मंगलवार, 10 जून 2008

तुम्हारा नाम क्या है?

अभी तक बस नहीं आई। लगता है आज फिर बॉस की डांट खानी पड़ेगी। ये बस भी तो रोज लेट हो जाती है। मैंने तुमसे पहले ही कहा था जल्दी करो लेकिन तुम हो कि तुम्हें सजने-संवरने से ही फुर्सत नहीं मिलती। पता नहीं कौन बैठा है वहां तुम्हारी खूबसूरती पर मर-मिटने के लिए। वो बुड्ढा खूसट बॉस...। नेहा बोले जा रही थी और प्रिया चुपचाप सुनती जा रही थी। उसे मालूम था कि यह गुस्सा लेट होने का नहीं है। यह गुस्सा बॉस की डांट खाने का भी नहीं है। वह बचपन से जानती है नेहा को। तब से जब दोनों स्कूल में साथ पढ़ती थीं। अब दोनो साथ-साथ नौकरी भी कर रही थीं।
शुक्र है आज सीट तो मिल गई !
कहते हुए नेहा बस के दायीं वाली सीट पर बैठ गई और साथ ही बैठ गई प्रिया। नेहा की सबसे अजीज दोस्त।
यह रोज का किस्सा था। कभी बस लेट हो जाती तो कभी वो दोनों लेट हो जातीं।
दरअसल असली किस्सा तो उनके बस में सवार होने के बाद शुरू होता था। जब अगले ही स्टाप पर वह लड़का उसी बस में सवार होता था। करीब दो हफ्ते से उसने नेहा की नाक में दम कर रखा था। जब तक वह बस में चढ़ता बस पूरी तरह भर चुकी होती थी।
जिस सीट पर नेहा बैठी होती थी वो लड़का भी वहीं आकर खड़ा हो जाता। कई बार तो भीड़ के कारण नेहा और प्रिया को भी सीट नहीं मिल पाती तब तो उसे बर्दाश्त करना मुश्किल हो जाता था। वह जानबूझकर वहीं खड़ा होता जहां प्रिया खड़ी होती।
तभी नेहा को लगा शायद कोई सवाल उसके कान से टकराया। अभी वह इस हकीकत को समझने की कोशिश कर ही रही थी कि वो सवाल एक बार फिर उसके सामने था।
क्या नाम है आपका? उस लड़के ने नेहा से सवाल किया था। वो भी इस अंदाज में जैसे वह नेहा को बहुत पहले से जानता है।
नेहा आवाक रह गई। जान न पहचान बड़ा आया मेरा नाम जानने चला। वह मन ही मन बुदबुदाई।
मैंने पूछा क्या नाम है तुम्हारा? वह तो जैसे नेहा के पीछे ही पड़ गया।
कोई नाम नहीं है मेरा, तुमसे मतलब? नेहा ने चिढ़कर जवाब दिया।
देखो मुझे अपना नाम बताओ, मैं नाम पूछ रहा हूं न। उसने इस तरह सवाल दागा जैसे नेहा उसका जवाब देने के लिये मजबूर हो।
कहा ना, कोई नाम नहीं है मेरा।
तुम्हारे मां-बाप ने कोई तो नाम रखा होगा तुम्हारा?
नहीं कोई नाम नहीं रखा।
बस में किसी ने उसे कुछ नहीं कहा। किसी ने उसे रोकने की कोशिश भी नहीं की। सारे यात्री बुत की तरह बैठे रहे। कई लोगों को तो उसकी हरकतों आनंद का अनुभव हो रहा था। उनके चेहरे पर मुस्कुराहट तैर रही थी।
नेहा ने तो जैसे होठ सी लिये। उसकी आंखें अब भी नेहा को घूर रही थीं। लेकिन इसके आगे वह कुछ बोल पाता कि नेहा का स्टाप आ गया।
वह और प्रिया बस से उतर लीं। बस आगे बढ़ गई।
उफ्फ जान छूटी। किस पागल से पाला पड़ गया है। नेहा चिल्लाई।
प्रिया ने कोई प्रतिक्रिया नहीं जाहिर की। आखिर वो कहती भी क्या। वह भी इसी उधेड़बुन में लगी थी कि उससे कैसे छुटकारा पाया जाए। अगर रूट बदलना है तो नेहा को यह नौकरी भी बदलनी पड़ेगी। इतनी आसानी से तो मिलती नहीं नौकरी। यहां तो स्टाफ भी अच्छा है। सैलरी भी अच्छी है।
कुछ और सोचना पड़ेगा। प्रिया ने दिमाग पर जोर डाला। लेकिन कुछ न सोच पाने की झुंझलाहट उसके चेहरे पर साफ नजर आ रही थी।
नेहा भी खामोश थी। बोलती भी क्या?
दोनों आफिस पहुंच चुकी थीं।
शुक्र है अभी बॉस नहीं आया। आज तो बच गये। नेहा ने प्रिया की ओर देखते हुए कहा और जल्द से जल्द अपने कंप्यूटर को लॉग-इन करने में जुट गई।
नेहा और प्रिया दो साल से एक गर्ल्स हास्टल में साथ-साथ रह रही थीं। पहले प्रिया दूसरी जगह नौकरी करती थी। लेकिन आठ महीने पहले उसे भी नेहा के आफिस में नौकरी मिल गई। उस पब्लिकेशन हाउस में प्रिया के आने से नेहा को तो जैसे मन मांगी मुराद मिल गई। अब दोनों ही एक साथ आफिस के लिये निकलतीं। एक साथ लौटतीं। दोनों ने अपना वीकली आफ भी एक ही दिन करवा लिया था। शनिवार। सब कुछ तो अच्छा चल रहा था। पता नहीं वो लड़का कहां से पीछे पड़ गया।
कहीं लौटते वक्त भी न मिल जाए। आफिस से निकलते हुए नेहा ने अपनी आशंका प्रिया के सामने रखी।
अरे नहीं यार, क्यों इतना टेंशन लेती है। प्रिया ने उसकी आशंका को निर्मूल बताते हुए कहा।
और मिल भी जाएगा तो क्या हुआ। लगता है बहुत पसंद करता है तुझे। तेरे पर दिल आ गया है बेचारे का। वैसे दिखने में तो बड़ा स्मार्ट है। प्रिया ने चुहलबाजी की।
चुप हो जा। बकवास मत कर। चुपचाप चल। नहीं तो घंटा भर खड़े रहना पड़ेगा बस स्टाप पर।
हां-हां, चल तो रही हूं। उड़ने तो नहीं लग जाउंगी। प्रिया ने पलटकर जवाब दिया।
नेहा को प्रिया की चुहलबाजी बिल्कुल अच्छी नहीं लग रही थी। रह-रह कर नेहा के सामने उसी लड़के का चेहरा आ जाता था। कहीं फिर मिल गया तो सबके सामने तमाशा बना देगा। पता नहीं क्यों मेरे पीछे पड़ा हुआ है। स्साला..प्रिया को गुस्सा आ रहा था।
अरे, भई! जब मिलेगा तब देखा जाएगा। अभी से क्यों दिमाग खराब कर रही है। प्रिया ने उसे समझाने की कोशिश की। आफिस से बस स्टाप चंद कदम की दूरी पर ही था।
अब नेहा और प्रिया बस स्टाप पर थीं। चुपचाप। खामोश।
शुक्र है आज बस जल्दी आ गई। प्रिया ने खामोशी तोड़ी और बस की तरफ बढ़ने लगी।
बस रुकी। प्रिया और नेहा उस पर चढ़ गईं।
बस में ज्यादा भीड़ नहीं थी। दोनों को सीट भी मिल गई।
नेहा चुपचाप थी। प्रिया भी चुपचाप उसके चेहरे के हावभाव पढ़ने की कोशिश कर रही थी।
प्रिया बहुत देर तक चुप नहीं रह सकती थी। चुप्पी तो जैसे उसे खाने को दौड़ती थी।
क्या हुआ यार, ऐसे चुप रहेगी तो मैं बस से कूद जाउंगी। कुछ तो बोल। यह कहते हुए प्रिया खिलखिला कर हंस दी।
नेहा के होठों पर भी मुस्कान तैर गई।
यही तो खूबी थी प्रिया की। हमेशा मुस्कराना और सामने वाले को भी हंसने के लिये मजबूर कर देना।
देखो हमारा स्टॉप आने वाला है और अब तक वो नहीं आया। अब तो खुश? प्रिया फिर चुहलबाजी के मूड में थीं।
हां खुश। नेहा ने भी हंसकर जवाब दिया।
अब वो आएगा भी नहीं। आज तो बच गये। कल की कल देखी जाएगी। नेहा का मूड अच्छा होते देखकर प्रिया चहक उठी।
बस स्टाप आ गया। दोनों नीचे उतर लीं और पैदल ही अपने हास्टल की तरफ चल पड़ीं।
अगला दिन और फिर वही डर। कहीं वह लड़का पीछे न पड़ जाए।
लगता है इस बस का इंतजार करने के सिवा उसके पास कोई काम-धाम ही नहीं है। नेहा ने प्रिया की राय जाननी चाही।
हां, बड़े बाप की बिगड़ैल औलाद लगता है। हां कर दे तेरी तो लाइफ बन जाएगी। प्रिया ने फिर चुहलबाजी की।
तू चुप रहेगी या दूं एक घुमा के। नेहा ने नकली गुस्सा दिखाते हुए कहा। क्योंकि यह बात कहते हुए उसके होठों पर भी हंसी तैर रही थी।
अभी तक बस नहीं आई...? लगता है आज जरूर लेट होंगे। कुछ देर चुप रहने के बाद नेहा ने आशंका जतायी।
इससे पहले कि प्रिया कुछ बोल पाती बस उनकी आंखों के सामने थी।
दोनों बिना एक पल गंवाए बस में सवार हो गईं।
लेकिन बस में दाखिल होते ही नेहा को जैसे सांप सूंघ गया। एक बार तो उसे लगा कि चलती बस से कूद जाए। वो चुपचाप आकर सीट पर बैठ गई। और प्रिया भी।
दरअसल वह लड़का आज पहले से ही बस में मौजूद था। नेहा को देखते ही वह उसके पास आकर खड़ा हो गया। नेहा लगातार खिड़की से बाहर की ओर देखे जा रही थी। उसका दिल तेजी से धड़क रहा था। एक बार तो उसे लगा कि वह आज उसे फटकार ही दे। लेकिन कुछ सोचकर वह चुप रह गई। नेहा चुप थी। प्रिया भी चुप थी। वह लड़का भी चुप था।
तभी खामोशी टूटी।
आज तुमने वो पिंक वाला सूट क्यों नहीं पहना? वह तुम पर बहुत फबता है। उस लड़के ने सवाल किया जिसमें उसकी राय भी शामिल थी।
नेहा मन ही मन बुदबुदाई। ये तो हद हो गई। वह आज अपना गुस्सा रोक नहीं पाई। सीट छोड़कर खड़ी हो गई।
तुम होते कौन हो, यह पूछने वाले कि मैंने ये क्यों नहीं पहना वो क्यों नहीं पहना। मेरी जो मर्जी मैं पहनूं। तुम यहां से जाते हो या....? प्रिया ने उसे बीच में ही रोक दिया। अरे यार, दिमाग खराब कर रखा है इतने दिनों से। कंटक्टर गाड़ी रुकवाओ। मैंने कहा न, गाड़ी रुकवाओ अभी। हमें यहीं उतरना है। नेहा की आवाज में गुस्सा था और रोष भी।
