शनिवार, 9 मई 2009

...तो फिर कौन है असली पप्पू?

-प्रशांत

अगर आप भारत के नागरिक हैं और लोकसभा चुनावों में वोट डालने नहीं जाते हैं, तो आप पप्पू हैं, ये हम नहीं कह रहे चुनाव आयोग की ओर से जारी सारे विज्ञापनों में यही बताने की कोशिश की गई है... लेकिन आप अगर पोलिंग बूथ पर जाएं, आपके पास मतदाता पहचान पत्र भी हो और पिछले कई चुनावों से आप वोट डालते रहे हों, और तब भी आपको वोट देने का मौका नहीं मिले, तो आप क्या कहेंगे। पप्पू कौन?

इससे भी बड़ी बात तो ये कि आप उस जगह के स्थायी निवासी हों, आपके नाम पर एक अदद घर भी हो, आपके नाम से बिजली विभाग ने मीटर लगा रखा हो,आप करीब 9 साल से एक ही जगह पर रह रहे हों, आप कई बार वोट डाल चुके हैं और तब भी आपका नाम वोटर लिस्ट से गायब हो, तब भी क्या आप पप्पू कहलाएंगे।

एक और दृश्य-आप बिना वोट डाले लौटकर घर आ रहे हों और आपकी बिल्डिंग की कभी रखवाली करने वाला एक नेपाली चौकीदार रास्ते में मिल जाए और ये कहे, कि सर, वोटर लिस्ट में हमारा भी नाम है, तब आपको कैसा लगेगा?

जी हां, मैं किसी और की नहीं अपनी आपबीती बयान कर रहा हूँ। गुरुवार 7 मई को चौथे चरण में गाजियाबाद में वोट डाला गया। एक पढ़ा-लिखा शहरी होने के नाते मैं भी सुबह उठकर वोट डालने के इरादे से पोलिंग बूथ पर गया। मेरे हाथ में भारत के चुनाव आयोग की ओर से जारी मतदाता पहचान पत्र था। हां भाग संख्या पता नहीं था, लेकिन अपने याददाश्त के मुताबिक और अपनी बिल्डिंग के दूसरे लोगो से मिली जानकारी के आधार पर अपने क्षेत्र के पोलिंग बूथ पर पहुंच गया। वहां बूथ के बाहर बैठे पोलिंग एजेंट से पूछा कि भाई मेरा नाम किस लिस्ट में है और किस बूथ नंबर पर मुझे वोट डालना है, अपनी सूची में देखकर ये बता दो। वहां बेतहाशा भीड़ मौजूद थी, लोग अपने अपने बूथ के बारे में जानकारी हासिल करने की होड़ लगाए थे। धक्का मुक्की हो रही थी, पहले तो मैं, इस अफरा-तफरी में थोडा पीछे हो लिया और अपनी बारी का इंतजार करने लगा।

काफी देर इंतजार करने के बाद भी जब मेरी बारी नहीं आई, तो मैं आगे बढ़ा और एक बार फिर पोलिंग एजेंट से आग्रह किया। फिर वही हाल... करीब घंटाभर गुजर जाने के बाद मेरा धैर्य जवाब देने लगा, तो मैं भी बाकी लोगों की तरह जबरदस्ती घुस गया। तब जाकर पोलिंग एजेंट को इस बात का ख्याल आया कि मैं काफी देर से खडा हूं। उसने मेरा कार्ड देखा और ये कह चलता किया कि आपका नाम इस बूथ पर नहीं, दूसरे बूथ पर है।

वोट देने की लालसा लिए मैं दूसरे बूथ पर जा पहुंचा। वहां भी वैसा ही हाल नजर आया। फिर मैं पोलिंग एजेंट से आग्रह कर खड़ा हो गया। काफी देर इंतजार करने के बाद भी जब बात नहीं बनी, तो उससे कड़क आवाज में कहा कि भाई आखिर तुमने ये लाइन क्यों लगा रखी है, जब अपने पहचान वालों का ही नाम तुम्हें बताना है, तो यहां एक बोर्ड टांग दो कि यहां सिर्फ पहचानवालों की ही पर्ची दी जाती है। कृपया दूसरे लोग यहां लाइन में ना लगें। मेरे इन सवालों ने उसे थोड़ा सचेत किया और वो मेरे जैसे कई लोगों से वोटर कार्ड लेकर सूची में नाम तलाश करने लगा।

