गुरुवार, 5 नवंबर 2009

अब कौन करेगा 'कागद कारे'

खामोश हो गई एक मुखर आवाज। हमेशा के लिए खामोश हो गए प्रभाष जोशी। हिंदी पत्रकारिता का एक युग खत्म हो गया। पत्रकारिता जगत में प्रभाष जोशी के मुरीद भी हैं और आलोचक भी। पैसे लेकर चुनावी खबरें छापने वाले अखबारों के खिलाफ अगर कोई सबसे पहले बोला तो वह प्रभाष जोशी ही थे। प्रभाष जोशी ने ऐसे अखबारों के खिलाफ बाकायदा अभियान ही छेड़ दिया था। उन्होंने चुनाव में बिकाऊ अखबारों की जमकर खबर लिखी। जनसत्ता में लगातार लेख लिखे। नतीजा यह हुआ कि पैसे लेकर खबरें छापने वाले अखबारों के खिलाफ पूरे देश में माहौल बनना शुरू हो गया।

जातीय दंभ के मुद्दे पर प्रभाष जोशी को आलोचनाओं का शिकार भी होना पड़ा। अपने एक लेख में बड़बोलापन दिखाते हुए जोशी ने अलग-अलग क्षेत्र की कुछ हस्तियों के नाम गिनाए और यह दावा कर दिया कि वह इसलिए श्रेष्ठ हैं क्योंकि वह ब्राह्मण हैं। प्रभाष जोशी के इस लेख पर बवाल मच गया। समर्थकों को अचरज हुआ कि इतने बड़े पत्रकार के भीतर जातीयता को लेकर इतना दंभ कैसे हो सकता है? आलोचकों को भी यकीन नहीं हुआ कि प्रभाष जोशी ऐसा सोच सकते हैं।

प्रभाष जोशी ने जो कहा ताल ठोंककर कहा। यही उनकी पहचान भी बन गई। जनसत्ता में उन्होंने तकरीबन हर मुद्दे पर लिखा। संघ के खिलाफ उनकी वक्रदृष्टि। क्रिकेट के प्रति पागलपन। पत्रकारिता के प्रति लगाव और ईमानदारी। यही उनकी विरासत बन गई। वह प्रभाष जोशी ही थे जिन्होंने 1983 में जनसत्ता का संपादक पद संभालने के बाद इसे एक ऐसे अखबार की पहचान दिलाई जो बेखौफ होकर लिखता है। बेखौफ होकर अपनी बात कहता है। नतीजा यह हुआ कि प्रभाष और जनसत्ता एक दूसरे के पूरक बन गए। 1995 में जनसत्ता के संपादक पद से रिटायर होने के बाद वह बतौर सलाहकार इस अखबार से जुड़े रहे। सिर्फ जुड़े ही नहीं रहे। लगातार कागद भी कारे करते रहे।

प्रभाष जोशी की जगह को भर पाना नामुमकिन है। जनसत्ता में हर रविवार को छपने वाला उनका कॉलम 'कागद कारे' अब नहीं होगा। जनसत्ता के पहले पन्ने पर क्रिकेट जैसे विषय पर एक से बढ़कर एक रिपोर्ट और टिप्पणियां लिखने वाला भी अब कोई नहीं होगा। जनसत्ता अब भी है लेकिन अब प्रभाष जोशी नहीं हैं। इस सच्चाई को स्वीकार करना ही होगा। उनके चाहने वालों को, उनके आलोचकों को और हम सबको।

रविवार, 25 अक्तूबर 2009

बेनामियों के मारे ब्लॉगर बेचारे

ऐतिहासिक शहर इलाहाबाद में संपन्न हुई दो दिनी 'ब्लॉगर मीट' (कुछ लोगों को इस शब्द पर आपत्ति है) के दौरान वैसे तो बहुत कुछ उल्लेखनीय हुआ। लेकिन मेरे खयाल से इस संगोष्ठी को सबसे ज्यादा याद किया जाएगा अराजकता के लिए। अराजकता का आलम यह था कि संगोष्ठी के लिए बाकायदा निमंत्रण और टिकट भेजकर बुलाए गए कई तथाकथित ब्लॉगर संगोष्ठी में शरीक होने की बजाए 'इलाहाबाद दर्शन' में व्यस्त थे। आयोजकों को यह तक नहीं मालूम था कि आखिर वो करना क्या चाहते हैं। हास्यास्पद बात तो यह थी कि कई ब्लॉगर मंच पर पहुंचने के बाद पूछ रहे थे कि उन्हें बोलना किस विषय पर है।

इस ब्लॉगर मीट में कई मशहूर ब्लॉगरों की गैरमौजूदगी खलने वाली थी। पता नहीं 'उड़नतश्तरी' वाले समीर लाल 'समीर' को आमंत्रित किया गया था या नहीं। अगर नहीं तो क्यों? अगर बात ब्लॉगिंग की हो रही है तो आप समीर की लेखनी को किसी भी हालत में दरकिनार नहीं कर सकते। वह जितनी खूबी से हल्के-फुल्के विषयों पर लिखते हैं उतनी ही खूबी से गंभीर विषयों पर भी। उनकी कई पोस्ट तो इतनी यादगार हैं कि बार-बार पढ़ने को दिल करता है। समीर के अलावा चोखेरबालियों की गैरमौजूदगी भी सवाल खड़े कर रही थी। महिला ब्लॉगरों के नाम पर अगर कोई दिखा तो सिर्फ मनीषा पांडे, मीनू और आभा। कई अच्छी महिला ब्लॉगर संगोष्ठी से नदारद थीं। या तो वो आईं नहीं या शायद उन्हें बुलाने काबिल नहीं समझा गया।

अविनाश, डॉ. अरविंद, अनूप शुक्ल, हर्षवर्धन, संजय तिवारी और रवि रतलामी की मौजूदगी अहम और सुखद थी। इस विशेष मौके पर रवि रतलामी की मौजूदगी का फायदा उठाया जा सकता था। ब्लॉगरों को तकनीकी ज्ञान दिलाया जा सकता था। रवि रतलामी इसके लिए तैयार भी नजर आ रहे थे, लेकिन मेहमान ब्लॉगर शायद तैयार नहीं थे। यही वजह है कि मंच पर आकर रवि भी बेबस से नजर आए। एक अच्छा मौका जाता रहा, क्योंकि तकनीक ही ऐसी चीज है जिससे हिंदी वाले दूर भागते हैं। रवि इस 'डर' को दूर करने में सक्षम थे।

पहले सत्र से शुरू हुई अराजकता दूसरे सत्र तक अपने चरम पर पहुंच गई। कुछ ब्लॉगरों ने तो हद ही कर दी। उन्हें यह तक नहीं पता था कि बोलना क्या है? कुछ महज इसलिए खुश हो गए कि जमकर खाने-पीने को मिल गया। कुछ इसलिए परेशान थे कि 'बेड टी' नहीं मिली। संगोष्ठी में जिस गंभीर चर्चा की उम्मीद की जा रही थी वह सिरे से गायब रही। ऐसा लग रहा था कि कुछ लोग एक जगह पर पिकनिक मनाने के लिए इकट्ठे हुए हैं। खाए-पिए, अघाए और चल दिए। वैसे आखिर तक यह समझ में नहीं आया कि संगोष्ठी में निमंत्रण के लिए 'जरूरी योग्यता' क्या थी?

महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय और हिंदुस्तानी एकेडमी इलाहाबाद की तरफ से आयोजित राष्ट्रीय ब्लॉगर संगोष्ठी के दूसरे सत्र में बेनाम टिप्पणीकारों का मुद्दा छाया रहा। बेनाम टिप्पणीकारों से सभी ब्लॉगर परेशान नजर आए। यह ठीक है कि कुछ अनाम टिप्पणीकारों ने ब्लॉग जगत में अराजकता मचा रखी है, लेकिन 'अनाम' के तौर पर अपनी बात कहने की परंपरा हमेशा से रही है। यह एक व्यवस्था है, जिसे बंद नहीं किया जाना चाहिए। कई बार 'बेनाम' टिप्पणीकार सच भी कह जाते हैं, जो कड़वा होता है। लेकिन होता सच है। बेनाम टिप्णीकार कमोबेश कुछ उसी तरह हैं जैसे एक मतदाता अपना वोट डाल जाता है। उसके वोट का असर भी दिखाई देता है, लेकिन किसी को पता नहीं चलता कि वो कौन है?

संगोष्ठी में ब्लाग जगत के ताकतवर होने और पांचवे खंभे के तौर पर स्थापित होने की खुशफहमी पालने वाले भी कम नहीं थे। इसमें कोई शक नहीं कि ब्लॉग एक सशक्त माध्यम है। इसकी ताकत को लोग स्वाकार भी कर रहे हैं। लेकिन अराजकता किसी भी माध्यम में हो, हानिकारक होती है। आज टीवी चैनल अराजकता के दौर से गुजर रहे हैं तो कल ब्लॉग जगत के सामने भी यही समस्या आने वाली है। इसलिए जरूरत है कि वक्त रहते ही इस समस्या का हल निकाला जाए। ब्लॉगर गंभीर हो जाएं। बचपना छोड़ दें। वर्ना टीवी की तरह लोग उन्हें भी गंभीरता से लेना छोड़ देंगे।

शनिवार, 17 अक्तूबर 2009

जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना...

स‌च कहूं तो त्योहारों को लेकर मैं कोई खास उत्साहित नहीं रहता। त्योहार वाला दिन मेरे लिए आम दिनों जैसा ही होता है। घर पर टीवी देखना या इंटरनेट पर वक्त बिताना ज्यादा अच्छा लगता है। पूजा-पाठ, पटाखों का शोर और बाजार स‌े ढेर स‌ारा स‌ामान जुटाने का झंझट, पता नहीं लोगों को यह स‌ब करके क्या मिलता है।

इस दिवाली पर एक अच्छी खबर स‌ुनने को मिली। इस बार दिल्ली स‌रकार ने पटाखों के लिए लाइसेंस बहुत कम स‌ंख्या में जारी किए हैं। इसिलिए इस बार दिल्ली के बाजार में पटाखे कम ही नजर आए। वर्ना याद आते हैं दिवाली के वो दिन जब लोग इस मौके पर अपनी ताकत का प्रदर्शन करते नजर आते थे। एक पड़ोसी ने 100 रुपये वाला बम फोड़ा तो अगले को 150 वाला बम फोड़ना है। महज इसलिए क्योंकि उसे खुद को ज्यादा ताकतवर, स‌ंपन्न जताना है। उनकी ताकत दिखाने वाले ये बम इतना शोर करते हैं कि मैं बता नहीं स‌कता। इन पटाखे रूपी बमों के फटने का स‌िलसिला शुरू होता था तो खत्म होने का नाम नहीं लेता था।

उम्मीद की जानी चाहिए कि इस बार यह स‌िलसिला थम जाएगा। थमेगा नहीं तो कम तो जरूर हो जाएगा। अगर ऎसा होता है तो इसका असर दिल्ली के पर्यावरण पर भी पड़ेगा। वैसे पहले की तुलना में महानगरों के लोग पर्यावरण के प्रति जागरूक हो गए हैं। बच्चे भी पीछे नहीं हैं। होश स‌ंभालते ही वो स‌मझदारी की बातें करने लगें हैं। नई पीढ़ी को अपनी जिम्मेदारी का एहसास जल्दी होता है। ऎसा मेरा अनुभव है। एक बात और मिठाइयां जरा स‌ंभलकर खाइये-खिलाइयेगा। मिलावटखोरों को स‌िर्फ अपनी आमदनी की फिक्र होती है, किसी की स‌ेहत स‌े उन्हें कोई मतलब नहीं। आप स‌भी को दीपावली की शुभकामनाएं। आपका रवींद्र

रविवार, 4 अक्तूबर 2009

ब्रेकिंग न्यूज की मजबूरी क्यों?

कुछ दिन पहले कई चैनलों वाले बड़े मीडिया ग्रुप के एक छोटे या फिर कहें मंझोले हिंदी चैनल के संपादक को पढ़ रहा था। वह छोटे और मध्यम श्रेणी के चैनलों की परेशानियां गिना रहे थे। उनका कहना था कि छोटे चैनलों की कई मजबूरियां हैं। बकौल संपादक, छोटे चैनल कितना भी अच्छा कर लें, उनका काम उतना नोटिस में नहीं आता जितना कि बड़े चैनलों का। संपादक महोदय की इस बात से असहमत होने की कोई वजह नहीं है। लेकिन इन्हीं तथाकथित मजबूरियों की आड़ लेकर ये छोटे चैनल कुछ भी करने को उतारू हो जाते हैं। छोटे और मंझोले चैनल किस तरह खबरों के साथ खिलवाड़ करते हैं यह किसी से छिपा नहीं है।

एक छोटे चैनल पर ब्रेकिंग न्यूज चली। दिल्ली में मिली अज्ञात लाश। लाश किसकी है। मौत कैसे हुई। किसकी हुई। क्यों हुई। कुछ नहीं मालूम। इसके बावजूद देखते ही देखते यह खबर सभी चैनलों पर ब्रेकिंग न्यूज बनकर चलने लगी। जो खबर किसी अखबार में संक्षिप्त तो क्या बमुश्किल सिंगल कॉलम में छपती और सिर्फ दो-तीन लाइन में खत्म हो जाती, वो चैनलों के लिए ब्रेकिंग न्यूज है। अब सवाल यह उठता है कि अगर अज्ञात लाश मिलना ब्रेकिंग न्यूज है तो रोजाना सैकड़ों ब्रेकिंग न्यूज सिर्फ अज्ञात लाश की ही चलनी चाहिए। कहीं से भी ये डेटा निकाला जा सकता है कि रोजाना हर शहर में एक-दो अज्ञात लाश तो मिल ही जाती हैं। तब तो सभी अज्ञात लाशें ब्रेकिंग न्यूज हैं? आखिर जब तक लाश के पीछे से कोई स्टोरी नहीं निकल के आती तो वह खबर चैनल की मुख्य खबर कैसे बन सकती है? इस लिहाज से देखा जाए तो खुद को नेशनल कहने वाले इन न्यूज चैनलों के हिसाब से उस वक्त देश की सबसे बड़ी खबर वही होती है?

हिंदी न्यूज चैनलों में भेड़चाल का तो कोई जवाब ही नहीं। एक चैनल पर कोई खबर चलती है और अगले ही पल वही खबर सभी चैनलों पर ब्रेकिंग बनकर नजर आने लगती है। कोई चैनल यह तक पता करने की जहमत नहीं उठाता कि खबर सच भी है या नहीं। अगर झूठ निकली तो सिर्फ बेशर्मी से उसे हटा लिया जाता है। इससे ज्यादा ये चैनल कुछ कर भी नहीं सकते। उम्मीद भी नहीं रखनी चाहिए।

