बुधवार, 24 दिसंबर 2008

गधे का गुस्सा

बचपन में एक अखबार में पढ़ी थी यह बाल कविता। कविता लंबी थी और अच्छी भी। लेखक का नाम तो नहीं याद लेकिन उसकी कुछ पंक्तियां मुझे अब भी याद हैं। आपस‌े यह स‌ुंदर कविता इसलिए बांट रहा हूं कि अगर किसी को लेखक का नाम पता हो तो जरूर बताएं स‌ाथ ही पूरी कविता मिल जाए तो और भी अच्छा। तो पढ़िये यह कविता। एक गधा चुपचाप खड़ा थाएक पेड़ के नीचेपड़ गए कुछ दुष्ट लड़के उसके पीछेएक ने पकड़ा कान दूसरे ने पीठ पर जोर जमाया और तीसरे ने उस पर कस कर डंडा बरसायाआया गुस्सा गधे कोदी दुलत्ती झाड़फौरन लड़के भागे खाकर उसकी म...

मंगलवार, 2 दिसंबर 2008

वह न्यूज चैनल का प्रोड्यूसर है

अचानक उसकी आवाज तेज हो जाती है। वह जोर-जोर स‌े चिल्लाने लगता है। अभी तक विजुअल क्यों नहीं आए। रिपोर्टर ने स्क्रिप्ट क्यों नहीं भेजी। कैसे खबर चलेगी। फिर अचानक वह अपनी कुर्सी स‌े उठकर इधर-उधर भागने लगता है। यह देखते ही ऑफिस में स‌बको पता चल जाता है कि बॉस आ चुके हैं। जब भी बॉस न्यूज रूम में प्रवेश करते हैं कमोबेश ऎसा ही होता होता है। कभी कोई विजुअल नहीं चल पाता (?) कभी कोई पैकेज रुक जाता है। ऎसा लगता है जैसे स‌भी स‌मस्याओं का बॉस स‌े कोई नजदीकी रिश्ता है। लेकिन न्यूज रूम में स‌बको पता है कि ऎसा क्यों होता है। अगर चुपचाप काम होता रहेगा तो बॉस को पता कैसे चलेगा कि काम हो रहा है। इस‌ीलिए यह तरीका बड़ा कारगर है। बॉस को भी यही लगता है कि देखो बेचारा...

शनिवार, 11 अक्टूबर 2008

कोफ्त

यह पोस्ट मुझे भेजी है मेरे दोस्त राजेश निरंजन ने। राजेश को मैं कई बरस से जानता हूं। वह सामाजिक मसलों को लेकर काफी संवेदनशील हैं। पेशे से पत्रकार हैं। लिहाजा व्यवस्थागत खामियों और तेजी से हो रहे समाजिक पतन को लेकर अक्सर उनकी कोफ्त सामने आ ही जाती है। एक पत्रकार होने के नाते ऐसा होना लाजिमी भी है। यहां ज्यादा महत्वपूर्ण वह दृश्य है जिसे राजेश निरंजन सबके सामने रखना चाहते हैं। आप भी पढ़ें और अपनी राय दें। दोपहर के करीब 12 बजे का वक्त था। मैं दिल्ली मयूर विहार फेज-1 की लालबत्ती से गुजर रहा था। तभी मेरी नजर फुटपाथ पर खड़ी एक अर्धनग्न सांवली सलोनी युवती पर पड़ी। वह कुर्ते से अपने तन को ढकने की कोशिश कर रही थी। चेहरे पर बेबसी का आलम था। आसपास से गुजर...

रविवार, 21 सितंबर 2008

लिटरेचर इंडिया का लोकार्पण

मौका था सॉफ़्टवेयर फ्रीडम डे और हिंदी पखवाड़े का। इस मौके पर शनिवार को लिटरेचर इंडिया की हिन्दी वेब पत्रिका ( www.literatureindia.com/hindi/)का लोकार्पण हुआ। साहत्यिक एवं सांस्कृतिक पोर्टल लिटरेचर इंडिया दो भाषाओं में हैं अंग्रेजी और अब हिंदी। खास बात यह थी कि इस वेब पत्रिका का लोकार्पण पूरी तरह से इंटरनेट पर हुआ। यह पहला ऐसा कार्यक्रम था जिसके तहत किसी पोर्टल का लोकार्पण पूरी तरह ऑनलाइन हुआ। वेब पत्रिका का लोकार्पण शनिवार शाम irc.freenode.net सर्वर पर स‌राय सभागार में हुआ। सराय दिल्ली की मशहूर संस्था सराय (www.sarai.net) का आईआरसी फ्रीनोड पर पंजीकृत चैट रुम है। कवि, पत्रकार एवं अऩुवादक नीलाभ ने इस पोर्टल का लोकार्पण किया। इतिहासकार...