बस में शोर-शराबा देख ड्राइवर ने गाड़ी रोक दी। नेहा तुरंत नीचे उतरी। प्रिया भी उसके पीछे दौड़ी...और वो लड़का भी।
मेरी बात तो सुनो, मैं तुम्हें अपने मम्मी-पापा से मिलवाना चाहता हूं।
तुम एक बार उनसे मिल तो लो। प्लीज।
प्रिया ने उसकी बात को अनसुना कर दिया।
बस के यात्री अभी भी उनकी ओर ही ताक रहे थे। कोई हंस रहा था कोई चुपचाप देख रहा था तो कई लोग कमेंट करने से भी बाज नहीं आ रहे थे।
'भाभी को मना लेना' भाई, तभी किसी की आवाज आई।
बस चल पड़ी थी। नेहा का वश करता तो उस कमेंट करने वाले को नीचे खींचकर चप्पल से मारती। लेकिन गाड़ी जा चुकी थी।
बड़े बेशर्म हो तुम। मैंने कह दिया न मुझे तुमसे कोई लेना देना नहीं है। फिर क्यों मेरे पीछे पड़े हो। प्लीज, मुझे बख्श दो और मुझे अपने रास्ते जाने दो। तुम अपने रास्ते जाओ। नेहा ने खीझते हुए कहा।
मैं चला जाउंगा। लेकिन मेरे सवाल का जवाब तो दो। लड़के ने बड़े ही शांतिपूर्ण तरीके से सवाल किया।
मुझे तुम्हारे किसी सवाल का जवाब नहीं देना।
चलो प्रिया। जल्दी करो। आज तो इस पागल ने सबके सामने हमारा तमाशा बना दिया। पता नहीं किस जनम की दुश्मनी निकाल रहा है। हाथ धोकर पीछे पड़ गया है।
नेहा इतने तेज कदमों से चलने की कोशिश कर रही थी कि उसके कदम भी उसका साथ नहीं दे पा रहे थे। प्रिया उसे रुकने की आवाज देकर उसके पीछे-पीछे भाग रही थी।
आसपास के लोगों की नजरें नेहा और प्रिया पर ही थीं। लोगों को भी मुफ्त में अच्छा-खासा तमाशा जो देखने को मिल गया था।
प्रिया ने एक बार पीछे मुड़कर देखा। वह लड़का अब भी वहीं पर खड़े होकर उन्हें घूरे जा रहा था।
अब शायद प्रिया को उससे कुछ सहानुभूति होने लगी थी।
मन ही मन प्रिया ने पिछली सारी बातें दोबारा याद करने की कोशिश कीं।...नाम ही तो पूछ रहा था बेचारा। कोई उल्टी-सीधी बात तो नहीं की। कहीं होटल या क्लब में ले जाने की बात तो कर नहीं रहा था। मम्मी-पापा से ही तो मिलवाना चाहता है। तो क्या शादी...? यानी उसकी इरादा नेक है। लेकिन वो नहीं जानता कि...
अचानक प्रिया ने अपनी सोच पर विराम लाग दिया। इसके बावजूद वह लगातार सब कुछ समझने की पूरी कोशिश कर रही थी।
वहीं नेहा के कदम अब भी रुकने का नाम नहीं ले रहे थे।
प्रिया ने उसे आवाज दी, नेहा ने पीछे मुड़कर देखा और उसके कदम रुक गये।
प्रिया भाग कर गई और उससे लिपट गई। अब चलो भी। नेहा ने फिर दोहराया। उसका मूड अब भी ठीक नहीं हुआ था।
क्या बेशर्मी है। रोज का तमाशा हो गया है। पीछा ही नहीं छोड़ रहा है। लगता है मुझे यह नौकरी ही छोड़नी पड़ेगी। नेहा ने निराशा भरे स्वर में कहा।
नौकरी क्यों छोड़ेगी। तेरे लिये दूसरी नौकरी रक्खी है क्या? फिर घूमना इस कंपनी से उस कंपनी, दूसरी नौकरी की तलाश में। घर में तो बैठेगी नहीं? इतना तो मैं भी जानती हूं।
तेज कदमों की आवाज के सिवा अब नेहा और प्रिया के बीच कुछ नहीं था।
दोनों खामोश थीं।
हास्टल नजदीक ही था कि नेहा ने खामोशी तोड़ी। छुट्टी ले लेती हूं एक हफ्ते की।
उससे क्या होगा?
अरे, दो-तीन दिन बाद वो भी अपना रास्ता बदल देगा।
हां, ऐसा हो सकता है। लेट्स ट्राई! प्रिया को नेहा का यह आइडिया जंच गया।
लेकिन मैं अकेले तो आफिस में बोर हो जाउंगी और रास्ते में भी।
वो मेरे पीछे पड़ जाएगा। तुम्हारे बारे में पूछने लगेगा। तब मैं अकेली क्या करूंगी?
हमममम...ऐसा कर तू भी छुट्टी कर ले। नेहा यूं बोली जैसे उसके दिमाग में कोई शानदार आइडिया आ गया हो।
ठीक है ! मैं कल ही बॉस से बात करती हूं। दोनों छुट्टी कर लेते हैं। वैसे मुझे नहीं लगता छुट्टी मिलने में कोई प्राब्लम आएगी।
हां, वो तो है। देख लो बात करके। प्रिया ने उदासीन लहजे में जवाब दिया।
हर दिन की तरह अगले दिन भी नेहा और प्रिया सुबह आफिस के लिये तैयार होने में जुटी थीं। हमेशा की तरह तैयार होने में देरी के लिये प्रिया ने नेहा की डांट खायी। हमेशा की तरह प्रिया ने उसकी बात एक कान से सुनी और दूसरे कान से निकाल दी।
अरे, इस लड़की ने तो मेरी जिंदगी का कबाड़ा कर दिया है। जब देखो आर्डर झाड़ती रहती है। एक पल को चैन नहीं लेने देती। आफिस में तो हैं ही सब बॉस बनने के लिये और कमरे पर आकर यह मेरी बॉस बन जाती है। जल्दी करो-जल्दी करो!! पता नहीं कौन सा तीर मारना है जल्दी पहुंचकर।
ज्यादा से ज्यादा वो रोहन यही ताना मारेगा न कि आज फिर लेट हो। बॉस के पास थोड़े चला जाएगा। अगर उसने ज्यादा स्मार्ट बनने की कोशिश की न तो मैं उसे एक ही दिन में सीधा कर दूंगी। तू चिंता मत कर और मुझे अपने तरीके से तैयार होने दे। प्रिया बोलती जा रही थी और नेहा सुने जा रही थी।
नेहा ने प्रिया को घूर कर देखा और प्रिया खिलखिलाकर हंस दी। नेहा के होठों पर भी मुस्कुराहट तैर गई।
अच्छा अब कमरा बंद करो और चलो। बकवास मत करो।
ठीक है बबा ! चल तो रही हूं। क्यों किसी और का गुस्सा मेरे ऊपर निकालने में जुटी हो। यह कहते हुये प्रिया की आखों में शरारत साफ नजर आ रही थी।
प्रिया का इशारा नेहा अच्छी तरह समझ गई थी। शायद इसीलिये उसने खामोशी ओढ़ ली।
बस आई, दोनों उस पर चढ़ गईं। सीट भी मिल गई। लेकिन नेहा ने एक शब्द भी नहीं बोला। प्रिया भी शायद उसे टोकने की हिम्मत नहीं कर पाई।
नेहा की यह चुप्पी ज्यादा देर तक कायम नहीं रह सकी।
अगले बस स्टाप पर वो लड़का एक बार फिर उसकी नजरों के सामने था। उस पर नजर पड़ते ही नेहा का तो जैसे खून खौल गया।
उस लड़के को देखते ही नेहा का ब्लडप्रेशर बढ़ जाता था।
हालांकि अभी तक उसने नेहा से कभी कोई ऐसी बात नहीं कही थी जिससे उस पर बदमाश या लफंगा लड़का होने का लेबल लगाया जा सके।
'आज आप लेट हो गईं?' उस लड़के ने नेहा की सीट पर आकर पूछा।
नेहा ने कोई जवाब नहीं दिया।
प्रिया की नजरें दोनों को चुपके से घूर रहीं थी। शायद उसे इंतजार था नेहा के कुछ बोलने का।
आपने कोई जवाब नहीं दिया....
अच्छा आज तो अपना नाम बता दीजिये...
अच्छा मैं अपना नाम तो बता ही देता हूं....
मेरा नाम है मनीष और आपका...?
'मैंने तुमसे कहा था न कोई नाम नहीं है मेरा।' नेहा ने चुप्पी तोड़ी।
नाराज क्यों होती हो। नाम ही तो पूछा है। कोई गाली तो नहीं दे दी।
क्यों मेरा नाम जानना चाहते हो?
बताओ क्यों जानना चाहते हो मेरा नाम?
जवाब दो...
अब उस लड़के ने खामोशी ओढ़ ली।
अब चुप क्यों हो? बताओ क्यों पूछना चाहते हो मेरा नाम? नेहा ने खीझकर अपना सवाल रिपीट किया।
अभी नहीं, पहले वादा करो तुम मेरे साथ मेरे घर चलोगी।
दिमाग खराब हैं क्या?
क्यों चलूंगी तुम्हारे घर....तुम कोई मेरे रिश्तेदार लगते हो?
नहीं, मैंने कहा था न, मैं तुम्हें अपने मम्मी-पापा से मिलाना चाहता हूं।
किसलिए? मुझे न तुममे कोई इंट्रेस्ट है औऱ न ही तुम्हारे मम्मी-पापा में। बस मेरा पीछ छोड़ दो।
इतना कहकर नेहा ने फिर खामोशी ओढ़ ली।
बस में बैठे सारे लोगों की निगाहें नेहा की तरफ ही टिकी थीं।
रोज आने-जाने वाले यात्री तो नेहा और उस लड़के से अच्छी तरह वाकिफ हो चुके थे।
इसके बावजूद आज तक किसी ने उस लड़के को एक शब्द नहीं बोला।
शायद बस यात्रियों के लिये भी वो दोनों टाइम पास का साधन बन चुके थे।
नेहा का मूड बहुत खराब हो चुका था। वह उस लड़के स‌े बुरी तरह तंग आ चुकी थी। स‌मझ नहीं पा रही थी क्या करे? ऊपर स‌े यह प्रिया, जब देखो तब इसे मजाक स‌ूझता रहता है। पता नहीं मेरी दोस्त है या दुश्मन?
बस स‌े उतर कर प्रिया और नेहा ऑफिस की तरफ चल दीं। आज तो दफ्तर के बाहर ही महेश मिल गया।
हाय! महेश ने हाथ हिलाया।
नेहा और प्रिया ने इशारे में ही उसके हाय का जवाब दिया और दफ्तर में दाखिल हो गईं।
क्या हुआ, आज तुम दोनों फिर लेट हो गईं। बॉस ने घूरते हुए स‌वाल किया।
क्या बताऊं स‌र, वो बस में.....
बस में क्या...?
स‌ाफ-साफ बताओ। बास ने जरा कड़क आवाज में पूछा।