काफी देर बाद मेरी बारी आई। तो उसने एक-एक कर सभी सूचियों में खोज डाला, लेकिन मेरा नाम कहीं नहीं था। मैं हैरान रह गया कि पिछले कई चुनावों में वोट डाल चुका हूं और मेरे पास मतदाता पहचान पत्र भी है, लेकिन इस बार क्या हो गया कि मेरा नाम नहीं है।

लेकिन मैं भी हार मानने को तैयार नहीं था, हर कीमत पर अपना नाम खोज वोट डालना चाहता था। मैं पहुंच गया पोलिंग बूथ के अंदर कि शायद वहां पता चल जाए। बूथ के अंदर कुछ कर्मचारी बैठे थे, जिनके पास पूरी सूची मौजूद थी। लोग अपने-अपने नाम खोजने का आग्रह कर रहे थे, तो कुछ नाम नहीं मिल पाने को लेकर बहस भी कर रहे थे। सबकी जुबां पर एक ही सवाल था, कि पिछले कई चुनावों में नाम मौजूद था, वोट भी डाला है और वोटर आईकार्ड भी है, तब मेरा नाम क्यों नहीं है। बाकी लोगों की तरह मैंने भी उस कर्मचारी से नाम खोजने का आग्रह किया, तो उनका सवाल था कि भाग संख्या और वोटर संख्या बताईए। उन्हें शायद इस बात का ध्यान नहीं रहा कि अगर भाग संख्या और वोटर संख्या पता होता तो, मुझे उनके पास जाने की जरुरत ही नहीं पड़ती। मैं सीधे बूथ पर जाता और वोट डाल अपने घर लौट जाता।

जब वहां भी कुछ पता नहीं चल पाया, तब बूथ के अंदर गया, वहां एक बूथ खाली था, जहां कोई वोटर मौजूद नहीं था। मैंने वहां मौजूद पुलिस बल से गुजारिश की, तो उन्होंने अंदर जाने की इजाजत दे दी। मैं अंदर जाकर पोलिंग कर्मचारियों से बात की कि मेरे पास वोटर आईकार्ड है, लेकिन सूची में मेरा नाम नहीं मिल पा रहा, क्या कोई तरीका है कि आईकार्ड को देखकर इससे अंदाजा लगाया जा सके कि आखिर किस सूची में मेरा नाम होगा। तो उस सज्जन ने कहा कि नहीं वोटर कार्ड से कुछ पता नहीं चल पाएगा। आपको भाग संख्या पता करना होगा।

थक हार कर करीब चार घंटे की मशक्कत के बाद मैं बिना वोट डाले घर लौटने लगा। लेकिन एक पत्रकार के मन को ये नहीं भाया। सोचा कुछ दूसरे बूथों का चक्कर लगा लिया जाए। क्या पता यहां की तरह दूसरे बूथों पर भी कुछ ऐसा ही हाल हो। आसपास के करीब पांच पोलिंग बूथों पर गया। हर जगह ऐसे दर्जनों लोग मिले, जिनके पास वोटर आई कार्ड तो मौजूद था और पिछले चुनावों में वोट भी डाल चुके थे, लेकिन इस बार नाम लिस्ट से गायब था।

ऐसे में ये सवाल उठता है कि चुनाव आयोग ने वोटर आईकार्ड अनिवार्य करना चाहता है लेकिन वोटर आईकार्ड मौजूद होने के बाद भी लोगों के नाम वोटर लिस्ट से गायब क्यों हैं जबकि उन लोगों का नाम मौजूद हैं, जो ना तो भारत के नागरिक हैं और ना ही उनका कोई स्थायी पता है। खैर, सबसे जरुरी सवाल कि असली पप्पू कौन? वोट देने के इरादे से घर से निकला और करीब चार घंटे तक धक्के खाकर लौटने वाला वोटर या फिर ऐसी व्यवस्था देनेवाला सिस्टम? (साभार-देशकाल डॉट कॉम)

रविवार, 26 अप्रैल 2009

राज ठाकरे के स‌मर्थन में...