एक खबर चलती है तो दूसरे चैनल में उसी वक्त वही खबर चलाने की हड़बड़ी मच जाती है। समझ में यह नहीं आता कि अगर कोई खबर चैनल पर पहले से चल रही है तो दूसरे चैनल उसे कॉपी करने में इतनी जल्दबाजी क्यों दिखाते हैं? क्या वो यह सोचते हैं कि उनके चैनल पर वही खबर चलेगी तो दर्शक उस चैनल को छोड़कर उनका चैनल देखने लगेंगे? दर्शकों को भी तो वेराइटी चाहिए या नहीं? सभी चैनलों पर एक वक्त में एक ही खबर चलेगी वो भी अज्ञात लाश मिलने जैसी तो जरा सोचिए कोई न्यूज चैनल क्यों देखेगा। दिल्ली या नोएडा में अज्ञात लाश मिली तो मुंबई, पटना या रायबरेली में बैठे दर्शक को उससे क्या मतलब है? मतलब इसलिए भी नहीं हो सकता क्योंकि चैनल के पास उस लाश के बारे में कोई जानकारी नहीं है। हो सकता है वह कोई नशेड़ी हो, गंजेड़ी हो? चैनल तर्क दे सकते हैं कि नशेड़ी गंजेड़ी का मरना भी तो खबर है। जरूर है। लेकिन पता तो हो कि अमुक व्यक्ति नशेड़ी है। गंजेड़ी है। चैनल को तो उसके बारे में कुछ भी नहीं पता। फिर भी वह ब्रेकिंग न्यूज है।

कई बार चैनलों में ब्रेकिंग न्यूज चलाने की इतनी हड़बड़ी होती है कि ठीक से खबर कन्फर्म तक नहीं की जाती। दूसरा चैनल चला रहा है, इसलिए चलाना है। फौरन चलाना है। पता नहीं इसके पीछे क्या सोच है? भले ही खबर बाद में गलत निकले। झूठी निकले। मुंबई हमला, दिल्ली बम धमाके जैसी बड़ी घटना या बड़ी खबर सभी चैनलों पर एक साथ चले तो समझ में आता है क्योंकि ऐसी खबर लगातार अपडेट होती रहती है। किसी चैनल के पास कोई इन्फार्मेशन होती है तो किसी दूसरे के पास कोई और। दर्शक भी ज्यादा से ज्यादा जानने के लिए चैनल बदलता रहता है। लेकिन हर खबर को एक ही तराजू से तौलने की आदत के पीछे आखिर कौन सा तर्क है? आखिर यहां कौन सी मजबूरी है? दूसरे चैनल को फॉलो करके क्या कोई चैनल ये साबित कर सकता है कि वह सबसे तेज है। कतई नहीं। फिर यह अफरा-तफरी आखिर क्यों?

संपादक महोदय, जब आप अफरा-तफरी मचा कर रखेंगे। बड़े चैनलों को फ़ॉलो ही करते रहेंगे। तो आपको कोई नोटिस भी करे तो क्यों? क्या भेड़चाल वाले इन चैनलों में से कोई यह दावा कर सकता है कि वह सबसे अलग है उसे ही देखें? जो अलग है वह देखा जाता है। यह फैक्ट है। इंडिया टीवी इसका उदाहरण है। यह अलग बात है कि अलग दिखने के लिए इंडिया टीवी वह दिखाता है जो खबर नहीं होती। कई बार दर्शकों से धोखा किया जाता है। लेकिन अलग करेंगे तो देखे जाएंगे। यह साबित हो चुका है। इसलिए चैनलों के संपादकों से गुजारिश है कि दूसरे चैनलों को फॉलो करने की बजाय अलग करें, अलग सोचें। उसके बाद आप जरूर देखे जाएंगे। जो पेश करें वह सच हो तो और भी बेहतर। झूठ दिखाएंगे तो एक न एक दिन एक्सपोज हो ही जाएंगे।

शुक्रवार, 18 सितंबर 2009

स‌नसनी बोले तो स‌न्नाटे को चीरते श्रीवर्धन

एंकर श्रीवर्धन त्रिवेदी के बगैर सनसनी के बारे में सोचना भी मुश्किल है। आज की तारीख में सनसनी और श्रीवर्धन एक दूसरे के पूरक बन चुके हैं। कल्पना कीजिए किसी दिन स्टार न्यूज पर सनसनी हो, लेकिन एंकर के तौर पर सेट पर श्रीवर्धन न हों तो क्या होगा? जाहिर है सब कुछ अधूरा-अधूरा सा लगेगा। दर्शक मिस करेंगे उस चेहरे को। उस रौबदार आवाज को, जो बरसों से टीवी के परदे पर सनसनी बनकर गूंज रही है। कामयाबी का इतिहास गढ़ रही है। वैसे तो एक कार्यक्रम की सफलता के पीछे एक पूरी टीम का हाथ होता है। लेकिन टीम तो दूसरी भी बनाई जा सकती है, श्रीवर्धन नहीं। अगर मैं यह लिख रहा हूं तो कहीं से भी अतिशयोक्ति नहीं कर रहा हूं। लिम्का बुक में श्रीवर्धन का नाम आना कोई अश्चर्य की बात नहीं है। वह वाकई में बधाई के हकदार हैं। हर इंसान की तबीयत कभी न कभी तो खराब ही होती है। कोई न कोई तो ऐसा लम्हा आता है जब उसका सारा रूटीन गड़बड़ा जाता है। वह काम नहीं कर पाता। या कर नहीं सकता। तो क्या श्रीवर्धन की जिंदगी में ऐसे लम्हे कभी नहीं आए? कभी कोई अड़चन नहीं आई? वह लगातार कैसे उपलब्ध रहे? यकीनन ऐसे कई मौके आए। कई लम्हे आए। लेकिन हर बार श्रीवर्धन ने सनसनी को प्राथमिकता दी। मुझे याद है एक दिन वह शो की एंकरिंग कर रहे थे और उन्हें तेज बुखार था। इसके बावजूद उनके चेहरे पर न तो कोई शिकन थी औऱ ना ही उनकी आवाज लरज रही थी। हां अगर कोई उनकी आंखों को पढ़ता तो शायद उनकी मुश्किल को समझ सकता था।

उस मौके को भला कैसे भुलाया जा सकता है जब श्रीवर्धन के पुश्तैनी घर में आग लग गई थी। इतना ही नहीं जब उनकी मां की तबीयत बुरी तरह खराब थी तब भी उन्होंने अपने घर यानी जबलपुर से सनसनी की शूटिंग जारी रखी थी। ऐसे छोटे-मोटे मौके तो कई बार आए जब श्रीवर्धन को दो-तीन दिन दिल्ली से बाहर रहना पड़ा। ऐसे में एडवांस एपिसोड रिकार्ड किए गए। ये अलग बात है कि दर्शकों को इस बात का एहसास तक नहीं हो पाता था कि वो रिकॉर्डेड एपिसोड देख रहे हैं। दर्शक हमेशा से यही समझते आए हैं कि सनसनी का लाइव प्रसारण होता है।

22 नवंबर 2004 को जब सनसनी की शुरूआत हुई तब यह हफ्ते में पांच दिन दिखाया जाता था। ऐसे में एंकर के साथ-साथ टीम से जुड़े बाकी सदस्यों को भी दो दिन का रिलैक्स मिल जाता था। लेकिन लोकप्रियता के रथ पर सवार सनसनी ऊंचाईयां पर ऊंचाइयां छूता गया। मुझे याद है कि शायद ही कोई ऐसा हफ्ता गुजरता था जब स्टार न्यूज के टॉप टैन प्रोग्राम की फेहरिस्त में सनसनी न शामिल रहता हो। चैनल के प्रोग्रामों की रेटिंग में अक्सर सनसनी पहले या दूसरे नंबर पर रहता था। वह स्थिति अब भी बरकरार है, क्योंकि अब भी श्रीवर्धन त्रिवेदी इसके एंकर हैं। श्रीवर्धन के रूप में सनसनी लगातार सन्नाटे को चीर रही है। बिना रूके। बिना थके। निश्चत तौर पर यह सिलसिला आगे भी जारी रहेगा। सनसनी की बंपर कामयाबी को देखते हुए ही इसे 2005 में हफ्ते में सातों दिन प्रसारित करने का फैसला किया गया।

