मंगलवार, 20 मई 2008

अलगौझा*

चाचा आप क्यों गुस्सा हो गए?
आप तो मुझे रोज चूमा करते थे
अब कटे-कटे स‌े क्यों रहते हैं?
आपने चुन्नू भैया को डांटा क्यों नहीं?
उसने आपकी लाई मिठाई मुझे नहीं दी।
मुन्नी दीदी भी अब मेरे स‌ाथ लूडो नहीं खेलतीं
कहती हैं जाओ-अपने भाई के स‌ाथ खेलो
बताओ चाचा, तुम मुन्नी दीदी को डांटोगे न?

भला चाचा तुम्हें याद है कितने दिन हो गए
मुझे कंधे पर बिठाकर हाट घुमाए हुए
कोने वाले कमरे में अब ताला क्यों बंद रहता है?
वह तो हमारे खेलने का कमरा था
चाची तो मुझे गोद पर स‌ुलाया करती थीं
उस दिन दुखते स‌िर को दबाने को कहा
तो क्यों झिड़क दीं?
जानते हो चाचा,
चाची के कमरे में जाने पर
स‌ब मुझे स‌हमी-सहमी निगाह स‌े देखते हैं
बताओ न चाचा, ऎसा क्यों हो रहा है?
मुझे बहुत डर लगता है।
**********************
बच्चा केवल स‌वाल करता है
वह नहीं जानता कि
आंगन वाली दीवार की ऊंचाई
कब दिलों को पार कर गई
(मेरे अजीज दोस्त प्रमोद कुमार की कविता जो प्रमोद ने मुझे 16-11-1998 को अपनी पाती के स‌ाथ वाराणसी स‌े भेजी थी)
*विभाजन

गुरुवार, 8 मई 2008

मुझे इस‌स‌े क्या लेना-देना?

पहुंचते-पहुंचते लेट हो गया। ऑफिस के ही स‌हायक वर्मा की डेथ हो गई थी। मातमपुर्सी में जाना था। पहुंच गया। अंदर पहुंचते ही मरघट स‌ा स‌न्नाटा महसूस हुआ। बहरहाल, वर्मा के परिजनों स‌े मिलकर दुख प्रकट किया। जहां तक हो स‌का रोनी स‌ूरत बनाई, मुंह लटकाया।
स‌भी स‌िर झुकाए बैठे थे। मैं भी बैठ गया। थोड़ी-थोड़ी देर में देख लेता था...कौन क्या कर रहा है...(वाकई शोक स‌भा में बैठना बड़ा बोरिंग काम है) इस स‌क्सेना को देखो ऎसे मुंह लटकाए बैठा है जैसे इसी के घर स‌े जनाजा निकलने वाला हो। बड़ा अपना बनता है, वर्मा स‌े इसकी बिल्कुल भी नहीं पटती थी। लेकिन मुझे इससे क्या लेना-देना।
बॉस को देखो...शोक प्रकट करने आया है। यहां भी अपनी स‌ेक्रेटरी को स‌ाथ लाना नहीं भूला। इसके तो ऎश हैं। वर्मा की पे रोक रखी थी। मरते ही चेक काट दिया। बड़ा अपना पन दिखा रहा है। आज तक अपनी स‌ेक्रेटरी की पे नहीं रोकी...वह तो जब चाहे आए, जब चाहे जाए। वैसे वह आती अक्सर देर स‌े ही है। लेकिन मुझे इससे क्या लेना-देना।
मिसेज वर्मा पर भी क्या मुसीबत का पहाड़ टूट पड़ा। बच्चे तो हैं नहीं। चलो अच्छा है। कुछ दिनों बाद उस अस्थाना स‌े...बहुत घर आता-जाता था। अब भी देखो कैसे सट कर बैठा है मिसेज वर्मा स‌े। माहौल का भी खयाल नहीं रखता स्साला। मन ही मन तो खुश ही हो रहा होगा। वर्मा अच्छा चला गया। जरूर इसी की बददुआ लगी होगी बेचारे को। अव्वल दर्जे का कमीना है। अब तो कोई रोकने-टोकने वाला भी नहीं है। जहां चाहे वहां ले जाए। लेकिन मैं यह स‌ब क्यों स‌ोचने लगा। आखिर मुझे इसस‌े क्या लेना-देना।
वैसे कुछ भी हो वर्मा ने मकान बड़ा आलीशान बनवाया है। क्या खूब है। इतना बडा़ घर? इस अकेली के लिए? शायद बेचने की स‌ोच रही हो...एक दो दिन में बात करता हूं। बात बन जाए तो अच्छा ही है। अस्थाना का तो अपना मकान है ही...फिर इसकी क्या जरूरत? 'बेचेंगे' तो अच्छा ही है। नहीं तो मकानों की कमी थोड़े ही है। कहीं और देख लूंगा। ये अस्थाना ही टांग अड़ा स‌कता है। बहुत चालू चीज है। लेकिन मुझे इससे क्या लेना-देना।
रमेश भी आया है। अब इसका क्या होगा? इसकी फाइलें तो वर्मा ही निबटाता था। शायद इसीलिए स‌बसे 'रियल' दुखी नजर आ रहा है। पता नहीं कैसे पटा रखा था वर्मा को। खुद तो मोना स‌े दरबार करता रहता था और वर्मा बेचारा काम में लगा रहता था। अच्छा ही हुआ। अब बेचारे वर्मा की आत्मा को शांति मिलेगी। लेकिन अब इस रमेश को पता चलेगा। बहुत होशियार बनता है खुद को। कैसे बार-बार आंखों में रुमाल फेर रहा है। शर्म भी नहीं आती घड़ियाली आंसू बहाने में। पाखंडी कहीं का। इसका भी बहुत आना-जाना था वर्मा के यहां। मिसेज वर्मा को पति की जगह लगवाने की बात कह रहा था। बड़ा इंटरेस्ट ले रहा था। जरूर इसका कोई मतलब होगा...मतलबी तो नंबर एक का है। कहीं अब अपनी फाइलें मिस‌ेज वर्मा स‌े तो नहीं निबटवाने की तैयारी...? लेकिन मुझे इससे क्या लेना-देना।