सोमवार, 25 अगस्त 2008

अफसोस बंटी, तुम नहीं रहे

अफसोस बंटीतुम नहीं रहेआखिरकार दिल्ली पुलिस नेतुम्हारी जान ले ही लीपता नहीं कैसेइस बार कामयाब हो गई पुलिसवर्ना हर बार तो तुम ही जीतते थे बाजीअफसोस बंटीतुम नहीं रहेअब टीवी चैनलों का क्या होगा?वो किसे बताएंगे बाइकर्स गैंग का सरगनासड़क पर हुई हर वारदात के लिएकिसे ठहराएंगे जिम्मेदारहर राह चलते लुटेरो कोअब कैसे बताएंगेबंटी गैंग का गुर्गा?कैसे कहेंगे जवाब दो दिल्ली पुलिस?अफसोस बंटीतुम नहीं रहेगोली तो तुमने भी चलाई थी?फिर कोई पुलिसवाले पर क्यों नहीं लगीतुम्हारा निशाना तो बहुत सटीक हैफिर कैसे चूक गए तुमकैसे हार गए तुमअब टीवी चैनल वाले किसके नाम पर फैलाएंगे दहशतकैसे बताएंगे कि रहने लायक नहीं रही दिल्लीकैसे कहेंगेदिल्ली में बढ़ रहे हैं अपराधकैसे कहेंगे...

मंगलवार, 10 जून 2008

तुम्हारा नाम क्या है?

अभी तक बस नहीं आई। लगता है आज फिर बॉस की डांट खानी पड़ेगी। ये बस भी तो रोज लेट हो जाती है। मैंने तुमसे पहले ही कहा था जल्दी करो लेकिन तुम हो कि तुम्हें सजने-संवरने से ही फुर्सत नहीं मिलती। पता नहीं कौन बैठा है वहां तुम्हारी खूबसूरती पर मर-मिटने के लिए। वो बुड्ढा खूसट बॉस...। नेहा बोले जा रही थी और प्रिया चुपचाप सुनती जा रही थी। उसे मालूम था कि यह गुस्सा लेट होने का नहीं है। यह गुस्सा बॉस की डांट खाने का भी नहीं है। वह बचपन से जानती है नेहा को। तब से जब दोनों स्कूल में साथ पढ़ती थीं। अब दोनो साथ-साथ नौकरी भी कर रही थीं।शुक्र है आज सीट तो मिल गई ! कहते हुए नेहा बस के दायीं वाली सीट पर बैठ गई और साथ ही बैठ गई प्रिया। नेहा की सबसे अजीज दोस्त।यह रोज...

मंगलवार, 20 मई 2008

अलगौझा*

चाचा आप क्यों गुस्सा हो गए?आप तो मुझे रोज चूमा करते थेअब कटे-कटे स‌े क्यों रहते हैं?आपने चुन्नू भैया को डांटा क्यों नहीं?उसने आपकी लाई मिठाई मुझे नहीं दी।मुन्नी दीदी भी अब मेरे स‌ाथ लूडो नहीं खेलतींकहती हैं जाओ-अपने भाई के स‌ाथ खेलोबताओ चाचा, तुम मुन्नी दीदी को डांटोगे न?भला चाचा तुम्हें याद है कितने दिन हो गएमुझे कंधे पर बिठाकर हाट घुमाए हुएकोने वाले कमरे में अब ताला क्यों बंद रहता है?वह तो हमारे खेलने का कमरा थाचाची तो मुझे गोद पर स‌ुलाया करती थींउस दिन दुखते स‌िर को दबाने को कहातो क्यों झिड़क दीं?जानते हो चाचा, चाची के कमरे में जाने पर स‌ब मुझे स‌हमी-सहमी निगाह स‌े देखते हैंबताओ न चाचा, ऎसा क्यों हो रहा है?मुझे बहुत डर लगता है।**********************बच्चा...

