शुक्रवार, 15 फ़रवरी 2008

तुम्हारा नाम क्या है? ...(4)

मुझे तुम्हारे किसी सवाल का जवाब नहीं देना।चलो प्रिया। जल्दी करो। आज तो इस पागल ने सबके सामने हमारा तमाशा बना दिया। पता नहीं किस जनम की दुश्मनी निकाल रहा है। हाथ धोकर पीछे पड़ गया है।नेहा इतने तेज कदमों से चलने की कोशिश कर रही थी कि उसके कदम भी उसका साथ नहीं दे पा रहे थे। प्रिया उसे रुकने की आवाज देकर उसके पीछे-पीछे भाग रही थी। आसपास के लोगों की नजरें नेहा और प्रिया पर ही थीं। लोगों को भी मुफ्त में अच्छा-खासा तमाशा जो देखने को मिल गया था।प्रिया ने एक बार पीछे मुड़कर देखा। वह लड़का अब भी वहीं पर खड़े होकर उन्हें घूरे जा रहा था।अब शायद प्रिया को उससे कुछ सहानुभूति होने लगी थी।मन ही मन प्रिया ने पिछली सारी बातें दोबारा याद करने की कोशिश कीं।...नाम...

सोमवार, 11 फ़रवरी 2008

तुम्हारा नाम क्या है?...(3)

अगला दिन और फिर वही डर। कहीं वह लड़का पीछे न पड़ जाए।लगता है इस बस का इंतजार करने के सिवा उसके पास कोई काम-धाम ही नहीं है। नेहा ने प्रिया की राय जाननी चाही।हां, बड़े बाप की बिगड़ैल औलाद लगता है। हां कर दे तेरी तो लाइफ बन जाएगी। प्रिया ने फिर चुहलबाजी की।तू चुप रहेगी या दूं एक घुमा के। नेहा ने नकली गुस्सा दिखाते हुए कहा। क्योंकि यह बात कहते हुए उसके होठों पर भी हंसी तैर रही थी।अभी तक बस नहीं आई...? लगता है आज जरूर लेट होंगे। कुछ देर चुप रहने के बाद नेहा ने आशंका जतायी।इससे पहले कि प्रिया कुछ बोल पाती बस उनकी आंखों के सामने थी।दोनों बिना एक पल गंवाए बस में सवार हो गईं।लेकिन बस में दाखिल होते ही नेहा को जैसे सांप सूंघ गया। एक बार तो उसे लगा कि चलती...

शुक्रवार, 8 फ़रवरी 2008

तुम्हारा नाम क्या है? (2)

नेहा और प्रिया दो साल से एक गर्ल्स हास्टल में साथ-साथ रह रही थीं। पहले प्रिया दूसरी जगह नौकरी करती थी। लेकिन आठ महीने पहले उसे भी नेहा के आफिस में नौकरी मिल गई। उस पब्लिकेशन हाउस में प्रिया के आने से नेहा को तो जैसे मन मांगी मुराद मिल गई। अब दोनों ही एक साथ आफिस के लिये निकलतीं। एक साथ लौटतीं। दोनों ने अपना वीकली आफ भी एक ही दिन करवा लिया था। शनिवार। सब कुछ तो अच्छा चल रहा था। पता नहीं वो लड़का कहां से पीछे पड़ गया।कहीं लौटते वक्त भी न मिल जाए। आफिस से निकलते हुए नेहा ने अपनी आशंका प्रिया के सामने रखी।अरे नहीं यार, क्यों इतना टेंशन लेती है। प्रिया ने उसकी आशंका को निर्मूल बताते हुए कहा। और मिल भी जाएगा तो क्या हुआ। लगता है बहुत पसंद करता है तुझे।...

तुम्हारा नाम क्या है?

अभी तक बस नहीं आई। लगता है आज फिर बॉस की डांट खानी पड़ेगी। ये बस भी तो रोज लेट हो जाती है। मैंने तुमसे पहले ही कहा था जल्दी करो लेकिन तुम हो कि तुम्हें सजने-संवरने से ही फुर्सत नहीं मिलती। पता नहीं कौन बैठा है वहां तुम्हारी खूबसूरती पर मर-मिटने के लिए। वो बुड्ढा खूसट बॉस...। नेहा बोले जा रही थी और प्रिया चुपचाप सुनती जा रही थी। उसे मालूम था कि यह गुस्सा लेट होने का नहीं है। यह गुस्सा बॉस की डांट खाने का भी नहीं है। वह बचपन से जानती है नेहा को। तब से जब दोनों स्कूल में साथ पढ़ती थीं। अब दोनो साथ-साथ नौकरी भी कर रही थीं।शुक्र है आज सीट तो मिल गई ! कहते हुए नेहा बस के दायीं वाली सीट पर बैठ गई और साथ ही बैठ गई प्रिया। नेहा की सबसे अजीज दोस्त।यह रोज...