सनसनी को अगर दर्शकों का प्यार मिला तो इसके आलोचक भी कम नहीं हैं। खासकर श्रीवर्धन की हेयर स्टाइल और प्रस्तुतिकरण पर सवाल उठाए गए। क्राइम को सनसनीखेज तरीके से पेश करने के भी आरोप लगे। लेकिन सनसनी लगातार शिखर पर चढ़ता रहा। बढ़ता रहा। श्रीवर्धन त्रिवेदी को भले ही लोग सनसनी के एंकर के तौर पर जानते हैं, लेकिन यह शायद कम लोगों को ही मालूम है कि वो एक बेहतरीन एक्टर भी हैं। नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा से पास आउट हैं। कई शानदार और कामयाब नाटकों में अभिनय कर चुकें हैं। स्क्रिप्टिंग और निर्देशन कर चुके हैं। अब भी वह सक्रिय रूप से थियेटर से जुड़े हैं। एक एनजीओ के माध्यम से उन्होंने कई गरीब बच्चों की अभिनय प्रतिभा को निखारा है। उनसे अभिनय सीखकर कई बच्चे तो फिल्मों में काम भी पा चुके हैं। खैर, मैं श्रीवर्धन पर कोई जीवनी लिखने नहीं बैठा। इस आलेख का मकसद सिर्फ श्रीवर्धन को उनकी कामयाबी (लिम्का बुक में नाम दर्ज) की बधाई देना और उनसे जुड़ी यादों को ताजा करना है।

गुरुवार, 13 अगस्त 2009

हिंदी ब्लॉग जगत के चोरों से सावधान

इंटरनेट पर कुछ सर्च कर रहा था तभी अचानक कुछ ऐसा मिला जिसे देखकर अचरज में पड़ गया। निगाह वहीं पर अटक गई। पहली बार तो यकीन ही नहीं हुआ कि ऐसा भी हो सकता है। मुझे याद है कि ब्लॉगिंग के शुरुआती दौर में एक ब्लॉगर ने मुझ पर किसी दूसरे का आयडिया चुराने का आरोप लगाया था। इस आरोप ने मुझे बेहद खिन्न कर दिया था। मैंने ना सिर्फ आरोपों का जवाब दिया बल्कि उनके इल्जामों को झूठा भी साबित किया। मैं तब भी यही सोचता था कि इंटरनेट पर जहां कही भी किसी से कुछ छिपा नहीं है वहां भला कोई ऐसा कैसे कर सकता है। अगर करने की हिमाकत करता भी है तो आज नहीं तो कल वह सबके सामने आ ही जाएगा।

यह मेरी सोच थी। लेकिन अब मैं जिन साहब की बात करने जा रहा हूं वह शायद ऐसा नहीं सोचते। तो मैं बता रहा था कि कुछ सर्च करते वक्त मेरी नजर जिस पर अटकी वह एक ब्लॉग का लिंक था। लिंक के साथ जो तीन-चार पंक्तियां नजर आ रही थीं वो जानी पहचानी थीं। दरअसल वह मेरी ही लिखी पोस्ट थी जो दूसरे ब्लाग पर मौजूद थी। इस ब्लाग का नाम है tv 9 mumbai और ब्लाग के लेखक हैं गिरीश सिंह गायकवाड़। ब्लाग के नाम से लगता है कि ये साहब टीवी नाइन ग्रुप में काम करते हैं। मेरी पोस्ट का शीर्षक था 'वह न्यूज चैनल का प्रोड्यूसर है'। यह पोस्ट मैंने अपने ब्लॉग आशियाना पर 2 दिसंबर, 2008 को लिखी थी। गिरीश गायकवाड़ साहब ने 9 फरवरी, 2009 को बिना किसी कर्टसी के इसे कॉपी करके अपने ब्लाग tv 9 mumbai और Paravarchya Goshti पर अपने नाम से पोस्ट कर लिया। हैरत की बात है कि उन्होंने ना तो छोटा सा शब्द साभार लिखने की जहमत उठाई औऱ ना ही मुझे इस बाबत सूचित किया। इसके उलट गिरीश साहब ने इस पोस्ट को इस तरह अपने ब्लाग पर पेश कर रखा जैसे वह उनकी मौलिक पेशकश हो। इसे देखकर मेरे आश्चर्य की सीमा नहीं है।

बात सिर्फ इतनी सी ही नहीं है। जब मैंने गिरीश गायकवाड़ का ब्लॉग tv 9 mumbai देखना शुरू किया तो वहां मुझे अपनी एक और रचना मिल गई। इस रचना का शीर्षक है फिल्म सिटी का कुत्ता। यह कविता मैंने अपने ब्लॉग पर 22 अगस्त, 2007 को पोस्ट की थी। इसे भी गिरीश साहब ने 5 मई, 2009 को इस तरह पोस्ट कर रखा है जैसे कि वह खुद उनकी रचना है। मुझे यह समझ में नहीं आ रहा कि अगर आप किसी दूसरे की रचना अपने ब्लॉग पर प्रस्तुत ही करना चहते हैं तो असली लेखक का नाम, उसके ब्लॉग का नाम और तीन अक्षर का शब्द साभार लिखने में आखिर बुराई क्या है? क्या गिरीश गायकवाड़ इतने नासमझ हैं कि वह ये नहीं जानते कि किसी की रचना चुराना कानूनन भी अपराध है। अचंभे की बात है कि वह इस अपराध को खुलेआम कर रहे हैं। मेरा खयाल है कि इनके ब्लॉग को अच्छी तरह खंगाला जाए तो दूसरे कई लेखकों को रचनाएं भी इनके नाम से नजर आ सकती हैं। अब मैं अपने ब्लॉगर बंधुओं से पूछना चाहूंगा कि मुझे क्या करना चाहिए और ऐसे लोगों पर लगाम लगाने के लिए ब्लॉग जगत को क्या करना चाहिए?

रविवार, 24 मई 2009

ताकतवर होते बेजान पत्ते


शुक्रवार, 15 मई 2009

मार्केटिंग का हिंदी फंडा

एक लड़के को सेल्समेन के इंटरव्यू में इसलिए बाहर कर दिया गया क्योंकि उसे अंग्रेजी नहीं आती थी। लड़के को अपने आप पर पूरा भरोसा था। उसने मैनेजर से कहा कि आपको अंग्रेजी से क्या मतलब ? अगर मैं अंग्रेजी वालों से ज्यादा बिक्री न करके दिखा दूं तो मुझे तनख्वाह मत दीजिएगा। मैनेजर को उस लड़के बात जम गई। उसे नौकरी पर रख लिया गया।

फिर क्या था, अगले दिन से ही दुकान की बिक्री पहले से ज्यादा बढ़ गई। एक ही सप्ताह के अंदर लड़के ने तीन गुना ज्यादा माल बेचकर दिखाया। स्टोर के मालिक को जब पता चला कि एक नए सेल्समेन की वजह से बिक्री इतनी ज्यादा बढ़ गई है तो वह खुद को रोक न सका। फौरन उस लड़के से मिलने के लिए स्टोर पर पहुंचा। लड़का उस वक्त एक ग्राहक को मछली पकड़ने का कांटा बेच रहा था। मालिक थोड़ी दूर पर खड़ा होकर देखने लगा।
लड़के ने कांटा बेच दिया। ग्राहक ने कीमत पूछी। लड़के ने कहा-800 रु.। यह कहकर लड़के ने ग्राहक के जूतों की ओर देखा और बोला-सर, इतने मंहगे जूते पहनकर मछली पकड़ने जाएंगे क्या? खराब हो जाएंगे। एक काम कीजिए, एक जोड़ी सस्ते जूते और ले लीजिए। ग्राहक ने जूते भी खरीद लिए। अब लड़का बोला-तालाब किनारे धूप में बैठना पड़ेगा। एक टोपी भी ले लीजिए। ग्राहक ने टोपी भी खरीद ली। अब लड़का बोला-मछली पकड़ने में पता नहीं कितना समय लगेगा। कुछ खाने पीने का सामान भी साथ ले जाएंगे तो बेहतर होगा। ग्राहक ने बिस्किट, नमकीन, पानी की बोतलें भी खरीद लीं।