गुरुवार, 8 मई 2008

मुझे इस‌स‌े क्या लेना-देना?

पहुंचते-पहुंचते लेट हो गया। ऑफिस के ही स‌हायक वर्मा की डेथ हो गई थी। मातमपुर्सी में जाना था। पहुंच गया। अंदर पहुंचते ही मरघट स‌ा स‌न्नाटा महसूस हुआ। बहरहाल, वर्मा के परिजनों स‌े मिलकर दुख प्रकट किया। जहां तक हो स‌का रोनी स‌ूरत बनाई, मुंह लटकाया। स‌भी स‌िर झुकाए बैठे थे। मैं भी बैठ गया। थोड़ी-थोड़ी देर में देख लेता था...कौन क्या कर रहा है...(वाकई शोक स‌भा में बैठना बड़ा बोरिंग काम है) इस स‌क्सेना को देखो ऎसे मुंह लटकाए बैठा है जैसे इसी के घर स‌े जनाजा निकलने वाला हो। बड़ा अपना बनता है, वर्मा स‌े इसकी बिल्कुल भी नहीं पटती थी। लेकिन मुझे इससे क्या लेना-देना।बॉस को देखो...शोक प्रकट करने आया है। यहां भी अपनी स‌ेक्रेटरी को स‌ाथ लाना नहीं भूला। इसके...

मंगलवार, 6 मई 2008

एक गधे का एक्सक्लूसिव इंटरव्यू

आपका जन्म कब और कहां हुआ?-मुझे ठीक-ठीक तो नहीं मालूम, किंतु मेरे दादा, परदादा कहा करते थे हम स‌ीधे स्वर्ग स‌े उतरे हैं। और जहां तक हमारे जन्म के स‌मय की बात है तो निश्चय ही वह कोई शुभ घड़ी रही होगी।जैसा कि आपने बताया कि आपका आगमन स्वर्ग स‌े हुआ है, तो क्या अब आज के हालात में आपको दोबारा मृत्युलोक छोड़कर स्वर्ग जाने का मन नहीं करता?-करता तो बहुत है, लेकिन धरती पर भी तो हमारी कुछ जिम्मेदारियां हैं। अब एकदम स‌े उनसे मुंह मोड़ना भी तो ठीक नहीं लगता और फिर, हमारा मालिक भी तो इतना कड़क और निर्दयी है हम कहीं इधर-उधर जाने की स‌ोच भी नहीं स‌कते। अगर कोशिश भी करते हैं तो उसे पता नहीं कहां स‌े पहले ही खबर हो जाती है। हर जगह उसने अपने जासूस छोड़ रखे हैं।तो...

शुक्रवार, 2 मई 2008

जहां पर्दे की जरूरत है, वहां पर्दा होना चाहिए : कुंवर 'बेचैन'

मंच के स‌ाथ हिंदी कविता की दूरी यद्यपि छायावाद के जमाने स‌े ही बढ़ने लगी थी लेकिन अभी बमुश्किल तीस वर्ष पहले तक मंचीय कविता को आज की तरह कविता की कोई भिन्न श्रेणी नहीं माना जाता था। आज भी शास्त्रीय रुचियों वाले कुछ कवि मंच पर प्रतिष्ठित हैं, लेकिन एक जाति एक जेनर के रूप में मंचीय कविता अब शास्त्रीय रुचि वाले लोगों के बीच कुजात घोषित हो चुकी है। इस विडंबना को लेकर और कुछ अन्य महत्वपूर्ण स‌वालों पर भी प्रस्तुत है मंचीय कविता के प्रतिष्ठित नाम शायर कुंवर 'बेचैन' के स‌ाथ कुछ अरसा पहले हुई रवीन्द्र रंजन की खास बातचीत के प्रमुख अंश-कवि-सम्मेलनों और मुशायरों का जो स्तर पहले देखने को मिलता था वह इधर दिखाई नहीं दे रहा है। क्या आप को भी ऎसा लगता है कि...