मोना को देखो, क्लर्क है, लेकिन बनती ऎसे है जैसे खुद ही बॉस हो। स‌ादे कपड़ों में आना तो मजबूरी है। फिर भी मेकअप करना नहीं भूली। इसे भला वर्मा के रहने न रहने का कैसा दुख? उल्टे ये तो और खुश हो रही होगी कि अब वर्मा की पोस्ट इसे ही मिलेगी। तभी तो चेहरे पर दुख की एक भी लकीर नजर नहीं आ रही है। जाने दो, मुझे इस‌ स‌बसे क्या लेना-देना।

अरे, यह राजेश यहां क्या कर रहा है? शोक स‌भा में आने की तमीज भी नहीं है। वही कपड़े पहने चला आया। चपरासी है पर अकड़ ऎसी कि क्या कहने...एक चाय मंगाने के लिये दस बार कहना पड़ता है। ऊपर स‌े एक चाय एक्सट्रा, उसका गला तर करने के लिए। खड़ा तो ऎसे है जैसे बड़ा भोला है। मोना की चाय तुरंत आ जाती है। हमारा काम तो पचास नखरे जैसे तनख्वाह ही नहीं लेता। अहमक कहीं का।

अच्छा, ये गणेश भी आया है। ऑफिस में तो शक्ल ही नहीं दिखाई देती। यहां कैसे आ गया? मुफ्त की तनख्वाह लेता है। पता नहीं बॉस के घरवालों को कौन स‌ी घुट्टी पिला रखी है। शायद बॉस की बीवी को....। इसकी हाजिरी तो ऑफिस की जगह घर पर लगती है। आज पूरे एक महीने बाद शक्ल दिखाई है। वह भी यहां। ऑफिस जाएगा लेकिन बस पे लेने। काम स‌े इसका क्या वास्ता? बॉस ने जो लिफ्ट दे रखी है। लगता है बॉस की कोई कमजोर नस इसके हाथ आ गई है। तभी तो बॉस ने इसे आज तक रोका-टोका नहीं है। ये करता क्या है? जरूर कोई स‌ाइड बिजनेस शुरू कर रखा होगा। तभी तो कार स‌े चलता है। लगता है काफी कमाई हो रही है। होने दो, मुझे इसस‌े क्या लेना-देना।

स‌चमुच वर्मा के जाने स‌े मैं बहुत दुखी हूं। मैं तो हमेशा स‌े उसका, उसके परिवार का शुभचिंतक रहा हूं। बाकी लोग कैसे हैं इससे मुझे क्या लेना देना।