बेवजह की डांट खाना नेहा को कतई पसंद नहीं था। उसी पल उसने तय कर लिया कि आज बॉस को स‌ब बता देगी।
स‌र वो बस में रोज हमें....प्रिया ने कुहनी मारकर उसे रोकने की कोशिश की....
नेहा ने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया और बोलना जारी रखा...
स‌र एक लड़का हमें काफी दिनों स‌े तंग कर रहा है। रोज बस में मिल जाता है। पीछे ही पड़ गया है। कहता है शादी करना चाहता हूं तुमसे....
हां, तो प्राब्लम क्या है?
क्या स‌र....?
अरे मेरा मतलब है कौन है वह लड़का, क्या नाम है उसका? नाम तो स‌र मुझे नहीं मालूम।
मनीष नाम है स‌र उसका, प्रिया ने बीच में ही जवाब दिया।
अच्छा, प्रिया तुम्हें तो उसका नाम भी मालूम है। औऱ क्या मालूम है उसके बारे में...बताओ मुझे। प्रिया बॉस स‌े मुखातिब थी और नेहा लगातार उसे घूरे जा रही थी।
आखिर प्रिया चुप हो गई।
नेहा ने बोलना शुरू किया। शुरू स‌े लेकर आखिर तक स‌ब बता दिया।
इसी बीच महेश भी पीछे आ खड़ा हुआ था..उसने भी स‌ारी बातें स‌ुन लीं।
थोड़ी ही देर में पूरे ऑफिस में यह बात फैल गई।
हर कोई नेहा और प्रिया स‌े मनीष के बारे में पूछने लगा।
कहो तो स्साले के हाथ-पैर तुड़वा दूं? आकाश बोला।
उसके लिए तो मैं अकेला काफी हूं। नरेश ने भी हीरो बनने की कोशिश की।
चुप रहो। तुम लोगों ने ये स‌ब क्या लगा रखा है। जाओ अपना-अपना काम करो। आशीष स‌र ने स‌बको डांटने के लहजे में कहा। स‌ब चुपचाप वहां स‌े खिस‌क लिए।
तुम दोनों फिक्र मत करो। कल अगर वो बस में नजर भी आए तो बस मुझे एक फोन कर देना। मैं स‌ब स‌ंभाल लूंगा। आशीष स‌र ने कहा।
अच्छा अब जाओ, कुछ काम कर लो। उसके बारे में स‌ोचकर परेशान होने की जरूरत नहीं है।
नेहा चुपचाप अपनी चेयर पर जाकर बैठ गई। प्रिया के लिए तो जैसे कुछ हुआ ही नहीं था। उसके होठों पर अब भी मुस्कान तैर रही थी।
इतने लोगों की बातें और हाव-भाव देखकर नेहा स‌मझ चुकी थी उसका तमाशा बन चुका है। किसी को कुछ करने की जरूरत नहीं है मेरी प्राब्लम है, मैं खुद निबट लूंगी...नेहा मन ही मन बुदबुदाई।
आज नेहा को आफिस में पल-पल काटना मुश्किल हो रहा था। उसे बस यही लग रहा था कि जाकर कमरे में स‌ो जाए और बस स‌ोती ही रहे।
किसी तरह छह बजे। ऑफिस स‌े निकलने का वक्त हो गया। चलो अभी तुम फ्री नहीं हुई। चलो अब निकलते हैं। बाकी काम कल देख लेना। मुझे बहुत नींद आ रही है। चलती हूं बस पांच मिनट। प्रिया ने नेहा को रुकने के लिए कहा और कंप्यूटर शट डाउन करने लगी। कुछ कागजात टेबल स‌े उठाकर ड्रार में रखे और लॉक करने के बाद वो अपना टुपट्टा स‌ंभालती हुई खड़ी हो गई। चलो।
एक मिनट रुको, जरा मैं आशीष स‌र को बता दूं कि कल मैं छुट्टी पर हूं। अचानक छुट्टी क्यों? प्रिया ने स‌वाल किया। लेकिन उसके स‌वाल का जवाब दिए बिना ही नेहा आशीष स‌र के केबिन में गई और छुट्टी की बात कर बाहर आ गई। उसके चेहरा बता रहा था कि आशीष स‌र ने उसे छुट्टी दे दी है।
चलो अब, नेहा ने कहा। चल तो रही हूं, लेकिन बता तो कल छुट्टी लेकर क्या कर रही है? कुछ नहीं, बस है न कुछ जरूरी काम। चल तो तू भी स‌ब स‌मझ जाएगी।
शायद नेहा के दिमाग में कुछ चल रहा था, जिसस‌े उस‌की बेस्ट फ्रैंड प्रिया भी नहीं पढ़ पा रही थी। दोनों बस स्टाप की तरफ बढ़ रहीं थीं। स‌ुबह की तरह ही खामोशी स‌े..कुछ स‌ुनाई दे रहा था तो स‌िर्फ उनके पैरों की आवाज और ट्रैफिक का शोर। लेकिन नेहा के कानों तक शायद ये आवाजें नहीं जा रही थीं। वो चुपचाप थी, लेकिन दिमाग लगातार स‌ोच रहा था।
क्या बात है कुछ तो बता..?
नेहा ने प्रिया के स‌वाल को कोई तवज्जो नहीं दिया। वो चुपचाप चली जा रही थी। वो जल्द स‌े जल्द बस स्टॉप पहुंचना चाहती थी। बस स्टॉप आ गया। नेहा और प्रिया चुपचाप बस का इंतजार करने लगीं।
आधा घंटा इंतजार के बाद बस नहीं आई। बहुत भीड़ थी बस में। प्रिया ने कहा थोड़ा रुक लेते हैं अलगी बस में चलेंगे। लेकिन नेहा उसकी बात को अनसुना कर बस में चढ़ने लगी। वास्तव में बस में काफी भीड़ थी। नेहा और प्रिया बस के गेट पर ही अटक गईं। अचानक किसी ने हाथ बढ़ाया और नेहा को बस में खींच लिया। उसके बाद प्रिया के स‌ाथ भी ऎस‌ा ही हुआ।
बस में मौजूद वह व्यक्ति मनीष ही था। वह चुपचाप खड़ा थी। बस में इस कदर भीड़ थी कि उसके लिए कुछ बोलना मुनासिब भी नहीं था। अगले स्टॉप में ही बस की भी़ काफी कम हो गई। नेहा और प्रिया बाईं तरफ वाली स‌ीट मिल गई। मनीष अब भी खड़ा था। नेहा ने उसे इशारे स‌े बुलाया और अपनी स‌ीट पर बैठने के इशारा किया।
यह देखकर प्रिया की आंखें फटी की फटी रह गईं। मनीष को भी नेहा के इस व्यवहार पर आश्चर्य हो रहा था...वह चुपचाप स‌ीट पर आकर नेहा के बगल में बैठ गया। खिड़की की तरफ प्रिया थी और बीच में नेहा।
लोगों की आंखें अब नेहा को घूर रही थीं। किसी को अपनी आंखों पर यकीन नहीं हो रहा था।
'भाभी मान गईं.....'
'लड़की पट गई भाई.....'
'मुबारक हो, भाईजान! मेहनत रंग लाई'
पीछे स‌े कुछ लोगों ने कमेंट पास किए। ये वही लोग थे जिनका रोज इस बस स‌े आना-जाना होता था। ये लोग नेहा और मनीष की कहानी स‌े अच्छी तरह वाकिफ थे।
मनीष! तुम मेरा नाम जानना चाहते हो न? मेरा नाम नेहा है। मैं इलाहाबाद की रहने वाली हूं। यह लो मेरा मोबाइल नंबर। कल स‌ुबह नौ बजे मुझे फोन करना। मनीष बुत की तरह उसकी बात स‌ुन रहा था। उसने हां में स‌िर हिलाया और अपने मोबाइल में नेहा का नंबर स्टोर कर लिया। खुशी उस‌के चेहरे स‌े झलक रही थी।
शायद आज बोलने की बारी नेहा की थी। यह देखकर प्रिया की परेशानी बढ़ती ही जा रही थी। अचानक इसे यह क्या हो गया? जिससे स‌ीधे मुंह बात नहीं करती थी, उसे खुद अपना नाम बता रही है। मोबाइल नंबर भी दे दिया। क्या कर रही है यह लड़की? कल की छुट्टी भी ले रखी है.....। बताती भी तो नहीं। पता नहीं क्या करने जा रही है?
मनीष हतप्रभ था। हमेशा नेहा पर हावी होने की कोशिश करने वाला मनीष अच्छे बच्चों की तरह चुपचाप बैठा था। उसकी तो बोलती ही बंद हो चुकी थी। न उस‌ने कुछ पूछा और न ही उसकी जुबान स‌े कोई लब्ज फूटा। हां, वह खुश बेहद था। जैस‌े स‌ारे जहां की खुशियां उसे मिल गई हों। यह स‌ाफ हो चुका था कि मनीष जैसा खुद को दिखाता था असल में वैसा नहीं था।
बस तेज रफ्तार स‌े दौड़ रही थी। प्रिया का दिल तेजी स‌े धड़क रहा था। मनीष का दिल भी तेजी स‌े धड़क रहा था। लेकिन नेहा बिल्कुल नार्मल दिख रही थी। बेफिक्र। बेखौफ। शांत। आज तो लग ही नहीं रहा था कि यह वही नेहा है जिसका ब्लडप्रेशर मनीष को देखते ही बढ़ जाता था।
अचानक बस रुकी और मनीष चुपचाप अपनी स‌ीट स‌े उठा। एक बार मुड़कर नेहा की तरफ देखकर बॉय किया और नीचे उतर गया। नेहा ने आंखों ने उसस‌े क्या कहा, ये स‌िर्फ वही जान पाया। प्रिया बस दोनों को देखे ही जा रही थी। उसके दिमाग में स‌ैकड़ों स‌वाल उठ रहे थे। प्रिया ने फिर उससे कुछ पूछने की कोशिश की, लेकिन नेहा ने उसे चुप रहने का इशारा किया।
थोड़ी देर में उनका भी स्टॉप आ गया। दस पंद्रह मिनट बाद नेहा और प्रिया अपने कमरे में थीं।
अब तो बता क्या खिचड़ी पका रही है तू अपने दिमाग में?
कुछ नहीं। तू चेंज कर ले। फिर आराम स‌े बात करते हैं न। नेहा ने कहा।
अब तो प्रिया यंत्रवत नेहा की हर बात मान रही थी। बिना एक पल गवांए ही वो कपड़े चेंज करके उसके पास फिर आ धमकी।
अब बता। बताती हूं। जरा स‌ांस तो लेने दे। तू तो हाथ धोकर मेरे पीछे ही पड़ गई है। नेहा का मूड अच्छा नजर आ रहा था।
उसे अपना मोबाइल नंबर क्यों दिया। फोन करने को क्यों कहा?
'मैं कल उससे मिल रही हूं'
क्या...? प्रिया को लगा कि शायद उसके कान कुछ गलत स‌ुन रहे हैं।
हां, मैं कल मनीष स‌े मिल रही हूं।
क्या करेगी उससे मिलकर? मुझे तो बहुत डर लग रहा है। मैं भी स‌ाथ चलूंगे तेरे।
तू क्यों डरी जा रही है मैं हूं न स‌ब देख लूंगी। मिल ही तो रही हूं उससे कोई शादी थोड़े कर रही हूं। और हां, तुझे मेरे स‌ाथ चलने की कोई जरूरत नहीं है। नेहा ने खीझकर कहा।
तो क्या उसकी मम्मी स‌े मिलने उसके घर भी जाएगी?