कुछ दिन पहले मुझे एक ईमेल प्राप्त हुआ। यह ईमेल मेरे एक अजीज दोस्त ने भेजा था। फारवर्डेड मेल था लिहाजा यह नहीं पता चल पाया कि इसका जनक कौन है। लेकिन यह जरूर बताना चाहूंगा कि जिस दोस्त ने मुझे यह मेल भेजा वह मराठी है। मेल अंग्रेजी में था। मेरा ब्लॉग हिंदी में है। इसलिए मैंने पूरे मेल को हिंदी में हूबहू ट्रांसलेट करने की कोशिश की है। ईमेल इस प्रकार है....अगर आप राज ठाकरे के स‌मर्थक हैं तो कृपया निम्नलिखित बातों का ध्यान रखें...

1. अगर आपका बच्चा मेहनत के बावजूद क्लास में फर्स्ट नहीं आ पाता तो उसे स‌िखाइये कि ज्यादा मेहनत करने की जरूरत नहीं। बल्कि जो बच्चा पढ़ने में तुमसे तेज है उसे पीटो और क्लास स‌े बाहर कर दो। तुम अपने आप फर्स्ट हो जाओगे।

2. स‌ंस‌द स‌िर्फ दिल्लीवालों के लिए है क्योंकि वह दिल्ली में स्थित है।
3. राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और केंद्र स‌रकार के दूसरे स‌भी नेता दिल्ली के होने चाहिए।
4. मुंबई में हिंदी फिल्में नहीं स‌िर्फ मराठी फिल्में बनाई जानी चाहिए।
5. राज्य की बसों, ट्रेनों और फ्लाइट्स पर सिर्फ लोकल लोगों की भर्ती होनी चाहिए और दूसरे राज्यों की बसों, ट्रेनें और फ्लाइट्स महाराष्ट्र आने पर रोक लगा दी जानी चाहिए।
6. विदेशों में और भारत के दूसरे राज्यों में काम करने वाले मराठियों को वापस बुला लेना चाहिए, ताकि वो लोकल रोजगार पर कब्जा जमा स‌कें और बाहरी लोगों को खदेड़ स‌कें।
7. महाराष्ट्र में शंकर, गणेश और पार्वती की पूजा नहीं होनी चाहिए क्योंकि ये देवता उत्तर (हिमालय) के हैं।
8. ताजमहल देखने पर रोक होनी चाहिए क्योंकि वह स‌िर्फ उत्तर-प्रदेश वालों के लिए है।
9. महाराष्ट्र के किसानों को केंद्र स‌े मिलने वाली मदद नहीं दी जानी चाहिए क्योंकि यह पैसा पूरे देश स‌े टैक्स के रूप में इकट्ठा किया जाता है। इसलिए कोई मराठी इस पैसे को हाथ कैसे लगा स‌कता है?
10. हमें कश्मीर में आतंकवादियों का समर्थन करना चाहिए क्योंकि वह अपने 'राज्य की आजादी' के नाम पर बेकसूरों को मार रहे हैं। यह स‌ब वो अपने राज्य की आजादी के लिए कर रहे हैं।
11. महाराष्ट्र स‌े स‌भी मल्टीनेशनल कंपनियों को निकाल फेंकना चाहिए। भला वो हमारे राज्य में मुनाफा क्यों कमायें? हमें अपनी लोकल माइक्रोसाफ्ट शुरू करनी चाहिए। महाराष्ट्र पेप्सी और महाराष्ट्र मारुति जैसे प्रोडक्ट लांच करने चाहिए।
12. विदेश में या दूस‌रे राज्यों में बनाए गए स‌ेलफोन, दूसरे राज्य या देश की कंपनी की ईमेल स‌र्विस, टीवी आदि नहीं इस्तेमाल करने चाहिए। विदेशी फिल्में और विदेशी नाटक भी नहीं देखने चाहिए।
13. हमें भूखों मरना कबूल है। दस गुना महंगा स‌ामान खरीदना मंजूर है। लेकिन विदेशी चीजें खरीदना, दूसरे राज्यों की कंपनियों का स‌ामान खरीदना और आयात करना कबूल नहीं।
14. महाराष्ट्र में किसी भी दूस‌रे राज्य के व्यक्ति को उद्योग स्थापित करने की इजाजत नहीं होनी चाहिए।
15. मराठियों को स‌िर्फ लोकल ट्रेनों का उपयोग करना चाहिए। गाड़ियों को मराठी नहीं बनाते और रेलमंत्री भी बिहारी है। इसलिए इनका प्रयोग नहीं करना चाहिए।
16. स‌भी मराठी यह स‌ुनिश्चित करें कि उनके बच्चे महाराष्ट्र में ही जन्म लें, वहीं पढ़ें-लिखें और वहीं बूढ़े होकर मृत्यु को प्राप्त हों। तभी वह एक स‌च्चे मराठी कहलाएंगे।

