शनिवार, 18 अप्रैल 2009

इधर स‌े गुजरा था स‌ोचा स‌लाम करता चलूं...

चुनाव के मौसम पर गर्मी का मौसम भारी पड़ने लगा है। मतदान की तारीख तेजी स‌े नजदीक आती जा रही है, लेकिन चुनाव प्रचार उतनी गति नहीं पकड़ रहा है। वजह, मौस‌म की मार। हिम्मत जुटाकर, कार्यकर्ताओं को जोश दिलाकर उम्मीदवार मैदान में निकलते भी हैं तो जनता इतनी 'आलसी' है कि ऎसी चिलचिलाती गर्मी में घर स‌े बाहर ही नहीं निकलना चाहती। लिहाजा जनसभाओं में भीड़ जुटे भी तो कैसे? बड़ी मुसीबत है। जनसभा में भीड़ न जुटी तो क्या 'मैसेज' जाएगा? विरोधी तो मजाक उड़ाएंगे ही, लोगों को भी लगेगा कि इन जनाब के पक्ष में जनसमर्थन नहीं है।

भीषण गर्मी की वजह स‌े स‌ब कुछ ठंडा है। तो क्या करें? किसी कार्यकर्ता ने स‌ुझाया कि पब्लिक नहीं आ रही तो क्या हुआ, क्यों न हम ही पब्लिक के पास चलें? मतलब डोर टू डोर जनसंपर्क? हां वहीं! यह ठीक रहेगा। इसी बहाने नाराज मतदाताओं स‌े भी वोट मांग लेंगे और कह देंगे कि यहां स‌े गुजर रहा था, स‌ोचा आपसे भी मिलता चलूं। इस नाचीज का भी खयाल रखिएगा।

बात जमने लायक थी। नेता जी खुश हो गए। यही ठीक रहेगा। ठीक है, आज स‌े ही शुरू करते हैं। नेता जी उत्साहित थे। इसी बीच एक स‌मझदार स‌े दिखने वाले कार्यकर्ता ने स‌ुझाया...लेकिन स‌र, ध्यान रखिएगा, किसी के दुखड़े स‌े ज्यादा द्रवित न हो जाइएगा। उसकी 'हेल्प' करने की कोशिश तो बिल्कुल न करिएगा वर्ना कहीं आचार स‌ंहिता उल्लंघन के लफड़े में न फंस जाएं। लालू और शिवराज तो बच निकले लेकिन यह दिल्ली है। तभी एक और कार्यकर्ता ने अपना कुछ 'प्रैक्टिकल' सा स‌ुझाव रखा। अरे स‌र, कह दीजिएगा जिसकी जो भी स‌मस्या है, जीतने के बाद स‌ुलझाई जाएगी। अभी तो हम स‌िर्फ आप लोगों की स‌मस्याएं स‌ुनने आए हैं। स‌मस्याएं स‌ुलझाने के लिए तो 'पॉलिटिकल पॉवर' चाहिए। वह तो जीतने के बाद ही मिलेगा न? अभी आप हमारा ध्यान रखिए। जीतने के बाद हम आपका ध्यान रखेंगे। हां अगर कोई मतदाता अपना दुखड़ा कुछ ज्यादा ही रोने लगे तो उसे स‌ांत्वना देकर ही वहां स‌े खिसक लीजिएगा। उसके दुख में ज्यादा 'इन्वाल्व' होने की जरूरत नहीं है। नहीं तो हमारा दुख बढ़ स‌कता है।

बहरहाल, चिलचिलाती गर्मी में डोर टू डोर जनसंपर्क के अलावा कोई रास्ता नहीं है। प्यासे को कुएं के पास जाना ही पड़ता है। लिहाजा नेता जी निकल पड़े हैं, अपने स‌हयोगियों (दरअसल चमचों) के स‌ाथ। कृपया दरवाजा खुला रखें, हो स‌कता है वह आपकी गली स‌े भी गुजरें।

रविवार, 15 मार्च 2009

स्टोव! मेरे स‌वालों का जवाब दो

स्टोव तुम स‌सुराल में ही क्यों फटा करते हो?
मायके में क्यों नहीं ?

स्टोव तुम्हारी शिकार बहुएं ही क्यों होती हैं?
बेटियां क्यों नहीं ?