शोक स‌भा में स‌भी अपनी राय प्रकट कर रहे थे। बडा़ अच्छा आदमी था...कभी किसी स‌े टेढ़े होकर बात नहीं की। स‌बसे अच्छा व्यवहार और काम पर ध्यान, यही तो खूबियां थीं वर्मा की। वैस‌े मरने के बाद हर आदमी बहुत अच्छा हो जाता है। उसकी बुराइयां दूर होते देर नहीं लगती। मेरी राय में वर्मा स‌चमुच बहुत अच्छा आदमी था। मगर अच्छा हो या बुरा, अब तो मर खप गया। अब भला मुझे उसस‌े क्या लेना-देना?

मंगलवार, 6 मई 2008

एक गधे का एक्सक्लूसिव इंटरव्यू

आपका जन्म कब और कहां हुआ?
-मुझे ठीक-ठीक तो नहीं मालूम, किंतु मेरे दादा, परदादा कहा करते थे हम स‌ीधे स्वर्ग स‌े उतरे हैं। और जहां तक हमारे जन्म के स‌मय की बात है तो निश्चय ही वह कोई शुभ घड़ी रही होगी।

जैसा कि आपने बताया कि आपका आगमन स्वर्ग स‌े हुआ है, तो क्या अब आज के हालात में आपको दोबारा मृत्युलोक छोड़कर स्वर्ग जाने का मन नहीं करता?
-करता तो बहुत है, लेकिन धरती पर भी तो हमारी कुछ जिम्मेदारियां हैं। अब एकदम स‌े उनसे मुंह मोड़ना भी तो ठीक नहीं लगता और फिर, हमारा मालिक भी तो इतना कड़क और निर्दयी है हम कहीं इधर-उधर जाने की स‌ोच भी नहीं स‌कते। अगर कोशिश भी करते हैं तो उसे पता नहीं कहां स‌े पहले ही खबर हो जाती है। हर जगह उसने अपने जासूस छोड़ रखे हैं।

तो आप स‌ब मिलकर एक पार्टी गठित करके स्वयं ही क्यों नहीं मालिक बन जाते?
-यह भी कोशिश की थी हमने, किंतु पर्याप्त स‌मर्थन नहीं मिल पाया। हमारे कुछ स‌ाथी लालचवश मालिकों स‌े जा मिले और कुछ दल बदलू निकले।

तो आप किसी अन्य दल स‌े गठबंधन क्यों नहीं कर लेते?
-हां, इस पर हम विचार-विमर्श कर रहे हैं। हम देख रहे हैं कि किस दल की स‌ोच हमारी स‌ोच है और उसका वोट बैंक कितना है।

आपकी पार्टी का चुनाव चिह्न क्या है?
-आदमी

बड़ा अजीब चुनाव चिह्न है। आपको तो अपनी ही बिरादरी स‌े कोई चुनाव चिह्न रखना चाहिए था।
-लगता है इस क्षेत्र में आपकी जानकारी थोड़ी कम है। अरे जब हमारे पड़ोसी देश के मनुष्यों की एक पार्टी हमें अपना चुनाव चिह्न बना स‌कती है तो फिर हम उन्हें क्यों नहीं।

आपकी पार्टी के मुद्दे क्या होंगे?
-यही कि हमें भी स‌माज में अन्य जानवरों मसलन गाय, भैंस जैसा स्थान मिले। रिटायर्ड गधों को पेंशन और हमारी नई पीढ़ी को आरक्षण की स‌ुविधा मिले।

यदि मनुष्यों की पार्टी ने स‌रकार बनाने के लिए आपकी पार्टी का समर्थन मांगा तो आपका क्या रवैया रहेगा?
-हम उन्हें मुद्दों पर आधारित स‌मर्थन देंगे। अपने मुद्दे हम पहले ही बता चुके हैं। बाकी स‌मय आने पर मिल-बैठकर तय कर लेंगे।

ऎसे में क्या आपकी पार्टी स‌रकार में शामिल होगी?
-नहीं, हम स‌रकार को बाहर स‌े स‌मर्थन करेंगे। क्योंकि मनुष्यों के स‌ाथ काम करने में हमारे लोगों को मुश्किल होगी। वो बातों स‌े काम लेते हैं और हम लातों स‌े। मनुष्यों में चापलूसी की बीमारी भी बहुत ज्यादा होती है। जो हमें कतई पसंद नहीं। ऎसे में उन्हें हमारी कार्यशैली शायद पसंद न आए।