प्रिया ने ताना मारने वाले अंदाज में स‌वाल किया?
हां, जाऊंगी। तुझसे मतलब? नेहा ने तुनक कर जवाब दिया।
प्रिया चुप हो गई।
थोड़ी देर के लिए कमरे में खामोशी छा गई।
इस खामोशी को नेहा ने ही तोड़ा। अरे, बाबा इतना परेशान होने की जरूरत नहीं है। अच्छा ठीक है तू भी चलना स‌ाथ में। अब तो ठीक। खुश...?
दोनों खिलखिलाकर हंस पड़ीं। कमरे का जो माहौल थोड़ी देर पहले बोझिल हो रहा था उस‌े दोनों की हंस‌ी ने खुशगवार बना दिया।
ध्यान स‌े स‌ुन, तू मेरे स‌ाथ तो जाएगी, लेकिन मेरे स‌ाथ नहीं रहेगी। मैं उससे अकेले ही मिलूंगी। स‌मझी। तू कहीं आस‌पास रहना। ओके?
ओके, बॉस! प्रिया ने चहकते हुए कहा। लेकिन प्लानिंग क्या है तेरी ये तो बता।
बस मैं उससे मिल रही हूं और क्या। अब मिलूंगी तो बात भी करूंगी।
क्या बात करेगी तू उससे? यही तो पूछ रही हूं तुझसे।
तेरी शादी की बात करूंगी।
देख मसखरी मत कर। मैं स‌ीरियसली पूछ रही हूं। बता न।
पहले बात कर लूं फिर बताऊंगी। चल अब खान खाने चलते हैं वर्ना कैंटीन बंद हो जाएगी। दोनों को बात करते-करते काफी देर हो चुकी थी।
नेहा और प्रिया कैंटीन स‌े खाना खाकर लौटीं तो घड़ी रात के नौ बजा रही थी। नौ बजे की बात स‌े फिर प्रिया की आंखों के स‌ामने मनीष का चेहरे घूमने लगा। स‌ुबह नौ बजे ही तो फोन करने वाला हो वो प्रिया को। पता नहीं क्या करने वाली है प्रिया? यही स‌ोचते-स‌ोचते प्रिया ने नेहा की तरफ देखा, नेहा स‌ो चुकी थी।
देखो महारानी को कैसे बेफिक्र होकर स‌ो रही है और एक मैं हूं जो इस‌के बारे में स‌ोच-सोच कर अपना दिमाग खाली कर रहूं हूं।
प्रिया एक मैगजीन उठाकर पढ़ने की कोशिश करने लगी। लेकिन दिमाग में नेहा और मनीष ही घूमते रहे। इस‌ी तरह प्रिया की भी आंख लग गई।
आंख तब खुली जब स‌ुबह नेहा ने उसे झिंझोड़ा कितना स‌ोएगी? उठ चलना नहीं है क्या?
कहां? अरे मनीष स‌े मिलने औऱ कहां?
बड़ी बेताब हो रही है उससे मिलने के लिए....कहीं तेरा दिल तो नहीं आ गया उस पर। प्रिया ने चुहलाबजी करते हुए नेहा के गाल पर किस कर लिया।
चल-चल उठ ज्यादा प्यार मत दिखा। तैयार हो नहीं तो देर हो जाएगी।
अरे, अभी तो उसका फोन भी नहीं आया?
आएगा बबा आएगा। नौ बजे फोन करेगा न।
तू इतने दावे के स‌ाथ कैसे कह स‌कती है कि वह फोन करेगा ही? प्रिया को स‌ब कुछ बड़ा आश्चर्यजनक लग रहा था।
कह रही हूं न कि करेगा तो करेगा। नौ तो बजने दे।
प्रिया जल्दी-जल्दी तैयार होने लगी। उसकी नजर घड़ी पर ही टिकी हुई थी। कब नौ बजे और कब मनीष का फोन आए। वह भी तो स‌ुने क्या बात करती है नेहा उससे, कहां मिलने को कहती है उस‌े।
तभी नेहा के मोबाइल की घंटी बजी। नेहा ने फोन उठाया।
अरे, तू क्यों परेशान हो रही है, उसका फोन नहीं है मकान मालिक का। कह रहा था कि कल टंकी का नल खुला छोड़ दिया था।
अभी तो नौ नहीं बजे हैं। इंतजार कर थोड़ा।
कहां हो मैडम? नौ बज चुके हैं। जरा घड़ी पर नजर तो डालो।
इधर नेहा ने घड़ी की तरफ देखा और उधर उसके मोबाइल की घंटी फिर बज उठी।
नेहा ने फोन रिसीव किया। फोन मनीष का ही था।
उड्डपी में आ जाओ। कितनी देर में पहुंचोगे?
ठीक है। 11 बजे मैं भी पहुंच जाउंगी।
नेहा और प्रिया तय वक्त पर उड्डपी पहुंच गईं। नेहा अंदर चली गई और प्रिया बाहर ही उसका इंतजार करने लगी।
नेहा ने अंदर प्रवेश किया तो देखा कि एक टेबल पर मनीष पहले स‌े उसका इंतजार कर रहा है। नेहा जाकर निसंकोच उसके पास बैठ गई।
'अब बताओ क्या बात करना चाहते हो मुझसे' नेहा ने कहा।
'मैं तुमस‌े प्यार करता हूं'
तुमसे शादी करना चाहता हूं
लेकिन मैं तो तुमसे प्यार नहीं करती?
'क्या कमी है मुझमें? मेरा विश्वास करो, मैं तुम्हें बहुत खुश रखूंगा।'
विश्वास-अविश्वास की कोई बात ही नहीं है मनीष। मैंने कहा न मैं तुमसे प्यार नहीं करती। तो तुम ही बताओ...शादी जैसा फैसला मैं कैसे कर स‌कती हूं?
मनीष चुप हो गया।
अगर तुम मुझे नहीं मिली तो मैं जी नहीं पाऊंगा।
लगता है तुम फिल्में बहुत देखते हो। फिल्म और हकीकत में फर्क होता है मनीष। स‌मझने की कोशिश करो।
मैं जानता हूं कि फर्क होता है लेकिन मैं जो कह रहा हूं वह हकीकत है।
अगर मैं कहूं कि मैं किसी और स‌े प्यार करती हूं तो?
मैं कैसे यकीन कर लूं? मुझे नहीं लगता तुम्हारी जिंदगी में कोई है
क्यों तुम्हे ऎसा क्यों लगता है। क्या मेरा कोई ब्वायफ्रैंड नहीं हो स‌कता?
नहीं, मेरे कहने का यह मतलब नहीं है।
मेरा मतलब है कि इतने दिनों में मैंने तो कभी तुम्हारे स‌ाथ किसी लड़के को नहीं देखा।
तुम्हें क्या मालूम, तुमने मुझे आफिस के रास्ते और बस में ही तो देखा है।
नहीं, मैंने तुम्हें तुम्हारे हॉस्टल तक देखा है।
अच्छा, तो तुम मेरा पीछा भी कर चुके हो?
मनीष थोड़ी देर चुप रहा। फिर बोला, मैं स‌मझ रहा हूं तुम मुझसे पीछा छुड़ाने के लिए ऎसा कह रही हो।
आखिर क्या कमी है मुझमें?
तुममें कोई कमी नहीं है मनीष। लेकिन आई एम ऑलरेडी इंगेज्ड।
कौन है वो?
वो बचपन में मेरे स‌ाथ पढ़ता था। परसों रात पांच स‌ाल बाद उसने मुझे फोन किया और पहली बार में ही प्रपोज कर दिया।
और तुमने उसे हां भी कह दिया।
हां,
क्या तुम भी उसे प्यार करती हो।
हां, हम दोनों अच्छे दोस्त थे, लेकिन मैंने उससे कभी नहीं कहा।
तुम्हें मेरा खयाल नहीं आया?
आया था, लेकिन मेरे लिए इससे बड़ी बात क्या हो स‌कती है कि मैं जिसे बचपन स‌े पस‌ंद करती हूं वह मुझे मिल गया।
अभी कहां है वो?
वो बनारस में रहता है। थोडी देर में वो यहां पहुंचने वाला है। खुद ही मिल लेना उससे।
तुम स‌च कह रही हो? मनीष को नेहा की बातों पर यकीन नहीं हो रहा था।
हां मैं स‌च कह रही हूं।
मनीष फिर चुप हो गया।
नेहा ने अपने मोबाइल स‌े प्रिया को कॉल किया।
प्रिया अंदर आकर उनके स‌ाथ बैठ गई।
तुम दोनों स‌ाथ आई थी?
हां, प्रिया ने जवाब दिया।
अच्छा प्रिया तुम बताओ, क्या नेहा स‌च कह रही है, क्या इसका कोई ब्वायफ्रैंड है।
प्रिया ने नेहा की तरफ घूरकर देखा....लेकिन इससे पहले कि वो कुछ बोल पाती नेहा ने ही बोल पड़ी, अरे प्रिया उसके बारे में कुछ नहीं जानती।
ऎसा कैसे हो स‌कता है? मनीष उसकी बातों पर विश्वास करने को तैयार ही नहीं था।
तभी एक लड़का उनकी टेबल की तरफ आया। उसे देखते ही नेहा खड़ी हो गई और उछलकर उसके गले स‌े लिपट गई।
मनीष और प्रिया दोनों के लिए यह वक्त स‌रप्राइज्ड होने का था।
नेहा ने उस लड़के स‌े पहले मनीष का परिचय कराया...मनीष यह है राजेश..और राजेश यह है मनीष और यह है मेरी प्यारी स‌हेली प्रिया।
प्रिया ने रूठने के अंदाज में नेहा की तरफ देखा। जैसे आंखों ही आखों में कहना चाहती हो कि तुमने राजेश के बारे में मुझे नहीं बताया। अपनी स‌बसे पक्की स‌हेली को नहीं बताया।
मुझे पता है मनीष तुम्हें मुझसे मिलकर खुशी नहीं हुई होगी, क्योंकि मैं तुम्हारी फीलिंग स‌मझ स‌कता हूं। मैं तुम्हें नेहा तो नहीं दे स‌कता लेकिन हम दोनों अच्छे दोस्त तो बन ही स‌कते हैं। राजेश स‌ब कुछ एक ही स‌ांस में बोल गया।
ओके, राजेश। ओके प्रिया। अब मैं चलता हूं। अब मैं तुम्हें कभी परेशान नहीं करूंगा। बॉय नेहा, बॉय राजेश, बॉय प्रिया। यह कहकर मनीष वहां स‌े निकल गया। किसी ने उसे रोकने की कोशिश नहीं की।
अब चलें प्रिया? नेहा ने पूछा।
हां, चलो। अभी तो मुझे तुमसे बहुत स‌ारी बातें करनी हैं
'मैं जानती हूं तुम्हें क्या बातें करनी है'
आज तो स‌ारी रात तू झगड़ने ही वाली है मुझसे।
झगड़े वाली बात ही है। इतनी बड़ी बात तुमने मुझे नहीं बताई। राजेश के बारे में मुझे नहीं बताया।
अरे, बबा! कल तक ऎसा कुछ था ही नहीं तो क्या बताती खाक?
अच्छा अब चल, कमरे में चलकर झगड़ लेना जितना झगड़ना हो। चलो राजेश, तुम्हें तो आज ही बनारस लौटना भी है।
हां, चलो! तीनों स‌ाथ चल दिए। प्रिया की आंखों में मनीष का मायूस चेहरा घूम रहा था। लेकिन क्या हो स‌कता है...यही तो जिंदगी है। प्रिया ने खुद को स‌मझाने की कोशिश की और उनसे स‌ाथ अपने भी कदम बढ़ा दिए। (समाप्त)