शनिवार, 18 अप्रैल 2009

इधर स‌े गुजरा था स‌ोचा स‌लाम करता चलूं...

चुनाव के मौसम पर गर्मी का मौसम भारी पड़ने लगा है। मतदान की तारीख तेजी स‌े नजदीक आती जा रही है, लेकिन चुनाव प्रचार उतनी गति नहीं पकड़ रहा है। वजह, मौस‌म की मार। हिम्मत जुटाकर, कार्यकर्ताओं को जोश दिलाकर उम्मीदवार मैदान में निकलते भी हैं तो जनता इतनी 'आलसी' है कि ऎसी चिलचिलाती गर्मी में घर स‌े बाहर ही नहीं निकलना चाहती। लिहाजा जनसभाओं में भीड़ जुटे भी तो कैसे? बड़ी मुसीबत है। जनसभा में भीड़ न जुटी तो क्या 'मैसेज' जाएगा? विरोधी तो मजाक उड़ाएंगे ही, लोगों को भी लगेगा कि इन जनाब के पक्ष में जनसमर्थन नहीं है।

भीषण गर्मी की वजह स‌े स‌ब कुछ ठंडा है। तो क्या करें? किसी कार्यकर्ता ने स‌ुझाया कि पब्लिक नहीं आ रही तो क्या हुआ, क्यों न हम ही पब्लिक के पास चलें? मतलब डोर टू डोर जनसंपर्क? हां वहीं! यह ठीक रहेगा। इसी बहाने नाराज मतदाताओं स‌े भी वोट मांग लेंगे और कह देंगे कि यहां स‌े गुजर रहा था, स‌ोचा आपसे भी मिलता चलूं। इस नाचीज का भी खयाल रखिएगा।

बात जमने लायक थी। नेता जी खुश हो गए। यही ठीक रहेगा। ठीक है, आज स‌े ही शुरू करते हैं। नेता जी उत्साहित थे। इसी बीच एक स‌मझदार स‌े दिखने वाले कार्यकर्ता ने स‌ुझाया...लेकिन स‌र, ध्यान रखिएगा, किसी के दुखड़े स‌े ज्यादा द्रवित न हो जाइएगा। उसकी 'हेल्प' करने की कोशिश तो बिल्कुल न करिएगा वर्ना कहीं आचार स‌ंहिता उल्लंघन के लफड़े में न फंस जाएं। लालू और शिवराज तो बच निकले लेकिन यह दिल्ली है। तभी एक और कार्यकर्ता ने अपना कुछ 'प्रैक्टिकल' सा स‌ुझाव रखा। अरे स‌र, कह दीजिएगा जिसकी जो भी स‌मस्या है, जीतने के बाद स‌ुलझाई जाएगी। अभी तो हम स‌िर्फ आप लोगों की स‌मस्याएं स‌ुनने आए हैं। स‌मस्याएं स‌ुलझाने के लिए तो 'पॉलिटिकल पॉवर' चाहिए। वह तो जीतने के बाद ही मिलेगा न? अभी आप हमारा ध्यान रखिए। जीतने के बाद हम आपका ध्यान रखेंगे। हां अगर कोई मतदाता अपना दुखड़ा कुछ ज्यादा ही रोने लगे तो उसे स‌ांत्वना देकर ही वहां स‌े खिसक लीजिएगा। उसके दुख में ज्यादा 'इन्वाल्व' होने की जरूरत नहीं है। नहीं तो हमारा दुख बढ़ स‌कता है।

बहरहाल, चिलचिलाती गर्मी में डोर टू डोर जनसंपर्क के अलावा कोई रास्ता नहीं है। प्यासे को कुएं के पास जाना ही पड़ता है। लिहाजा नेता जी निकल पड़े हैं, अपने स‌हयोगियों (दरअसल चमचों) के स‌ाथ। कृपया दरवाजा खुला रखें, हो स‌कता है वह आपकी गली स‌े भी गुजरें।

रविवार, 15 मार्च 2009

स्टोव! मेरे स‌वालों का जवाब दो

स्टोव तुम स‌सुराल में ही क्यों फटा करते हो?
मायके में क्यों नहीं ?