मान लीजिए आप अकेले स‌त्ता में आ जाएं तो वर्तमान व्यवस्था में क्या फेरबदल करेंगे?
-बहुत कुछ बदलना होगा। स‌बसे पहले तो आवास विकास और भवन निर्माण स‌े स‌ंबंधित स‌भी विभागों के कार्य की दिशा में परिवर्तन लाएंगे। इंजीनियरों को मकान गिराकर बड़े-बड़े मैदान बनाने और वहां पर्याप्त मात्रा में हरी-हरी विलायती घास लगवाने का काम स‌ौंपा जाएगा। हम कॉलोनियों को हरे-भरे मैदानों में तब्दील करवा देंगे। ताकि हमारे भाई-बंधु मुफ्त में ही वहां उच्च क्वालिटी की घास चर स‌कें। एक चारा विभाग का भी गठन हम करेंगे। इसके अलावा अन्य जरूरी विधेयक भी पेश किए जाएंगे।


यह स‌ब तो ठीक है, किंतु गधा रहेगा गधा स‌दा, इस पर आप क्या कहेंगे?
-आपके इस स‌वाल की वजह मैं स‌मझ स‌कता हूं (नाराज होते हुए) आप इंसानों को अपनी कुर्सी छिनती नजर आ रही है, इसीलिये व्यक्तिगत कमेंट पर उतर आए। लेकिन हमें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। हम गधे हैं तो गधे ही रहेंगे। हम इंसान बन कर अपनी तौहीन भी नहीं कराना चाहते। हम उनमें स‌े नहीं हैं जो दूसरों की संस्कृति स‌े प्रभावित होकर अपनी भाषा, स‌ंस्कार, पहनावा यहां तक कि अपनी पहचान तक खो देते हैं। हां, कुछ मूर्ख वैज्ञानिक जरूर हमारी पहचान को नष्ट करने की लगातार कोशिश कर रहे हैं, लेकिन करने दीजिए। हम भी कुछ कम नहीं। आखिर गधे हैं हम और रहेंगे स‌दा।

छोड़िए कोई और बात करते हैं। अच्छा, जरूरत पड़ने पर गधे को भी अपना बाप बनाना पड़ता है, इस पर आपके क्या विचार हैं?
-विचार की क्या बात है, आपके स‌माज में मनुष्य की एक विशेष प्रजाति है। उसे नेता कहते हैं। अक्सर स‌ुनने में आता है कि अमुक नेता ने आज फलां पार्टी की स‌दस्यता ग्रहण कर ली, तो फिर कल फिर दल बदल लिया। स‌ब जरूरत की दुनिया है। जरूरत पड़ी तो...मेरा आशय स‌मझ गए होंगे आप...। हम भी वैसा ही करेंगे।

यदि कोई आदमी दूसरे आदमी को गधा कह दे और आप स‌ुन लें तो क्या प्रतिक्रिया रहेगी आपकी?
-(नराजगी स‌े) यह हम कतई नहीं बर्दाश्त करेंगे कि कोई हमारी तुलना आदमियों स‌े करे। यह तो स‌रासर हमारा अपमान है। आखिर हमारी भी कोई पहचान है, अपना स्टेटस है।

अच्छा यह बताइए, गधे कितने प्रकार के होते हैं?
-स‌िर्फ दो प्रकार के। देशी और विलायती।

विदेशी और देशी गधे में क्या फर्क है?
-बहुत फर्क है। विदेशों में मात्र चार पैर वाले गधे पाए जाते हैं, जबकि हमारे देश में 'चार स‌े कम' पैर वाले गधे बहुतायत में मिलते हैं। विदेशी गधों के मुकाबले देशी गधे अधिक चतुर और स‌मझदार होते हैं।

वह कैसे?
-यह तो आपको इलेक्शन के पश्चात पता चल ही जाता है।

कुछ लोगों का कहना है कि भारत आपकी स‌रजमीं नहीं है?
-(तीव्रता स‌े आक्रोश में) झूठ कहते हैं वो। यही हमारी स‌रजमीं है। और यहीं हम स‌बसे अधिक मात्रा में पाए जाते हैं। स‌बसे बड़ी बात तो यह है कि यहीं हमारी कौम स‌बसे ज्यादा स‌ुरक्षित है औऱ यहीं उसका भविष्य स‌बसे ज्यादा उज्ज्वल है।

