गुरुवार, 25 जून 2015

दिल्ली पुलिस बहुत बिजी है!!!

स्कूल स‌े कॉलेज तक कितनी लड़कियों को धोखा दिया?
पत्नी को धोखा देकर दूसरी के चक्कर में कब-कब पड़ा? 
अब तक कितनी बार अपनी पत्नी स‌े मारपीट की? 
पत्नी स‌े किये गये वायदों में कौन-कौन स‌े नहीं निभाये?
राजनीति में क्यों आया, वही काम करता जो कर रहा था?
राजनीति करनी ही थी, तो भाजपा ज्वाइन करता, ये पार्टी क्यों ज्वाइन की?
पड़ोसी के स‌ाथ कितनी बार कहासुनी और मारपीट हुई?
पड़ोसी के लड़के को पीटकर कितनी बार मामला थाने तक पहुंचा?
क्लास में स‌हपाठियों के बस्तों स‌े कितनी पेंसिल चुराईं?
किन-किन स्कूलों के स‌ीसीटीवी फुटेज स‌े चोरी के स‌बूत मिल स‌कते हैं?
स्कूल स‌े कॉलेज तक कहीं कई फर्जी डिग्री तो नहीं?
स्कूल कॉलेज में पढ़ाई के दौरान कितनी बार क्लॉस बंक की?
परीक्षा के दौरान कौन-कौन स‌े पेपर में नकल मारी?
अब तक पढ़ाई करके पास हुआ है या हमेशा नकल करके?
देशभक्त पार्टी स‌े ताल्लुक रखने वाले कितने नेताओं की मानहानि की?
अब तक कितने स्टिंग में पकड़ा गया?
कितने लोगों स‌े उधार लिया और कितनों का नहीं लौटाया?
कहां रहता है, वहां रहता है तो वहीं क्यों रहता है?
तीन-चार कमरे का फ्लैट क्यों खरीदा, एक कमरे का क्यों नहीं?
कितने घर हैं, कितनी जमीन-जायदाद है?
कौन स‌ी कार है, बड़ी कार की क्या जरूरत मारुति 800 स‌े नहीं चल स‌कता?
कार की क्या जरूरत है, मोटरसाइकिल स‌े नहीं चल स‌कता?
मोटरसाइकिल की क्या जरूरत है, स‌ाइकिल स‌े नहीं चल स‌कता?
स‌ाइकिल की क्या जरूरत है, पैदल नहीं चल स‌कता, भगवान ने पैर नहीं दिए?
विधायक क्यों बना, ऎसे भी तो जनता की स‌ेवा कर स‌कता था?
चुनाव क्यों लड़ा, बिना चुनाव लड़े भी तो मंत्री बन स‌कता था?
चुनाव जीता क्यों, हारने के बाद भी तो मंत्री बन स‌कता था?
फर्जी डिग्री क्यों बनवाई, बिना डिग्री के भी तो मंत्री बन स‌कता था?
इतना पैसा कहां स‌े आया, जरूर चोरी की होगी?
कहां-कहां और किस-किस तरह उसे फसाने के चांसेज हैं?
किसी मामलें में जेल भिजवाने की कितनी स‌ंभावना है?
कितना दबाव डालने पर पार्टी छोड़कर राष्ट्रभक्त पार्टी में आ स‌कता है?
कौन स‌ी नस है जिसे दबाने स‌े केजरीवाल का दुश्मन बन स‌कता है?
क्या-क्या करने पर मोदी जी, राजनाथ जी और जंग स‌ाहब स‌े शाबासी मिल स‌कती है?
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इत्ता स‌ारा इन्वेस्टीगेशन करना, वो भी एक दो नहीं 67 लोगों का...
प्रति व्यक्ति औस‌तन 12 स‌े 15 डिग्री की स‌च्चाई पता लगाना
और वो स‌ब अलग जो विधायक या मंत्री नहीं है, उन्हें भी किसी न किसी मामले में फंसाना।
ये स‌ब कोई आसान काम है क्या?
वाकई दिल्ली पुलिस के पास बहुत काम है।
कौन कहता है दिल्ली पुलिस काम नहीं करती?

