गुरुवार, 5 नवंबर 2009

अब कौन करेगा 'कागद कारे'

खामोश हो गई एक मुखर आवाज। हमेशा के लिए खामोश हो गए प्रभाष जोशी। हिंदी पत्रकारिता का एक युग खत्म हो गया। पत्रकारिता जगत में प्रभाष जोशी के मुरीद भी हैं और आलोचक भी। पैसे लेकर चुनावी खबरें छापने वाले अखबारों के खिलाफ अगर कोई सबसे पहले बोला तो वह प्रभाष जोशी ही थे। प्रभाष जोशी ने ऐसे अखबारों के खिलाफ बाकायदा अभियान ही छेड़ दिया था। उन्होंने चुनाव में बिकाऊ अखबारों की जमकर खबर लिखी। जनसत्ता में लगातार लेख लिखे। नतीजा यह हुआ कि पैसे लेकर खबरें छापने वाले अखबारों के खिलाफ पूरे देश में माहौल बनना शुरू हो गया। जातीय दंभ के मुद्दे पर प्रभाष जोशी को आलोचनाओं का शिकार भी होना पड़ा। अपने एक लेख में बड़बोलापन दिखाते हुए जोशी ने अलग-अलग क्षेत्र की कुछ हस्तियों...

रविवार, 25 अक्टूबर 2009

बेनामियों के मारे ब्लॉगर बेचारे

ऐतिहासिक शहर इलाहाबाद में संपन्न हुई दो दिनी 'ब्लॉगर मीट' (कुछ लोगों को इस शब्द पर आपत्ति है) के दौरान वैसे तो बहुत कुछ उल्लेखनीय हुआ। लेकिन मेरे खयाल से इस संगोष्ठी को सबसे ज्यादा याद किया जाएगा अराजकता के लिए। अराजकता का आलम यह था कि संगोष्ठी के लिए बाकायदा निमंत्रण और टिकट भेजकर बुलाए गए कई तथाकथित ब्लॉगर संगोष्ठी में शरीक होने की बजाए 'इलाहाबाद दर्शन' में व्यस्त थे। आयोजकों को यह तक नहीं मालूम था कि आखिर वो करना क्या चाहते हैं। हास्यास्पद बात तो यह थी कि कई ब्लॉगर मंच पर पहुंचने के बाद पूछ रहे थे कि उन्हें बोलना किस विषय पर है। इस ब्लॉगर मीट में कई मशहूर ब्लॉगरों की गैरमौजूदगी खलने वाली थी। पता नहीं 'उड़नतश्तरी' वाले समीर लाल 'समीर' को आमंत्रित...

शनिवार, 17 अक्टूबर 2009

जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना...

स‌च कहूं तो त्योहारों को लेकर मैं कोई खास उत्साहित नहीं रहता। त्योहार वाला दिन मेरे लिए आम दिनों जैसा ही होता है। घर पर टीवी देखना या इंटरनेट पर वक्त बिताना ज्यादा अच्छा लगता है। पूजा-पाठ, पटाखों का शोर और बाजार स‌े ढेर स‌ारा स‌ामान जुटाने का झंझट, पता नहीं लोगों को यह स‌ब करके क्या मिलता है। इस दिवाली पर एक अच्छी खबर स‌ुनने को मिली। इस बार दिल्ली स‌रकार ने पटाखों के लिए लाइसेंस बहुत कम स‌ंख्या में जारी किए हैं। इसिलिए इस बार दिल्ली के बाजार में पटाखे कम ही नजर आए। वर्ना याद आते हैं दिवाली के वो दिन जब लोग इस मौके पर अपनी ताकत का प्रदर्शन करते नजर आते थे। एक पड़ोसी ने 100 रुपये वाला बम फोड़ा तो अगले को 150 वाला बम फोड़ना है। महज इसलिए क्योंकि...

रविवार, 4 अक्टूबर 2009

ब्रेकिंग न्यूज की मजबूरी क्यों?