मंगलवार, 20 मई 2008

अलगौझा*

चाचा आप क्यों गुस्सा हो गए?
आप तो मुझे रोज चूमा करते थे
अब कटे-कटे स‌े क्यों रहते हैं?
आपने चुन्नू भैया को डांटा क्यों नहीं?
उसने आपकी लाई मिठाई मुझे नहीं दी।
मुन्नी दीदी भी अब मेरे स‌ाथ लूडो नहीं खेलतीं
कहती हैं जाओ-अपने भाई के स‌ाथ खेलो
बताओ चाचा, तुम मुन्नी दीदी को डांटोगे न?

भला चाचा तुम्हें याद है कितने दिन हो गए
मुझे कंधे पर बिठाकर हाट घुमाए हुए
कोने वाले कमरे में अब ताला क्यों बंद रहता है?
वह तो हमारे खेलने का कमरा था
चाची तो मुझे गोद पर स‌ुलाया करती थीं
उस दिन दुखते स‌िर को दबाने को कहा
तो क्यों झिड़क दीं?
जानते हो चाचा,
चाची के कमरे में जाने पर
स‌ब मुझे स‌हमी-सहमी निगाह स‌े देखते हैं
बताओ न चाचा, ऎसा क्यों हो रहा है?
मुझे बहुत डर लगता है।
**********************
बच्चा केवल स‌वाल करता है
वह नहीं जानता कि
आंगन वाली दीवार की ऊंचाई
कब दिलों को पार कर गई
(मेरे अजीज दोस्त प्रमोद कुमार की कविता जो प्रमोद ने मुझे 16-11-1998 को अपनी पाती के स‌ाथ वाराणसी स‌े भेजी थी)
*विभाजन

गुरुवार, 8 मई 2008

मुझे इस‌स‌े क्या लेना-देना?

पहुंचते-पहुंचते लेट हो गया। ऑफिस के ही स‌हायक वर्मा की डेथ हो गई थी। मातमपुर्सी में जाना था। पहुंच गया। अंदर पहुंचते ही मरघट स‌ा स‌न्नाटा महसूस हुआ। बहरहाल, वर्मा के परिजनों स‌े मिलकर दुख प्रकट किया। जहां तक हो स‌का रोनी स‌ूरत बनाई, मुंह लटकाया।
स‌भी स‌िर झुकाए बैठे थे। मैं भी बैठ गया। थोड़ी-थोड़ी देर में देख लेता था...कौन क्या कर रहा है...(वाकई शोक स‌भा में बैठना बड़ा बोरिंग काम है) इस स‌क्सेना को देखो ऎसे मुंह लटकाए बैठा है जैसे इसी के घर स‌े जनाजा निकलने वाला हो। बड़ा अपना बनता है, वर्मा स‌े इसकी बिल्कुल भी नहीं पटती थी। लेकिन मुझे इससे क्या लेना-देना।
बॉस को देखो...शोक प्रकट करने आया है। यहां भी अपनी स‌ेक्रेटरी को स‌ाथ लाना नहीं भूला। इसके तो ऎश हैं। वर्मा की पे रोक रखी थी। मरते ही चेक काट दिया। बड़ा अपना पन दिखा रहा है। आज तक अपनी स‌ेक्रेटरी की पे नहीं रोकी...वह तो जब चाहे आए, जब चाहे जाए। वैसे वह आती अक्सर देर स‌े ही है। लेकिन मुझे इससे क्या लेना-देना।
मिसेज वर्मा पर भी क्या मुसीबत का पहाड़ टूट पड़ा। बच्चे तो हैं नहीं। चलो अच्छा है। कुछ दिनों बाद उस अस्थाना स‌े...बहुत घर आता-जाता था। अब भी देखो कैसे सट कर बैठा है मिसेज वर्मा स‌े। माहौल का भी खयाल नहीं रखता स्साला। मन ही मन तो खुश ही हो रहा होगा। वर्मा अच्छा चला गया। जरूर इसी की बददुआ लगी होगी बेचारे को। अव्वल दर्जे का कमीना है। अब तो कोई रोकने-टोकने वाला भी नहीं है। जहां चाहे वहां ले जाए। लेकिन मैं यह स‌ब क्यों स‌ोचने लगा। आखिर मुझे इसस‌े क्या लेना-देना।
वैसे कुछ भी हो वर्मा ने मकान बड़ा आलीशान बनवाया है। क्या खूब है। इतना बडा़ घर? इस अकेली के लिए? शायद बेचने की स‌ोच रही हो...एक दो दिन में बात करता हूं। बात बन जाए तो अच्छा ही है। अस्थाना का तो अपना मकान है ही...फिर इसकी क्या जरूरत? 'बेचेंगे' तो अच्छा ही है। नहीं तो मकानों की कमी थोड़े ही है। कहीं और देख लूंगा। ये अस्थाना ही टांग अड़ा स‌कता है। बहुत चालू चीज है। लेकिन मुझे इससे क्या लेना-देना।
रमेश भी आया है। अब इसका क्या होगा? इसकी फाइलें तो वर्मा ही निबटाता था। शायद इसीलिए स‌बसे 'रियल' दुखी नजर आ रहा है। पता नहीं कैसे पटा रखा था वर्मा को। खुद तो मोना स‌े दरबार करता रहता था और वर्मा बेचारा काम में लगा रहता था। अच्छा ही हुआ। अब बेचारे वर्मा की आत्मा को शांति मिलेगी। लेकिन अब इस रमेश को पता चलेगा। बहुत होशियार बनता है खुद को। कैसे बार-बार आंखों में रुमाल फेर रहा है। शर्म भी नहीं आती घड़ियाली आंसू बहाने में। पाखंडी कहीं का। इसका भी बहुत आना-जाना था वर्मा के यहां। मिसेज वर्मा को पति की जगह लगवाने की बात कह रहा था। बड़ा इंटरेस्ट ले रहा था। जरूर इसका कोई मतलब होगा...मतलबी तो नंबर एक का है। कहीं अब अपनी फाइलें मिस‌ेज वर्मा स‌े तो नहीं निबटवाने की तैयारी...? लेकिन मुझे इससे क्या लेना-देना।

मोना को देखो, क्लर्क है, लेकिन बनती ऎसे है जैसे खुद ही बॉस हो। स‌ादे कपड़ों में आना तो मजबूरी है। फिर भी मेकअप करना नहीं भूली। इसे भला वर्मा के रहने न रहने का कैसा दुख? उल्टे ये तो और खुश हो रही होगी कि अब वर्मा की पोस्ट इसे ही मिलेगी। तभी तो चेहरे पर दुख की एक भी लकीर नजर नहीं आ रही है। जाने दो, मुझे इस‌ स‌बसे क्या लेना-देना।

अरे, यह राजेश यहां क्या कर रहा है? शोक स‌भा में आने की तमीज भी नहीं है। वही कपड़े पहने चला आया। चपरासी है पर अकड़ ऎसी कि क्या कहने...एक चाय मंगाने के लिये दस बार कहना पड़ता है। ऊपर स‌े एक चाय एक्सट्रा, उसका गला तर करने के लिए। खड़ा तो ऎसे है जैसे बड़ा भोला है। मोना की चाय तुरंत आ जाती है। हमारा काम तो पचास नखरे जैसे तनख्वाह ही नहीं लेता। अहमक कहीं का।

अच्छा, ये गणेश भी आया है। ऑफिस में तो शक्ल ही नहीं दिखाई देती। यहां कैसे आ गया? मुफ्त की तनख्वाह लेता है। पता नहीं बॉस के घरवालों को कौन स‌ी घुट्टी पिला रखी है। शायद बॉस की बीवी को....। इसकी हाजिरी तो ऑफिस की जगह घर पर लगती है। आज पूरे एक महीने बाद शक्ल दिखाई है। वह भी यहां। ऑफिस जाएगा लेकिन बस पे लेने। काम स‌े इसका क्या वास्ता? बॉस ने जो लिफ्ट दे रखी है। लगता है बॉस की कोई कमजोर नस इसके हाथ आ गई है। तभी तो बॉस ने इसे आज तक रोका-टोका नहीं है। ये करता क्या है? जरूर कोई स‌ाइड बिजनेस शुरू कर रखा होगा। तभी तो कार स‌े चलता है। लगता है काफी कमाई हो रही है। होने दो, मुझे इसस‌े क्या लेना-देना।

स‌चमुच वर्मा के जाने स‌े मैं बहुत दुखी हूं। मैं तो हमेशा स‌े उसका, उसके परिवार का शुभचिंतक रहा हूं। बाकी लोग कैसे हैं इससे मुझे क्या लेना देना।

शोक स‌भा में स‌भी अपनी राय प्रकट कर रहे थे। बडा़ अच्छा आदमी था...कभी किसी स‌े टेढ़े होकर बात नहीं की। स‌बसे अच्छा व्यवहार और काम पर ध्यान, यही तो खूबियां थीं वर्मा की। वैस‌े मरने के बाद हर आदमी बहुत अच्छा हो जाता है। उसकी बुराइयां दूर होते देर नहीं लगती। मेरी राय में वर्मा स‌चमुच बहुत अच्छा आदमी था। मगर अच्छा हो या बुरा, अब तो मर खप गया। अब भला मुझे उसस‌े क्या लेना-देना?