शनिवार, 1 मार्च 2008

तुम्हारा नाम क्या है? ...(5)

[गतांक से आगे] ठीक है ! मैं कल ही बॉस से बात करती हूं। दोनों छुट्टी कर लेते हैं। वैसे मुझे नहीं लगता छुट्टी मिलने में कोई प्राब्लम आएगी। हां, वो तो है। देख लो बात करके। प्रिया ने उदासीन लहजे में जवाब दिया। हर दिन की तरह अगले दिन भी नेहा और प्रिया सुबह आफिस के लिये तैयार होने में जुटी थीं। हमेशा की तरह तैयार होने में देरी के लिये प्रिया ने नेहा की डांट खायी। हमेशा की तरह प्रिया ने उसकी बात एक कान से सुनी और दूसरे कान से निकाल दी। अरे, इस लड़की ने तो मेरी जिंदगी का कबाड़ा कर दिया है। जब देखो आर्डर झाड़ती रहती है। एक पल को चैन नहीं लेने देती। आफिस में तो हैं ही सब बॉस बनने के लिये और कमरे पर आकर यह मेरी बॉस बन जाती है। जल्दी करो-जल्दी करो!! पता...

शुक्रवार, 15 फ़रवरी 2008

तुम्हारा नाम क्या है? ...(4)

मुझे तुम्हारे किसी सवाल का जवाब नहीं देना।चलो प्रिया। जल्दी करो। आज तो इस पागल ने सबके सामने हमारा तमाशा बना दिया। पता नहीं किस जनम की दुश्मनी निकाल रहा है। हाथ धोकर पीछे पड़ गया है।नेहा इतने तेज कदमों से चलने की कोशिश कर रही थी कि उसके कदम भी उसका साथ नहीं दे पा रहे थे। प्रिया उसे रुकने की आवाज देकर उसके पीछे-पीछे भाग रही थी। आसपास के लोगों की नजरें नेहा और प्रिया पर ही थीं। लोगों को भी मुफ्त में अच्छा-खासा तमाशा जो देखने को मिल गया था।प्रिया ने एक बार पीछे मुड़कर देखा। वह लड़का अब भी वहीं पर खड़े होकर उन्हें घूरे जा रहा था।अब शायद प्रिया को उससे कुछ सहानुभूति होने लगी थी।मन ही मन प्रिया ने पिछली सारी बातें दोबारा याद करने की कोशिश कीं।...नाम...

सोमवार, 11 फ़रवरी 2008

तुम्हारा नाम क्या है?...(3)

अगला दिन और फिर वही डर। कहीं वह लड़का पीछे न पड़ जाए।लगता है इस बस का इंतजार करने के सिवा उसके पास कोई काम-धाम ही नहीं है। नेहा ने प्रिया की राय जाननी चाही।हां, बड़े बाप की बिगड़ैल औलाद लगता है। हां कर दे तेरी तो लाइफ बन जाएगी। प्रिया ने फिर चुहलबाजी की।तू चुप रहेगी या दूं एक घुमा के। नेहा ने नकली गुस्सा दिखाते हुए कहा। क्योंकि यह बात कहते हुए उसके होठों पर भी हंसी तैर रही थी।अभी तक बस नहीं आई...? लगता है आज जरूर लेट होंगे। कुछ देर चुप रहने के बाद नेहा ने आशंका जतायी।इससे पहले कि प्रिया कुछ बोल पाती बस उनकी आंखों के सामने थी।दोनों बिना एक पल गंवाए बस में सवार हो गईं।लेकिन बस में दाखिल होते ही नेहा को जैसे सांप सूंघ गया। एक बार तो उसे लगा कि चलती...

