शनिवार, 2 फ़रवरी 2008

सफर भी एक संघर्ष है भाई ! (मेरी रेल यात्रा-1)

बरस 1999.मौका था होली की छुट्टी का। शाम के पांच बजे थे। मैं इलाहाबाद के प्रयाग रेलवे स्टेशन पर बुंदेलखंड एक्सप्रेस का इंतजार कर रहा था। ट्रेन शायद पांच मिनट बाद ही आ गई थी। छुट्टी में घर जाने का हर व्यक्ति के दिल में एक अलग ही उत्साह होता है। फिर मैं तो अपनी नानी के यहां जा रहा था। लिहाजा मैं कुछ ज्यादा ही खुश और उत्साहित था। हालांकि यात्रायें सब एक जैसी ही होती हैं। लेकिन यह मेरे लिये कुछ विशेष थी इसलिये कि इसमें मुझे कुछ अनुभव (वैसे बहुत खास भी नहीं हैं) ऐसे हुये जो यादगार बन पड़े। नानी के घर जाने का कार्यक्रम जल्दी में बना था। इसलिये मुझे बिन रिजर्वेशन के ही जाना पड़ा। जाहिर सी बात है इतनी जल्दबाजी में रिजर्वेशन तो मिलने से रहा।
खैर, ट्रेन आ गई और मैं उस पर सवार हो लिया। डिब्बे में दाखिल होने के लिये काफी कवायद करनी पड़ी। जनरल बोगी थी। यात्री ठुंसे हुये थे। ज्यादातर बुंदेलखंडी। हालांकि ननिहाल में मेरे बचपन का अच्छा-खासा वक्त गुजरा। इस लिहाज से मैं भी खुद को बुंदेलखंडी कह सकता हूं। लेकिन पिता जी की सरकारी नौकरी के कारण मैं ज्यादातर अलग-अलग शहरों में रहा। इसलिये मुझे उन यात्रियों की भाषा भी कुछ अटपटी सी लग रही थी। जिसे समझने के लिये दिमाग पर जोर देना पड़ता था। बहरहाल मेरा सफर शुरू हो चुका था। चूंकि सामान्य बोगी थी इसलिये सीट मिलने का तो कोई सवाल ही नहीं पैदा होता था। यात्री, जिनमें ज्यादातर ग्रामीण थे, बोगी में अपने लिए जगह बनाने की कवायद में जुट गए थे। मैं अब भी संकोचवश ऐसे खड़ा था जैसे किसी गलत जगह आ गया हूं। मेरे हाथ में एक सूटकेस भी था, जिसे रखने की भी कहीं जगह नहीं थी। तभी एक व्यक्ति ने मेरी परेशानी भांप कर सामान इधर-उधर करवाकर मेरा सूटकेस रखवा दिया। मैंने मन ही मन उसका शुक्रिया अदा किया। एक व्याक्ति ने मुझे उसी सूटकेस में बैठने की सलाह दी। मैं बैठ गया। लेकिन आधा ध्यान इस ओर लगा था कि कहीं मेरा 'कीमती' सूटकेस टूट न जाये। भीड़ इतनी थी कि डिब्बे के गेट तक लोग ठुंसे हुये थे।
अब घड़ी शाम के छह बजा रही थी। लोग धीरे-धीरे अपने बैठने की जगह बना चुके थे। दोनों ओर की सीटों के बीच की खाली जगह ठसाठस भर चुकी थी। कुछ लोग जहां फर्श पर ही बैठकर संतुष्ट थे वहीं सीटों पर बैठे लोग खुद को किसी बादशाह से कम नहीं समझ रहे थे। वो इसलिये परेशान थे कि उन्हें पैर पसारने की जगह नहीं मिल रही थी। कुछ लड़के सामान रखने वाली पतली सी बर्थ पर लेटने की असफल कोशिश कर रहे थे। असफल इसलिये क्योंकि लेटने के बावजूद उनका सारा ध्यान इस ओर था कि कहीं गिर न जाएं और नीचे बैठे लोग पिच्चे हो जाएं।
अब तक मुझे सीट पर थोड़ी सी जगह मिल चुकी थी। लिहाजा मैं भी उन 'बादशाहों' की श्रेणी में आ गया था जिन्हें सीट पर बैठने का 'गौरव' या कहें सुख हासिल था। रात के नौ बजने को थे। लोगों ने बैठे-बैठे ऊंघना शुरू कर दिया था। कुछ लोग फर्श पर लुढ़के थे तो कुछ अपने बगल वालों के कंधे का सहारा लेकर नींद से लड़ रहे थे। सामान वाली पतली सी बर्थ पर लेटे हुये लोग अब भी टकटकी लगाकर ऊपर की बर्थ (जो वाकई सोने के लिए ही होती है) पर लेटे लोगों को हसरत भरी निगाहों से देख रहे थे। नींद उन्हें अभी भी नहीं आ रही थी या शायद गिरने का डर उन्हें सोने नहीं दे रहा था। नींद के सामने लोग कैसे लाचार हो जाते हैं, उसका प्रत्यक्ष प्रमाण देखने को मिल रहा था। (अगली कड़ी में जिक्र उस खूबसूरत लड़की का जो खुशकिस्मती से मेरी ही सीट पर और मेरे ही बगल में आसीन थी..)

4 comments:

कंचन सिंह चौहान ने कहा…

agli kisht ki pratiksha rahegi

PD ने कहा…

अगले के इंतजार में हूं..

Sanjeet Tripathi ने कहा…

अपन भी अगली किश्त का इंतजार कर रेले हैं ;)

Udan Tashtari ने कहा…

बेहतरीन!!! आगे बताओ.

 
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