अब लड़का बोला-मछली पकड़ लेंगे तो घर कैसे लाएंगे। एक बॉस्केट भी खरीद लीजिए। ग्राहक ने वह भी खरीद ली। कुल 2500रुपये का सामान लेकर ग्राहक चलता बना। मालिक यह नजारा देखकर बहुत खुश हुआ। उसने लड़के को बुलाया और कहा-तुम तो कमाल के आदमी हो यार! जो आदमी केवल मछली पकड़ने का कांटा खरीदने आया था उसे इतना सारा सामान बेच दिया? लड़का बोला-कांटा खरीदने? अरे स‌र, वह आदमी तो सेनिटरी पैक खरीदने आया था। मैंने उससे कहा अब चार दिन तू घर में बैठा-बैठा क्या करेगा। जा के मछली पकड़। (एक दोस्त ने ईमेल स‌े भेजा )

मंगलवार, 12 मई 2009

इंटनरेट से ऐसे करें कमाई

इंटरनेट पर आमतौर पर आजकल लोग कुछ घंटे तो बिताते ही हैं। ब्लागिंग से जुड़े लोग नियमित तौर पर इसका इस्तेमाल करते हैं। ब्लागिंग भले ही मुफ्त हो, लेकिन इंटरनेट सर्विस मुफ्त में नहीं मिलती। इसके लिए हर महीने पैसा अदा करना पड़ता है। ब्लागिंग करने वाले लोग इस पर अपना जो समय देते हैं उसकी तो कोई कीमत ही नहीं। हालांकि हिंदी में ज्यादातर लोग स्वांत: सुखाय लेखन कर रहे हैं। लेकिन जरा सोचिए कितना अच्छा हो कि अगर इंटरनेट के जरिये कुछ आमदनी भी होने लगे। ज्यादा नहीं तो नेट कनेक्शन पर होने वाला खर्च तो वसूल हो ही जाए। गूगल एडसेंस तो फिलहाल हिंदी में लिखने वालों पर मेहरबान नहीं है। लिहाजा मैं इसी उधेड़बुन हूं कि इंटरनेट पर और क्या जरिया हो सकता जिससे कुछ आमदनी भी हो। अगर आप नेट के जरिये कुछ कमाने की सोचते भी हैं तो ज्यादातर वेबसाइट पहले सदस्यता के रूप में अच्छी-खासी रकम वसूल लेती हैं। इस तरह उनकी कमाई तो हो जाती है। आपकी हो या न हो। बहरहाल कुछ दिन पहले मेरे एक दोस्त ने मुझे कुछ लिंक भेजे जिनमें एक-दो वेबसाइट का पता था। यह कुछ-कुछ नेटवर्किंग जैसा मामला था। खास बात यह थी कि इसमें मुझे एक पैसा भी खर्च नहीं करना था। ज्वाइन करने का तरीका वैसा ही था जैसे आप एक साधारण ईमेल एड्रेस बनाते हैं। या फिर कोई छोटा सा फार्म भरते हैं। मैंने यह सोचकर ज्वाइन कर लिया कि ट्राई करने में बुराई क्या है। आप भी ट्राई करना चाहते हैं तो एक लिंक दे रहा हूं। इस पर क्लिक करें और ज्वाइन कर लें। नेटवर्क में शामिल होने के बाद आप मुफ्त में जितने चाहें उतने एसएमएस भी भेज सकते हैं। समय-समय पर कई आफर्स भी मिलते रहते हैं जो आपकी कमाई बढ़ाने में मददगार होते हैं। नेटवर्क में शामिल होने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें....

बधाई हो। आप एक बड़े नेटवर्क से जुड़ चुके हैं। अब इसमें अपने दोस्तों को जोड़कर इसे और बढ़ाइय़े, आपकी कमाई खुद ब खुद बढ़ती जाएगी। कमाई बढ़ाने के लिए बेहतर होगा कि आप इस तरह के विभिन्न नेटवर्क ज्वाइन कर लें। यह एक और नेटवर्क का लिंक है। इस पर क्लिक करें। ज्वाइन करने का तरीका बेहद आसान है। कुछ रकम तो ज्वाइन करते ही आपके खाते में आ जाएगी। दूसरा नेटवर्क ज्वाइन करने के लिए यहां क्लिक करें.....

हां, ऐसे नेटवर्क में शामिल होने के लिए आपके पास एक अदद मोबाइल फोन नंबर जरूर होना चाहिए। नेटवर्क ज्वाइन करने के बाद आपके मोबाइल पर एसएमएस आने शुरू हो जाएंगे। हर एसएमएस के लिए कंपनी आपको कुछ एमाउंट देती है। वैसे तो वह एमाउंट शुरुआत में बहुत मामूली लगता है। लेकिन बूंद-बूंद से ही घड़ा भरता। इसमें आप यह आप्शन भी सलेक्ट कर सकते हैं कि एसएमएस किस वक्त पर आएंगे। यानि कितने बजे से कितने बजे के बीच। ऐसा नहीं है कि एसएमएस फालतू होते हैं। बल्कि एसएमएस के जरिये विभिन्न कंपनियां अपना प्रचार करती हैं। आप टीवी पर इश्तेहार देखते हैं। अखबार में विज्ञापन पढ़ते हैं तो मोबाइल पर भी क्यों नहीं। कुछ लोग इसके आलोचक और विरोधी भी हो सकते हैं। इसलिए मैं यही कहूंगा कि यह अपनी च्वाइस का मामला है। जिसे ठीक लगे वह अपनाए। जिसे ठीक न लगे वह इससे दूर रहे। मोबाइल फोन के साथ-साथ इसमें ईमेल का भी आप्शन होता है। अगर आपने वह सलेक्ट कर लिया तो आपको ईमेल भी भेजे जाएंगे। इन ईमेल्स को पढ़ने पर भी आपको एक निश्चित राशि अदा की जाएगी। जैसे ही आप इस वेबसाइट पर रजिस्टर करेंगे आपका एक एकाउंट बन जाएगा, जिसमें पैसे इकट्ठे होते रहेंगे। इनकम बढ़ाने के भी कई तरीके हैं। आप अपने नेटवर्क को जितना बढ़ाएंगे आपकी कमाई भी उतनी ही बढ़ती जाएगी। अपने नेटवर्क में नए-नए लोगों को जोड़कर आप ऐसा कर सकते हैं। इसमें भी कोई पैसा खर्च नहीं करना है। सबसे अहम बात यह है कि इसमें किसी तरह का कोई फ्रॉड नहीं है। वेबसाइट की तरफ से आपसे कोई पैसा नहीं लिया जा रहा है। इसलिए अगर बैठे-बिठाए कुछ पैसा हाथ आ जाता है तो मेरा खयाल है इसमें कुछ गलत नहीं है। अब आप सोच रहे होंगे कि इससे वेबसाइट को क्या फायदा होता है। तो हम बता दें कि पहला तो यह कि उसके पास एक डेटाबेस तैयार हो जाता है। दूसरा यह कि जिन कंपनियों के प्रचार के रूप में वह एसएमएस भेजती है उनसे सर्विस चार्ज वसूल करती है। लेकिन आपसे कुछ नहीं वसूलती, बल्कि आपको एसएमएस और ईमेल रिसीव करने के बदले पैसे दिए जाते हैं। रकम चेक के जरिये आपके दिए गए पते पर भेज दी जाती है। तो फिर देर किस बात की। अगर ठीक लगता है तो फिर शामिल हो जाइये इस नेटवर्क में।

शनिवार, 9 मई 2009

...तो फिर कौन है असली पप्पू?

