना चाहता हूं
मैंने भूतों के बारे में बहुत कुछ सुना है
मेरी नानी कहती थीं
भूत देखने में डरावना होता है
उसकी कोई आकृति नहीं होती
कोई निश्चित आकार भी नहीं होता
फिर भी लोग उससे डरते हैं
वह लोगों को डराता है
लेकिन क्यों?
यह मेरी नानी भी नहीं जानतीं
वह कहती थीं...
जब कोई इंसान बेमौत मर जाता है
तो भूत बन जाता है
वह भूत बनकर भटकता रहता है
मुक्ति की तलाश में
अब मेरी नानी इस जहां में नहीं हैं
मुझे उनकी सारी कहानियां याद हैं
वह कहानियां जिन्हें सुनकर
मेरे रोंगटे खड़े हो जाते थे
मैं डरकर उनकी गोद में दुबक जाता था
उन कहानियों में
एक से बढ़कर एक
भूत, राक्षस और दानव होते थे
उनके पास सारी शक्तियां होती थीं
अब मैं बड़ा और समझदार हो गया हूं
लेकिन अब भी सुनना चाहता हूं
भूतों की कहानियां
अब मेरी नानी नहीं हैं
फिर भी...
मैं भूतों से आये दिन रूबरू होता हूं
जब भी दिल करता है
भूतों के बारे में जानने का
फौरन सारी कड़ियां जोड़ लेता हूं
अरे यारों, अब भी नहीं समझे
बस टीवी पर कोई खबरिया चैनल खोल लेता हूं।

शनिवार, 25 अगस्त 2007

पहले ब्रेक...फिर ब्रेकिंग न्यूज

रात का वक्त था। दफ्तर से लौट रहा था। जाहिर है घर के लिए। तभी बीच सड़क पर सफेद रंग की एक आकृति देखकर चौंक गया। असल में वह एक सांप था। जीता-जागता, हिलता-डुलता। गाड़ी में ब्रेक लगाया। शुक्र मनाया कि सड़क के बीचोंबीच होने के बावजूद वह पहिये के नीचे आने से बच गया। दिमाग में आया क्यों न अपने पड़ोसी टीवी चैनल वाले को कॉल कर दूं। हमेशा न्यूज ब्रेक करने वाले न्यूज चैनल को एक और ब्रेकिंग न्यूज मिल जायेगी। फिर सोचा, यह नाग या नागिन तो है नहीं। यह तो शायद पानी वाला सांप है। सीधा-साधा। भोला-भाला। इसे तो फुंफकारना भी नहीं आता। ना ही यह किसी से बदला ले सकता है। न ही इसे नागिन फिल्म की धुन पर नचाया जा सकता है। फिर सोचा, इससे क्या फर्क पड़ता है। किसी भी सांप को नाग या नागिन बनाना तो चैनल वालों के बायें हाथ का खेल है। वैसे भी सांप-नेवले की स्टोरी में असली दृश्य होते ही कहां हैं। फिल्मों के विजुअल और गाने ही तो चलाने होते हैं। मतलब साफ था। मुझे एक ब्रेकिंग न्यूज की संभावना साफ नजर आ रही थी। फिर सोचा कि छोड़ो भी, जब यह खबर अपने चैनल पर नहीं चल रही तो क्यों दूसरे चैनल को खबर देकर उसकी टीआरपी बढ़ाई जाये। मैंने एक्सीलेटर दबाया और आगे बढ़ गया।

घर तो पहुंच गया। लेकिन नींद नहीं आ रही थी। बार-बार उस सांप का ख्याल जेहन में आ रहा था। सोचा कि हो सकता है कि टीवी चैनल का रिपोर्टर सूंघते-सूंघते वहां तक पहुंच गया हो। चैनल ने खबर ब्रेक कर दी हो। मैं झटके से उठा। रिमोट उठाया। टीवी आन किया और तेजी से न्यूज चैनल सर्च करना शुरू कर दिया। उस सांप (माफ कीजियेगा-नाग) की खबर किसी चैनल पर नहीं थी। मैं मन ही मन में कुछ बुदबुदाया और टीवी बंद करके फिर बिस्तर पर पसर गया।