मंगलवार, 23 जून 2015

रिपोर्टर- हिंदू रक्षक स‌ंवाद

हिंदू रक्षक- हिंदू धर्म दुनिया का स‌र्वश्रेष्ठ धर्म है।
रिपोर्टर- तो फिर आप लोगों को दूसरे धर्मों स‌े इतना डर क्यों लगता है?
हिंदू रक्षक- क्या मतलब?
रिपोर्टर- मतलब ये क्या हिंदू धर्म इस्लाम और ईसाई को गाली देने स‌े ही मजबूत होगा?
हिंदू रक्षक- नहीं हमारा धर्म तो पहले स‌े ही मजबूत है।
रिपोर्टर- तो फिर इस्लाम और  ईसाई धर्म स‌े आपको इतनी मिर्ची क्यों लगती है?
हिंदू रक्षक- हमें भला मिर्ची क्यों लगेगी, हिंदू धर्म तो स‌बसे महान है।
रिपोर्टर- तो फिर आपको हमेशा ये डर क्यों लगा रहता है  ईसाई और मुस्लिम हिंदुओं का धर्म परिवर्तन करा लेंगे?
हिंदू रक्षक- हम भला क्यों डरने लगे?
रिपोर्टर- इस्लाम और इसाई धर्म में कुछ तो खास होगा कि हिंदू अपना धर्म छोड़कर उनको अपना लेते हैं?
हिंदू रक्षक- वो स‌ब भटके हुए लोग हैं।
रिपोर्टर- इस्लाम और ईसाई धर्म छोड़कर तो कोई हिंदू नहीं बनता, मतलब आपके धर्म में ही कुछ खामी है?
हिंदू रक्षक- कहा ना वो भटके हुए लोग हैं हम उनकी 'घर वापसी' कराएंगे।
रिपोर्टर- लेकिन 'घर वापसी' की नौबत ही क्यों आती है, आप अपने लोगों को स‌ंभाल कर क्यों नहीं रखते?
हिंदू रक्षक- अरे आप स‌मझते नहीं हैं, हिंदू धर्म लोगों को आजादी देता है उसी का फायदा उठाकर वो धर्म बदल लेते हैं।
रिपोर्टर- अच्छा, तो दूसरे धर्म आजादी नहीं देते, इस‌ीलिए उनके लोग धर्म परिवर्तन नहीं करते?
हिंदू रक्षक- हां, वही तो...। हिंदू धर्म स‌बसे लोकतांत्रिक है।
रिपोर्टर- लेकिन आपके बयानों स‌े तो यही लगता है कि लोकतंत्र में आपका जरा भी विश्वास नहीं है?
हिंदू रक्षक- नहीं नहीं, ये स‌ब हमारे खिलाफ दुष्प्रचार है।
रिपोर्टर- अच्छा ये बताएं कि आप तो इस‌ देश में बहुसंख्यक हैं, फिर भी आपको अल्पसंख्यकों स‌े इतना खतरा क्यों महसूस होता है?
हिंदू रक्षक- वो क्या है कुछ हिंदू हैं जिन्हें अपने धर्म की महानता का अहसास नहीं है वो अल्पसंख्यकों को लगे लगाकर घूमते हैं, इसी स‌े स‌ारी गड़बड़ होती है।
रिपोर्टर- आखिर वो हैं कौन लोग?
हिंदू रक्षक- वामपंथी, आपिये, शेखुलर, खांग्रेसी, स‌माजवादी ये स‌ब हिंदू धर्म के दुश्मन हैं, देशद्रोही और गद्दार हैं।
रिपोर्टर- ये आप क्या कह रहे हैं?
हिंदू रक्षक- स‌ही कह रहा हूं और तुम भी उन देशद्रोहियों स‌े मिले हुए हो, बिकाऊ पत्रकार हो, चलो जाओ यहां स‌े, भारत माता की जय, वंदेमातरम।

गुरुवार, 7 मई 2015

''ऊपरवाला'' कुछ नहीं देख रहा है?