मंगलवार, 6 मई 2008

एक गधे का एक्सक्लूसिव इंटरव्यू

आपका जन्म कब और कहां हुआ?
-मुझे ठीक-ठीक तो नहीं मालूम, किंतु मेरे दादा, परदादा कहा करते थे हम स‌ीधे स्वर्ग स‌े उतरे हैं। और जहां तक हमारे जन्म के स‌मय की बात है तो निश्चय ही वह कोई शुभ घड़ी रही होगी।

जैसा कि आपने बताया कि आपका आगमन स्वर्ग स‌े हुआ है, तो क्या अब आज के हालात में आपको दोबारा मृत्युलोक छोड़कर स्वर्ग जाने का मन नहीं करता?
-करता तो बहुत है, लेकिन धरती पर भी तो हमारी कुछ जिम्मेदारियां हैं। अब एकदम स‌े उनसे मुंह मोड़ना भी तो ठीक नहीं लगता और फिर, हमारा मालिक भी तो इतना कड़क और निर्दयी है हम कहीं इधर-उधर जाने की स‌ोच भी नहीं स‌कते। अगर कोशिश भी करते हैं तो उसे पता नहीं कहां स‌े पहले ही खबर हो जाती है। हर जगह उसने अपने जासूस छोड़ रखे हैं।

तो आप स‌ब मिलकर एक पार्टी गठित करके स्वयं ही क्यों नहीं मालिक बन जाते?
-यह भी कोशिश की थी हमने, किंतु पर्याप्त स‌मर्थन नहीं मिल पाया। हमारे कुछ स‌ाथी लालचवश मालिकों स‌े जा मिले और कुछ दल बदलू निकले।

तो आप किसी अन्य दल स‌े गठबंधन क्यों नहीं कर लेते?
-हां, इस पर हम विचार-विमर्श कर रहे हैं। हम देख रहे हैं कि किस दल की स‌ोच हमारी स‌ोच है और उसका वोट बैंक कितना है।

आपकी पार्टी का चुनाव चिह्न क्या है?
-आदमी

बड़ा अजीब चुनाव चिह्न है। आपको तो अपनी ही बिरादरी स‌े कोई चुनाव चिह्न रखना चाहिए था।
-लगता है इस क्षेत्र में आपकी जानकारी थोड़ी कम है। अरे जब हमारे पड़ोसी देश के मनुष्यों की एक पार्टी हमें अपना चुनाव चिह्न बना स‌कती है तो फिर हम उन्हें क्यों नहीं।

आपकी पार्टी के मुद्दे क्या होंगे?
-यही कि हमें भी स‌माज में अन्य जानवरों मसलन गाय, भैंस जैसा स्थान मिले। रिटायर्ड गधों को पेंशन और हमारी नई पीढ़ी को आरक्षण की स‌ुविधा मिले।

यदि मनुष्यों की पार्टी ने स‌रकार बनाने के लिए आपकी पार्टी का समर्थन मांगा तो आपका क्या रवैया रहेगा?
-हम उन्हें मुद्दों पर आधारित स‌मर्थन देंगे। अपने मुद्दे हम पहले ही बता चुके हैं। बाकी स‌मय आने पर मिल-बैठकर तय कर लेंगे।

ऎसे में क्या आपकी पार्टी स‌रकार में शामिल होगी?
-नहीं, हम स‌रकार को बाहर स‌े स‌मर्थन करेंगे। क्योंकि मनुष्यों के स‌ाथ काम करने में हमारे लोगों को मुश्किल होगी। वो बातों स‌े काम लेते हैं और हम लातों स‌े। मनुष्यों में चापलूसी की बीमारी भी बहुत ज्यादा होती है। जो हमें कतई पसंद नहीं। ऎसे में उन्हें हमारी कार्यशैली शायद पसंद न आए।

मान लीजिए आप अकेले स‌त्ता में आ जाएं तो वर्तमान व्यवस्था में क्या फेरबदल करेंगे?
-बहुत कुछ बदलना होगा। स‌बसे पहले तो आवास विकास और भवन निर्माण स‌े स‌ंबंधित स‌भी विभागों के कार्य की दिशा में परिवर्तन लाएंगे। इंजीनियरों को मकान गिराकर बड़े-बड़े मैदान बनाने और वहां पर्याप्त मात्रा में हरी-हरी विलायती घास लगवाने का काम स‌ौंपा जाएगा। हम कॉलोनियों को हरे-भरे मैदानों में तब्दील करवा देंगे। ताकि हमारे भाई-बंधु मुफ्त में ही वहां उच्च क्वालिटी की घास चर स‌कें। एक चारा विभाग का भी गठन हम करेंगे। इसके अलावा अन्य जरूरी विधेयक भी पेश किए जाएंगे।


यह स‌ब तो ठीक है, किंतु गधा रहेगा गधा स‌दा, इस पर आप क्या कहेंगे?
-आपके इस स‌वाल की वजह मैं स‌मझ स‌कता हूं (नाराज होते हुए) आप इंसानों को अपनी कुर्सी छिनती नजर आ रही है, इसीलिये व्यक्तिगत कमेंट पर उतर आए। लेकिन हमें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। हम गधे हैं तो गधे ही रहेंगे। हम इंसान बन कर अपनी तौहीन भी नहीं कराना चाहते। हम उनमें स‌े नहीं हैं जो दूसरों की संस्कृति स‌े प्रभावित होकर अपनी भाषा, स‌ंस्कार, पहनावा यहां तक कि अपनी पहचान तक खो देते हैं। हां, कुछ मूर्ख वैज्ञानिक जरूर हमारी पहचान को नष्ट करने की लगातार कोशिश कर रहे हैं, लेकिन करने दीजिए। हम भी कुछ कम नहीं। आखिर गधे हैं हम और रहेंगे स‌दा।

छोड़िए कोई और बात करते हैं। अच्छा, जरूरत पड़ने पर गधे को भी अपना बाप बनाना पड़ता है, इस पर आपके क्या विचार हैं?
-विचार की क्या बात है, आपके स‌माज में मनुष्य की एक विशेष प्रजाति है। उसे नेता कहते हैं। अक्सर स‌ुनने में आता है कि अमुक नेता ने आज फलां पार्टी की स‌दस्यता ग्रहण कर ली, तो फिर कल फिर दल बदल लिया। स‌ब जरूरत की दुनिया है। जरूरत पड़ी तो...मेरा आशय स‌मझ गए होंगे आप...। हम भी वैसा ही करेंगे।

यदि कोई आदमी दूसरे आदमी को गधा कह दे और आप स‌ुन लें तो क्या प्रतिक्रिया रहेगी आपकी?
-(नराजगी स‌े) यह हम कतई नहीं बर्दाश्त करेंगे कि कोई हमारी तुलना आदमियों स‌े करे। यह तो स‌रासर हमारा अपमान है। आखिर हमारी भी कोई पहचान है, अपना स्टेटस है।

अच्छा यह बताइए, गधे कितने प्रकार के होते हैं?
-स‌िर्फ दो प्रकार के। देशी और विलायती।

विदेशी और देशी गधे में क्या फर्क है?
-बहुत फर्क है। विदेशों में मात्र चार पैर वाले गधे पाए जाते हैं, जबकि हमारे देश में 'चार स‌े कम' पैर वाले गधे बहुतायत में मिलते हैं। विदेशी गधों के मुकाबले देशी गधे अधिक चतुर और स‌मझदार होते हैं।

वह कैसे?
-यह तो आपको इलेक्शन के पश्चात पता चल ही जाता है।

कुछ लोगों का कहना है कि भारत आपकी स‌रजमीं नहीं है?
-(तीव्रता स‌े आक्रोश में) झूठ कहते हैं वो। यही हमारी स‌रजमीं है। और यहीं हम स‌बसे अधिक मात्रा में पाए जाते हैं। स‌बसे बड़ी बात तो यह है कि यहीं हमारी कौम स‌बसे ज्यादा स‌ुरक्षित है औऱ यहीं उसका भविष्य स‌बसे ज्यादा उज्ज्वल है।

शुक्रवार, 2 मई 2008

जहां पर्दे की जरूरत है, वहां पर्दा होना चाहिए : कुंवर 'बेचैन'

मंच के स‌ाथ हिंदी कविता की दूरी यद्यपि छायावाद के जमाने स‌े ही बढ़ने लगी थी लेकिन अभी बमुश्किल तीस वर्ष पहले तक मंचीय कविता को आज की तरह कविता की कोई भिन्न श्रेणी नहीं माना जाता था। आज भी शास्त्रीय रुचियों वाले कुछ कवि मंच पर प्रतिष्ठित हैं, लेकिन एक जाति एक जेनर के रूप में मंचीय कविता अब शास्त्रीय रुचि वाले लोगों के बीच कुजात घोषित हो चुकी है। इस विडंबना को लेकर और कुछ अन्य महत्वपूर्ण स‌वालों पर भी प्रस्तुत है मंचीय कविता के प्रतिष्ठित नाम शायर कुंवर 'बेचैन' के स‌ाथ कुछ अरसा पहले हुई रवीन्द्र रंजन की खास बातचीत के प्रमुख अंश-

कवि-सम्मेलनों और मुशायरों का जो स्तर पहले देखने को मिलता था वह इधर दिखाई नहीं दे रहा है। क्या आप को भी ऎसा लगता है कि मंचीय कविता का स्तर गिर रहा है?
-हां, यह स‌च है कि आज जो कविता मंच पर पढ़ी जा रही है, कलात्मक दृष्टि स‌े उसका स्तर गिरा है। थोड़ा फूहड़पन भी आया है। कहा जाता है कि यह फूहड़पन हास्य कविता के जरिये ही आया है। हालांकि मैं इसे पूरी तौर पर स‌च नहीं मानता। मेरा मानना है कि रस कोई भी फूहड़ नहीं होता। उस रस में स‌ुनाई जाने वाली कविता फूहड़ हो स‌कती है। लेकिन मंच पर अगर कुछ घटिया हो रहा है तो काफी कुछ अच्छा भी हो रहा है। दरअसल, हो यह रहा है कि जो लोग कभी कवि स‌म्मेलनों में नहीं जाते वे ही कवि स‌म्मेलनों की आलोचना कर रहे हैं। पूरी रचना स‌ुने या पढ़े बगैर मात्र मीडिया स‌े प्रसारित कुछ अंश स‌ुनकर या पढ़कर ने निष्कर्ष निकाल रहे हैं। आज भी ऎसे कवि हैं जो मंच के माध्यम स‌े एक बहुत बड़े वर्ग तक पहुंचकर विद्वेष मिटाने का काम कर रहे हैं। इसलिये आलोचकों को एकांगी नहीं होना चाहिये।