-प्रशांत

अगर आप भारत के नागरिक हैं और लोकसभा चुनावों में वोट डालने नहीं जाते हैं, तो आप पप्पू हैं, ये हम नहीं कह रहे चुनाव आयोग की ओर से जारी सारे विज्ञापनों में यही बताने की कोशिश की गई है... लेकिन आप अगर पोलिंग बूथ पर जाएं, आपके पास मतदाता पहचान पत्र भी हो और पिछले कई चुनावों से आप वोट डालते रहे हों, और तब भी आपको वोट देने का मौका नहीं मिले, तो आप क्या कहेंगे। पप्पू कौन?

इससे भी बड़ी बात तो ये कि आप उस जगह के स्थायी निवासी हों, आपके नाम पर एक अदद घर भी हो, आपके नाम से बिजली विभाग ने मीटर लगा रखा हो,आप करीब 9 साल से एक ही जगह पर रह रहे हों, आप कई बार वोट डाल चुके हैं और तब भी आपका नाम वोटर लिस्ट से गायब हो, तब भी क्या आप पप्पू कहलाएंगे।

एक और दृश्य-आप बिना वोट डाले लौटकर घर आ रहे हों और आपकी बिल्डिंग की कभी रखवाली करने वाला एक नेपाली चौकीदार रास्ते में मिल जाए और ये कहे, कि सर, वोटर लिस्ट में हमारा भी नाम है, तब आपको कैसा लगेगा?

जी हां, मैं किसी और की नहीं अपनी आपबीती बयान कर रहा हूँ। गुरुवार 7 मई को चौथे चरण में गाजियाबाद में वोट डाला गया। एक पढ़ा-लिखा शहरी होने के नाते मैं भी सुबह उठकर वोट डालने के इरादे से पोलिंग बूथ पर गया। मेरे हाथ में भारत के चुनाव आयोग की ओर से जारी मतदाता पहचान पत्र था। हां भाग संख्या पता नहीं था, लेकिन अपने याददाश्त के मुताबिक और अपनी बिल्डिंग के दूसरे लोगो से मिली जानकारी के आधार पर अपने क्षेत्र के पोलिंग बूथ पर पहुंच गया। वहां बूथ के बाहर बैठे पोलिंग एजेंट से पूछा कि भाई मेरा नाम किस लिस्ट में है और किस बूथ नंबर पर मुझे वोट डालना है, अपनी सूची में देखकर ये बता दो। वहां बेतहाशा भीड़ मौजूद थी, लोग अपने अपने बूथ के बारे में जानकारी हासिल करने की होड़ लगाए थे। धक्का मुक्की हो रही थी, पहले तो मैं, इस अफरा-तफरी में थोडा पीछे हो लिया और अपनी बारी का इंतजार करने लगा।

काफी देर इंतजार करने के बाद भी जब मेरी बारी नहीं आई, तो मैं आगे बढ़ा और एक बार फिर पोलिंग एजेंट से आग्रह किया। फिर वही हाल... करीब घंटाभर गुजर जाने के बाद मेरा धैर्य जवाब देने लगा, तो मैं भी बाकी लोगों की तरह जबरदस्ती घुस गया। तब जाकर पोलिंग एजेंट को इस बात का ख्याल आया कि मैं काफी देर से खडा हूं। उसने मेरा कार्ड देखा और ये कह चलता किया कि आपका नाम इस बूथ पर नहीं, दूसरे बूथ पर है।

वोट देने की लालसा लिए मैं दूसरे बूथ पर जा पहुंचा। वहां भी वैसा ही हाल नजर आया। फिर मैं पोलिंग एजेंट से आग्रह कर खड़ा हो गया। काफी देर इंतजार करने के बाद भी जब बात नहीं बनी, तो उससे कड़क आवाज में कहा कि भाई आखिर तुमने ये लाइन क्यों लगा रखी है, जब अपने पहचान वालों का ही नाम तुम्हें बताना है, तो यहां एक बोर्ड टांग दो कि यहां सिर्फ पहचानवालों की ही पर्ची दी जाती है। कृपया दूसरे लोग यहां लाइन में ना लगें। मेरे इन सवालों ने उसे थोड़ा सचेत किया और वो मेरे जैसे कई लोगों से वोटर कार्ड लेकर सूची में नाम तलाश करने लगा।

काफी देर बाद मेरी बारी आई। तो उसने एक-एक कर सभी सूचियों में खोज डाला, लेकिन मेरा नाम कहीं नहीं था। मैं हैरान रह गया कि पिछले कई चुनावों में वोट डाल चुका हूं और मेरे पास मतदाता पहचान पत्र भी है, लेकिन इस बार क्या हो गया कि मेरा नाम नहीं है।

लेकिन मैं भी हार मानने को तैयार नहीं था, हर कीमत पर अपना नाम खोज वोट डालना चाहता था। मैं पहुंच गया पोलिंग बूथ के अंदर कि शायद वहां पता चल जाए। बूथ के अंदर कुछ कर्मचारी बैठे थे, जिनके पास पूरी सूची मौजूद थी। लोग अपने-अपने नाम खोजने का आग्रह कर रहे थे, तो कुछ नाम नहीं मिल पाने को लेकर बहस भी कर रहे थे। सबकी जुबां पर एक ही सवाल था, कि पिछले कई चुनावों में नाम मौजूद था, वोट भी डाला है और वोटर आईकार्ड भी है, तब मेरा नाम क्यों नहीं है। बाकी लोगों की तरह मैंने भी उस कर्मचारी से नाम खोजने का आग्रह किया, तो उनका सवाल था कि भाग संख्या और वोटर संख्या बताईए। उन्हें शायद इस बात का ध्यान नहीं रहा कि अगर भाग संख्या और वोटर संख्या पता होता तो, मुझे उनके पास जाने की जरुरत ही नहीं पड़ती। मैं सीधे बूथ पर जाता और वोट डाल अपने घर लौट जाता।

जब वहां भी कुछ पता नहीं चल पाया, तब बूथ के अंदर गया, वहां एक बूथ खाली था, जहां कोई वोटर मौजूद नहीं था। मैंने वहां मौजूद पुलिस बल से गुजारिश की, तो उन्होंने अंदर जाने की इजाजत दे दी। मैं अंदर जाकर पोलिंग कर्मचारियों से बात की कि मेरे पास वोटर आईकार्ड है, लेकिन सूची में मेरा नाम नहीं मिल पा रहा, क्या कोई तरीका है कि आईकार्ड को देखकर इससे अंदाजा लगाया जा सके कि आखिर किस सूची में मेरा नाम होगा। तो उस सज्जन ने कहा कि नहीं वोटर कार्ड से कुछ पता नहीं चल पाएगा। आपको भाग संख्या पता करना होगा।

थक हार कर करीब चार घंटे की मशक्कत के बाद मैं बिना वोट डाले घर लौटने लगा। लेकिन एक पत्रकार के मन को ये नहीं भाया। सोचा कुछ दूसरे बूथों का चक्कर लगा लिया जाए। क्या पता यहां की तरह दूसरे बूथों पर भी कुछ ऐसा ही हाल हो। आसपास के करीब पांच पोलिंग बूथों पर गया। हर जगह ऐसे दर्जनों लोग मिले, जिनके पास वोटर आई कार्ड तो मौजूद था और पिछले चुनावों में वोट भी डाल चुके थे, लेकिन इस बार नाम लिस्ट से गायब था।

ऐसे में ये सवाल उठता है कि चुनाव आयोग ने वोटर आईकार्ड अनिवार्य करना चाहता है लेकिन वोटर आईकार्ड मौजूद होने के बाद भी लोगों के नाम वोटर लिस्ट से गायब क्यों हैं जबकि उन लोगों का नाम मौजूद हैं, जो ना तो भारत के नागरिक हैं और ना ही उनका कोई स्थायी पता है। खैर, सबसे जरुरी सवाल कि असली पप्पू कौन? वोट देने के इरादे से घर से निकला और करीब चार घंटे तक धक्के खाकर लौटने वाला वोटर या फिर ऐसी व्यवस्था देनेवाला सिस्टम? (साभार-देशकाल डॉट कॉम)

रविवार, 26 अप्रैल 2009

राज ठाकरे के स‌मर्थन में...