कुछ दिन पहले कई चैनलों वाले बड़े मीडिया ग्रुप के एक छोटे या फिर कहें मंझोले हिंदी चैनल के संपादक को पढ़ रहा था। वह छोटे और मध्यम श्रेणी के चैनलों की परेशानियां गिना रहे थे। उनका कहना था कि छोटे चैनलों की कई मजबूरियां हैं। बकौल संपादक, छोटे चैनल कितना भी अच्छा कर लें, उनका काम उतना नोटिस में नहीं आता जितना कि बड़े चैनलों का। संपादक महोदय की इस बात से असहमत होने की कोई वजह नहीं है। लेकिन इन्हीं तथाकथित मजबूरियों की आड़ लेकर ये छोटे चैनल कुछ भी करने को उतारू हो जाते हैं। छोटे और मंझोले चैनल किस तरह खबरों के साथ खिलवाड़ करते हैं यह किसी से छिपा नहीं है। एक छोटे चैनल पर ब्रेकिंग न्यूज चली। दिल्ली में मिली अज्ञात लाश। लाश किसकी है। मौत कैसे हुई। किसकी...

शुक्रवार, 18 सितंबर 2009

स‌नसनी बोले तो स‌न्नाटे को चीरते श्रीवर्धन

एंकर श्रीवर्धन त्रिवेदी के बगैर सनसनी के बारे में सोचना भी मुश्किल है। आज की तारीख में सनसनी और श्रीवर्धन एक दूसरे के पूरक बन चुके हैं। कल्पना कीजिए किसी दिन स्टार न्यूज पर सनसनी हो, लेकिन एंकर के तौर पर सेट पर श्रीवर्धन न हों तो क्या होगा? जाहिर है सब कुछ अधूरा-अधूरा सा लगेगा। दर्शक मिस करेंगे उस चेहरे को। उस रौबदार आवाज को, जो बरसों से टीवी के परदे पर सनसनी बनकर गूंज रही है। कामयाबी का इतिहास गढ़ रही है। वैसे तो एक कार्यक्रम की सफलता के पीछे एक पूरी टीम का हाथ होता है। लेकिन टीम तो दूसरी भी बनाई जा सकती है, श्रीवर्धन नहीं। अगर मैं यह लिख रहा हूं तो कहीं से भी अतिशयोक्ति नहीं कर रहा हूं। लिम्का बुक में श्रीवर्धन का नाम आना कोई अश्चर्य की बात...

गुरुवार, 13 अगस्त 2009

हिंदी ब्लॉग जगत के चोरों से सावधान

इंटरनेट पर कुछ सर्च कर रहा था तभी अचानक कुछ ऐसा मिला जिसे देखकर अचरज में पड़ गया। निगाह वहीं पर अटक गई। पहली बार तो यकीन ही नहीं हुआ कि ऐसा भी हो सकता है। मुझे याद है कि ब्लॉगिंग के शुरुआती दौर में एक ब्लॉगर ने मुझ पर किसी दूसरे का आयडिया चुराने का आरोप लगाया था। इस आरोप ने मुझे बेहद खिन्न कर दिया था। मैंने ना सिर्फ आरोपों का जवाब दिया बल्कि उनके इल्जामों को झूठा भी साबित किया। मैं तब भी यही सोचता था कि इंटरनेट पर जहां कही भी किसी से कुछ छिपा नहीं है वहां भला कोई ऐसा कैसे कर सकता है। अगर करने की हिमाकत करता भी है तो आज नहीं तो कल वह सबके सामने आ ही जाएगा। यह मेरी सोच थी। लेकिन अब मैं जिन साहब की बात करने जा रहा हूं वह शायद ऐसा नहीं सोचते। तो...

रविवार, 24 मई 2009

ताकतवर होते बेजान पत्ते

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शुक्रवार, 15 मई 2009

मार्केटिंग का हिंदी फंडा

एक लड़के को सेल्समेन के इंटरव्यू में इसलिए बाहर कर दिया गया क्योंकि उसे अंग्रेजी नहीं आती थी। लड़के को अपने आप पर पूरा भरोसा था। उसने मैनेजर से कहा कि आपको अंग्रेजी से क्या मतलब ? अगर मैं अंग्रेजी वालों से ज्यादा बिक्री न करके दिखा दूं तो मुझे तनख्वाह मत दीजिएगा। मैनेजर को उस लड़के बात जम गई। उसे नौकरी पर रख लिया गया। फिर क्या था, अगले दिन से ही दुकान की बिक्री पहले से ज्यादा बढ़ गई। एक ही सप्ताह के अंदर लड़के ने तीन गुना ज्यादा माल बेचकर दिखाया। स्टोर के मालिक को जब पता चला कि एक नए सेल्समेन की वजह से बिक्री इतनी ज्यादा बढ़ गई है तो वह खुद को रोक न सका। फौरन उस लड़के से मिलने के लिए स्टोर पर पहुंचा। लड़का उस वक्त एक ग्राहक को मछली पकड़ने का कांटा बेच...