आंखें बंद थीं। दिमाग अब भी चल रहा था। बार-बार दिखाई दे रहा था वह सांप। मैं सोच रहा था कि अगर वह सांप किसी गाड़ी के नीचे आकर मर गया होगा तो क्या खबर बनेगी। खबर यह बन सकती है कि नाग की मौत हो गई। अब नागिन बदला लेगी। लाइब्रेरी से निकालकर नागिन के फुंफकारते हुये विजुअल लगा दिये जायेंगे। नागिन फिल्म का गाना भी लगा जा सकता है। बाकी तो एंकर रहेगा ही। लगातार कुछ भी अनाप-शनाप बोलने के लिये।

दूसरी संभावना यह हो सकती है कि अगर सांप ( कहानी की जरूरत के मुताबिक उसे नाग या नागिन बनाने का पूरा स्कोप रहेगा) गाड़ी के टायर की चपेट में आकर जख्मी हो जाये तो....। तब खबर कुछ इस तरह हो सकती है कि नाग की मौत हो गई। अब नागिन जरूर बदला लेगी।

तीसरी संभावना हो सकती है...कि यह मौत एक नागिन की थी। वह नागिन जो नाग की मौत का बदला लेने के लिये शहर में आई थी। वह नाग के हत्यारे की तलाश में थी। अफसोस उसकी तलाश पूरी नहीं हो सकी। लेकिन मरने के बाद भी वह अपना बदला जरूर लेगी। बदला लेने के लिये वह फिर जन्म लेगी। जाहिर है, जैसा कि हमेशा होता है, उसकी आंखों में कातिल की तस्वीर हमेशा के लिये बस गई होगी। कुछ प्रत्यक्षदर्शियों की बाइट भी ली जा सकती है। मौके पर मौजूद लोग नाग की मौत से कितने गुस्से में हैं यह भी दिखाया जा सकता है। उस रास्ते से गुजरने वालों पर इसका क्या असर पड़ सकता है, किसी ज्योतिषी या शनि महाराज टाइप के शख्स की बाईट भी चलाई जा सकती है। ऐसे में आखिर पुलिस क्या कर रही है यह सवाल भी उठाया जा सकता है। कानून-व्यवस्था पर भी सवाल उठाये जा सकते हैं। ज्यादा विस्तार में जाया जाये तो सरकार को भी लपेटा जा सकता है। आखिर हर वारदात के लिये जिम्मेदारी तो सरकार को ही लेनी होगी। उसे उसकी इस जिम्मेदारी का एहसास चैनल वाले नहीं करायेंगे तो कौन कारयेगा। क्या-क्या बतायें? ऐसी शानदार बिकाऊ खबर हाथ लग जाये तो यह पूछिये चैनल में क्या नहीं किया जा सकता। लेकिन उस पर चर्चा करेंगे एक बड़े से ब्रेक के बाद। आज के लिये बस इतना ही।

गुरुवार, 23 अगस्त 2007

कंपनी सार




दोस्तों, मेरे लिखे हुये को तो आप पिछले करीब तीन महीने से पढ़ (या शायद झेल) ही रहे हैं। आज मैं जो रचना आपके सामने प्रस्तुत करने जा रहा हूं वह हमारे इन मित्र ने पोस्ट की है। इनका नाम है विनय पाठक। यूं तो मैं भी खबरिया चैनल में ही काम करता हूं लेकिन अब मैं पत्रकार होने का दावा नहीं करता। लेकिन पाठक जी के बारे में मैं ताल ठोंककर कह सकता हूं कि यह जनाब टीवी पत्रकार हैं। हालांकि मेरा ऐसा कहना इन्हें पसंद आयेगा या नहीं मैं नहीं जानता। तो लीजिये पेश है इस तस्वीर में नजर आ रहे विनय पाठक की ताजातरीन रचना---