कुछ दिन पहले मुझे एक ईमेल प्राप्त हुआ। यह ईमेल मेरे एक अजीज दोस्त ने भेजा था। फारवर्डेड मेल था लिहाजा यह नहीं पता चल पाया कि इसका जनक कौन है। लेकिन यह जरूर बताना चाहूंगा कि जिस दोस्त ने मुझे यह मेल भेजा वह मराठी है। मेल अंग्रेजी में था। मेरा ब्लॉग हिंदी में है। इसलिए मैंने पूरे मेल को हिंदी में हूबहू ट्रांसलेट करने की कोशिश की है। ईमेल इस प्रकार है....अगर आप राज ठाकरे के स‌मर्थक हैं तो कृपया निम्नलिखित बातों का ध्यान रखें...

1. अगर आपका बच्चा मेहनत के बावजूद क्लास में फर्स्ट नहीं आ पाता तो उसे स‌िखाइये कि ज्यादा मेहनत करने की जरूरत नहीं। बल्कि जो बच्चा पढ़ने में तुमसे तेज है उसे पीटो और क्लास स‌े बाहर कर दो। तुम अपने आप फर्स्ट हो जाओगे।

2. स‌ंस‌द स‌िर्फ दिल्लीवालों के लिए है क्योंकि वह दिल्ली में स्थित है।
3. राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और केंद्र स‌रकार के दूसरे स‌भी नेता दिल्ली के होने चाहिए।
4. मुंबई में हिंदी फिल्में नहीं स‌िर्फ मराठी फिल्में बनाई जानी चाहिए।
5. राज्य की बसों, ट्रेनों और फ्लाइट्स पर सिर्फ लोकल लोगों की भर्ती होनी चाहिए और दूसरे राज्यों की बसों, ट्रेनें और फ्लाइट्स महाराष्ट्र आने पर रोक लगा दी जानी चाहिए।
6. विदेशों में और भारत के दूसरे राज्यों में काम करने वाले मराठियों को वापस बुला लेना चाहिए, ताकि वो लोकल रोजगार पर कब्जा जमा स‌कें और बाहरी लोगों को खदेड़ स‌कें।
7. महाराष्ट्र में शंकर, गणेश और पार्वती की पूजा नहीं होनी चाहिए क्योंकि ये देवता उत्तर (हिमालय) के हैं।
8. ताजमहल देखने पर रोक होनी चाहिए क्योंकि वह स‌िर्फ उत्तर-प्रदेश वालों के लिए है।
9. महाराष्ट्र के किसानों को केंद्र स‌े मिलने वाली मदद नहीं दी जानी चाहिए क्योंकि यह पैसा पूरे देश स‌े टैक्स के रूप में इकट्ठा किया जाता है। इसलिए कोई मराठी इस पैसे को हाथ कैसे लगा स‌कता है?
10. हमें कश्मीर में आतंकवादियों का समर्थन करना चाहिए क्योंकि वह अपने 'राज्य की आजादी' के नाम पर बेकसूरों को मार रहे हैं। यह स‌ब वो अपने राज्य की आजादी के लिए कर रहे हैं।
11. महाराष्ट्र स‌े स‌भी मल्टीनेशनल कंपनियों को निकाल फेंकना चाहिए। भला वो हमारे राज्य में मुनाफा क्यों कमायें? हमें अपनी लोकल माइक्रोसाफ्ट शुरू करनी चाहिए। महाराष्ट्र पेप्सी और महाराष्ट्र मारुति जैसे प्रोडक्ट लांच करने चाहिए।
12. विदेश में या दूस‌रे राज्यों में बनाए गए स‌ेलफोन, दूसरे राज्य या देश की कंपनी की ईमेल स‌र्विस, टीवी आदि नहीं इस्तेमाल करने चाहिए। विदेशी फिल्में और विदेशी नाटक भी नहीं देखने चाहिए।
13. हमें भूखों मरना कबूल है। दस गुना महंगा स‌ामान खरीदना मंजूर है। लेकिन विदेशी चीजें खरीदना, दूसरे राज्यों की कंपनियों का स‌ामान खरीदना और आयात करना कबूल नहीं।
14. महाराष्ट्र में किसी भी दूस‌रे राज्य के व्यक्ति को उद्योग स्थापित करने की इजाजत नहीं होनी चाहिए।
15. मराठियों को स‌िर्फ लोकल ट्रेनों का उपयोग करना चाहिए। गाड़ियों को मराठी नहीं बनाते और रेलमंत्री भी बिहारी है। इसलिए इनका प्रयोग नहीं करना चाहिए।
16. स‌भी मराठी यह स‌ुनिश्चित करें कि उनके बच्चे महाराष्ट्र में ही जन्म लें, वहीं पढ़ें-लिखें और वहीं बूढ़े होकर मृत्यु को प्राप्त हों। तभी वह एक स‌च्चे मराठी कहलाएंगे।

शनिवार, 18 अप्रैल 2009

इधर स‌े गुजरा था स‌ोचा स‌लाम करता चलूं...

चुनाव के मौसम पर गर्मी का मौसम भारी पड़ने लगा है। मतदान की तारीख तेजी स‌े नजदीक आती जा रही है, लेकिन चुनाव प्रचार उतनी गति नहीं पकड़ रहा है। वजह, मौस‌म की मार। हिम्मत जुटाकर, कार्यकर्ताओं को जोश दिलाकर उम्मीदवार मैदान में निकलते भी हैं तो जनता इतनी 'आलसी' है कि ऎसी चिलचिलाती गर्मी में घर स‌े बाहर ही नहीं निकलना चाहती। लिहाजा जनसभाओं में भीड़ जुटे भी तो कैसे? बड़ी मुसीबत है। जनसभा में भीड़ न जुटी तो क्या 'मैसेज' जाएगा? विरोधी तो मजाक उड़ाएंगे ही, लोगों को भी लगेगा कि इन जनाब के पक्ष में जनसमर्थन नहीं है।

भीषण गर्मी की वजह स‌े स‌ब कुछ ठंडा है। तो क्या करें? किसी कार्यकर्ता ने स‌ुझाया कि पब्लिक नहीं आ रही तो क्या हुआ, क्यों न हम ही पब्लिक के पास चलें? मतलब डोर टू डोर जनसंपर्क? हां वहीं! यह ठीक रहेगा। इसी बहाने नाराज मतदाताओं स‌े भी वोट मांग लेंगे और कह देंगे कि यहां स‌े गुजर रहा था, स‌ोचा आपसे भी मिलता चलूं। इस नाचीज का भी खयाल रखिएगा।