शुक्रवार, 8 फ़रवरी 2008

तुम्हारा नाम क्या है? (2)

नेहा और प्रिया दो साल से एक गर्ल्स हास्टल में साथ-साथ रह रही थीं। पहले प्रिया दूसरी जगह नौकरी करती थी। लेकिन आठ महीने पहले उसे भी नेहा के आफिस में नौकरी मिल गई। उस पब्लिकेशन हाउस में प्रिया के आने से नेहा को तो जैसे मन मांगी मुराद मिल गई। अब दोनों ही एक साथ आफिस के लिये निकलतीं। एक साथ लौटतीं। दोनों ने अपना वीकली आफ भी एक ही दिन करवा लिया था। शनिवार। सब कुछ तो अच्छा चल रहा था। पता नहीं वो लड़का कहां से पीछे पड़ गया।कहीं लौटते वक्त भी न मिल जाए। आफिस से निकलते हुए नेहा ने अपनी आशंका प्रिया के सामने रखी।अरे नहीं यार, क्यों इतना टेंशन लेती है। प्रिया ने उसकी आशंका को निर्मूल बताते हुए कहा। और मिल भी जाएगा तो क्या हुआ। लगता है बहुत पसंद करता है तुझे।...

तुम्हारा नाम क्या है?

अभी तक बस नहीं आई। लगता है आज फिर बॉस की डांट खानी पड़ेगी। ये बस भी तो रोज लेट हो जाती है। मैंने तुमसे पहले ही कहा था जल्दी करो लेकिन तुम हो कि तुम्हें सजने-संवरने से ही फुर्सत नहीं मिलती। पता नहीं कौन बैठा है वहां तुम्हारी खूबसूरती पर मर-मिटने के लिए। वो बुड्ढा खूसट बॉस...। नेहा बोले जा रही थी और प्रिया चुपचाप सुनती जा रही थी। उसे मालूम था कि यह गुस्सा लेट होने का नहीं है। यह गुस्सा बॉस की डांट खाने का भी नहीं है। वह बचपन से जानती है नेहा को। तब से जब दोनों स्कूल में साथ पढ़ती थीं। अब दोनो साथ-साथ नौकरी भी कर रही थीं।शुक्र है आज सीट तो मिल गई ! कहते हुए नेहा बस के दायीं वाली सीट पर बैठ गई और साथ ही बैठ गई प्रिया। नेहा की सबसे अजीज दोस्त।यह रोज...

मंगलवार, 5 फ़रवरी 2008

अब भी जलाए बैठे हैं उम्मीद का चिराग (मेरी रेल यात्रा-3)

ट्रेन में भीड़भाड़ कम होने का नाम नहीं ले रही थी। अब तो मुझे उस खूबसूरत लड़की से ईर्ष्या होने लगी थी। वो इसलिए क्योंकि ट्रेन में इतनी भीड़-भाड़ होने के बावजूद उसे बर्थ में लेटने का सौभाग्य प्राप्त था। वैसे सोचता हूं कि मेरी यह ईर्ष्या इस बात की कम और इस बात की अधिक हो सकती है कि कहां तो वह मेरे बगल में बैठी थी और कहां उस बर्थ (या उसके चाचा !@$%^&*()_+) मुझे उससे दूर कर दिया। बुरा हो उस बर्थ का या फिर उसके...। सच कहूं तो मुझे गुस्सा आ रहा था उसके चाचा पर। महाशय अच्छे भले बर्थ पर सो रहे थे पता नहीं क्या सूझी कि नीचे तशरीफ ले आए और उस मोहतरमा को भेज दिया ऊपर। वैसे एक-दो बार मैंने बहाने से ऊपर देखा तो वह सोई नहीं थी, बल्कि लेटे हुए टुकुर-टुकुर...

सोमवार, 4 फ़रवरी 2008

कुछ न कुछ तो जरूर होना है (मेरी रेल यात्रा-2)

रात के दस बज चले थे। मैं अभी भी अपनी नींद पर काबू करने में कामयाब था। हां तो.., यह जिक्र करना सबसे जरूरी है उस सफर में मेरे बगल में एक खूबसूरत लड़की भी बैठी थी। रात करीब साढ़े दस बजे तक मैं भी नींद के आगे विवश होने लगा था। मुझे याद है कि एक-दो बार मेरा सिर उस खूबसूरत लड़की के कांधे पर टिक गया और हर बार चौंक कर मेरी नींद उड़ गई। बहरहाल, थोड़ी देर बाद ही मैंने उससे काफी कुछ परिचय बना लिया था। बात-बात पता चला कि वह इंदौर की रहने वाली है। उसने बड़े फक्र से बताया कि वह इंटर साइंस की छात्रा है। (तब मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय से ग्रेजुएशन-Ist year कर रहा था) थोड़ी देर में पता यह भी चल गया कि उसके साथ उसके चाचा भी हैं, जो ऊपर बर्थ पर सो रहे हैं। उसने...

