चुनाव के मौसम पर गर्मी का मौसम भारी पड़ने लगा है। मतदान की तारीख तेजी से नजदीक आती जा रही है, लेकिन चुनाव प्रचार उतनी गति नहीं पकड़ रहा है। वजह, मौसम की मार। हिम्मत जुटाकर, कार्यकर्ताओं को जोश दिलाकर उम्मीदवार मैदान में निकलते भी हैं तो जनता इतनी 'आलसी' है कि ऎसी चिलचिलाती गर्मी में घर से बाहर ही नहीं निकलना चाहती। लिहाजा जनसभाओं में भीड़ जुटे भी तो कैसे? बड़ी मुसीबत है। जनसभा में भीड़ न जुटी तो क्या 'मैसेज' जाएगा? विरोधी तो मजाक उड़ाएंगे ही, लोगों को भी लगेगा कि इन जनाब के पक्ष में जनसमर्थन नहीं है।
भीषण गर्मी की वजह से सब कुछ ठंडा है। तो क्या करें? किसी कार्यकर्ता ने सुझाया कि पब्लिक नहीं आ रही तो क्या हुआ, क्यों न हम ही पब्लिक के पास चलें? मतलब डोर टू डोर जनसंपर्क? हां वहीं! यह ठीक रहेगा। इसी बहाने नाराज मतदाताओं से भी वोट मांग लेंगे और कह देंगे कि यहां से गुजर रहा था, सोचा आपसे भी मिलता चलूं। इस नाचीज का भी खयाल रखिएगा।
बात जमने लायक थी। नेता जी खुश हो गए। यही ठीक रहेगा। ठीक है, आज से ही शुरू करते हैं। नेता जी उत्साहित थे। इसी बीच एक समझदार से दिखने वाले कार्यकर्ता ने सुझाया...लेकिन सर, ध्यान रखिएगा, किसी के दुखड़े से ज्यादा द्रवित न हो जाइएगा। उसकी 'हेल्प' करने की कोशिश तो बिल्कुल न करिएगा वर्ना कहीं आचार संहिता उल्लंघन के लफड़े में न फंस जाएं। लालू और शिवराज तो बच निकले लेकिन यह दिल्ली है। तभी एक और कार्यकर्ता ने अपना कुछ 'प्रैक्टिकल' सा सुझाव रखा। अरे सर, कह दीजिएगा जिसकी जो भी समस्या है, जीतने के बाद सुलझाई जाएगी। अभी तो हम सिर्फ आप लोगों की समस्याएं सुनने आए हैं। समस्याएं सुलझाने के लिए तो 'पॉलिटिकल पॉवर' चाहिए। वह तो जीतने के बाद ही मिलेगा न? अभी आप हमारा ध्यान रखिए। जीतने के बाद हम आपका ध्यान रखेंगे। हां अगर कोई मतदाता अपना दुखड़ा कुछ ज्यादा ही रोने लगे तो उसे सांत्वना देकर ही वहां से खिसक लीजिएगा। उसके दुख में ज्यादा 'इन्वाल्व' होने की जरूरत नहीं है। नहीं तो हमारा दुख बढ़ सकता है।
बहरहाल, चिलचिलाती गर्मी में डोर टू डोर जनसंपर्क के अलावा कोई रास्ता नहीं है। प्यासे को कुएं के पास जाना ही पड़ता है। लिहाजा नेता जी निकल पड़े हैं, अपने सहयोगियों (दरअसल चमचों) के साथ। कृपया दरवाजा खुला रखें, हो सकता है वह आपकी गली से भी गुजरें।
भीषण गर्मी की वजह से सब कुछ ठंडा है। तो क्या करें? किसी कार्यकर्ता ने सुझाया कि पब्लिक नहीं आ रही तो क्या हुआ, क्यों न हम ही पब्लिक के पास चलें? मतलब डोर टू डोर जनसंपर्क? हां वहीं! यह ठीक रहेगा। इसी बहाने नाराज मतदाताओं से भी वोट मांग लेंगे और कह देंगे कि यहां से गुजर रहा था, सोचा आपसे भी मिलता चलूं। इस नाचीज का भी खयाल रखिएगा।

बहरहाल, चिलचिलाती गर्मी में डोर टू डोर जनसंपर्क के अलावा कोई रास्ता नहीं है। प्यासे को कुएं के पास जाना ही पड़ता है। लिहाजा नेता जी निकल पड़े हैं, अपने सहयोगियों (दरअसल चमचों) के साथ। कृपया दरवाजा खुला रखें, हो सकता है वह आपकी गली से भी गुजरें।