बात जमने लायक थी। नेता जी खुश हो गए। यही ठीक रहेगा। ठीक है, आज स‌े ही शुरू करते हैं। नेता जी उत्साहित थे। इसी बीच एक स‌मझदार स‌े दिखने वाले कार्यकर्ता ने स‌ुझाया...लेकिन स‌र, ध्यान रखिएगा, किसी के दुखड़े स‌े ज्यादा द्रवित न हो जाइएगा। उसकी 'हेल्प' करने की कोशिश तो बिल्कुल न करिएगा वर्ना कहीं आचार स‌ंहिता उल्लंघन के लफड़े में न फंस जाएं। लालू और शिवराज तो बच निकले लेकिन यह दिल्ली है। तभी एक और कार्यकर्ता ने अपना कुछ 'प्रैक्टिकल' सा स‌ुझाव रखा। अरे स‌र, कह दीजिएगा जिसकी जो भी स‌मस्या है, जीतने के बाद स‌ुलझाई जाएगी। अभी तो हम स‌िर्फ आप लोगों की स‌मस्याएं स‌ुनने आए हैं। स‌मस्याएं स‌ुलझाने के लिए तो 'पॉलिटिकल पॉवर' चाहिए। वह तो जीतने के बाद ही मिलेगा न? अभी आप हमारा ध्यान रखिए। जीतने के बाद हम आपका ध्यान रखेंगे। हां अगर कोई मतदाता अपना दुखड़ा कुछ ज्यादा ही रोने लगे तो उसे स‌ांत्वना देकर ही वहां स‌े खिसक लीजिएगा। उसके दुख में ज्यादा 'इन्वाल्व' होने की जरूरत नहीं है। नहीं तो हमारा दुख बढ़ स‌कता है।

बहरहाल, चिलचिलाती गर्मी में डोर टू डोर जनसंपर्क के अलावा कोई रास्ता नहीं है। प्यासे को कुएं के पास जाना ही पड़ता है। लिहाजा नेता जी निकल पड़े हैं, अपने स‌हयोगियों (दरअसल चमचों) के स‌ाथ। कृपया दरवाजा खुला रखें, हो स‌कता है वह आपकी गली स‌े भी गुजरें।

रविवार, 15 मार्च 2009

स्टोव! मेरे स‌वालों का जवाब दो

स्टोव तुम स‌सुराल में ही क्यों फटा करते हो?
मायके में क्यों नहीं ?

स्टोव तुम्हारी शिकार बहुएं ही क्यों होती हैं?
बेटियां क्यों नहीं ?

स्टोव तुम इतना भेदभाव क्यों करते हो ?
स‌मझते क्यों नहीं ?

स्टोव कहां स‌े पाई है तुमने ये फितरत ?
बताते क्यों नहीं ?

स्टोव तुम भीतर स‌े इतने कमजोर क्यों हो ?
अक्सर फट जाते हो ?

स्टोव तुम हमेशा विस्फोट की ही भाषा क्यों बोलते हो ?
क्या तुम्हारे पास आंखें भी हैं ?

स्टोव तुम कैसे देख लेते हो किचन में बहू ही है ?
फटने का फैसला कर लेते हो ?

स्टोव तुम कैसे पहचान लेते हो अपने शिकार को ?
कौन बन जाता है तुम्हारी आंखें ?

स्टोव अब तुम इस कदर खामोश क्यों हो ?
बोलते क्यो नहीं ?

स्टोव यह तो बताओ तुम कब फटना बंद करोगे ?
कुछ तो जवाब दो ?

स्टोव बरसों स‌े पूछ रहा हूं यह स‌वाल अब तो बोलो ?
अब तो यह राज खोलो ?

(बरसों पहले लिखीं थीं यह पंक्तियां। आज अचानक वह मुड़ा-तुड़ा कागज मिल गया। मेरे इन स‌वालों का जवाब अब भी नहीं मिला है। हां, कुछ फर्क जरूर आया है। अब स्टोव की जगह गैस स‌िलेंडर फटने लगे हैं)

शनिवार, 28 फ़रवरी 2009

कुत्ता कहीं का...

2009 कब का आ चुका है। दो महीने गुजर भी चुके हैं। अचानक याद आया कि इस स‌ाल अभी तक हमने कुछ लिखा ही नहीं। स‌ोच रहा हूं कहीं लिक्खाड़ लोग मुझे बिरादरी स‌े बाहर न कर दें। इसीलिए कुछ तो लिख ही डालता हूं। नए स‌ाल के दो महीने गुजर चुके हैं। स‌ब ठीक ही चल रहा है। मंदी अब भी बरकरार है। एक नई बात हुई मेरी कॉलोनी की ऊबड़-खाबड़ स‌ड़क बन गई है। पता नहीं क्यों बन गई। अभी तो चुनाव भी दूर है। स‌ड़क के किनारे गंदी स‌ी जमीन को खोदकर जो नींव डाली गई थी वहां अब ऊंची इमारत खड़ी हो गई है। इतनी ऊंची कि स‌िर उठाकर देखने पर गर्दन दर्द करने लगती है।
मेरी गली का कुत्ता अब भी आदमियों पर भोंकता है। वह नहीं बदलेगा। कुत्ता कहीं का। बिल्लियां अब कम ही नजर आती हैं। कौवे और तोते भी नजर नहीं आते। कभी कभार कबूतर दिख जाते हैं लेकिन वह भी अब गुटुर-गुटुर की बजाय डरावनी आवाज निकालते हैं। पता नहीं क्यों? शायद नाराज हैं हम स‌बसे। हमने ही तो छीना है परिंदों का आशियाना। गेट का चौकीदार अब भी चार हजार महीने में खर्च चलाता है। मंदी न होती तो भी उसका खर्च इतने स‌े ही चलता।
पड़ोसी ने कार ले ली है बड़ी वाली। ख्वाहिशें भी अजीब चीज हैं। छोटे घर में रहता हूं तो बड़ा घर लेने की तमन्ना है। जो छोटी गाड़ी मे चलता है उसे बड़ी गाड़ी की हसरत है। जो 10 हजार की नौकरी करता है उसे 20 हजार की हसरत है। फिलहाल तो मंदी ने स‌बकी हसरतों पर विराम लगा रखा है। लोगों ने स‌पने देखने भी कम कर दिए हैं। बंद नहीं किए। करना भी नहीं चाहिए। स‌पने देखेंगे नहीं तो स‌च कैसे होंगे। कई दोस्तों ने नौकरी बदल ली है। मेरे आफिस के पास घूमने वाला कुत्ता अब मोटा हो गया है। उसने अपना परिवार भी बढ़ा लिया है। शायद उसे पता नहीं कि मंदी चल रही है। कुत्ता कहीं का।
प्रेस वाले ने रेट बढ़ा दिए हैं। स‌ोसायटी के टेक्नीशियन ने भी अपना चार्ज बढ़ा दिया है। शुक्र है स‌ोसायटी वालों ने अपना चार्ज नहीं बढ़ाया। शायद उन्हें पता है कि मंदी का मौसम है। मैं बहुत मंदी-मंदी रट रहा हूं ना? क्या करूं मंदी का ही तो जमाना है। मंदी कई लोगों के लिए तो बड़ी काम की चीज है। कई लोगों ने इसी का स‌हारा लेकर अपने दुश्मनों का स‌फाया करवा दिया। जिसस‌े डर था कुर्सी छिनने का उसी को नौकरी स‌े निकलवा दिया।
एक बात बड़ी अच्छी हुई कई चीजें स‌स्ती हो गईं। अभी एक दिन कोई न्यूज चैनल ढिंढोरा पीट रहा था कि अब स‌ब कुछ स‌स्ता हो गया। जो चाहे ले आओ। ऎस‌े बता रहा था जैसे लूट मच गई हो। आओ-आओ लूट लो। अभी तो दो महीने ही गुजरे हैं। अभी तो बहुत कुछ बाकी है। अरे हां, आज वह गली का कुत्ता फिर मिल गया था। लौटते वक्त। भोंकने लगा। पता नहीं उसे क्या परेशानी है? शायद उसे यह भी नहीं पता कि महंगाई कम हो गई है। वर्ना भोंकने में वक्त क्यों बर्बाद करता। वह भी कहीं जाकर सस्ता माल लूट रहा होता। पता नहीं कब स्मार्टनेस आएगी इसमें। कब स‌ीखेगा। कुत्ता कहीं का।