स्टोव तुम ससुराल में ही क्यों फटा करते हो?
मायके में क्यों नहीं ?
स्टोव तुम्हारी शिकार बहुएं ही क्यों होती हैं?
बेटियां क्यों नहीं ?
स्टोव तुम इतना भेदभाव क्यों करते हो ?
समझते क्यों नहीं ?
स्टोव कहां से पाई है तुमने ये फितरत ?
बताते क्यों नहीं ?
स्टोव तुम भीतर से इतने कमजोर क्यों हो ?
अक्सर फट जाते हो ?
स्टोव तुम हमेशा विस्फोट की ही भाषा क्यों बोलते हो ?
क्या तुम्हारे पास आंखें भी हैं ?
स्टोव तुम कैसे देख लेते हो किचन में बहू ही है ?
फटने का फैसला कर लेते हो ?
स्टोव तुम कैसे पहचान लेते हो अपने शिकार को ?
कौन बन जाता है तुम्हारी आंखें ?
स्टोव अब तुम इस कदर खामोश क्यों हो ?
बोलते क्यो नहीं ?
स्टोव यह तो बताओ तुम कब फटना बंद करोगे ?
कुछ तो जवाब दो ?
स्टोव बरसों से पूछ रहा हूं यह सवाल अब तो बोलो ?
अब तो यह राज खोलो ?
(बरसों पहले लिखीं थीं यह पंक्तियां। आज अचानक वह मुड़ा-तुड़ा कागज मिल गया। मेरे इन सवालों का जवाब अब भी नहीं मिला है। हां, कुछ फर्क जरूर आया है। अब स्टोव की जगह गैस सिलेंडर फटने लगे हैं)
9 comments:
stov se achchha sawaal kiya hai ...agar uski jubaan ho to shayad sasuraal waale wo bhi band kar denge
आपने कविता नहीं लिखी एक जोरदार तमाचा मारा है समाज के मुहं पर...बहुत प्रभावशाली कविता...वाह.
नीरज
आपकी यह चंद पंक्तियाँ बेहद प्रभावशाली हैं, पर जवाब!!!!!....... शायद ही मिले.
बरसों पहले लिखी पंक्तियां आज अचानक मिल गयी ... सकारात्मक संदेश तो नहीं ... शायद अब स्टोव फटना बंद हो ।
बहुत प्रभावशाली कविता...वाह बधाई.
वाह वाह, क्या कहने..। अस्सी के दशक में किसी दहेज विरोधी फिल्म का गाना भी हो सकता था। बधाई।
Samaj ko chehara dikhati ek sundar rachna..badhai !!
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गणेश शंकर ‘विद्यार्थी‘ की पुण्य तिथि पर मेरा आलेख ''शब्द सृजन की ओर'' पर पढें - गणेश शंकर ‘विद्यार्थी’ का अद्भुत ‘प्रताप’ , और अपनी राय से अवगत कराएँ !!
kavita kaafi acchi likhi hai. aaj bhi prasangik hai.
बेहद मर्मस्पर्शी पंक्तियां हैं...स्टोव को माध्यम बनाकर आपने सिर्फ एक कुरीति पर ही कटाक्ष नहीं किया है- बल्कि समाज को आईना भी दिखाया है.
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