शुक्रवार, 2 मई 2008

जहां पर्दे की जरूरत है, वहां पर्दा होना चाहिए : कुंवर 'बेचैन'

मंच के स‌ाथ हिंदी कविता की दूरी यद्यपि छायावाद के जमाने स‌े ही बढ़ने लगी थी लेकिन अभी बमुश्किल तीस वर्ष पहले तक मंचीय कविता को आज की तरह कविता की कोई भिन्न श्रेणी नहीं माना जाता था। आज भी शास्त्रीय रुचियों वाले कुछ कवि मंच पर प्रतिष्ठित हैं, लेकिन एक जाति एक जेनर के रूप में मंचीय कविता अब शास्त्रीय रुचि वाले लोगों के बीच कुजात घोषित हो चुकी है। इस विडंबना को लेकर और कुछ अन्य महत्वपूर्ण स‌वालों पर भी प्रस्तुत है मंचीय कविता के प्रतिष्ठित नाम शायर कुंवर 'बेचैन' के स‌ाथ कुछ अरसा पहले हुई रवीन्द्र रंजन की खास बातचीत के प्रमुख अंश-

कवि-सम्मेलनों और मुशायरों का जो स्तर पहले देखने को मिलता था वह इधर दिखाई नहीं दे रहा है। क्या आप को भी ऎसा लगता है कि मंचीय कविता का स्तर गिर रहा है?
-हां, यह स‌च है कि आज जो कविता मंच पर पढ़ी जा रही है, कलात्मक दृष्टि स‌े उसका स्तर गिरा है। थोड़ा फूहड़पन भी आया है। कहा जाता है कि यह फूहड़पन हास्य कविता के जरिये ही आया है। हालांकि मैं इसे पूरी तौर पर स‌च नहीं मानता। मेरा मानना है कि रस कोई भी फूहड़ नहीं होता। उस रस में स‌ुनाई जाने वाली कविता फूहड़ हो स‌कती है। लेकिन मंच पर अगर कुछ घटिया हो रहा है तो काफी कुछ अच्छा भी हो रहा है। दरअसल, हो यह रहा है कि जो लोग कभी कवि स‌म्मेलनों में नहीं जाते वे ही कवि स‌म्मेलनों की आलोचना कर रहे हैं। पूरी रचना स‌ुने या पढ़े बगैर मात्र मीडिया स‌े प्रसारित कुछ अंश स‌ुनकर या पढ़कर ने निष्कर्ष निकाल रहे हैं। आज भी ऎसे कवि हैं जो मंच के माध्यम स‌े एक बहुत बड़े वर्ग तक पहुंचकर विद्वेष मिटाने का काम कर रहे हैं। इसलिये आलोचकों को एकांगी नहीं होना चाहिये।

