मंगलवार, 5 फ़रवरी 2008

अब भी जलाए बैठे हैं उम्मीद का चिराग (मेरी रेल यात्रा-3)

ट्रेन में भीड़भाड़ कम होने का नाम नहीं ले रही थी। अब तो मुझे उस खूबसूरत लड़की से ईर्ष्या होने लगी थी। वो इसलिए क्योंकि ट्रेन में इतनी भीड़-भाड़ होने के बावजूद उसे बर्थ में लेटने का सौभाग्य प्राप्त था। वैसे सोचता हूं कि मेरी यह ईर्ष्या इस बात की कम और इस बात की अधिक हो सकती है कि कहां तो वह मेरे बगल में बैठी थी और कहां उस बर्थ (या उसके चाचा !@$%^&*()_+) मुझे उससे दूर कर दिया। बुरा हो उस बर्थ का या फिर उसके...। सच कहूं तो मुझे गुस्सा आ रहा था उसके चाचा पर। महाशय अच्छे भले बर्थ पर सो रहे थे पता नहीं क्या सूझी कि नीचे तशरीफ ले आए और उस मोहतरमा को भेज दिया ऊपर। वैसे एक-दो बार मैंने बहाने से ऊपर देखा तो वह सोई नहीं थी, बल्कि लेटे हुए टुकुर-टुकुर ताक रही थी। यहां-वहां। इतनी भीड़ और शोरगुल में 'बेचारी' को नींद आ भी कैसे सकती थी? यह बात भला उसके चाचा को कौन समझाता? खैर, मुझे उससे बातचीत करना अच्छा लग रहा था। ऐसा स्वाभाविक भी है। लेकिन अब उससे बातचीत कर पाना मुमकिन नहीं था। खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे की तर्ज पर मैं मन ही मन उसके चाचा को कोसे जा रहा था। (और कर भी क्या सकता था?)
हालांकि ईर्ष्या तो मुझे उन लोगों से भी होने लगी थी जो फर्श पर इधर-उधर लुढ़के हुए नींद का आनंद ले रहे थे। और मैं यह सोचकर बैठे-बैठे ही रात बिता रहा था कि मैं भला यहां कैसे सो सकता हूं? वैसे अगर मैं वहां सोना चाहता भी तो यह मुमकिन नहीं था। वहां पैर रखने तक की जगह नहीं थी। एक तो उसके चाचा और दूसरे बीडी़ के धुयें ने मुझे काफी परेशान कर रखा था। अब धुयें के अलावा डिब्बे के वातावरण में बदबू भी महसूस होने लगी थी, जिसका भभका थोड़ी-थोड़ी देर में उठकर परेशान कर देता था।
बैठे-बैठे कमर दुखने लगी थी। पैर सुन्न हो रहे थे। क्योंकि पैर पसारने की जरा भी गुंजाइश नहीं थी। अब मेरी 'एकमात्र खुशी' भी छिन जाने से मैं मन ही मन उस घड़ी को कोस रहा था जब मैं उस ट्रेन में चढ़ा था। तभी कोई छोटा स्टेशन आ गया। गाड़ी रुक गई। बाहर से चाय-चाय की आवाजें आने लगीं। वेंडर खाने-पीने की चीजें लिये डिब्बे में घुसने की कोशिश करने लगे। हालांकि उन्हें इस कोशिश में कामयाबी नहीं मिली। लिहाजा वे बाहर खिड़कियों से ही यात्रियों को लुभाने की कोशिश करने लगे। चाय बेचने वालों ने तो यात्रियों को लुभाने में सफलता भी पा ली थी। खाने की तली-भुनी चीजें लिये भी कुछ वेंडर मुसाफिरों की भूख मिटाने का दावा कर रहे थे। उनका यह दावा कितना सही था इस बात का पता तो उन बासी से लगने वाले खाद्य पदार्थों को खाकर ही लगाया जा सकता था। मैं अब भी असमंजस में था कि चाय पी लूं या नहीं। मेरे बगल वाले सज्जन तो अब तक चाय की चुस्कियों में मशगूल हो चुके थे। मैंने उनसे पूछा, भाई साहब ! कैसी है चाय? इस पर उन्होंने चाय का यूं बखान किया कि जैसे चाय नहीं अमृत पी रह हों। शायद उन्हें लग रहा था कि चाय पीकर वह उस डिब्बे में बेहद अहम हो गये हैं।
रात के एक बज चुके थे। मेरी मंजिल भी करीब आ रही थी। अब मेरा ध्यान डिब्बे के अंदर की गतिविधियों की बजाय बाहर की ओर टिक गया था। वह खूबसूरत लड़की अब भी जाग रही थी। मैंने आखिरी बार उसकी ओर देखा। फिर दूसरे यात्रियों पर एक सरसरी नजर डाली। लोग अब भी ऊंघ रहे थे। जिन्हें जगह नसीब थी वो नींद के आगोश में समाये हुये थे। जो सोने की सुविधा मे महरूम थे वो अब भी बीड़ी जलाकर नींद से लड़ने का प्रयास कर रहे थे। अपनी मंजिल आने की खुशी में मेरे अंदर स्फूर्ति का संचार होने लगा था। मैं अपना सूटकेस संभाल रहा था तभी गाड़ी के पहिये चिंचियाकर थम गये। मरी मंजिल आ चुकी थी। मैं जल्दी से गेट की तरफ लपका और नीचे स्टेशन पर उतर गया। वहां उतरने वाले काफी थे। शायद उस स्टेशन के बाद डिब्बे में पर्याप्त जगह हो चुकी थी। लेकिन वह जगह मेरे किस काम की। मैं रिक्शे पर सवार हुआ और नानी के घर की तरफ चल पड़ा। उस दिन से आज तक मेरी नजरें उस लड़की को तलाश रही हैं। हमने अब तक उम्मीद का चिराग जलाए रखा है। अभी तक बैठे हैं कुंवारे। यकीन है एक दिन वो हमें जरूर मिल जाएगी। आप भी दुआ कीजिएगा। मेरे लिये। (समाप्त)

2 comments:

कंचन सिंह चौहान ने कहा…

bas...! ho gaya na...! pat atha mujhe ki aap aise hi sabko break ke baad ke kah kah kar fansa rahe ho...aur hona hawana kuchchh na hai hai..akhir us ne apko ek nigah bhi nahi dekha...lein post to aap aise de rahe the jaise jeevan bhar sath nibhane ka vada kar ke mukarne wali hai...!
teen din tak ham logo ko bhram me rakhne ke liye mai aap par mukadama karne wali hu.n

Unknown ने कहा…

कंचन जी, हमें इस बात का अहसास था कि तीसरी किस्त खत्म होने के बाद हमें जूते पड़ने वाले हैं, लेकिन क्या करें टीवी वाले हैं न...लोगों को बेवकूफ बनाने की आदत पड़ चुकी है। खैर, इस बार बख्श दीजिए, अगली बार से ये गुस्ताखी नहीं होगी। तीन दिनों तक हमारी बकवास झेलने के लिये शुक्रिया।

 
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