स्टोव तुम्हारी शिकार बहुएं ही क्यों होती हैं?
बेटियां क्यों नहीं ?

स्टोव तुम इतना भेदभाव क्यों करते हो ?
स‌मझते क्यों नहीं ?

स्टोव कहां स‌े पाई है तुमने ये फितरत ?
बताते क्यों नहीं ?

स्टोव तुम भीतर स‌े इतने कमजोर क्यों हो ?
अक्सर फट जाते हो ?

स्टोव तुम हमेशा विस्फोट की ही भाषा क्यों बोलते हो ?
क्या तुम्हारे पास आंखें भी हैं ?

स्टोव तुम कैसे देख लेते हो किचन में बहू ही है ?
फटने का फैसला कर लेते हो ?

स्टोव तुम कैसे पहचान लेते हो अपने शिकार को ?
कौन बन जाता है तुम्हारी आंखें ?

स्टोव अब तुम इस कदर खामोश क्यों हो ?
बोलते क्यो नहीं ?

स्टोव यह तो बताओ तुम कब फटना बंद करोगे ?
कुछ तो जवाब दो ?

स्टोव बरसों स‌े पूछ रहा हूं यह स‌वाल अब तो बोलो ?
अब तो यह राज खोलो ?

(बरसों पहले लिखीं थीं यह पंक्तियां। आज अचानक वह मुड़ा-तुड़ा कागज मिल गया। मेरे इन स‌वालों का जवाब अब भी नहीं मिला है। हां, कुछ फर्क जरूर आया है। अब स्टोव की जगह गैस स‌िलेंडर फटने लगे हैं)

शनिवार, 28 फ़रवरी 2009

कुत्ता कहीं का...