''ऊपरवाले'' के यहां देर और अंधेर तो पहले स‌े ही था. अब पता चला कि वहां भ्रष्टाचार भी बहुत है. ऊपर बैठकर ''स‌ब कुछ'' देखने के लिए भगवान ने जो स‌ीसीटीवी कैमरे लगवाए थे उनमें स‌े ज्यादातर खराब पड़े हैं. जो कैमरे काम कर रहे हैं, वो घटिया क्वॉलिटी के कैमरे भी जल्द ही 'स्वर्ग स‌िधार' जाएंगे. लगता है भगवान ने स‌ीसीटीवी लगाने का ठेका किसी भ्रष्ट इंजीनियर या भ्रष्ट ठेकेदार को दिया था. घटिया कैमरे लगाकर भोले-भाले भगवान जी को ठग लिया. मार्केट रेट स‌े ज्यादा पैसा भी लिया, घटिया कैमरे भी लगा दिए और आफ्टर स‌ेल्स स‌र्विस भी नहीं दी. हालांकि ठेका देने में भगवान पर भाई-भतीजावाद का शक नहीं किया जा स‌कता. वह तो मनमोहन स‌िंह की तरह स‌ौ फीसदी ईमानदार हैं. लेकिन खराब कैमरों के चक्कर में आजकल उनके 'ग्रह-नक्षत्र' कांग्रेस की तरह खराब चल रहे हैं. धरती के प्राणी स‌ोच रहे हैं कि ऊपरवाला स‌ब देख रहा है, जहां उसकी जरूरत होगी वह हरकत में आएगा. गुनहगारों को स‌जा देगा. लेकिन भक्तों को क्या मालूम कि ऊपरवाले की आंखें भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ चुकी हैं. आजकल उसे कुछ दिखाई-सुनाई नहीं देता. एक तो आंखों का मोतियाबिंद तो ऊपर स‌े खराब कैमरे, जिनमें कुछ रिकॉर्ड ही नहीं होता. मुश्किल ये है कि अब नये कैमरे लगवाने के लिए भगवान पैसे कहां स‌े लाएं? उनके पैसों पर तो पंडे, पुजारियों और मौलवियों ने कब्जा जमा रखा है. उनके नाम पर जमा स‌ोना-चांदी पंडे, पुजारियों की तिजोरियों का वजन बढ़ा रहा है। कुल मिलाकर आज के जमाने में मजबूरी का नाम महात्मा गांधी नहीं, मजबूरी का नाम ''भगवान'' है.

बुधवार, 25 जून 2014

...जब 'अच्छे दिन' से मुलाकात हो गई


अचानक मेरी नजर सड़क के उस किनारे पर गई जहां सैकड़ों लोग जमा थे। शायद उन लोगों ने किसी को घेर रखा था। भीड़ से जोर-जोर की आवाजें भी आ रही थीं। सब एक साथ बोल रहे थे लिहाजा किसी एक की बात को समझ पाना मुश्किल था। अपने और उनके बीच की दूरी भी उनकी बातें समझने में बाधक बन रही थीं। देखते ही देखते भीड़ के कारण आसपास जाम लग गया। अब मेरे लिए भी वहां से निकलना तकरीबन नामुमकिन हो गया था। उत्सुकतावश मैं भी उस भीड़ की ओर बढ़ गया। यह देखने के लिए कि आखिर यहां हो क्या रहा है?

नजदीक पहुंचा तो देखा लोगों ने सूट-बूट, टाई और ब्रॉन्डेड कपड़ों से लैस एक नौजवान को चारों तरफ से घेर रखा है। ''कौन है यह? सब इसके पीछे क्यों पड़े हैं?" मैंने भीड़ की तरफ सवाल उछालते हुए जानने की कोशिश की। सवाल के जुबान से फूटने की देर थी कि सब लोगों ने मेरी तरफ घूरकर देखा।

मुझे अहसास हो चुका था कि उस नौजवान को न पहचानकर मैंने कोई बड़ा अपराध कर दिया है। जरूर वह कोई बड़ा आदमी होगा जिसे सब जानते हैं। उस भीड़ में मैं ही इकलौता ऐसा इंसान था जो उस नौजवान को नहीं जानता था।

'जानते नहीं ये भइया 'अच्छे दिन' हैं इसीलिए तो सब इन्हें अपने साथ ले जाना चाहते हैं।' भीड़ से एक बुजुर्ग ने समझाने वाले लहजे में मुझे बताया। कोई उसका हाथ पकड़कर अपनी तरफ खींच रहा था तो कोई उसके पैरों पर गिरा जा रहा है। मैंने देखा भीड़ में मौजूद 31 फीसदी लोग उसे अपनी तरफ खींच रहे हैं। उसे अपने साथ ले जाना चाहते हैं। कोई उससे साथ चलने की गुजारिश कर रहा है तो कोई खुद को किसी बड़े आदमी का दोस्त, रिश्तेदार या जान-पहचान वाला बताकर उस पर अपनी दावेदारी पेश कर रहा है। बाकी 69 प्रतिशत लोग खड़े तमाशा देख रहे हैं। मैं भी उन्हीं 69 फीसदी वालों में घुल-मिल गया।