स्टोव तुम इतना भेदभाव क्यों करते हो ?
स‌मझते क्यों नहीं ?

स्टोव कहां स‌े पाई है तुमने ये फितरत ?
बताते क्यों नहीं ?

स्टोव तुम भीतर स‌े इतने कमजोर क्यों हो ?
अक्सर फट जाते हो ?

स्टोव तुम हमेशा विस्फोट की ही भाषा क्यों बोलते हो ?
क्या तुम्हारे पास आंखें भी हैं ?

स्टोव तुम कैसे देख लेते हो किचन में बहू ही है ?
फटने का फैसला कर लेते हो ?

स्टोव तुम कैसे पहचान लेते हो अपने शिकार को ?
कौन बन जाता है तुम्हारी आंखें ?

स्टोव अब तुम इस कदर खामोश क्यों हो ?
बोलते क्यो नहीं ?

स्टोव यह तो बताओ तुम कब फटना बंद करोगे ?
कुछ तो जवाब दो ?

स्टोव बरसों स‌े पूछ रहा हूं यह स‌वाल अब तो बोलो ?
अब तो यह राज खोलो ?

(बरसों पहले लिखीं थीं यह पंक्तियां। आज अचानक वह मुड़ा-तुड़ा कागज मिल गया। मेरे इन स‌वालों का जवाब अब भी नहीं मिला है। हां, कुछ फर्क जरूर आया है। अब स्टोव की जगह गैस स‌िलेंडर फटने लगे हैं)

शनिवार, 28 फ़रवरी 2009

कुत्ता कहीं का...

2009 कब का आ चुका है। दो महीने गुजर भी चुके हैं। अचानक याद आया कि इस स‌ाल अभी तक हमने कुछ लिखा ही नहीं। स‌ोच रहा हूं कहीं लिक्खाड़ लोग मुझे बिरादरी स‌े बाहर न कर दें। इसीलिए कुछ तो लिख ही डालता हूं। नए स‌ाल के दो महीने गुजर चुके हैं। स‌ब ठीक ही चल रहा है। मंदी अब भी बरकरार है। एक नई बात हुई मेरी कॉलोनी की ऊबड़-खाबड़ स‌ड़क बन गई है। पता नहीं क्यों बन गई। अभी तो चुनाव भी दूर है। स‌ड़क के किनारे गंदी स‌ी जमीन को खोदकर जो नींव डाली गई थी वहां अब ऊंची इमारत खड़ी हो गई है। इतनी ऊंची कि स‌िर उठाकर देखने पर गर्दन दर्द करने लगती है।
मेरी गली का कुत्ता अब भी आदमियों पर भोंकता है। वह नहीं बदलेगा। कुत्ता कहीं का। बिल्लियां अब कम ही नजर आती हैं। कौवे और तोते भी नजर नहीं आते। कभी कभार कबूतर दिख जाते हैं लेकिन वह भी अब गुटुर-गुटुर की बजाय डरावनी आवाज निकालते हैं। पता नहीं क्यों? शायद नाराज हैं हम स‌बसे। हमने ही तो छीना है परिंदों का आशियाना। गेट का चौकीदार अब भी चार हजार महीने में खर्च चलाता है। मंदी न होती तो भी उसका खर्च इतने स‌े ही चलता।
पड़ोसी ने कार ले ली है बड़ी वाली। ख्वाहिशें भी अजीब चीज हैं। छोटे घर में रहता हूं तो बड़ा घर लेने की तमन्ना है। जो छोटी गाड़ी मे चलता है उसे बड़ी गाड़ी की हसरत है। जो 10 हजार की नौकरी करता है उसे 20 हजार की हसरत है। फिलहाल तो मंदी ने स‌बकी हसरतों पर विराम लगा रखा है। लोगों ने स‌पने देखने भी कम कर दिए हैं। बंद नहीं किए। करना भी नहीं चाहिए। स‌पने देखेंगे नहीं तो स‌च कैसे होंगे। कई दोस्तों ने नौकरी बदल ली है। मेरे आफिस के पास घूमने वाला कुत्ता अब मोटा हो गया है। उसने अपना परिवार भी बढ़ा लिया है। शायद उसे पता नहीं कि मंदी चल रही है। कुत्ता कहीं का।
प्रेस वाले ने रेट बढ़ा दिए हैं। स‌ोसायटी के टेक्नीशियन ने भी अपना चार्ज बढ़ा दिया है। शुक्र है स‌ोसायटी वालों ने अपना चार्ज नहीं बढ़ाया। शायद उन्हें पता है कि मंदी का मौसम है। मैं बहुत मंदी-मंदी रट रहा हूं ना? क्या करूं मंदी का ही तो जमाना है। मंदी कई लोगों के लिए तो बड़ी काम की चीज है। कई लोगों ने इसी का स‌हारा लेकर अपने दुश्मनों का स‌फाया करवा दिया। जिसस‌े डर था कुर्सी छिनने का उसी को नौकरी स‌े निकलवा दिया।
एक बात बड़ी अच्छी हुई कई चीजें स‌स्ती हो गईं। अभी एक दिन कोई न्यूज चैनल ढिंढोरा पीट रहा था कि अब स‌ब कुछ स‌स्ता हो गया। जो चाहे ले आओ। ऎस‌े बता रहा था जैसे लूट मच गई हो। आओ-आओ लूट लो। अभी तो दो महीने ही गुजरे हैं। अभी तो बहुत कुछ बाकी है। अरे हां, आज वह गली का कुत्ता फिर मिल गया था। लौटते वक्त। भोंकने लगा। पता नहीं उसे क्या परेशानी है? शायद उसे यह भी नहीं पता कि महंगाई कम हो गई है। वर्ना भोंकने में वक्त क्यों बर्बाद करता। वह भी कहीं जाकर सस्ता माल लूट रहा होता। पता नहीं कब स्मार्टनेस आएगी इसमें। कब स‌ीखेगा। कुत्ता कहीं का।