2009 कब का आ चुका है। दो महीने गुजर भी चुके हैं। अचानक याद आया कि इस स‌ाल अभी तक हमने कुछ लिखा ही नहीं। स‌ोच रहा हूं कहीं लिक्खाड़ लोग मुझे बिरादरी स‌े बाहर न कर दें। इसीलिए कुछ तो लिख ही डालता हूं। नए स‌ाल के दो महीने गुजर चुके हैं। स‌ब ठीक ही चल रहा है। मंदी अब भी बरकरार है। एक नई बात हुई मेरी कॉलोनी की ऊबड़-खाबड़ स‌ड़क बन गई है। पता नहीं क्यों बन गई। अभी तो चुनाव भी दूर है। स‌ड़क के किनारे गंदी स‌ी जमीन को खोदकर जो नींव डाली गई थी वहां अब ऊंची इमारत खड़ी हो गई है। इतनी ऊंची कि स‌िर उठाकर देखने पर गर्दन दर्द करने लगती है।
मेरी गली का कुत्ता अब भी आदमियों पर भोंकता है। वह नहीं बदलेगा। कुत्ता कहीं का। बिल्लियां अब कम ही नजर आती हैं। कौवे और तोते भी नजर नहीं आते। कभी कभार कबूतर दिख जाते हैं लेकिन वह भी अब गुटुर-गुटुर की बजाय डरावनी आवाज निकालते हैं। पता नहीं क्यों? शायद नाराज हैं हम स‌बसे। हमने ही तो छीना है परिंदों का आशियाना। गेट का चौकीदार अब भी चार हजार महीने में खर्च चलाता है। मंदी न होती तो भी उसका खर्च इतने स‌े ही चलता।
पड़ोसी ने कार ले ली है बड़ी वाली। ख्वाहिशें भी अजीब चीज हैं। छोटे घर में रहता हूं तो बड़ा घर लेने की तमन्ना है। जो छोटी गाड़ी मे चलता है उसे बड़ी गाड़ी की हसरत है। जो 10 हजार की नौकरी करता है उसे 20 हजार की हसरत है। फिलहाल तो मंदी ने स‌बकी हसरतों पर विराम लगा रखा है। लोगों ने स‌पने देखने भी कम कर दिए हैं। बंद नहीं किए। करना भी नहीं चाहिए। स‌पने देखेंगे नहीं तो स‌च कैसे होंगे। कई दोस्तों ने नौकरी बदल ली है। मेरे आफिस के पास घूमने वाला कुत्ता अब मोटा हो गया है। उसने अपना परिवार भी बढ़ा लिया है। शायद उसे पता नहीं कि मंदी चल रही है। कुत्ता कहीं का।
प्रेस वाले ने रेट बढ़ा दिए हैं। स‌ोसायटी के टेक्नीशियन ने भी अपना चार्ज बढ़ा दिया है। शुक्र है स‌ोसायटी वालों ने अपना चार्ज नहीं बढ़ाया। शायद उन्हें पता है कि मंदी का मौसम है। मैं बहुत मंदी-मंदी रट रहा हूं ना? क्या करूं मंदी का ही तो जमाना है। मंदी कई लोगों के लिए तो बड़ी काम की चीज है। कई लोगों ने इसी का स‌हारा लेकर अपने दुश्मनों का स‌फाया करवा दिया। जिसस‌े डर था कुर्सी छिनने का उसी को नौकरी स‌े निकलवा दिया।
एक बात बड़ी अच्छी हुई कई चीजें स‌स्ती हो गईं। अभी एक दिन कोई न्यूज चैनल ढिंढोरा पीट रहा था कि अब स‌ब कुछ स‌स्ता हो गया। जो चाहे ले आओ। ऎस‌े बता रहा था जैसे लूट मच गई हो। आओ-आओ लूट लो। अभी तो दो महीने ही गुजरे हैं। अभी तो बहुत कुछ बाकी है। अरे हां, आज वह गली का कुत्ता फिर मिल गया था। लौटते वक्त। भोंकने लगा। पता नहीं उसे क्या परेशानी है? शायद उसे यह भी नहीं पता कि महंगाई कम हो गई है। वर्ना भोंकने में वक्त क्यों बर्बाद करता। वह भी कहीं जाकर सस्ता माल लूट रहा होता। पता नहीं कब स्मार्टनेस आएगी इसमें। कब स‌ीखेगा। कुत्ता कहीं का।

बुधवार, 24 दिसंबर 2008

गधे का गुस्सा

बचपन में एक अखबार में पढ़ी थी यह बाल कविता। कविता लंबी थी और अच्छी भी। लेखक का नाम तो नहीं याद लेकिन उसकी कुछ पंक्तियां मुझे अब भी याद हैं। आपस‌े यह स‌ुंदर कविता इसलिए बांट रहा हूं कि अगर किसी को लेखक का नाम पता हो तो जरूर बताएं स‌ाथ ही पूरी कविता मिल जाए तो और भी अच्छा। तो पढ़िये यह कविता।

एक गधा चुपचाप खड़ा था
एक पेड़ के नीचे
पड़ गए कुछ दुष्ट लड़के उसके पीछे
एक ने पकड़ा कान
दूसरे ने पीठ पर जोर जमाया
और तीसरे ने उस पर
कस कर डंडा बरसाया
आया गुस्सा गधे को
दी दुलत्ती झाड़
फौरन लड़के भागे
खाकर उसकी मार।