लेकिन यह तो एक आम बात है कि मंचों पर अब हल्के-फुल्के कवियों को ही ज्यादा कामयाबी मिल रही है। श्रोताओं की रुचि में इतना परिवर्तन आने की क्या वजह हो स‌कती है?
-जहां तक श्रोता का टेस्ट बदलने का स‌वाल है तो मैं कहूंगा कि आज का जो स‌माज है वह तीन चीजें लिये बैठा है-तनाव, आक्रोश और तेजी। गरीब स‌े मिलकर अमीर, अनपढ़ स‌े लेकर पढ़ा-लिखा तक, हर व्यक्ति आज किस‌ी न किसी तनाव में जी रहा है। ऎसे में हास्य की अच्छी कविता हो या खराब या फिर चुटकुले ही क्यों न हों, उनके माध्यम स‌े व्यक्ति तनाव स‌े निकलना चाहता है। जैसे तनाव मुक्त करने वाली गोलियां-गोली कौन स‌ी है इससे किसी को खास मतलब नहीं होता। उसे तनाव स‌े मुक्ति मिल गई। वह कविता कैसी थी, तनाव मुक्त करने वाली गोली कौन स‌ी थी इससे उसे कोई मतलब नहीं रहता। यह बात अलग रही कि घर जाने के बाद या कुछ दिनों बाद वह स‌ोचे कि वह तो चुटकुला ही था।
दूसरी चीज है आक्रोश। आज हर आदमी एक आक्रोश लिये बैठा है। जब मंच स‌े उसके आक्रोश की अभिव्यक्ति किसी कवि द्वारा व्यक्त होती है तो श्रोता को अच्छा लगता है। उस‌का स्तर क्या है यह बात उसके लिये बहुत ज्यादा मायने नहीं रखती। तीसरी चीज है तेजी अर्थात् गति। हर आदमी आज जल्दी में है। हमारे यहां कविता प्रतीकात्मक शैली में कहने का चलन रहा है। किंतु आज यदि हम ऎस‌ा करते हैं तो हो स‌कता है कि कविता श्रोता की स‌मझ में ही न आए। आज कविता का अर्थ श्रोता तक तपाक स‌े पहुंचना चाहिये। यह तभी स‌ंभव है जब स‌ीधी-सीधी बात कही जाए। स‌िर्फ अर्थ ही नहीं, स‌ुनाने में भी गति चाहिये। क्योंकि आजकल हर व्यक्ति गाड़ी में ही दौड़ना चाहता है। जहां तक स्तर की बात है तो आज बहुत स‌े मंचीय कवियों को स्तर की स‌मझ नहीं है और न ही यह स‌मझ श्रोताओं के पास है। हालांकि आज भी बहुत स‌े कवि हैं जिन्होंने मंच पर भी स्तर कायम रखा है।

हिंदी कविता में गजल की स्थिति को लेकर आलोचकों में अभी भी मतभेद हैं। इसके बारे में आपकी क्या राय है?
-शुरू में उर्दू शायरों का भी कहना था कि हिंदी गजलकार गजल के मिज़ाज को जानते ही नहीं और अंट-शंट गजल कह रहे हैं। कुछ हद तक यह स‌च भी था। क्योंकि जब एक भाषा की विधा किसी दूसरी भाषा में प्रवेश करती है तो उसे एडजस्ट होने में कुछ स‌मय तो लगता ही है। मेरा मानना है कि हिंदी गजल स‌बसे अधिक स‌मन्वयकारी है। यह स‌बसे अधिक करीब लाने वाली, सांस्कृतिक एकता स्थापित करने वाली स‌ाबित हुई है। आज उर्दू शायर भी अपने गजल स‌ंग्रह देवनागरी में लिपि में छपवा रहे हैं। दुष्यंत ने जिस हिंदी गजल की शुरुआत की वह आज काफी फल-फूल रही है। हिंदी गजल ने अपने छोटे-छोटे पैरों स‌े 30 स‌ाल की लंबी यात्रा तय कर ली है। इस दौरान हिंदी गजल ने बहुत स‌े नए विषय दिये हैं, जिन्हें उर्दू वालों ने भी अपनाया। इसलिए हिंदी गजल का उदय हिंदी कविता और उर्दू कविता दोनों के ही लिये स‌ुखद माना जा स‌कता है।

हिंदी गजल के इस स‌मन्वयकारी प्रभाव के बारे में थोड़ा और विस्तार से बताएं।
-वैसे तो स‌ारी विधाएं युग के अनुसार अपने स्वरूप में बदलाव लाती हैं। दोहों को भी नई भाषा, शिल्प, नए प्रतीकों के माध्यम स‌े कहने का रिवाज चला है। उर्दु गजल ने भी अपने परंपरागत विषय हुस्न-इश्क को छोड़कर नए विषय अपनाए हैं। आधुनिक परिस्थितियों में व्यंग्यात्मक कविता भी बड़ी तेजी स‌े उभरी है। ये प्रवृत्तियां उर्दू गजल में बहुत कम थीं, लेकिन जब स‌े हिंदी कविता में दुष्यंत की गजलें स‌ामने आईं तब स‌े ये बदलाव देखने को मिले हैं। इमरजेंसी पीरियड में दुष्यंत ने जो गजलें कहीं उनसे व्यवस्था पर भारी चोट हुई। उनमें एक नयापन था जो उर्दू गजलों में कभी नहीं रहा। हिंदी के कवि भी इससे बहुत प्रभावित हुए। गीतकार, नवगीतकार भी हिंदी गजल की ओर उन्मुख हो गए।
इस स‌मय यदि हिंदी कविताओं के स‌ंकलन उठाए जाएं तो उनमें 70 फीसदी स‌ंकलन गजलों के हैं। चाहे वे व्यक्तिगत स‌ंकलन हों या अलग-अलग कवियों के। हम कह स‌कते हैं कि हिंदी गजल आज तुकांत और लयबद्ध हिंदी कविता का पर्याय बन गई है। विधा कोई भी हो यदि वह लगातार एक स‌ी बनी रहती है तो उसमें जड़ता आ ही जाती है। हिंदी कविता में गजल के प्रवेश ने उसकी इस जड़ता पर चोट की है। अज्ञेय जी जापान स‌े हाइकू कविता लाए। त्रिलोचन जी ने स‌ॉनेट लिखे। आज के उर्दू शायर दोहे लिख रहे हैं। हिंदी गजलों को इसी तरह की प्रयोगात्मक श्रेणी में लिया जाना चाहिए। यद्यपि उसका विस्तार आज अन्य किसी भी प्रयोग स‌े ज्यादा हो गया है।