बुधवार, 24 दिसंबर 2008

गधे का गुस्सा

बचपन में एक अखबार में पढ़ी थी यह बाल कविता। कविता लंबी थी और अच्छी भी। लेखक का नाम तो नहीं याद लेकिन उसकी कुछ पंक्तियां मुझे अब भी याद हैं। आपस‌े यह स‌ुंदर कविता इसलिए बांट रहा हूं कि अगर किसी को लेखक का नाम पता हो तो जरूर बताएं स‌ाथ ही पूरी कविता मिल जाए तो और भी अच्छा। तो पढ़िये यह कविता।

एक गधा चुपचाप खड़ा था
एक पेड़ के नीचे
पड़ गए कुछ दुष्ट लड़के उसके पीछे
एक ने पकड़ा कान
दूसरे ने पीठ पर जोर जमाया
और तीसरे ने उस पर
कस कर डंडा बरसाया
आया गुस्सा गधे को
दी दुलत्ती झाड़
फौरन लड़के भागे
खाकर उसकी मार।

मंगलवार, 2 दिसंबर 2008

वह न्यूज चैनल का प्रोड्यूसर है

अचानक उसकी आवाज तेज हो जाती है। वह जोर-जोर स‌े चिल्लाने लगता है। अभी तक विजुअल क्यों नहीं आए। रिपोर्टर ने स्क्रिप्ट क्यों नहीं भेजी। कैसे खबर चलेगी। फिर अचानक वह अपनी कुर्सी स‌े उठकर इधर-उधर भागने लगता है।
यह देखते ही ऑफिस में स‌बको पता चल जाता है कि बॉस आ चुके हैं। जब भी बॉस न्यूज रूम में प्रवेश करते हैं कमोबेश ऎसा ही होता होता है। कभी कोई विजुअल नहीं चल पाता (?) कभी कोई पैकेज रुक जाता है। ऎसा लगता है जैसे स‌भी स‌मस्याओं का बॉस स‌े कोई नजदीकी रिश्ता है। लेकिन न्यूज रूम में स‌बको पता है कि ऎसा क्यों होता है। अगर चुपचाप काम होता रहेगा तो बॉस को पता कैसे चलेगा कि काम हो रहा है। इस‌ीलिए यह तरीका बड़ा कारगर है। बॉस को भी यही लगता है कि देखो बेचारा कितना टेंशन में है। कितना काम करता है। कितना बोझ उठाता है। प्रोड्यूसर न हुआ गधा हो गया। जब देखो तब पूरे चैनल का बोझ उठाए इधर स‌े उधर भागता रहता है। अगर वह न हो तो शायद चैनल ही बंद हो जाए। इसलिए न्यूज रूम में उसकी मौजूदगी बहुत अहम है। अगर वह न चिल्लाए तो शायद कोई खबर ही न चल पाए। अगर वह न चीखे तो शायद उस चैनल में कभी कोई खबर ही ब्रेक न हो। वाकई वह बहुत काम का आदमी है।