शनिवार, 2 फ़रवरी 2008

सफर भी एक संघर्ष है भाई ! (मेरी रेल यात्रा-1)

बरस 1999.मौका था होली की छुट्टी का। शाम के पांच बजे थे। मैं इलाहाबाद के प्रयाग रेलवे स्टेशन पर बुंदेलखंड एक्सप्रेस का इंतजार कर रहा था। ट्रेन शायद पांच मिनट बाद ही आ गई थी। छुट्टी में घर जाने का हर व्यक्ति के दिल में एक अलग ही उत्साह होता है। फिर मैं तो अपनी नानी के यहां जा रहा था। लिहाजा मैं कुछ ज्यादा ही खुश और उत्साहित था। हालांकि यात्रायें सब एक जैसी ही होती हैं। लेकिन यह मेरे लिये कुछ विशेष थी इसलिये कि इसमें मुझे कुछ अनुभव (वैसे बहुत खास भी नहीं हैं) ऐसे हुये जो यादगार बन पड़े। नानी के घर जाने का कार्यक्रम जल्दी में बना था। इसलिये मुझे बिन रिजर्वेशन के ही जाना पड़ा। जाहिर सी बात है इतनी जल्दबाजी में रिजर्वेशन तो मिलने से रहा। खैर, ट्रेन...

बुधवार, 30 जनवरी 2008

माई बेस्ट फ्रैंड मर्डर...

माई बेस्ट फ्रैंड मर्डर। यह नाम किसी फिल्म का नहीं बल्कि वह सच्ची कहानी है जिसे सुनकर एक बार तो दिल्ली पुलिस को भी इसकी सच्चाई पर यकीन नहीं हुआ। वो इसलिये कि एक दोस्त ने अपने ही हाथों से अपने बेस्ट फ्रैंड की जान ले ली। खास बात यह है कि यह सब अचानक नहीं हुआ, बल्कि पूरी तरह सोच-समझकर हुआ। हां-यह अलग बात है कि मर्डर करने वाले का मकसद मर्डर नहीं मनी था। राधेश्याम नाम के इस शख्स के हाथ में मौजूद यह तस्वीर गवाह है उन खुशनुमा लम्हों की जो कभी इसके बेटे धर्मेंद्र (तस्वीर में दायें) ने अपने दोस्त पिंटू के साथ गुजारे थे। लेकिन अब इस खूबसूरत तस्वीर का रुख उलट चुका है। पिंटू और धर्मेंद्र एक दूसरे से हमेशा के लिये जुदा हो चुके हैं। 12 बरस का धर्मेंद्र अब इस...

सोमवार, 28 जनवरी 2008

पेश-ए-खिदमत है आज की सनसनीखेज खबर

अचानक दिमाग में खयाल आया कि अगर देश में अपराध खत्म हो जाएं तो क्या होगा। खबरिया चैनल में काम करता हूं तो सबसे पहले उसी के बारे में सोचने लगा। सोचा तो काफी कुछ सोच डाला। परेशान भी हो गया। आप भी पढ़िये हमारे खाली दिमाग ने आज क्या सोचा। बुलेटिन शुरू हुआ। एंकर सामने आई। मुस्कुराई और बोली...नमस्कार..मैं हूं दीपशिखा और आप देख रहें हैं हमारा चैनल...खबरिया। पेश हैं आज की खबरें। आज की सबसे बड़ी खबर है देश से अपराध का खात्मा। जी हां यह सच है। हमारी यह सनसनीखेज और एक्सक्लूसिव खबर सुनकर आप चौंक गये न? खबर ही ऐसी है। ऐसा कैसे हुआ, यह तो फिलहाल हम भी नहीं जानते लेकिन यकीन मानिये ऐसा ही हुआ है। इसका यह मतलब कतई नहीं कि हमारे देश की पुलिस बड़ी मुस्तैद हो गई...
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