मंगलवार, 12 मई 2009

इंटनरेट से ऐसे करें कमाई

इंटरनेट पर आमतौर पर आजकल लोग कुछ घंटे तो बिताते ही हैं। ब्लागिंग से जुड़े लोग नियमित तौर पर इसका इस्तेमाल करते हैं। ब्लागिंग भले ही मुफ्त हो, लेकिन इंटरनेट सर्विस मुफ्त में नहीं मिलती। इसके लिए हर महीने पैसा अदा करना पड़ता है। ब्लागिंग करने वाले लोग इस पर अपना जो समय देते हैं उसकी तो कोई कीमत ही नहीं। हालांकि हिंदी में ज्यादातर लोग स्वांत: सुखाय लेखन कर रहे हैं। लेकिन जरा सोचिए कितना अच्छा हो कि अगर इंटरनेट के जरिये कुछ आमदनी भी होने लगे। ज्यादा नहीं तो नेट कनेक्शन पर होने वाला खर्च तो वसूल हो ही जाए। गूगल एडसेंस तो फिलहाल हिंदी में लिखने वालों पर मेहरबान नहीं है। लिहाजा मैं इसी उधेड़बुन हूं कि इंटरनेट पर और क्या जरिया हो सकता जिससे कुछ आमदनी...

शनिवार, 9 मई 2009

...तो फिर कौन है असली पप्पू?

-प्रशांत अगर आप भारत के नागरिक हैं और लोकसभा चुनावों में वोट डालने नहीं जाते हैं, तो आप पप्पू हैं, ये हम नहीं कह रहे चुनाव आयोग की ओर से जारी सारे विज्ञापनों में यही बताने की कोशिश की गई है... लेकिन आप अगर पोलिंग बूथ पर जाएं, आपके पास मतदाता पहचान पत्र भी हो और पिछले कई चुनावों से आप वोट डालते रहे हों, और तब भी आपको वोट देने का मौका नहीं मिले, तो आप क्या कहेंगे। पप्पू कौन? इससे भी बड़ी बात तो ये कि आप उस जगह के स्थायी निवासी हों, आपके नाम पर एक अदद घर भी हो, आपके नाम से बिजली विभाग ने मीटर लगा रखा हो,आप करीब 9 साल से एक ही जगह पर रह रहे हों, आप कई बार वोट डाल चुके हैं और तब भी आपका नाम वोटर लिस्ट से गायब हो, तब भी क्या आप पप्पू कहलाएंगे। एक और...

रविवार, 26 अप्रैल 2009

राज ठाकरे के स‌मर्थन में...

कुछ दिन पहले मुझे एक ईमेल प्राप्त हुआ। यह ईमेल मेरे एक अजीज दोस्त ने भेजा था। फारवर्डेड मेल था लिहाजा यह नहीं पता चल पाया कि इसका जनक कौन है। लेकिन यह जरूर बताना चाहूंगा कि जिस दोस्त ने मुझे यह मेल भेजा वह मराठी है। मेल अंग्रेजी में था। मेरा ब्लॉग हिंदी में है। इसलिए मैंने पूरे मेल को हिंदी में हूबहू ट्रांसलेट करने की कोशिश की है। ईमेल इस प्रकार है....अगर आप राज ठाकरे के स‌मर्थक हैं तो कृपया निम्नलिखित बातों का ध्यान रखें...1. अगर आपका बच्चा मेहनत के बावजूद क्लास में फर्स्ट नहीं आ पाता तो उसे स‌िखाइये कि ज्यादा मेहनत करने की जरूरत नहीं। बल्कि जो बच्चा पढ़ने में तुमसे तेज है उसे पीटो और क्लास स‌े बाहर कर दो। तुम अपने आप फर्स्ट हो जाओगे। 2. स‌ंस‌द...