बॉस को देखते ही वह बहुत व्यस्त हो जाता है। कभी फोन पर चीखता है। कभी जूनियर्स पर चिल्लाता है। कभी स‌िस्टम पर गुस्सा उतारता है। वह न्यूज चैनल का प्रोड्यूसर है। एक्टिव इस कदर है कि कई बार तो उसके लिए पूरा फ्लोर छोटा पड़ जाता है। जब वह भागता है तो लगता है कोई आसमान गिरने वाला है। कुछ लोग उससे बहुत जलते हैं। कुछ इसलिए जलते हैं क्योंकि वह उसकी तरह नहीं भाग पाते। कुछ इसलिए जलते हैं क्योंकि मजबूरन उन्हें भी इधर-उधर भागने का नाटक करना पड़ता है। लेकिन भागना हमेशा फायदेमंद है। जो भागता है उसे एक्टिव प्रोड्यूसर माना जाता है। जो चिल्लाता है वह बॉस की नजरों में चढ़ जाता है। उसके नंबर बढ़ जाते हैं। जो चुपचाप की-बोर्ड पीटता रहता है या फिर कंप्यूटर पर आंख गड़ाए रहता है, उसे ढीले-ढाले प्रोड्यूसर के खिताब स‌े नवाजा जाता है।

वह स‌ब जानता है इसीलिए थोड़ी-थोड़ी देर में यहां-वहां भागता रहता है। इससे ऎसा लगता है कि चैनल भाग रहा है, दौड़ रहा है। न्यूजरूम में खामोशी स‌े ऎसा लगता है जैसे चैनल भी खामोश हो गया है। अचानक वह चीखता है और टीवी के स‌ामने खड़ा हो जाता है। अरे, यह देखो फलां चैनल में क्या चल रहा है। यह खबर हमारे पास क्यों नहीं आई? उसके बाद ऎसा माहौल बन जाता है कि जैसे उस खबर के बिना चैनल बंद हो जाएगा। फोन खड़खड़ाए जाने शुरू हो जाते हैं। एक आदमी इंटरनेट पर खबर को खंगालना शुरू कर देता है। तो कोई यू ट्यूब पर विजुअल के जुगाड़ में लग जाता है और कोई रिपोर्टर को गरियाने में। बाद में पता चलता है कि वह खबर तो हमारे यहां तीन दिन पहले ही चल चुकी है।

महेश अभी चैनल में नया-नया आया है। जब भी स्मार्ट प्रोड्यूसर इधर स‌े उधर भागता है तो वह हर बार बस यही स‌ोचता है कि आज तो आसमान गिर ही जाएगा। लेकिन उसे मायूसी ही हाथ लगती है। आसमान कभी नहीं गिरता। स्मार्ट प्रोड्यूसर आस‌मान को हर बार अपने हाथों स‌े थाम लेता है औऱ इस तरह हर बार एक मुश्किल टल जाती है। चैनल बच जाता है। चैनल उसी के दम पर तो चलता है। जिस दिन वह भागना औऱ चिल्लाना बंद कर देगा उसी दिन चैनल बंद हो जाएगा। इसलिए जरूरी है कि वह भागता रहे औऱ चैनल बदस्तूर चलता रहे। आमीन।

शनिवार, 11 अक्टूबर 2008

कोफ्त

यह पोस्ट मुझे भेजी है मेरे दोस्त राजेश निरंजन ने। राजेश को मैं कई बरस से जानता हूं। वह सामाजिक मसलों को लेकर काफी संवेदनशील हैं। पेशे से पत्रकार हैं। लिहाजा व्यवस्थागत खामियों और तेजी से हो रहे समाजिक पतन को लेकर अक्सर उनकी कोफ्त सामने आ ही जाती है। एक पत्रकार होने के नाते ऐसा होना लाजिमी भी है। यहां ज्यादा महत्वपूर्ण वह दृश्य है जिसे राजेश निरंजन सबके सामने रखना चाहते हैं। आप भी पढ़ें और अपनी राय दें।

