
जातीय दंभ के मुद्दे पर प्रभाष जोशी को आलोचनाओं का शिकार भी होना पड़ा। अपने एक लेख में बड़बोलापन दिखाते हुए जोशी ने अलग-अलग क्षेत्र की कुछ हस्तियों के नाम गिनाए और यह दावा कर दिया कि वह इसलिए श्रेष्ठ हैं क्योंकि वह ब्राह्मण हैं। प्रभाष जोशी के इस लेख पर बवाल मच गया। समर्थकों को अचरज हुआ कि इतने बड़े पत्रकार के भीतर जातीयता को लेकर इतना दंभ कैसे हो सकता है? आलोचकों को भी यकीन नहीं हुआ कि प्रभाष जोशी ऐसा सोच सकते हैं।
प्रभाष जोशी ने जो कहा ताल ठोंककर कहा। यही उनकी पहचान भी बन गई। जनसत्ता में उन्होंने तकरीबन हर मुद्दे पर लिखा। संघ के खिलाफ उनकी वक्रदृष्टि। क्रिकेट के प्रति पागलपन। पत्रकारिता के प्रति लगाव और ईमानदारी। यही उनकी विरासत बन गई। वह प्रभाष जोशी ही थे जिन्होंने 1983 में जनसत्ता का संपादक पद संभालने के बाद इसे एक ऐसे अखबार की पहचान दिलाई जो बेखौफ होकर लिखता है। बेखौफ होकर अपनी बात कहता है। नतीजा यह हुआ कि प्रभाष और जनसत्ता एक दूसरे के पूरक बन गए। 1995 में जनसत्ता के संपादक पद से रिटायर होने के बाद वह बतौर सलाहकार इस अखबार से जुड़े रहे। सिर्फ जुड़े ही नहीं रहे। लगातार कागद भी कारे करते रहे।
प्रभाष जोशी की जगह को भर पाना नामुमकिन है। जनसत्ता में हर रविवार को छपने वाला उनका कॉलम 'कागद कारे' अब नहीं होगा। जनसत्ता के पहले पन्ने पर क्रिकेट जैसे विषय पर एक से बढ़कर एक रिपोर्ट और टिप्पणियां लिखने वाला भी अब कोई नहीं होगा। जनसत्ता अब भी है लेकिन अब प्रभाष जोशी नहीं हैं। इस सच्चाई को स्वीकार करना ही होगा। उनके चाहने वालों को, उनके आलोचकों को और हम सबको।
4 comments:
दु्खद!! विनम्र श्रृद्धांजलि!!
स्तब्ध कर देने वाली खबर है यह |
यकीं नहीं हो रहा है ,अभी कुछ दिन पहले
उनका ज. ने. वि. में जे.पी.पर धारदार
वक्तव्य सुना था | मुझ युवा लोगों के प्रेरणास्रोत
दूर चले गए , बेहद अफ़सोस है ---
हजारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पे रोती है
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा |
आप ने जिस प्रकार मेरा ब्लाँग पढ़ा उसके लिए धन्यवाद...अभी थोड़ी पहल प्रभाष जोशी के अंतिम दर्शन कर के लौटा हू...वहां ओम थानवी से मेरी बात हुई.....उन्होने कहा कि उनके जोशी जी के जाने के साथ ही कागद कारे भी नहीं आयेगा.....
अब कागद कारे की जरूरत भी नहीं है। मानस उज्ज्वल करते रहेंगे प्रभाष जोशी जी के अनमोल विचार। विनम्र श्रद्धांजलि।
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