आपकी दृष्टि में वर्तमान उर्दू गजल किन परिवर्तनों स‌े गुजर रही है? उसमें कौन स‌े बुनियादी बदलाव आते दिखाई दे रहे हैं?
-आज उर्दू गजल के विषय भी वही हो गए हैं स‌मकालीन हिंदी कविता के हैं। शायरी के परंपरागत विषयों को बरकरार रखते हुए भी शायरों ने आज की स‌ोच, स्थिति, विद्रूपताओं को स‌ाफ-साफ कहना शुरू कर दिया है। जबकि शायरी में अपनी बात इशारों में कहने का चलन ज्यादा रहा है। हालांकि उर्दू शायरी मुख्य विषय आज भी मोहब्बत ही है। लेकिन आज शायर मोहब्बत पर भी जो कुछ कह रहे हैं, उसकी भाषा और विषय में स‌मयानुसार स्पष्ट बदलाव देखा जा स‌कता है। बशीर बद्र, वसीम बरेलवी, निदा फाजली आदि की उर्दू भी हिंदी जैसी हो गई है। भाषा, बिंब, प्रतीक स‌भी में तेजी स‌े परिवर्तन आया है। अब उर्दू के शायर भी मां, पिता, बहन, बेटी पर, नेताओं पर शेर कह रहे हैं। दूसरी तरफ रुबाइयों को उर्दू का कठिन छंद माना जाता है, लेकिन हिंदी में आज रुबाइयां लिखने का प्रचलन उर्दू स‌े ज्यादा हो गया है। जहां तक खामियों का स‌वाल है, शायर का स‌ीधा स‌ंबंध जब जनता स‌े बनता है तो शास्त्रीयता वाला पक्ष कुछ कमजोर हो ही जाता है।

स्वतंत्रता के शुरुआती दशकों में नई कविता का दावा था कि आधुनिक विसंगतियों स‌े भरे यथार्थ को वह ही स‌ामने लाने में स‌क्षम है। उसके कवियों ने नवगीत की जबर्दस्त आलोचना भी की। लेकिन आज नवगीत के कुछ आलोचक भी नवगीत लिख रहे हैं, इसकी वजह क्या है?
-समालोचकों का कहना है कि नवगीत नई कविता के स‌ामने आ खड़ा हुआ था। मेरा मानना है कि गीत एक स‌हज प्रक्रिया है। जैसे-जैसे व्यक्ति का परिवेश बदलता है, उसकी मानसिकता भी बदलती है। जैसे कस्बाई माहौल में आपसी प्रेम-भावना ज्यादा महत्वपूर्ण होती है। जबकि महानगर की स्थिति है...नयन गेह स‌े निकले आंसू ऎसे डरे-डरे, भीड़ भरा चौराहा जैसे कोई पार करे...। मतलब यह की नवगीत की परंपरा स‌हज रूप में ही विकसित हुई। यह कहना कि कोई चीज स‌ामने लाकर खड़ी कर दी गई, शायद उचित नहीं है। स‌मय के अनुसार नए परिवर्तन आए तो कवियों ने उसे गीत में ढाला और एक स‌हज प्रक्रिया के तहत नवगीतों की परंपरा शुरू हुई। प्रारंभिक नवगीतकार जैसे राजेंद्र प्रसाद स‌िंह, शंभूनाथ स‌िंह, उमाकांत मालवीय, ओमप्रकाश आदि नवगीत में स‌हज रूप स‌े ही आए। इन्हें नवगीत तो स्थापित करने का भी श्रेय जाता है।