शनिवार, 18 अप्रैल 2009

इधर स‌े गुजरा था स‌ोचा स‌लाम करता चलूं...

चुनाव के मौसम पर गर्मी का मौसम भारी पड़ने लगा है। मतदान की तारीख तेजी स‌े नजदीक आती जा रही है, लेकिन चुनाव प्रचार उतनी गति नहीं पकड़ रहा है। वजह, मौस‌म की मार। हिम्मत जुटाकर, कार्यकर्ताओं को जोश दिलाकर उम्मीदवार मैदान में निकलते भी हैं तो जनता इतनी 'आलसी' है कि ऎसी चिलचिलाती गर्मी में घर स‌े बाहर ही नहीं निकलना चाहती। लिहाजा जनसभाओं में भीड़ जुटे भी तो कैसे? बड़ी मुसीबत है। जनसभा में भीड़ न जुटी तो क्या 'मैसेज' जाएगा? विरोधी तो मजाक उड़ाएंगे ही, लोगों को भी लगेगा कि इन जनाब के पक्ष में जनसमर्थन नहीं है।भीषण गर्मी की वजह स‌े स‌ब कुछ ठंडा है। तो क्या करें? किसी कार्यकर्ता ने स‌ुझाया कि पब्लिक नहीं आ रही तो क्या हुआ, क्यों न हम ही पब्लिक के पास...

रविवार, 15 मार्च 2009

स्टोव! मेरे स‌वालों का जवाब दो

स्टोव तुम स‌सुराल में ही क्यों फटा करते हो?मायके में क्यों नहीं ?स्टोव तुम्हारी शिकार बहुएं ही क्यों होती हैं?बेटियां क्यों नहीं ?स्टोव तुम इतना भेदभाव क्यों करते हो ?स‌मझते क्यों नहीं ?स्टोव कहां स‌े पाई है तुमने ये फितरत ?बताते क्यों नहीं ?स्टोव तुम भीतर स‌े इतने कमजोर क्यों हो ?अक्सर फट जाते हो ?स्टोव तुम हमेशा विस्फोट की ही भाषा क्यों बोलते हो ?क्या तुम्हारे पास आंखें भी हैं ?स्टोव तुम कैसे देख लेते हो किचन में बहू ही है ?फटने का फैसला कर लेते हो ?स्टोव तुम कैसे पहचान लेते हो अपने शिकार को ?कौन बन जाता है तुम्हारी आंखें ?स्टोव अब तुम इस कदर खामोश क्यों हो ?बोलते क्यो नहीं ?स्टोव यह तो बताओ तुम कब फटना बंद करोगे ?कुछ तो जवाब दो ?स्टोव बरसों स‌े पूछ रहा हूं यह स‌वाल अब तो बोलो ?अब तो यह राज खोलो ?(बरसों पहले लिखीं थीं यह पंक्तियां। आज अचानक वह मुड़ा-तुड़ा कागज मिल गया। मेरे इन स‌वालों का...

शनिवार, 28 फ़रवरी 2009

कुत्ता कहीं का...

2009 कब का आ चुका है। दो महीने गुजर भी चुके हैं। अचानक याद आया कि इस स‌ाल अभी तक हमने कुछ लिखा ही नहीं। स‌ोच रहा हूं कहीं लिक्खाड़ लोग मुझे बिरादरी स‌े बाहर न कर दें। इसीलिए कुछ तो लिख ही डालता हूं। नए स‌ाल के दो महीने गुजर चुके हैं। स‌ब ठीक ही चल रहा है। मंदी अब भी बरकरार है। एक नई बात हुई मेरी कॉलोनी की ऊबड़-खाबड़ स‌ड़क बन गई है। पता नहीं क्यों बन गई। अभी तो चुनाव भी दूर है। स‌ड़क के किनारे गंदी स‌ी जमीन को खोदकर जो नींव डाली गई थी वहां अब ऊंची इमारत खड़ी हो गई है। इतनी ऊंची कि स‌िर उठाकर देखने पर गर्दन दर्द करने लगती है। मेरी गली का कुत्ता अब भी आदमियों पर भोंकता है। वह नहीं बदलेगा। कुत्ता कहीं का। बिल्लियां अब कम ही नजर आती हैं। कौवे और तोते...
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