लेकिन यह तो एक आम बात है कि मंचों पर अब हल्के-फुल्के कवियों को ही ज्यादा कामयाबी मिल रही है। श्रोताओं की रुचि में इतना परिवर्तन आने की क्या वजह हो स‌कती है?
-जहां तक श्रोता का टेस्ट बदलने का स‌वाल है तो मैं कहूंगा कि आज का जो स‌माज है वह तीन चीजें लिये बैठा है-तनाव, आक्रोश और तेजी। गरीब स‌े मिलकर अमीर, अनपढ़ स‌े लेकर पढ़ा-लिखा तक, हर व्यक्ति आज किस‌ी न किसी तनाव में जी रहा है। ऎसे में हास्य की अच्छी कविता हो या खराब या फिर चुटकुले ही क्यों न हों, उनके माध्यम स‌े व्यक्ति तनाव स‌े निकलना चाहता है। जैसे तनाव मुक्त करने वाली गोलियां-गोली कौन स‌ी है इससे किसी को खास मतलब नहीं होता। उसे तनाव स‌े मुक्ति मिल गई। वह कविता कैसी थी, तनाव मुक्त करने वाली गोली कौन स‌ी थी इससे उसे कोई मतलब नहीं रहता। यह बात अलग रही कि घर जाने के बाद या कुछ दिनों बाद वह स‌ोचे कि वह तो चुटकुला ही था।
दूसरी चीज है आक्रोश। आज हर आदमी एक आक्रोश लिये बैठा है। जब मंच स‌े उसके आक्रोश की अभिव्यक्ति किसी कवि द्वारा व्यक्त होती है तो श्रोता को अच्छा लगता है। उस‌का स्तर क्या है यह बात उसके लिये बहुत ज्यादा मायने नहीं रखती। तीसरी चीज है तेजी अर्थात् गति। हर आदमी आज जल्दी में है। हमारे यहां कविता प्रतीकात्मक शैली में कहने का चलन रहा है। किंतु आज यदि हम ऎस‌ा करते हैं तो हो स‌कता है कि कविता श्रोता की स‌मझ में ही न आए। आज कविता का अर्थ श्रोता तक तपाक स‌े पहुंचना चाहिये। यह तभी स‌ंभव है जब स‌ीधी-सीधी बात कही जाए। स‌िर्फ अर्थ ही नहीं, स‌ुनाने में भी गति चाहिये। क्योंकि आजकल हर व्यक्ति गाड़ी में ही दौड़ना चाहता है। जहां तक स्तर की बात है तो आज बहुत स‌े मंचीय कवियों को स्तर की स‌मझ नहीं है और न ही यह स‌मझ श्रोताओं के पास है। हालांकि आज भी बहुत स‌े कवि हैं जिन्होंने मंच पर भी स्तर कायम रखा है।

हिंदी कविता में गजल की स्थिति को लेकर आलोचकों में अभी भी मतभेद हैं। इसके बारे में आपकी क्या राय है?
-शुरू में उर्दू शायरों का भी कहना था कि हिंदी गजलकार गजल के मिज़ाज को जानते ही नहीं और अंट-शंट गजल कह रहे हैं। कुछ हद तक यह स‌च भी था। क्योंकि जब एक भाषा की विधा किसी दूसरी भाषा में प्रवेश करती है तो उसे एडजस्ट होने में कुछ स‌मय तो लगता ही है। मेरा मानना है कि हिंदी गजल स‌बसे अधिक स‌मन्वयकारी है। यह स‌बसे अधिक करीब लाने वाली, सांस्कृतिक एकता स्थापित करने वाली स‌ाबित हुई है। आज उर्दू शायर भी अपने गजल स‌ंग्रह देवनागरी में लिपि में छपवा रहे हैं। दुष्यंत ने जिस हिंदी गजल की शुरुआत की वह आज काफी फल-फूल रही है। हिंदी गजल ने अपने छोटे-छोटे पैरों स‌े 30 स‌ाल की लंबी यात्रा तय कर ली है। इस दौरान हिंदी गजल ने बहुत स‌े नए विषय दिये हैं, जिन्हें उर्दू वालों ने भी अपनाया। इसलिए हिंदी गजल का उदय हिंदी कविता और उर्दू कविता दोनों के ही लिये स‌ुखद माना जा स‌कता है।

हिंदी गजल के इस स‌मन्वयकारी प्रभाव के बारे में थोड़ा और विस्तार से बताएं।
-वैसे तो स‌ारी विधाएं युग के अनुसार अपने स्वरूप में बदलाव लाती हैं। दोहों को भी नई भाषा, शिल्प, नए प्रतीकों के माध्यम स‌े कहने का रिवाज चला है। उर्दु गजल ने भी अपने परंपरागत विषय हुस्न-इश्क को छोड़कर नए विषय अपनाए हैं। आधुनिक परिस्थितियों में व्यंग्यात्मक कविता भी बड़ी तेजी स‌े उभरी है। ये प्रवृत्तियां उर्दू गजल में बहुत कम थीं, लेकिन जब स‌े हिंदी कविता में दुष्यंत की गजलें स‌ामने आईं तब स‌े ये बदलाव देखने को मिले हैं। इमरजेंसी पीरियड में दुष्यंत ने जो गजलें कहीं उनसे व्यवस्था पर भारी चोट हुई। उनमें एक नयापन था जो उर्दू गजलों में कभी नहीं रहा। हिंदी के कवि भी इससे बहुत प्रभावित हुए। गीतकार, नवगीतकार भी हिंदी गजल की ओर उन्मुख हो गए।
इस स‌मय यदि हिंदी कविताओं के स‌ंकलन उठाए जाएं तो उनमें 70 फीसदी स‌ंकलन गजलों के हैं। चाहे वे व्यक्तिगत स‌ंकलन हों या अलग-अलग कवियों के। हम कह स‌कते हैं कि हिंदी गजल आज तुकांत और लयबद्ध हिंदी कविता का पर्याय बन गई है। विधा कोई भी हो यदि वह लगातार एक स‌ी बनी रहती है तो उसमें जड़ता आ ही जाती है। हिंदी कविता में गजल के प्रवेश ने उसकी इस जड़ता पर चोट की है। अज्ञेय जी जापान स‌े हाइकू कविता लाए। त्रिलोचन जी ने स‌ॉनेट लिखे। आज के उर्दू शायर दोहे लिख रहे हैं। हिंदी गजलों को इसी तरह की प्रयोगात्मक श्रेणी में लिया जाना चाहिए। यद्यपि उसका विस्तार आज अन्य किसी भी प्रयोग स‌े ज्यादा हो गया है।

आपकी दृष्टि में वर्तमान उर्दू गजल किन परिवर्तनों स‌े गुजर रही है? उसमें कौन स‌े बुनियादी बदलाव आते दिखाई दे रहे हैं?
-आज उर्दू गजल के विषय भी वही हो गए हैं स‌मकालीन हिंदी कविता के हैं। शायरी के परंपरागत विषयों को बरकरार रखते हुए भी शायरों ने आज की स‌ोच, स्थिति, विद्रूपताओं को स‌ाफ-साफ कहना शुरू कर दिया है। जबकि शायरी में अपनी बात इशारों में कहने का चलन ज्यादा रहा है। हालांकि उर्दू शायरी मुख्य विषय आज भी मोहब्बत ही है। लेकिन आज शायर मोहब्बत पर भी जो कुछ कह रहे हैं, उसकी भाषा और विषय में स‌मयानुसार स्पष्ट बदलाव देखा जा स‌कता है। बशीर बद्र, वसीम बरेलवी, निदा फाजली आदि की उर्दू भी हिंदी जैसी हो गई है। भाषा, बिंब, प्रतीक स‌भी में तेजी स‌े परिवर्तन आया है। अब उर्दू के शायर भी मां, पिता, बहन, बेटी पर, नेताओं पर शेर कह रहे हैं। दूसरी तरफ रुबाइयों को उर्दू का कठिन छंद माना जाता है, लेकिन हिंदी में आज रुबाइयां लिखने का प्रचलन उर्दू स‌े ज्यादा हो गया है। जहां तक खामियों का स‌वाल है, शायर का स‌ीधा स‌ंबंध जब जनता स‌े बनता है तो शास्त्रीयता वाला पक्ष कुछ कमजोर हो ही जाता है।

स्वतंत्रता के शुरुआती दशकों में नई कविता का दावा था कि आधुनिक विसंगतियों स‌े भरे यथार्थ को वह ही स‌ामने लाने में स‌क्षम है। उसके कवियों ने नवगीत की जबर्दस्त आलोचना भी की। लेकिन आज नवगीत के कुछ आलोचक भी नवगीत लिख रहे हैं, इसकी वजह क्या है?
-समालोचकों का कहना है कि नवगीत नई कविता के स‌ामने आ खड़ा हुआ था। मेरा मानना है कि गीत एक स‌हज प्रक्रिया है। जैसे-जैसे व्यक्ति का परिवेश बदलता है, उसकी मानसिकता भी बदलती है। जैसे कस्बाई माहौल में आपसी प्रेम-भावना ज्यादा महत्वपूर्ण होती है। जबकि महानगर की स्थिति है...नयन गेह स‌े निकले आंसू ऎसे डरे-डरे, भीड़ भरा चौराहा जैसे कोई पार करे...। मतलब यह की नवगीत की परंपरा स‌हज रूप में ही विकसित हुई। यह कहना कि कोई चीज स‌ामने लाकर खड़ी कर दी गई, शायद उचित नहीं है। स‌मय के अनुसार नए परिवर्तन आए तो कवियों ने उसे गीत में ढाला और एक स‌हज प्रक्रिया के तहत नवगीतों की परंपरा शुरू हुई। प्रारंभिक नवगीतकार जैसे राजेंद्र प्रसाद स‌िंह, शंभूनाथ स‌िंह, उमाकांत मालवीय, ओमप्रकाश आदि नवगीत में स‌हज रूप स‌े ही आए। इन्हें नवगीत तो स्थापित करने का भी श्रेय जाता है।

गीत व नवगीत का भेद कहां तक उचित है? पुराने गीतकार तो नवगीत जैसे किसी शब्द को मान्यता देने को भी तैयार नहीं हैं। उनका कहना है कि गीत तो गीत होता है, फिर यह नवगीत क्या है?
-हां, कुछ लोग ऎसा कहते हैं। उनका कहना है कि इसका नाम नवगीत नहीं होना चाहिये। मैं भी इस बात का पक्षधर हूं क्योंकि गीत तो गीत होता है, लेकिन किसी बात को खास पहचान देने के लिए एक विशेषण लगाना होता है। जो पुराने गीत चले आ रहे थे, उनसे ये कुछ हटकर हैं। इनकी भाषा, शिल्प, तेवर कुछ अलग है। कुल मिलाकर इस‌मे कुछ नयापन स‌ा दिखा, इसलिए इसको नवगीत कह दिया गया। जहां तक नई कविता का प्रश्न है, उम्र के स‌ाथ-साथ इसके विचार तत्व में वृद्ध हुई है। यह स्वाभाविक है। उम्र के स‌ाथ-साथ विचार बढ़ते ही हैं।

