रात के दस बज चले थे। मैं अभी भी अपनी नींद पर काबू करने में कामयाब था। हां तो.., यह जिक्र करना सबसे जरूरी है उस सफर में मेरे बगल में एक खूबसूरत लड़की भी बैठी थी। रात करीब साढ़े दस बजे तक मैं भी नींद के आगे विवश होने लगा था। मुझे याद है कि एक-दो बार मेरा सिर उस खूबसूरत लड़की के कांधे पर टिक गया और हर बार चौंक कर मेरी नींद उड़ गई। बहरहाल, थोड़ी देर बाद ही मैंने उससे काफी कुछ परिचय बना लिया था। बात-बात पता चला कि वह इंदौर की रहने वाली है। उसने बड़े फक्र से बताया कि वह इंटर साइंस की छात्रा है। (तब मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय से ग्रेजुएशन-Ist year कर रहा था) थोड़ी देर में पता यह भी चल गया कि उसके साथ उसके चाचा भी हैं, जो ऊपर बर्थ पर सो रहे हैं। उसने मुझे अपनी वह खास अंगूठी भी दिखाई जिसमें छोटी सी घड़ी भी लगी थी। मैंने उसकी अंगूठी की तारीफ की। उसे अच्छा लगा। वैस तारीफ झूठी नहीं थी। अब शायद मैं उसकी भी तारीफ करता लेकिन इसकी शुरुआत से पहले ही उसके चाचा जी नीचे आ गये और उस खूबसूरत लड़की को ऊपर बर्थ पर सोने के लिये भेज दिया। खैर...।
अब तक रात के 11 बज चुके थे। सभी लोग नींद के आगोश में समाने लगे थे। सामान रखने वाली पतली सी बर्थ पर लेटे हुये लोग भी अब सो चुके थे। इस बीच कई छोटे-मोटे स्टेशन गुजर चुके थे। लेकिन भीड़ में कोई कमी नहीं आई थी। उल्टा उसमें बढ़ोत्तरी ही होती रही। जिनके लिए अपनी जरा सी जगह पर सो पाना मुश्किल था या जिनकी ओर उनके बगल वाला कई बार इसलिये आंखें तरेर चुका था कि वे नींद के आलम में उस पर कई बार गिर चुके थे। वे मजबूरी ने बीड़ी सुलगाकर नींद भगाने का प्रयास कर रहे थे। कुछ तंबाकू खा-खिलाकर टाइम पास कर रहे थे और नजरें बचाकर इधर-उधर थूक दे रहे थे। डिब्बे में ही। हालांकि यह उनकी विवशता थी क्योंकि खिड़की के 'नजदीक' होने का सौभाग्य उन्हें प्राप्त नहीं था।
बीड़ी का धुआं और तंबाकू ठोकने की भस डिब्बे में भर चुकी थी। वैसे शायद किसी को उससे असुविधा नहीं हो रही थी। मुझे इस पर आश्चर्य था। बेहद। लेकिन मुमकिन है कि वो इस वातावरण के अभ्यस्त रहे होंगे। पीने वालों को या न पीने वालों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि रेलगाड़ी में धूम्रपान निषेध है। वैसे भी बुंदेलखंड की ट्रेनों में कोई नियम-कानून नहीं चलता। धूम्रपान निषेध तो बिल्कुल नहीं।
रात के 12 बजे होंगे। कहीं से डिब्बे में एक टीटी घुस आया। मुझे यह देखकर बेहद आश्चर्य हुआ कि वह टीटी किसी से टिकट नहीं मांग रहा था। कुछ लोग अपने आप ही टिकट निकालकर उसे दिखाने की कोशिश करते लेकिन वह बिना देखे ही उन्हें टिकट वापस रख लेने का इशारा करता और आगे बढ़ जाता। कुछ लोग उसे दस-बीस रुपये का नोट थमा रहे थे और वह चुपचाप उनकी 'भेंट' को स्वीकार कर आगे बढ़ता जा रहा था। बिना कुछ बोलो। बिना कोई प्रतिक्रिया किए। मुझे यह बात काफी परेशान कर रही थी, लेकिन बाकी लोगों को नहीं। शायद इसलिये कि वह इस बात के अभ्यस्त रहे होंगे। उनके लिये यह रोज की बात रही होगी। बाद में पता चला कि उन लोगों के पास टिकट नहीं था। पता यह भी चला कि इस ट्रेन में रोज ऐसा ही होता है। टिकट लेने की जरूरत नहीं, बस टीटी की जेब गर्म कर दो। सस्ते में निबट जाओगे। अपना भी फायदा। टीटी का भी फायदा। रेलवे जाए भाड़ में। वैसे भी रेल तो उन्हीं की संपत्ति है। बहरहाल, अब मुझे भी बार-बार झपकियां आने लगी थीं। (अगली कड़ी में जानिए मेरा उस खूबसूरत लड़की से ईर्ष्या का सबब)
4 comments:
आप तो थोड़ा थोड़ा करके बता रहे हैं.. एक ही बार में उस लड़की का किस्सा खत्म कर डालिए.. :D
जे तो सई बात है, कन्या वाले मुद्दे पे जल्दी लपको न गुरु! ;)
अरे इन चैनेल वालों का कोई भरोसा नही है हर बार कहेंगे कि ब्रेक के बाद देखें कन्या का विशेष विवरण और समाचार पूरा हो जाने केबाद हम सब लोग कहेंगे "खोदा पहाड़ निकली चुहिया"...
एकै लड़की क लइके कै पोस्ट लिखबो
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