मैं शर्म के मारे गड़ा जा रहा था,  यह सोचकर कि मैं 'अच्छे दिन' को नहीं पहचानता। ऐसे में भला मेरे दिन अच्छे कैसे बनेंगे। कोई गुंजाइश ही नहीं। 'अच्छे दिन' को पता चलेगा तो बहुत नाराज होगा। अपमानित महसूस करेगा। मेरे साथ तो भूलकर भी नहीं आ सकता। यह सोचकर मैं लौटने के लिए पलटा और 392 नंबर की डीटीसी बस में चढ़ गया।

शुक्र है सीट मिल गई। यह सोचकर मुझे ऐसा लग रहा था कि जैसे मेरे 'अच्छे दिन' आ गए हों। तभी ये देखकर मैं चौंक उठा कि 'अच्छे दिन' नाम का वो नौजवान मेरे बगल वाली सीट पर ही बैठा था। कुछ सकारात्मक जवाब की उम्मीद किए बिना ही मैंने उससे पूछ लिया- ''भाई अच्छे दिन, आप हमारे घर कब आएंगे?''

'आएंगे-आएंगे, आपके घर भी आएंगे, लेकिन अभी तो मैं जरा जल्दी में हूं। ये बस तो एयरपोर्ट की तरफ ही जाती है ना? मुझे थोड़ी देर में मुंबई की फ्लाइट पकड़नी है। एंटालिया में मेरी एक बहुत महत्वपूर्ण मीटिंग है।'

''एंटालिया में ?'' मैंने कन्फर्म करने के लिए पूछा। ''हां वहीं'', अच्छे दिन ने बहुत ही संक्षिप्त में जवाब दिया और खिड़की से बाहर की ओर झांकने लगा। शायद वह मुझे खास अहमियत नहीं देना चाहता था, इसीलिए इग्नोर कर रहा था। मेरी उससे कोई जान-पहचान भी तो नहीं थी। अब मैं समझ चुका था कि 'अच्छे दिन' साहब फिलहाल मेरे घर तो चलने से रहे। फिर भी मैंने बातचीत का सिलसिला आगे बढ़ाने की कोशिश की।

''आप उन लोगों के साथ क्यों नहीं गए? कितना प्यार करते हैं वो सब आपको। हर कोई आपको अपने साथ ले जाना चाहता है। और आप हैं कि आपको उनकी भावनाओं की कद्र ही नहीं।''

''नहीं ऐसी बात नहीं है। आजकल मैं जरा ज्यादा बिजी हो गया हूं। आम लोगों से मिलना-जुलना कम ही हो पाता है। वैसे भी इन लोगों को तो आदत है कि मुझे देखकर ही खुश और संतुष्ट हो लेते हैं। अब भी वैसे ही चलेगा। अब आप ही बताओ की मेरे लिए एंटालिया में होने वाली मीटिंग ज्यादा महत्वपूर्ण है या फिर ये भूखे-नंगे लोग? वैसे मैं बता दूं कि इन्ही लोगों के लिए तो मैं इतनी दौड़-भाग करता हूं। बड़े-बड़े लोगों के साथ मीटिंग करता हूं। सबकी जिंदगी में पॉजिटिव बदलाव लाने की कोशिश करता हूं।''

''भाई साहब, मुझे भी कोई टिप्स दीजिए, आजकल बड़ी आर्थिक तंगी चल रही है। वो पड़ोस वाला टिंकू तो कह रहा था कि जल्द ही सारी प्रॉब्लम खत्म हो जाएंगी। सबके अच्छे दिन शुरू हो जाएंगे। लेकिन ऐसा तो कुछ भी नहीं हुआ।''

''आपको पैसे की प्रॉब्लम है ना? तो आप लोन क्यों नहीं ले लेते? रिलायंस फाइनेंस में अच्छा ऑफर चल रहा है। मैं दिलवा दूंगा। एक पर्सेंट कम भी करवा दूंगा। मेरी अच्छी जान-पहचान है। आसान किस्तों में लौटा देना। सिंपल। सारी प्रॉब्लम खत्म। जैसे चाहो खर्च करो। ऐश करो। पिछले एक महीने से तो मैंने कई लोगों को पर्सनल लोन दिलवाया है। आप भी ले लीजिए।''

''अच्छा ये बताइये कि आपका नाम 'अच्छे दिन' किसने रखा? क्यों रखा?'' उसकी सलाह को अनसुना करते हुए मैंने लगातार  दो सवाल दाग दिए।

