चाचा आप क्यों गुस्सा हो गए?
आप तो मुझे रोज चूमा करते थे
अब कटे-कटे से क्यों रहते हैं?
आपने चुन्नू भैया को डांटा क्यों नहीं?
उसने आपकी लाई मिठाई मुझे नहीं दी।
मुन्नी दीदी भी अब मेरे साथ लूडो नहीं खेलतीं
कहती हैं जाओ-अपने भाई के साथ खेलो
बताओ चाचा, तुम मुन्नी दीदी को डांटोगे न?
भला चाचा तुम्हें याद है कितने दिन हो गए
मुझे कंधे पर बिठाकर हाट घुमाए हुए
कोने वाले कमरे में अब ताला क्यों बंद रहता है?
वह तो हमारे खेलने का कमरा था
चाची तो मुझे गोद पर सुलाया करती थीं
उस दिन दुखते सिर को दबाने को कहा
तो क्यों झिड़क दीं?
जानते हो चाचा,
चाची के कमरे में जाने पर
सब मुझे सहमी-सहमी निगाह से देखते हैं
बताओ न चाचा, ऎसा क्यों हो रहा है?
मुझे बहुत डर लगता है।
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बच्चा केवल सवाल करता है
वह नहीं जानता कि
आंगन वाली दीवार की ऊंचाई
कब दिलों को पार कर गई
(मेरे अजीज दोस्त प्रमोद कुमार की कविता जो प्रमोद ने मुझे 16-11-1998 को अपनी पाती के साथ वाराणसी से भेजी थी)
*विभाजन
4 comments:
वाह भई वाह, चंद शब्दों में ही एक बहुत ही कड़वी सच्चाई पेश कर दी।
दिल की गहराईयों को छू गई आपकी रचना. कितने घरों का यथार्थ कह रही है. बधाई इस रचना के लिए.
आपकी कविता में सारे जग का दर्द छिपा है। इस दिल को छू लेने वाली रचना के लिए बधाई स्वीकारें।
सच को आइना दिखा दिया तो सच झूठ होते-होते बच गया!
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