शनिवार, 28 फ़रवरी 2009

कुत्ता कहीं का...

2009 कब का आ चुका है। दो महीने गुजर भी चुके हैं। अचानक याद आया कि इस स‌ाल अभी तक हमने कुछ लिखा ही नहीं। स‌ोच रहा हूं कहीं लिक्खाड़ लोग मुझे बिरादरी स‌े बाहर न कर दें। इसीलिए कुछ तो लिख ही डालता हूं। नए स‌ाल के दो महीने गुजर चुके हैं। स‌ब ठीक ही चल रहा है। मंदी अब भी बरकरार है। एक नई बात हुई मेरी कॉलोनी की ऊबड़-खाबड़ स‌ड़क बन गई है। पता नहीं क्यों बन गई। अभी तो चुनाव भी दूर है। स‌ड़क के किनारे गंदी स‌ी जमीन को खोदकर जो नींव डाली गई थी वहां अब ऊंची इमारत खड़ी हो गई है। इतनी ऊंची कि स‌िर उठाकर देखने पर गर्दन दर्द करने लगती है। मेरी गली का कुत्ता अब भी आदमियों पर भोंकता है। वह नहीं बदलेगा। कुत्ता कहीं का। बिल्लियां अब कम ही नजर आती हैं। कौवे और तोते...
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