''ये लो, आपको इतना भी नहीं पता। मेरे नामकरण पर इतना लंबा चौड़ा प्रोग्राम हुआ था। देश भर से लोग बुलाए गए थे। तमाम शहरों में जा-जाकर न्योता दिया गया था और आप पूछ रहे हैं कि नाम किसने रखा? बीस हजार करोड़ रुपये खर्च किए गए थे मेरे नामकरण में, समझे।''

''जी समझ गया।" मैं निरुत्तर था। चुप हो गया। 'अच्छे दिन' भी खामोश ही बैठा रहा। इस खामोशी को भी मैंने ही तोड़ा। अच्छे दिन से उसका पता पूछकर। जवाब में उसने मुझे अपना विजिटिंग कार्ड पकड़ा दिया और मिलते हैं कभी कहकर अगले ही बस स्टॉप पर उतर गया। मैंने विजटिंग कार्ड देखा तो उसमें 7आरसीआर, नई दिल्ली का पता लिखा था। मैंने उसे संभालकर रख लिया, यह सोचकर कि कभी 'अच्छे दिन' से मिलने जरूर जाऊंगा।

बुधवार, 8 मई 2013

राष्ट्रवादी की डायरी : पहला पन्ना


मैं एक राष्ट्रवादी हूं। राष्ट्रवाद की भावना मेरे अंदर कूट-कूट कर भरी है। इस भावना को पत्थर की तरह कूटा गया था या मिट्टी की तरह ये तो मुझे नहीं मालूम लेकिन इतना जरूर कह स‌कता हूं की जीते जी ये भावना मेरे दिल स‌े निकलने वाली नहीं, बल्कि ये दिनोंदिन बलवती होती जा रही है। आज स‌े मैं अपनी डायरी लिख रहा हूं। इस डायरी के जरिये आप मुझस‌े, मेरे बैकग्राउंड स‌े और मेरे देशप्रेम स‌े ओतप्रोत विचारों स‌े अवगत हो स‌केंगे। आगे कुछ लिखने स‌े पहले मैं अपना परिचय करा दूं। मेरा नाम आरएसएस भाई पटेल है। मेरे पिताश्री का नाम वीएचपी भाई पटेल था। वो गुजरात के रहने वाले थे। मेरा जन्म भी गुजरात में ही हुआ। परवरिश भी वहीं पर हुई।

पिताजी ने हमें बचपन स‌े ही राष्ट्रवादी स‌ंस्कार दिए थे। वह खुद भी कट्टर राष्ट्रवादी थे। स‌ंघ वालों स‌े उनकी बहुत पटती थी। वही स‌ंघ वाले जो अपने स‌ामाजिक कार्यों के लिए विश्व विख्यात हैं। पिताश्री रोजाना स‌ंघ की शाखा में जाया करते थे। वह बताते थे कि स‌ंघ स‌े बड़ा देशभक्त स‌ंगठन दुनिया में नहीं है। उन्होंने अपने आप को पूरी तरह स‌ंघ के रंग में रंग लिया था। जब देखो तब एक खाकी हाफ पैंट में घूमते रहते थे। खाकी औऱ भगवा रंग स‌े पिताजी को खासा लगाव था। असल में वो फौजी बनना चाहते थे, ताकि खाकी ड्रेस पहनकर वो भी देश की स‌ेवा कर स‌कें। लेकिन कद छोटा होने की वजह स‌े फौज में भर्ती नहीं हो पाए। लेकिन दिल में इस बात की कसक हमेशा रही। फिर पुलिस में भर्ती होने के लिए भी हाथ-पांव मारे, लेकिन उस स‌मय पुलिस का बड़ा स‌ाहब दूसरे धर्म वाला था, बस उसी ने लंगड़ी मार दी और पिताश्री पुलिस अफसर बनते-बनते रह गए।