पिछले करीब तीन दशक स‌े स‌े आप अध्यापन स‌े जुड़े हैं आजकल जो छात्र हिंदी अध्ययन-अध्यापन में आ रहे हैं, वे हिंदी स‌ाहित्य में कितनी रुचि ले रहे हैं? हिंदी स‌ाहित्य के प्रति उनका क्या नजरिया है?
-सच्ची बात कही जाए तो आजकल हिंदी में बचा-खुचा माल आता है। जिस महाविद्यालय में मैं पढ़ाता हूं वहां बहुत स‌ारे विषय हैं। छात्रों के पास ऑप्शन हैं। जब कहीं एडमिशन नहीं होता तभी वे हिंदी में आते हैं। घर में पड़े-पड़े क्या करेंगे, इसी बहाने घर स‌े बाहर निकलने को तो मिलेगा। क्लास जाएं या न जाएं क्या फर्क पड़ता है। आजकल कोई ही छात्र होगा जो हिंदी में रुचि के कारण आता हो, पहले ऎसी स्थिति नहीं थी। कविता या स‌ाहित्य स‌े लगाव के कारण आज कोई हिंदी में नहीं आ रहा है। यह वास्तविकता है। इसका प्रमुख कारण पब्लिक स्कूलों की संस्कृति है। हालत तो ये है कि ये बच्चे 'पैंसठ' तक नहीं जानते। इन्हें तो 'स‌िक्सटी फाइव' ही मालूम है। हालांकि इन स‌बके बीच अगर कोई अच्छा छात्र आ जाता है तो वह आगे जाकर अपनी प्रतिभा स‌िद्ध करता है। लेकिन फिलहाल ऎसी प्रतिभाएं कम ही आ रही हैं।

फिल्मों के लिए लिखने के बारे में आप क्या सोचते हैं? क्या फिल्मों के लिये लिखते हुए भी स्तर बरकरार रखा जा स‌कता है?
-जहां तक फिल्मों के लिये लिखने का स‌वाल है तो वहां कहानी की मांग के अनुसार ही गीतकार को शब्द पिरोने होते हैं। अब अगर कहानी की मांग घोर श्रृंगारिक है तो यहां गीतकार को स‌ावधानी बरतनी पड़ती है। इस मामले में गुलजार और निदा फाजली की प्रशंस‌ा करनी होगी, जिन्होंने अपना स्तर बनाए रखा है। गुलजार की शायरी में नयापन है। निदा फाजली भी बहुत उम्दा शायर हैं। उनकी शायरी की जो नवैय्यत है उसी के लोग कायल हैं। दबाव में अगर कहीं थोड़ी बहुत नंगेपन की भी स‌ंभावना होती है तो अच्छा शायर उसमें पर्दा डाल देता है, जिससे उसमें फूहड़ता नहीं आने पाती। जहां पर्दे की जरूरत है वहां पर्दा रहना चाहिए। शायरी में अगर थोड़ा-बहुत पर्दा रहे तो यह अच्छी बात है।

शनिवार, 1 मार्च 2008

तुम्हारा नाम क्या है? ...(5)

[गतांक से आगे] ठीक है ! मैं कल ही बॉस से बात करती हूं। दोनों छुट्टी कर लेते हैं। वैसे मुझे नहीं लगता छुट्टी मिलने में कोई प्राब्लम आएगी।
हां, वो तो है। देख लो बात करके। प्रिया ने उदासीन लहजे में जवाब दिया।
हर दिन की तरह अगले दिन भी नेहा और प्रिया सुबह आफिस के लिये तैयार होने में जुटी थीं। हमेशा की तरह तैयार होने में देरी के लिये प्रिया ने नेहा की डांट खायी। हमेशा की तरह प्रिया ने उसकी बात एक कान से सुनी और दूसरे कान से निकाल दी।
अरे, इस लड़की ने तो मेरी जिंदगी का कबाड़ा कर दिया है। जब देखो आर्डर झाड़ती रहती है। एक पल को चैन नहीं लेने देती। आफिस में तो हैं ही सब बॉस बनने के लिये और कमरे पर आकर यह मेरी बॉस बन जाती है। जल्दी करो-जल्दी करो!! पता नहीं कौन सा तीर मारना है जल्दी पहुंचकर।
ज्यादा से ज्यादा वो रोहन यही ताना मारेगा न कि आज फिर लेट हो। बॉस के पास थोड़े चला जाएगा। अगर उसने ज्यादा स्मार्ट बनने की कोशिश की न तो मैं उसे एक ही दिन में सीधा कर दूंगी। तू चिंता मत कर और मुझे अपने तरीके से तैयार होने दे। प्रिया बोलती जा रही थी और नेहा सुने जा रही थी।
नेहा ने प्रिया को घूर कर देखा और प्रिया खिलखिलाकर हंस दी। नेहा के होठों पर भी मुस्कुराहट तैर गई।
अच्छा अब कमरा बंद करो और चलो। बकवास मत करो।
ठीक है बबा ! चल तो रही हूं। क्यों किसी और का गुस्सा मेरे ऊपर निकालने में जुटी हो। यह कहते हुये प्रिया की आखों में शरारत साफ नजर आ रही थी।
प्रिया का इशारा नेहा अच्छी तरह समझ गई थी। शायद इसीलिये उसने खामोशी ओढ़ ली।
बस आई, दोनों उस पर चढ़ गईं। सीट भी मिल गई। लेकिन नेहा ने एक शब्द भी नहीं बोला। प्रिया भी शायद उसे टोकने की हिम्मत नहीं कर पाई।
नेहा की यह चुप्पी ज्यादा देर तक कायम नहीं रह सकी।
अगले बस स्टाप पर वो लड़का एक बार फिर उसकी नजरों के सामने था। उस पर नजर पड़ते ही नेहा का तो जैसे खून खौल गया।
उस लड़के को देखते ही नेहा का ब्लडप्रेशर बढ़ जाता था।
हालांकि अभी तक उसने नेहा से कभी कोई ऐसी बात नहीं कही थी जिससे उस पर बदमाश या लफंगा लड़का होने का लेबल लगाया जा सके।
'आज आप लेट हो गईं?' उस लड़के ने नेहा की सीट पर आकर पूछा।
नेहा ने कोई जवाब नहीं दिया।
प्रिया की नजरों दोनों को चुपके से घूर रहीं थी। शायद उसे इंतजार था नेहा के कुछ बोलने का।
आपने कोई जवाब नहीं दिया....
अच्छा आज तो अपना नाम बता दीजिये...
अच्छा मैं अपना नाम तो बता ही देता हूं....
मेरा नाम है मनीष और आपका...?
'मैंने तुमसे कहा था न कोई नाम नहीं है मेरा।' नेहा ने चुप्पी तोड़ी।
नाराज क्यों होती हो। नाम ही तो पूछा है। कोई गाली तो नहीं दे दी।
क्यों मेरा नाम जानना चाहते हो?
बताओ क्यों जानना चाहते हो मेरा नाम?
जवाब दो...
अब उस लड़के ने खामोशी ओढ़ ली।
अब चुप क्यों हो? बताओ क्यों पूछना चाहते हो मेरा नाम? नेहा ने खीझकर अपना सवाल रिपीट किया।
अभी नहीं, पहले वादा करो तुम मेरे साथ मेरे घर चलोगी।
दिमाग खराब हैं क्या?
क्यों चलूंगी तुम्हारे घर....तुम कोई मेरे रिश्तेदार लगते हो?
नहीं, मैंने कहा था न, मैं तुम्हें अपने मम्मी-पापा से मिलाना चाहता हूं।
किसलिए? मुझे न तुममे कोई इंट्रेस्ट है औऱ न ही तुम्हारे मम्मी-पापा में। बस मेरा पीछ छोड़ दो।
इतना कहकर नेहा ने फिर खामोशी ओढ़ ली।
बस में बैठे सारे लोगों की निगाहें नेहा की तरफ ही टिकी थीं।
रोज आने-जाने वाले यात्री तो नेहा और उस लड़के से अच्छी तरह वाकिफ हो चुके थे।
इसके बावजूद आज तक किसी ने उस लड़के को एक शब्द नहीं बोला।
शायद बस यात्रियों के लिये भी वो दोनों टाइम पास का साधन बन चुके थे। (जारी...)

शुक्रवार, 15 फ़रवरी 2008

तुम्हारा नाम क्या है? ...(4)

मुझे तुम्हारे किसी सवाल का जवाब नहीं देना।
चलो प्रिया। जल्दी करो। आज तो इस पागल ने सबके सामने हमारा तमाशा बना दिया। पता नहीं किस जनम की दुश्मनी निकाल रहा है। हाथ धोकर पीछे पड़ गया है।
नेहा इतने तेज कदमों से चलने की कोशिश कर रही थी कि उसके कदम भी उसका साथ नहीं दे पा रहे थे। प्रिया उसे रुकने की आवाज देकर उसके पीछे-पीछे भाग रही थी।
आसपास के लोगों की नजरें नेहा और प्रिया पर ही थीं। लोगों को भी मुफ्त में अच्छा-खासा तमाशा जो देखने को मिल गया था।
प्रिया ने एक बार पीछे मुड़कर देखा। वह लड़का अब भी वहीं पर खड़े होकर उन्हें घूरे जा रहा था।
अब शायद प्रिया को उससे कुछ सहानुभूति होने लगी थी।
मन ही मन प्रिया ने पिछली सारी बातें दोबारा याद करने की कोशिश कीं।...नाम ही तो पूछ रहा था बेचारा। कोई उल्टी-सीधी बात तो नहीं की। कहीं होटल या क्लब में ले जाने की बात तो कर नहीं रहा था। मम्मी-पापा से ही तो मिलवाना चाहता है। तो क्या शादी...? यानी उसकी इरादा नेक है। लेकिन वो नहीं जानता कि...
अचानक प्रिया ने अपनी सोच पर विराम लाग दिया। इसके बावजूद वह लगातार सब कुछ समझने की पूरी कोशिश कर रही थी।
वहीं नेहा के कदम अब भी रुकने का नाम नहीं ले रहे थे।
प्रिया ने उसे आवाज दी, नेहा ने पीछे मुड़कर देखा और उसके कदम रुक गये।
प्रिया भाग कर गई और उससे लिपट गई। अब चलो भी। नेहा ने फिर दोहराया। उसका मूड अब भी ठीक नहीं हुआ था।
क्या बेशर्मी है। रोज का तमाशा हो गया है। पीछा ही नहीं छोड़ रहा है। लगता है मुझे यह नौकरी ही छोड़नी पड़ेगी। नेहा ने निराशा भरे स्वर में कहा।
नौकरी क्यों छोड़ेगी। तेरे लिये दूसरी नौकरी रक्खी है क्या? फिर घूमना इस कंपनी से उस कंपनी, दूसरी नौकरी की तलाश में। घर में तो बैठेगी नहीं? इतना तो मैं भी जानती हूं।
तेज कदमों की आवाज के सिवा अब नेहा और प्रिया के बीच कुछ नहीं था।
दोनों खामोश थीं।
हास्टल नजदीक ही था कि नेहा ने खामोशी तोड़ी। छुट्टी ले लेती हूं एक हफ्ते की।
उससे क्या होगा?
अरे, दो-तीन दिन बाद वो भी अपना रास्ता बदल देगा।
हां, ऐसा हो सकता है। लेट्स ट्राई! प्रिया को नेहा का यह आइडिया जंच गया।
लेकिन मैं अकेले तो आफिस में बोर हो जाउंगी और रास्ते में भी।
वो मेरे पीछे पड़ जाएगा। तुम्हारे बारे में पूछने लगेगा। तब मैं अकेली क्या करूंगी?
हमममम...ऐसा कर तू भी छुट्टी कर ले। नेहा यूं बोली जैसे उसके दिमाग में कोई शानदार आइडिया आ गया हो। (जारी...)

 
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