हे पार्थ,
तुम्हें इंक्रीमेंट नहीं मिला, बुरा हुआ
टीडीएस बढ़ने से सैलरी भी कट गई, और भी बुरा हुआ
अब काम बढ़ने से एक्स्ट्रा शिफ्ट भी होगी, ये तो और भी बुरी बात होगी।
इसलिए हे अर्जुन,
न तो तुम पिछला इंक्रीमेंट नहीं मिलने का पश्चाताप करो
और न ही अगला इंक्रीमेंट मिलने का इंतजार करो
बस अपनी सैलरी यानी जो भी थोड़ा कुछ मिल रहा है उसी से संतुष्ट रहो
इंक्रीमेंट नहीं भी आया तो तुम्हारे पॉकेट से क्या गया
और जब कुछ गया ही नहीं तो रोते क्यों हो।
हे कौन्तेय,
एक बात याद रखो
जब तुम नहीं थे कंपनी तब भी चल रही थी
और जब तुम नहीं रहोगे तब भी कंपनी चलती रहेगी
कंपनी को तुम्हारी जरूरत नहीं, कंपनी तुम्हारी जरूरत है
वैसे भी तुमने कौन सा ऐसा आइडिया दिया जो तुम्हारा अपना था
सब कुछ तो कट-कॉपी-पेस्ट का ही खेल था
इस बात को लेकर भी दुखी मत हो कि कट-कॉपी-पेस्ट वाले आइडिया का क्रेडिट भी तुम्हें नहीं मिला
सारा क्रेडिट अगर बॉस मार लेते हैं तो उन्हें मारने दो
क्रेडिट मारना तो बॉस का हक है और यही एक काम वो ईमानदारी के साथ करते हैं।
हे पांडु पुत्र,
इन बातों के साथ ही एक बात ये भी याद रखो
तुम कोई एक्सपीरियंस लेकर नहीं आए थे
जो एक्सपीरियंस मिला यहीं पर मिला
कोरी डिग्री लेकर आए थे एक्सपीरियंस लेकर जाओगे
मतलब अगर नौकरी छोड़ी तो यहां से कुछ लेकर ही जाओगे
ये बताओ कि कंपनी को क्या देकर जाओगे।
हे तीरंदाज द ग्रेट,
जो सिस्टम (कम्प्यूटर) आज तुम्हारा है
वो कल किसी और का था....
कल किसी और का होगा और परसों किसी और का
तुम इसे अपना समझ कर क्यों मगन हो रहे हो
कुछ भी तुम्हारा नहीं है, सब एक दिन छिन जाएगा
दरअसल, यही तुम्हारे टेंशन का कारण है।
इसलिए हे धनंजय,
क्यों व्यर्थ चिंता करते हो
किससे व्यर्थ डरते हो
कौन तुम्हें निकाल सकता है
ये नौकरी तुम्हारी थी ही कब, ये तो सिर्फ और सिर्फ बॉस की मर्जी है
और जब नौकरी तुम्हारी है ही नहीं तो तुम्हें कौन निकाल सकता है और कौन तुम्हें निकालेगा।
हे पांडव श्रेष्ठ,
ध्यान से एक बात को समझो
पॉलिसी चेंज तो कंपनी का एक रूल है
जिसे तुम पॉलिसी चेंज समझते हो, वो दरअसल कंपनी की एक ट्रिक है
एक ही पल में तुम सुपर स्टार और हीरो नंबर वन बन जाते हो
और दूसरे ही पल वर्स्ट परफॉर्मर और कूड़ा नंबर वन हो जाते हो।
इसलिए हे गांडीवधारी,
इंक्रीमेंट, इनसेन्टिव, एप्रेजल, प्रोमोशन, रिटायरमेंट वगैरह वगैरह को मन से निकाल दो
ये सब न तो तुम्हारे लिए है और न तुम इसके लिए हो
हां, जब तक बॉस खुश है तबतक काम करो या न करो, जॉब सिक्योर है
फिर टेंशन क्यो लेते हो
तुम खुद को कंपनी और बॉस के लिए अर्पित कर दो
यही सबसे बड़ा गोल्डेन रूल है
जो इस गोल्डेन रूल को जानता है
वो इंक्रीमेंट, इनसेन्टिव, एप्रेजल, प्रोमोशन, रिटायरमेंट वगैरह वगैरह के झंझट से
सदा के लिए मुक्त हो जाता है।
इसलिए हे धनुर्धर श्रेष्ठ,
चिन्ता छोड़ो और खुद को कंपनी के लिए होम कर दो
तभी जिन्दगी का सही आनन्द उठा सकोगे।


---विनय पाठक


 
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