सोमवार, 29 अप्रैल 2013

चमत्कारी मोदी ताबीज-पहले इस्तेमाल करें, फिर विश्वास करें


हाय, मेरा नाम...है। पहले मैं अपनी जिंदगी स‌े बहुत परेशान रहता था। मेरा कोई भी काम ठीक स‌े नहीं हो पाता था। कई बीमारियां घेरे रहती थीं। काफी इलाज करवाया। कोई फायदा नहीं हुआ। फिर मुझे किसी ने चमत्कारी 'मोदी ताबीज' के बारे में बताया। उस दिन के बाद स‌े तो मेरी जिंदगी ही बदल गई। जिस दिन स‌े मैंने श्रीश्री 1008 मोदी जी महाराज के नाम की ताबीज पहननी शुरू की उसी दिन स‌े मेरी जिंदगी में चमत्कार शुरू हो गए। अचानक मैं खुद को काफी स्वस्थ महस‌ूस करने लगा। आज मेरे दोस्त मुझे देखकर पहचान ही नहीं पाते कि मैं वही हूं। मुझे अब भी यकीन नहीं होता कि यह स‌ब 'मोदी ताबीज' का कमाल है। लेकिन यही स‌त्य है। हालांकि 2002 में मेरे दादाजी ने मुझे 'मोदी ताबीज' के बारे में बताया था। तब 'मोदी ताबीज' नई-नई बाजार में लॉन्च हुई थी। लेकिन तब मैंने दादाजी की बातों पर यकीन नहीं किया। मैं नहीं मानता था कि ताबीज स‌े भी कोई चमत्कार हो स‌कता है। लेकिन 'मोदी ताबीज' पहनने के बाद मेरी यह धारणा बदल गई है। मुझे अफसोस है कि अगर 2002 में ही मैंने दादाजी की बात मानकर 'मोदी ताबीज' पहनी होती तो आज मैं पता नहीं कहां स‌े कहां पहुंच चुका होता। खैर, देर आए, दुरुस्त आए। मैंने अपनी गलती स‌ुधार ली। आप भी मेरी कहानी स‌े स‌ीख लें। 'मोदी ताबीज' घर लाएं, स‌भी स‌मस्याओं स‌े निजात पाएं।

शनिवार, 25 अगस्त 2012

मैं 'मेरी कोम' को नहीं जानता

मेरी कोम! मैं तुम्हें नहीं जानता
मैं तुम्हें नहीं पहचानता.

क्योंकि तुम फिल्मी स‌ितारों जैस‌ी चमकती नहीं हो
स‌ंज-संवर कर अदा स‌े दमकती नहीं हो.
तुम्हारी चाल 'हीरोइन' जैसी नशीली नहीं है
तुम्हारी अदा कैटरीना जैसी कटीली नहीं है.

तुम हिट फिल्म की हीरोइन की तरह नहीं इतराती.
फेयरनेस क्रीम बेचने की 'स‌ंभावनाएं' भी नहीं जगाती.
तुम्हारे चेहरे पर 'स‌ुपर मॉडल' जैसी चमक नहीं है.
तुम्हारी आवाज में 'इंडियन आइडल' जैस‌ी खनक नहीं है.

तुम अपनी कामयाबियों पर भी नहीं इठलाती.
जुल्फें स‌ंवारकर कैमरों के स‌ामने नहीं आती.
तुम्हारी कमर में 'आइटम गर्ल' वाली लचक नहीं है.
'दर्शकों' को रिझा स‌के, वो कसक नहीं है.

तुम्हें तो 'स्टार पुत्रियों' की तरह
नखरे दिखाना भी नहीं आता है.
अफसोस! तुम्हारी त्वचा स‌े
तुम्हारी उम्र का पता चल जाता है.

तुम टीवी शो में झलक भी नहीं दिखलाती.
बड़ी-बड़ी बातों स‌े लोगों को नहीं भरमाती.
रियलिटी शो के मंच पर ठुमके भी नहीं लगाती.
मर्दाना चाल चलती हो, कमर नहीं मटकाती.

तुम्हारी कहानी में सस्पेंस और थ्रिल नहीं है.
तुम किस्से गढ़ने का स्कोप नहीं दिलाती.
और तो और, तुम्हारा किसी स‌े अफेयर भी नहीं है.
वाकई तुम्हारे व्यक्तित्व में कोई ग्लैमर नहीं है.

तुम्हारे लिए देश की पब्लिक पागल नहीं होती.
औरों की तरह तुम पर तोहफों की बारिश नहीं होती.
तुम 'केबीस‌ी' में पूछे जाने वाले स‌वाल में तो हो.
लेकिन उसके बीच आने वाले 'ब्रेक' में नहीं हो.

स‌च कहूं तो तुम्हारी कोई अदा भड़कीली नहीं है.
तुम अप्सराओं की तरह खूबस‌ूरत नजर नहीं आती.
तुम महंगे-ब्रांडेड कपड़ों स‌े खुद को नहीं स‌जाती.
स‌ुंदर स्त्रियों की तरह बनाव श्रृंगार भी नहीं करती.

इसीलिए, मैं तुम्हें नहीं पहचानता
मेरी कोम तुम कौन हो? मैं नहीं जानता.
(रवींद्र रंजन--25-08-12 )

 
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