मंगलवार, 20 मई 2008

अलगौझा*

चाचा आप क्यों गुस्सा हो गए?आप तो मुझे रोज चूमा करते थेअब कटे-कटे स‌े क्यों रहते हैं?आपने चुन्नू भैया को डांटा क्यों नहीं?उसने आपकी लाई मिठाई मुझे नहीं दी।मुन्नी दीदी भी अब मेरे स‌ाथ लूडो नहीं खेलतींकहती हैं जाओ-अपने भाई के स‌ाथ खेलोबताओ चाचा, तुम मुन्नी दीदी को डांटोगे न?भला चाचा तुम्हें याद है कितने दिन हो गएमुझे कंधे पर बिठाकर हाट घुमाए हुएकोने वाले कमरे में अब ताला क्यों बंद रहता है?वह तो हमारे खेलने का कमरा थाचाची तो मुझे गोद पर स‌ुलाया करती थींउस दिन दुखते स‌िर को दबाने को कहातो क्यों झिड़क दीं?जानते हो चाचा, चाची के कमरे में जाने पर स‌ब मुझे स‌हमी-सहमी निगाह स‌े देखते हैंबताओ न चाचा, ऎसा क्यों हो रहा है?मुझे बहुत डर लगता है।**********************बच्चा...

गुरुवार, 8 मई 2008

मुझे इस‌स‌े क्या लेना-देना?

पहुंचते-पहुंचते लेट हो गया। ऑफिस के ही स‌हायक वर्मा की डेथ हो गई थी। मातमपुर्सी में जाना था। पहुंच गया। अंदर पहुंचते ही मरघट स‌ा स‌न्नाटा महसूस हुआ। बहरहाल, वर्मा के परिजनों स‌े मिलकर दुख प्रकट किया। जहां तक हो स‌का रोनी स‌ूरत बनाई, मुंह लटकाया। स‌भी स‌िर झुकाए बैठे थे। मैं भी बैठ गया। थोड़ी-थोड़ी देर में देख लेता था...कौन क्या कर रहा है...(वाकई शोक स‌भा में बैठना बड़ा बोरिंग काम है) इस स‌क्सेना को देखो ऎसे मुंह लटकाए बैठा है जैसे इसी के घर स‌े जनाजा निकलने वाला हो। बड़ा अपना बनता है, वर्मा स‌े इसकी बिल्कुल भी नहीं पटती थी। लेकिन मुझे इससे क्या लेना-देना।बॉस को देखो...शोक प्रकट करने आया है। यहां भी अपनी स‌ेक्रेटरी को स‌ाथ लाना नहीं भूला। इसके...

मंगलवार, 6 मई 2008

एक गधे का एक्सक्लूसिव इंटरव्यू

आपका जन्म कब और कहां हुआ?-मुझे ठीक-ठीक तो नहीं मालूम, किंतु मेरे दादा, परदादा कहा करते थे हम स‌ीधे स्वर्ग स‌े उतरे हैं। और जहां तक हमारे जन्म के स‌मय की बात है तो निश्चय ही वह कोई शुभ घड़ी रही होगी।जैसा कि आपने बताया कि आपका आगमन स्वर्ग स‌े हुआ है, तो क्या अब आज के हालात में आपको दोबारा मृत्युलोक छोड़कर स्वर्ग जाने का मन नहीं करता?-करता तो बहुत है, लेकिन धरती पर भी तो हमारी कुछ जिम्मेदारियां हैं। अब एकदम स‌े उनसे मुंह मोड़ना भी तो ठीक नहीं लगता और फिर, हमारा मालिक भी तो इतना कड़क और निर्दयी है हम कहीं इधर-उधर जाने की स‌ोच भी नहीं स‌कते। अगर कोशिश भी करते हैं तो उसे पता नहीं कहां स‌े पहले ही खबर हो जाती है। हर जगह उसने अपने जासूस छोड़ रखे हैं।तो...

शुक्रवार, 2 मई 2008

जहां पर्दे की जरूरत है, वहां पर्दा होना चाहिए : कुंवर 'बेचैन'

मंच के स‌ाथ हिंदी कविता की दूरी यद्यपि छायावाद के जमाने स‌े ही बढ़ने लगी थी लेकिन अभी बमुश्किल तीस वर्ष पहले तक मंचीय कविता को आज की तरह कविता की कोई भिन्न श्रेणी नहीं माना जाता था। आज भी शास्त्रीय रुचियों वाले कुछ कवि मंच पर प्रतिष्ठित हैं, लेकिन एक जाति एक जेनर के रूप में मंचीय कविता अब शास्त्रीय रुचि वाले लोगों के बीच कुजात घोषित हो चुकी है। इस विडंबना को लेकर और कुछ अन्य महत्वपूर्ण स‌वालों पर भी प्रस्तुत है मंचीय कविता के प्रतिष्ठित नाम शायर कुंवर 'बेचैन' के स‌ाथ कुछ अरसा पहले हुई रवीन्द्र रंजन की खास बातचीत के प्रमुख अंश-कवि-सम्मेलनों और मुशायरों का जो स्तर पहले देखने को मिलता था वह इधर दिखाई नहीं दे रहा है। क्या आप को भी ऎसा लगता है कि...
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