रात का वक्त था। दफ्तर से लौट रहा था। जाहिर है घर के लिए। तभी बीच सड़क पर सफेद रंग की एक आकृति देखकर चौंक गया। असल में वह एक सांप था। जीता-जागता, हिलता-डुलता। गाड़ी में ब्रेक लगाया। शुक्र मनाया कि सड़क के बीचोंबीच होने के बावजूद वह पहिये के नीचे आने से बच गया। दिमाग में आया क्यों न अपने पड़ोसी टीवी चैनल वाले को कॉल कर दूं। हमेशा न्यूज ब्रेक करने वाले न्यूज चैनल को एक और ब्रेकिंग न्यूज मिल जायेगी। फिर सोचा, यह नाग या नागिन तो है नहीं। यह तो शायद पानी वाला सांप है। सीधा-साधा। भोला-भाला। इसे तो फुंफकारना भी नहीं आता। ना ही यह किसी से बदला ले सकता है। न ही इसे नागिन फिल्म की धुन पर नचाया जा सकता है। फिर सोचा, इससे क्या फर्क पड़ता है। किसी भी सांप को नाग या नागिन बनाना तो चैनल वालों के बायें हाथ का खेल है। वैसे भी सांप-नेवले की स्टोरी में असली दृश्य होते ही कहां हैं। फिल्मों के विजुअल और गाने ही...
शनिवार, 25 अगस्त 2007
गुरुवार, 23 अगस्त 2007
कंपनी सार

दोस्तों, मेरे लिखे हुये को तो आप पिछले करीब तीन महीने से पढ़ (या शायद झेल) ही रहे हैं। आज मैं जो रचना आपके सामने प्रस्तुत करने जा रहा हूं वह हमारे इन मित्र ने पोस्ट की है। इनका नाम है विनय पाठक। यूं तो मैं भी खबरिया चैनल में ही काम करता हूं लेकिन अब मैं पत्रकार होने का दावा नहीं करता। लेकिन पाठक जी के बारे में मैं ताल ठोंककर कह सकता हूं कि यह जनाब टीवी पत्रकार हैं। हालांकि मेरा ऐसा कहना इन्हें पसंद आयेगा या नहीं मैं नहीं जानता। तो लीजिये पेश है इस तस्वीर में नजर आ रहे विनय पाठक की ताजातरीन रचना--- हे पार्थ,तुम्हें इंक्रीमेंट नहीं मिला, बुरा हुआटीडीएस बढ़ने से सैलरी भी कट गई, और भी बुरा हुआअब काम बढ़ने से एक्स्ट्रा शिफ्ट भी होगी, ये तो और भी बुरी...
बुधवार, 22 अगस्त 2007
फिल्म सिटी का कुत्ता
वह फिल्म सिटी का कुत्ता हैउसने देखा हैहर प्रोड्यूसर को'प्रोड्यूसर' बनते हुये।हर पत्रकार को'जर्नलिस्ट' में बदलते हुये।उसने देखा हैबाटा की घिसी चप्पलों से'वुडलैंड' तक का सफरउसने देखा हैफुटपाथ की टी शर्ट से'पीटर इग्लैंड' तक का सफरउसने देखा हैघिसे टायरों वाली हीरो होंडा को'होंडा सीआरवी' में बदलते हुये।वह हर चैनल के प्रोड्यूसर कोअच्छी तरह पहचानता हैतभी तोएंकर और प्रोड्यूसर को देखते हीपूंछ हिलाता हैउन पर भोंकने की गुस्ताखी नहीं करतावह भोंकता हैबाहर से आने वालों परलेकिन...इस बात का इत्मीनान करने के बादकि वो शख्स भविष्य काएंकर या प्रोड्यूसर तो नहीं हैवह बाहरी कुत्तों पर भी भोंकता हैवो कुत्ते...जो उसकी तरह साफ-सुथरे नहीं होतेकिसी चैनल के प्रोड्यूसर की तरहखाये-पिये और तंदुरुस्त नहीं होतेवह खुद भी 'प्रोड्यूसर' की तरह ही हैखाया-पिया, अघाया, मुटायाइसलिये उसेमरियल और बीमार कुत्तेअपनी बिरादरी के नहीं लगतेवह...