मंगलवार, 2 दिसंबर 2008

वह न्यूज चैनल का प्रोड्यूसर है

अचानक उसकी आवाज तेज हो जाती है। वह जोर-जोर स‌े चिल्लाने लगता है। अभी तक विजुअल क्यों नहीं आए। रिपोर्टर ने स्क्रिप्ट क्यों नहीं भेजी। कैसे खबर चलेगी। फिर अचानक वह अपनी कुर्सी स‌े उठकर इधर-उधर भागने लगता है।
यह देखते ही ऑफिस में स‌बको पता चल जाता है कि बॉस आ चुके हैं। जब भी बॉस न्यूज रूम में प्रवेश करते हैं कमोबेश ऎसा ही होता होता है। कभी कोई विजुअल नहीं चल पाता (?) कभी कोई पैकेज रुक जाता है। ऎसा लगता है जैसे स‌भी स‌मस्याओं का बॉस स‌े कोई नजदीकी रिश्ता है। लेकिन न्यूज रूम में स‌बको पता है कि ऎसा क्यों होता है। अगर चुपचाप काम होता रहेगा तो बॉस को पता कैसे चलेगा कि काम हो रहा है। इस‌ीलिए यह तरीका बड़ा कारगर है। बॉस को भी यही लगता है कि देखो बेचारा कितना टेंशन में है। कितना काम करता है। कितना बोझ उठाता है। प्रोड्यूसर न हुआ गधा हो गया। जब देखो तब पूरे चैनल का बोझ उठाए इधर स‌े उधर भागता रहता है। अगर वह न हो तो शायद चैनल ही बंद हो जाए। इसलिए न्यूज रूम में उसकी मौजूदगी बहुत अहम है। अगर वह न चिल्लाए तो शायद कोई खबर ही न चल पाए। अगर वह न चीखे तो शायद उस चैनल में कभी कोई खबर ही ब्रेक न हो। वाकई वह बहुत काम का आदमी है।

बॉस को देखते ही वह बहुत व्यस्त हो जाता है। कभी फोन पर चीखता है। कभी जूनियर्स पर चिल्लाता है। कभी स‌िस्टम पर गुस्सा उतारता है। वह न्यूज चैनल का प्रोड्यूसर है। एक्टिव इस कदर है कि कई बार तो उसके लिए पूरा फ्लोर छोटा पड़ जाता है। जब वह भागता है तो लगता है कोई आसमान गिरने वाला है। कुछ लोग उससे बहुत जलते हैं। कुछ इसलिए जलते हैं क्योंकि वह उसकी तरह नहीं भाग पाते। कुछ इसलिए जलते हैं क्योंकि मजबूरन उन्हें भी इधर-उधर भागने का नाटक करना पड़ता है। लेकिन भागना हमेशा फायदेमंद है। जो भागता है उसे एक्टिव प्रोड्यूसर माना जाता है। जो चिल्लाता है वह बॉस की नजरों में चढ़ जाता है। उसके नंबर बढ़ जाते हैं। जो चुपचाप की-बोर्ड पीटता रहता है या फिर कंप्यूटर पर आंख गड़ाए रहता है, उसे ढीले-ढाले प्रोड्यूसर के खिताब स‌े नवाजा जाता है।

वह स‌ब जानता है इसीलिए थोड़ी-थोड़ी देर में यहां-वहां भागता रहता है। इससे ऎसा लगता है कि चैनल भाग रहा है, दौड़ रहा है। न्यूजरूम में खामोशी स‌े ऎसा लगता है जैसे चैनल भी खामोश हो गया है। अचानक वह चीखता है और टीवी के स‌ामने खड़ा हो जाता है। अरे, यह देखो फलां चैनल में क्या चल रहा है। यह खबर हमारे पास क्यों नहीं आई? उसके बाद ऎसा माहौल बन जाता है कि जैसे उस खबर के बिना चैनल बंद हो जाएगा। फोन खड़खड़ाए जाने शुरू हो जाते हैं। एक आदमी इंटरनेट पर खबर को खंगालना शुरू कर देता है। तो कोई यू ट्यूब पर विजुअल के जुगाड़ में लग जाता है और कोई रिपोर्टर को गरियाने में। बाद में पता चलता है कि वह खबर तो हमारे यहां तीन दिन पहले ही चल चुकी है।

महेश अभी चैनल में नया-नया आया है। जब भी स्मार्ट प्रोड्यूसर इधर स‌े उधर भागता है तो वह हर बार बस यही स‌ोचता है कि आज तो आसमान गिर ही जाएगा। लेकिन उसे मायूसी ही हाथ लगती है। आसमान कभी नहीं गिरता। स्मार्ट प्रोड्यूसर आस‌मान को हर बार अपने हाथों स‌े थाम लेता है औऱ इस तरह हर बार एक मुश्किल टल जाती है। चैनल बच जाता है। चैनल उसी के दम पर तो चलता है। जिस दिन वह भागना औऱ चिल्लाना बंद कर देगा उसी दिन चैनल बंद हो जाएगा। इसलिए जरूरी है कि वह भागता रहे औऱ चैनल बदस्तूर चलता रहे। आमीन।

 
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