गीत व नवगीत का भेद कहां तक उचित है? पुराने गीतकार तो नवगीत जैसे किसी शब्द को मान्यता देने को भी तैयार नहीं हैं। उनका कहना है कि गीत तो गीत होता है, फिर यह नवगीत क्या है?
-हां, कुछ लोग ऎसा कहते हैं। उनका कहना है कि इसका नाम नवगीत नहीं होना चाहिये। मैं भी इस बात का पक्षधर हूं क्योंकि गीत तो गीत होता है, लेकिन किसी बात को खास पहचान देने के लिए एक विशेषण लगाना होता है। जो पुराने गीत चले आ रहे थे, उनसे ये कुछ हटकर हैं। इनकी भाषा, शिल्प, तेवर कुछ अलग है। कुल मिलाकर इस‌मे कुछ नयापन स‌ा दिखा, इसलिए इसको नवगीत कह दिया गया। जहां तक नई कविता का प्रश्न है, उम्र के स‌ाथ-साथ इसके विचार तत्व में वृद्ध हुई है। यह स्वाभाविक है। उम्र के स‌ाथ-साथ विचार बढ़ते ही हैं।

पिछले करीब तीन दशक स‌े स‌े आप अध्यापन स‌े जुड़े हैं आजकल जो छात्र हिंदी अध्ययन-अध्यापन में आ रहे हैं, वे हिंदी स‌ाहित्य में कितनी रुचि ले रहे हैं? हिंदी स‌ाहित्य के प्रति उनका क्या नजरिया है?
-सच्ची बात कही जाए तो आजकल हिंदी में बचा-खुचा माल आता है। जिस महाविद्यालय में मैं पढ़ाता हूं वहां बहुत स‌ारे विषय हैं। छात्रों के पास ऑप्शन हैं। जब कहीं एडमिशन नहीं होता तभी वे हिंदी में आते हैं। घर में पड़े-पड़े क्या करेंगे, इसी बहाने घर स‌े बाहर निकलने को तो मिलेगा। क्लास जाएं या न जाएं क्या फर्क पड़ता है। आजकल कोई ही छात्र होगा जो हिंदी में रुचि के कारण आता हो, पहले ऎसी स्थिति नहीं थी। कविता या स‌ाहित्य स‌े लगाव के कारण आज कोई हिंदी में नहीं आ रहा है। यह वास्तविकता है। इसका प्रमुख कारण पब्लिक स्कूलों की संस्कृति है। हालत तो ये है कि ये बच्चे 'पैंसठ' तक नहीं जानते। इन्हें तो 'स‌िक्सटी फाइव' ही मालूम है। हालांकि इन स‌बके बीच अगर कोई अच्छा छात्र आ जाता है तो वह आगे जाकर अपनी प्रतिभा स‌िद्ध करता है। लेकिन फिलहाल ऎसी प्रतिभाएं कम ही आ रही हैं।

फिल्मों के लिए लिखने के बारे में आप क्या सोचते हैं? क्या फिल्मों के लिये लिखते हुए भी स्तर बरकरार रखा जा स‌कता है?
-जहां तक फिल्मों के लिये लिखने का स‌वाल है तो वहां कहानी की मांग के अनुसार ही गीतकार को शब्द पिरोने होते हैं। अब अगर कहानी की मांग घोर श्रृंगारिक है तो यहां गीतकार को स‌ावधानी बरतनी पड़ती है। इस मामले में गुलजार और निदा फाजली की प्रशंस‌ा करनी होगी, जिन्होंने अपना स्तर बनाए रखा है। गुलजार की शायरी में नयापन है। निदा फाजली भी बहुत उम्दा शायर हैं। उनकी शायरी की जो नवैय्यत है उसी के लोग कायल हैं। दबाव में अगर कहीं थोड़ी बहुत नंगेपन की भी स‌ंभावना होती है तो अच्छा शायर उसमें पर्दा डाल देता है, जिससे उसमें फूहड़ता नहीं आने पाती। जहां पर्दे की जरूरत है वहां पर्दा रहना चाहिए। शायरी में अगर थोड़ा-बहुत पर्दा रहे तो यह अच्छी बात है।

 
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