मंगलवार, 5 फ़रवरी 2008

अब भी जलाए बैठे हैं उम्मीद का चिराग (मेरी रेल यात्रा-3)

ट्रेन में भीड़भाड़ कम होने का नाम नहीं ले रही थी। अब तो मुझे उस खूबसूरत लड़की से ईर्ष्या होने लगी थी। वो इसलिए क्योंकि ट्रेन में इतनी भीड़-भाड़ होने के बावजूद उसे बर्थ में लेटने का सौभाग्य प्राप्त था। वैसे सोचता हूं कि मेरी यह ईर्ष्या इस बात की कम और इस बात की अधिक हो सकती है कि कहां तो वह मेरे बगल में बैठी थी और कहां उस बर्थ (या उसके चाचा !@$%^&*()_+) मुझे उससे दूर कर दिया। बुरा हो उस बर्थ का या फिर उसके...। सच कहूं तो मुझे गुस्सा आ रहा था उसके चाचा पर। महाशय अच्छे भले बर्थ पर सो रहे थे पता नहीं क्या सूझी कि नीचे तशरीफ ले आए और उस मोहतरमा को भेज दिया ऊपर। वैसे एक-दो बार मैंने बहाने से ऊपर देखा तो वह सोई नहीं थी, बल्कि लेटे हुए टुकुर-टुकुर...

सोमवार, 4 फ़रवरी 2008

कुछ न कुछ तो जरूर होना है (मेरी रेल यात्रा-2)

रात के दस बज चले थे। मैं अभी भी अपनी नींद पर काबू करने में कामयाब था। हां तो.., यह जिक्र करना सबसे जरूरी है उस सफर में मेरे बगल में एक खूबसूरत लड़की भी बैठी थी। रात करीब साढ़े दस बजे तक मैं भी नींद के आगे विवश होने लगा था। मुझे याद है कि एक-दो बार मेरा सिर उस खूबसूरत लड़की के कांधे पर टिक गया और हर बार चौंक कर मेरी नींद उड़ गई। बहरहाल, थोड़ी देर बाद ही मैंने उससे काफी कुछ परिचय बना लिया था। बात-बात पता चला कि वह इंदौर की रहने वाली है। उसने बड़े फक्र से बताया कि वह इंटर साइंस की छात्रा है। (तब मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय से ग्रेजुएशन-Ist year कर रहा था) थोड़ी देर में पता यह भी चल गया कि उसके साथ उसके चाचा भी हैं, जो ऊपर बर्थ पर सो रहे हैं। उसने...

शनिवार, 2 फ़रवरी 2008

सफर भी एक संघर्ष है भाई ! (मेरी रेल यात्रा-1)

बरस 1999.मौका था होली की छुट्टी का। शाम के पांच बजे थे। मैं इलाहाबाद के प्रयाग रेलवे स्टेशन पर बुंदेलखंड एक्सप्रेस का इंतजार कर रहा था। ट्रेन शायद पांच मिनट बाद ही आ गई थी। छुट्टी में घर जाने का हर व्यक्ति के दिल में एक अलग ही उत्साह होता है। फिर मैं तो अपनी नानी के यहां जा रहा था। लिहाजा मैं कुछ ज्यादा ही खुश और उत्साहित था। हालांकि यात्रायें सब एक जैसी ही होती हैं। लेकिन यह मेरे लिये कुछ विशेष थी इसलिये कि इसमें मुझे कुछ अनुभव (वैसे बहुत खास भी नहीं हैं) ऐसे हुये जो यादगार बन पड़े। नानी के घर जाने का कार्यक्रम जल्दी में बना था। इसलिये मुझे बिन रिजर्वेशन के ही जाना पड़ा। जाहिर सी बात है इतनी जल्दबाजी में रिजर्वेशन तो मिलने से रहा। खैर, ट्रेन...
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