दफ्तर के लिये लेट हो रहा था। आज मीटिंग थी। वक्त पर पहुंच जाऊं यह सोचकर मैंने अपनी गाड़ी की रफ्तार बढ़ा दी। लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। जल्द ही ब्रेक लगाना पडा़। अब गाड़ी बमुश्किल चालीस की रफ्तार से बढ़ रही थी वह भी रुक-रुक कर। इस कछुआ चाल की वजह यह थी कि मेन रोड के तकरीबन आधे हिस्सों को बैरीकेड लगाकर रिजर्व कर दिया गया था। जानते हैं किसके लिये? शिवभक्त कांवड़ियों के लिये। कांवड़ लेकर नंगे पांव सड़क नापने वाले भक्त (?) सफलता पू्र्वक अपनी मंजिल पर पहुंचें इसके लिये प्रशासन ने पूरे इंतजाम कर रखे हैं। जगह-जगह पुलिस भी तैनात रहती है। शिवभक्तों को पूरी तरह वीआईपी ट्रीटमेट मिलता है। क्या मजाल कि कांवड़ियों को कोई कष्ट हो जाये। सड़क पर तो वो यूं चलते हैं जैसे पूरी सड़क उनके बाप की है। आम लोगों के प्रति उनका रवैया ऐसा होता है जैसे कांवड़ ले जाकर वो खुद पर नहीं बल्कि देशवासियों पर कोई बहुत बड़ा ऐहसान कर रहे हों।
हम थोड़ी ही दूर बढ़े थे कि एक कांवड़िये ने हाथ देकर हमसे इतने अधिकार पूर्वक लिफ्ट मांगी जैसे यह उसका जन्मजात हक हो और उन्हें हम हर हालत में लिफ्ट देने को बाध्य हों। हालांकि हमने उसके इस अधिकार को चुनौती देते हुये अपनी गाड़ी और तेजी से आगे बढ़ा दी। उसने हमें खा जाने वाली नजरों से देखा और कुछ (जाहिर है अच्छा नहीं) बड़बड़ाते हुये पीछे से आ रही एक दूसरी गाड़ी पर अपनी नजर गड़ा दी।
क्या आप जानते हैं कि जब कांवड़ ले जाने का मौसम आता है तो शहर में आये दिन होने वाले छोटे-मोटे अपराध कम हो जाते हैं? इसलिये नहीं कि सारे चोर-बदमाश बड़े ही धार्मिक हो जाते हैं, बल्कि इसलिये क्योंकि ऐसे समय में वो लोग कांवड़िये बन जाते हैं। ऐसा हम नहीं हमारे एक दोस्त कहते हैं। उनकी ऐसी बातें सुनकर कई बार तो हम भी सोचने पर मजबूर हो जाते हैं। आज तो खाना खाते वक्त हमने उनसे पूछ ही लिया एस जी जरा बताइये तो अपराध कम होने के इस अध्ययन के पीछे आपकी थ्योरी क्या है? यह सवाल करते ही उन्होंने हमें यूं देखा जैसे हमने कोई मूर्खों वाली बात कह दी हो, फिर समझाया अरे, इतना भी नहीं समझते आप? ये बदमाश और चोर उचक्के ही तो हैं जो आजकल के मौसम में गेरुये वस्त्र धारण कर कांवड़िये बन जाते हैं। क्या......? हमारी भावनाओं (धार्मिक)को झिंझोड़ दिया था उन्होंने। खैर, कुछ देर बाद हम नार्मल हो गये। काफी दिमाग लगाकर हमने उनकी इस थ्योरी को गलत साबित करने के लिये एक सवाल उठाया...लेकिन दोस्त कांवड़ ले जाना तो बड़े ही कष्ट का काम है? चोर-उचक्के भला जानबूझकर कष्ट क्यों सहेंगे?
एस जी ने फिर आंखें तरेरीं।...अरे भई, जब कदम-कदम पर बढ़िया खाना-पीना और आवभगत होगी तो खाली और बेकार घूमने वालों के लिये ऐश का इससे सुनहरा मौका और कहां मिलेगा? उन्होंने याद दिलाते हुये कहा- जहां तक बदमाशों के कांवड़िये बनने की बात है तो देखा नहीं आपने गुड़गांव के मानेसर में क्या अभी हुआ? क्या सरेआम तोड़फोड़ और आगजनी करने वाले आपको किसी भी नजरिये से शिवभक्त नजर आ रहे थे?
उनकी बात अब हमारे पल्ले पड़ने लगी थी। कल तक तो हमने भी यही सुना था कि कांवड़ ले जाने वाले शिवभक्त बेहद शालीन और सीधे-साधे लोग होते हैं। लेकिन तकरीबन दस रोज से कांवड़यों की वजह से हमें (बल्कि हर आने-जाने वाले को) जो परेशानी उठानी पड़ रही है उसे खुद ही समझा जा सकता है। किसी से बयान नहीं किया जा सकता। क्योंकि ऐसा करने पर अधर्मी, लोगों की धार्मिक भावनाओं को आहत करने वाला जैसे न जाने कितने विश्लेषणों से हमें नवाजा जा सकता है। अगर बात फैल गई तो कांवड़ियों के कोप का शिकार भी होना पड़ सकता है।
इसलिये अपने मित्र की थ्योरी से हम कितने सहमत या असहमत हैं यह बहुत मायने नहीं रखता। कांवड़ियों से साबका होने का यह कोई पहला मौका नहीं है। हर साल ऐसा होता है। कभी-कभी तो पूरा रास्ता ही रोक दिया जाता है। पुलिस वाले बोलते हैं वापस जाओ, आज यहां से नहीं निकल सकते। (रास्ता भी खुश होता होगा कि कुछ दिन के लिये ही सही वह वीआईपी हो गया है) कोई दूसरा रास्ता भी नहीं है। ऐसा करो आज छुट्टी ले लो। सबसे मजेदार बात तो यह है कि कांवड़ियों की वजह से फौरन छुट्टी एप्रूव भी हो जाती है।
हो सकता है इसी वजह से ही सही, हमारे खाते में भी एक पुण्य कर्म करने का श्रेय जुड़ जाये। क्या पूछा? किस वजह से?....अरे अभी कल ही तो हमने दफ्तर आते वक्त एक कांवड़ये के लिये रास्ता छोड़ा था। ये अलग बात है कि वो हमारी इच्छा नहीं, बल्कि मजबूरी थी और मजबूरी क्या-क्या करा सकती है यह तो आप समझ ही सकते हैं। (दोस्तों मेरा इरादा किसी की धार्मिक भावनाओं को आहत करने का नहीं है, अगर किसी को ऐसा लगे तो छमा प्रार्थी हूं)
1 comments:
सही कहा आपने, आजकल इन काँवड़ियों में असली भक्त दो-चार ही होते हैं, बाकी सब लफंडर हैं। उनकी हरकतें हम सड़क पर रोज ही देखते हैं।
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