दोपहर के करीब 12 बजे का वक्त था। मैं दिल्ली मयूर विहार फेज-1 की लालबत्ती से गुजर रहा था। तभी मेरी नजर फुटपाथ पर खड़ी एक अर्धनग्न सांवली सलोनी युवती पर पड़ी। वह कुर्ते से अपने तन को ढकने की कोशिश कर रही थी। चेहरे पर बेबसी का आलम था। आसपास से गुजर रही थीं गाड़ियां और कानों से टकरा रही थीं कुछ हल्की-फुल्की टिप्पणियां।
वह दृश्य देख मैं कुछ विचलित-सा हुआ। मन में एकबारगी सोचा क्यों न इसे एक सलवार लाकर दे दूं। फिर दूसरा विचार उठा। चलो छोड़ो आफिस के लिए पहले ही लेट हो चुके हैं और फिर सलवार खरीदने पर पैसे खर्च होंगे सो अलग। फिर मोटरसाइकिल को अंदर की तरफ मोड़ दिया। लेकिन नजरों के सामने बार-बार उसी युवती का चेहरा घूमने लगा। तभी बाजार के सामने मोड़ पर मुझे कुछ बैनर गिरे हुए दिखे। मन में कुछ सोचा... कुछ ठिठका.. सोचा समाज क्या कहेगा, फिर मन की उलझन व शर्म को एक तरफ रख मोटरसाइकिल रोकी... मोटरसाइकिल से उतरा... इधर-उधर देखा फिर बैनर उठा कर चुपचाप मोटरसाइकिल उठाई और वापस नोएडा-अक्षरधाम रोड़ की तरफ मुड़ गया। उस युवती के पास पहुंचा तो देखा... वह फुटपाथ पर बैठकर कंकड़-पत्थर उठा- उठाकर सड़क पर फेंक रही है... मैंने चुपचाप कपड़े के बैनर उस युवती के पास फेंके और वापस मोटरसाइकिल घुमाई... देखा युवती ने बैनर उठाकर अपने सिर के ऊपर चुन्नी की तरह रखा हुआ था और सड़क को छोड़ अपने ऊपर कक्कड़-पत्थर डाल रही थी। मन में उसकी स्थिति को लेकर एक टीस लिए मैं अपने आफिस की तरफ बढ़ गया... फिर भी मन था बार-बार उसकी दुर्दशा की तरफ जा रहा था.. मन में बार-बार ये विचार उठ रहे थे... क्या मैंने उसकी आधी-अधूरी मदद करके ठीक किया।
आज तो वह जैसे-तैसे अपना तन ढक रही है... कल क्या होगा, जब ये कपड़े भी नहीं रहेंगे... क्या उन जैसे लोगों को कपड़े देने या साफ कहें तो कपड़े का बैनर पकड़ा देना समस्या का हल होगा... नहीं! क्या ऐसे लोगों के लिए स्थायी निवास, सुरक्षा व इलाज की जरूरत नहीं है... क्या आज हम लोग इतने स्वार्थी हो गए हैं कि ऐसे लोगों की मदद के लिए कुछ भी नहीं कर सकते.... क्या आज मुझमें और एक जानवर में कोई अंतर नहीं रह गया? जो केवल अपने बारे में ही सोचता है... । ऐसे ढेर सारे प्रश्न लेकर मैं अपने आफिस पहुंच गया। थोड़ी देर में ही काम में इतना व्यस्त हो गया कि सब कुछ भूल बैठा.. आज खुद मैं और वह सब लोग मुझे संवदेनहीन नजर आए जो उस युवती की दुर्दशा देख उसे भगवान भरोसे छोड़ आगे बढ़ गए। क्या यही समाज रह गया है हमारा...मुझे कोफ्त हो रही है इस समाज पर अपने आप पर।
-राजेश निरंजन