शनिवार, 11 अगस्त 2007
राजू बन गया जैंटिलमैन

वह मेरा अनुज है। बहुत प्यारा इंसान है। जब भी मिलता है बेतकल्लुफ होकर। मेरी तरह वह भी पत्रकार बिरादरी से ताल्लुक रखता है। मैं भी एक खबरिया चैनल के क्राइम बुलेटिन में काम करता हूं और वह भी। मैं भी इलाहाबादी हूं और वह भी। मैं भी कभी-कभार कविता लिखता हूं और वह भी। मुझे उसकी रचनायें अच्छी लगती हैं। मेरी रचनायें उसे कैसी लगती हैं, मैं नहीं जानता। मैं उसे पढ़ता हूं। कई बार तो उसकी लेखनी मेरे अंदर एक स्फूर्ति का संचार कर देती है। कई बार कुछ कर गुजरने का उत्साह भर देती है। कई बार सोचता हूं, ये लड़का एक दिन जरूर क्रांति कर देगा। मुझे क्रांति का झंडा बुलंद करने वाले बेहद पसंद हैं।यह कल तक की बात थी। उसके बारे में मेरी राय थी। आज उसने मुझे निराश किया है।...
शुक्रवार, 10 अगस्त 2007
मुझे इन कांवड़ियों से बचाओ
दफ्तर के लिये लेट हो रहा था। आज मीटिंग थी। वक्त पर पहुंच जाऊं यह सोचकर मैंने अपनी गाड़ी की रफ्तार बढ़ा दी। लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। जल्द ही ब्रेक लगाना पडा़। अब गाड़ी बमुश्किल चालीस की रफ्तार से बढ़ रही थी वह भी रुक-रुक कर। इस कछुआ चाल की वजह यह थी कि मेन रोड के तकरीबन आधे हिस्सों को बैरीकेड लगाकर रिजर्व कर दिया गया था। जानते हैं किसके लिये? शिवभक्त कांवड़ियों के लिये। कांवड़ लेकर नंगे पांव सड़क नापने वाले भक्त (?) सफलता पू्र्वक अपनी मंजिल पर पहुंचें इसके लिये प्रशासन ने पूरे इंतजाम कर रखे हैं। जगह-जगह पुलिस भी तैनात रहती है। शिवभक्तों को पूरी तरह वीआईपी ट्रीटमेट मिलता है। क्या मजाल कि कांवड़ियों को कोई कष्ट हो जाये। सड़क पर तो वो यूं चलते हैं जैसे पूरी सड़क उनके बाप की है। आम लोगों के प्रति उनका रवैया ऐसा होता है जैसे कांवड़ ले जाकर वो खुद पर नहीं बल्कि देशवासियों पर कोई बहुत बड़ा ऐहसान...
बुधवार, 8 अगस्त 2007
टुच्चे लोग-टुच्ची बातें
सुबह-सुबह मोबाइल की मैसेज टोन सुनाई दी। देखा तो हैप्पी बर्थडे का मैसेज था। याद आया अरे आज तो हमारा जन्मदिन है। ये मोबाइल भी क्या चीज है। हमें वक्त पर याद दिला दिया हमारे जन्मदिन के बारे में। मैसेज भेजने वाले से ज्यादा हम मोबाइल के शुक्रगुजार थे। वो इसलिये कि हम यकीन के साथ कह सकते हैं कि अगर उन जनाब के पास मोबाइल नहीं होता तो शायद ही वो हमें जन्मदिन की बधाई देते। क्या पता मैसेज भेजने में जो एक अदद रुपये खर्च होते हैं वो भी उन्होंने खर्च न किये हों। अरे आजकल तो मोबाइल कंपनियां फ्री मैसेज की सुविधा देने लगी हैं...अब आप लोग सोचेंगे कि भइया हम तो बड़ी ही नकारात्मक सोच वाले शख्स हैं। क्या करें हमारी सोच ऐसी हो ही गई है। फिलहाल हमारे दिमाग में इसकी दो वजह आ रही हैं।पहली तो ये कि हमें जन्मदिन की शुभकामना भेजने वाले को हमसे कोई दिली या भावनात्मक लगाव नहीं है, यह हम अच्छी तरह जानते हैं। जब उन जनाब...