रविवार, 21 सितंबर 2008

लिटरेचर इंडिया का लोकार्पण

मौका था सॉफ़्टवेयर फ्रीडम डे और हिंदी पखवाड़े का। इस मौके पर शनिवार को लिटरेचर इंडिया की हिन्दी वेब पत्रिका ( www.literatureindia.com/hindi/)का लोकार्पण हुआ। साहत्यिक एवं सांस्कृतिक पोर्टल लिटरेचर इंडिया दो भाषाओं में हैं अंग्रेजी और अब हिंदी। खास बात यह थी कि इस वेब पत्रिका का लोकार्पण पूरी तरह से इंटरनेट पर हुआ। यह पहला ऐसा कार्यक्रम था जिसके तहत किसी पोर्टल का लोकार्पण पूरी तरह ऑनलाइन हुआ। वेब पत्रिका का लोकार्पण शनिवार शाम irc.freenode.net सर्वर पर स‌राय सभागार में हुआ। सराय दिल्ली की मशहूर संस्था सराय (www.sarai.net) का आईआरसी फ्रीनोड पर पंजीकृत चैट रुम है। कवि, पत्रकार एवं अऩुवादक नीलाभ ने इस पोर्टल का लोकार्पण किया। इतिहासकार एवं लेखक रविकांत ने इस अवसर पर पत्रिका के कांसेप्ट को स‌ामने रखा। आईआरसी पर हुए इस कार्यक्रम में कई जाने-माने लोगों ने शिरकत की। संचालन व्यंग्यकार एवं तकनीकी अनुवादक रवि रतलामी ने किया। 

इस मौके नीलाभ ने खासतौर पर तकनीक एवं भाषा के अंतर्विरोधों को रेखांकित किया। नीलाभ ने कहा कि तकनीक के धुरंधर जहां भाषाई ज्ञान से अछूते हैं, वहीं हिन्दी के बुद्धिजीवी तकनीक से दूर भागते नजर आते हैं। उन्होंने आगे कहा कि अंग्रेजीदां लोगों को हिन्दी की उन दिक्कतों से रू-ब-रू होना होगा जो तकनीक को लेकर पैदा होती हैं। उदाहरण के तौर पर हँसना हंस से अलग है और हमें मानकीकरण की इन दिक्कतों से लड़ने की जरूरत है। नीलाभ का कहना था कि महज एक ऐतिहासिक संयोग की वजह से हम अंग्रेजी में काम करते हैं। हिन्दी किसी से पीछे नहीं है। हमें खुद ताकत हासिल करनी होगी।
रविकांत ने कहा कि इस पोर्टल का द्विभाषी होना अपने आप में खास बात है। अंग्रेजी में हिन्दी भाषी लोग कम लिखते हैं और अगर यह पोर्टल वह सेतु बन सके जो दोनों भाषाओं के बीच संवाद को बढ़ा सके तो काफी बेहतर होगा। जहां लोग हिन्दी की दुनिया की खबरों से वाकिफ हो सकें। उन्होंने आगे कहा कि अंग्रेजी में हिन्दी साहित्यकारों के नाम से सर्च करें तो आप काफी कम हासिल कर पाएंगे। हमें उम्मीद है कि यह पोर्टल इस कमी को पूरा कर पाएगी।
स्वागत वक्तव्य में लिटरेचर इंडिया की संपादिक संगीता ने कहा कि अभी पितृ-पक्ष चल रहा है, लिहाजा हम अपने साहित्य पित्तरों को लिटरेचर इंडिया तर्पण करते हैं। आखिर में शैलेश एवं अभिव्यक्ति व अनुभूति जैसी सफल वेब पत्रिका हिन्दी में चलाने वाली पूर्णिमा ने कविता पाठ किया। इस बीच प्रश्नोत्तर का भी दौर चला। इसमें सार्वजनिक रूप से कंटेंट निर्माण की ओर आगे बढ़ने की बात की गई। चैट पर यह कार्यक्रम करीब पौने दो घंटे चलता रहा। इस कार्यक्रम में करूणाकर, पूर्णिमा, गोरा, देवाशीष, मसिजीवी, संजय बेगाणी, सदन, शैलेश, उमेश चतुर्वेदी, राकेश, जितेन, अमनप्रीत, राजेश सहित कई लोग शामिल हुए।

 
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