शनिवार, 25 अगस्त 2007

पहले ब्रेक...फिर ब्रेकिंग न्यूज

रात का वक्त था। दफ्तर से लौट रहा था। जाहिर है घर के लिए। तभी बीच सड़क पर सफेद रंग की एक आकृति देखकर चौंक गया। असल में वह एक सांप था। जीता-जागता, हिलता-डुलता। गाड़ी में ब्रेक लगाया। शुक्र मनाया कि सड़क के बीचोंबीच होने के बावजूद वह पहिये के नीचे आने से बच गया। दिमाग में आया क्यों न अपने पड़ोसी टीवी चैनल वाले को कॉल कर दूं। हमेशा न्यूज ब्रेक करने वाले न्यूज चैनल को एक और ब्रेकिंग न्यूज मिल जायेगी। फिर सोचा, यह नाग या नागिन तो है नहीं। यह तो शायद पानी वाला सांप है। सीधा-साधा। भोला-भाला। इसे तो फुंफकारना भी नहीं आता। ना ही यह किसी से बदला ले सकता है। न ही इसे नागिन फिल्म की धुन पर नचाया जा सकता है। फिर सोचा, इससे क्या फर्क पड़ता है। किसी भी सांप को नाग या नागिन बनाना तो चैनल वालों के बायें हाथ का खेल है। वैसे भी सांप-नेवले की स्टोरी में असली दृश्य होते ही कहां हैं। फिल्मों के विजुअल और गाने ही तो चलाने होते हैं। मतलब साफ था। मुझे एक ब्रेकिंग न्यूज की संभावना साफ नजर आ रही थी। फिर सोचा कि छोड़ो भी, जब यह खबर अपने चैनल पर नहीं चल रही तो क्यों दूसरे चैनल को खबर देकर उसकी टीआरपी बढ़ाई जाये। मैंने एक्सीलेटर दबाया और आगे बढ़ गया।

घर तो पहुंच गया। लेकिन नींद नहीं आ रही थी। बार-बार उस सांप का ख्याल जेहन में आ रहा था। सोचा कि हो सकता है कि टीवी चैनल का रिपोर्टर सूंघते-सूंघते वहां तक पहुंच गया हो। चैनल ने खबर ब्रेक कर दी हो। मैं झटके से उठा। रिमोट उठाया। टीवी आन किया और तेजी से न्यूज चैनल सर्च करना शुरू कर दिया। उस सांप (माफ कीजियेगा-नाग) की खबर किसी चैनल पर नहीं थी। मैं मन ही मन में कुछ बुदबुदाया और टीवी बंद करके फिर बिस्तर पर पसर गया।

आंखें बंद थीं। दिमाग अब भी चल रहा था। बार-बार दिखाई दे रहा था वह सांप। मैं सोच रहा था कि अगर वह सांप किसी गाड़ी के नीचे आकर मर गया होगा तो क्या खबर बनेगी। खबर यह बन सकती है कि नाग की मौत हो गई। अब नागिन बदला लेगी। लाइब्रेरी से निकालकर नागिन के फुंफकारते हुये विजुअल लगा दिये जायेंगे। नागिन फिल्म का गाना भी लगा जा सकता है। बाकी तो एंकर रहेगा ही। लगातार कुछ भी अनाप-शनाप बोलने के लिये।

दूसरी संभावना यह हो सकती है कि अगर सांप ( कहानी की जरूरत के मुताबिक उसे नाग या नागिन बनाने का पूरा स्कोप रहेगा) गाड़ी के टायर की चपेट में आकर जख्मी हो जाये तो....। तब खबर कुछ इस तरह हो सकती है कि नाग की मौत हो गई। अब नागिन जरूर बदला लेगी।

तीसरी संभावना हो सकती है...कि यह मौत एक नागिन की थी। वह नागिन जो नाग की मौत का बदला लेने के लिये शहर में आई थी। वह नाग के हत्यारे की तलाश में थी। अफसोस उसकी तलाश पूरी नहीं हो सकी। लेकिन मरने के बाद भी वह अपना बदला जरूर लेगी। बदला लेने के लिये वह फिर जन्म लेगी। जाहिर है, जैसा कि हमेशा होता है, उसकी आंखों में कातिल की तस्वीर हमेशा के लिये बस गई होगी। कुछ प्रत्यक्षदर्शियों की बाइट भी ली जा सकती है। मौके पर मौजूद लोग नाग की मौत से कितने गुस्से में हैं यह भी दिखाया जा सकता है। उस रास्ते से गुजरने वालों पर इसका क्या असर पड़ सकता है, किसी ज्योतिषी या शनि महाराज टाइप के शख्स की बाईट भी चलाई जा सकती है। ऐसे में आखिर पुलिस क्या कर रही है यह सवाल भी उठाया जा सकता है। कानून-व्यवस्था पर भी सवाल उठाये जा सकते हैं। ज्यादा विस्तार में जाया जाये तो सरकार को भी लपेटा जा सकता है। आखिर हर वारदात के लिये जिम्मेदारी तो सरकार को ही लेनी होगी। उसे उसकी इस जिम्मेदारी का एहसास चैनल वाले नहीं करायेंगे तो कौन कारयेगा। क्या-क्या बतायें? ऐसी शानदार बिकाऊ खबर हाथ लग जाये तो यह पूछिये चैनल में क्या नहीं किया जा सकता। लेकिन उस पर चर्चा करेंगे एक बड़े से ब्रेक के बाद। आज के लिये बस इतना ही।

गुरुवार, 23 अगस्त 2007

कंपनी सार




दोस्तों, मेरे लिखे हुये को तो आप पिछले करीब तीन महीने से पढ़ (या शायद झेल) ही रहे हैं। आज मैं जो रचना आपके सामने प्रस्तुत करने जा रहा हूं वह हमारे इन मित्र ने पोस्ट की है। इनका नाम है विनय पाठक। यूं तो मैं भी खबरिया चैनल में ही काम करता हूं लेकिन अब मैं पत्रकार होने का दावा नहीं करता। लेकिन पाठक जी के बारे में मैं ताल ठोंककर कह सकता हूं कि यह जनाब टीवी पत्रकार हैं। हालांकि मेरा ऐसा कहना इन्हें पसंद आयेगा या नहीं मैं नहीं जानता। तो लीजिये पेश है इस तस्वीर में नजर आ रहे विनय पाठक की ताजातरीन रचना---



हे पार्थ,
तुम्हें इंक्रीमेंट नहीं मिला, बुरा हुआ
टीडीएस बढ़ने से सैलरी भी कट गई, और भी बुरा हुआ
अब काम बढ़ने से एक्स्ट्रा शिफ्ट भी होगी, ये तो और भी बुरी बात होगी।
इसलिए हे अर्जुन,
न तो तुम पिछला इंक्रीमेंट नहीं मिलने का पश्चाताप करो
और न ही अगला इंक्रीमेंट मिलने का इंतजार करो
बस अपनी सैलरी यानी जो भी थोड़ा कुछ मिल रहा है उसी से संतुष्ट रहो
इंक्रीमेंट नहीं भी आया तो तुम्हारे पॉकेट से क्या गया
और जब कुछ गया ही नहीं तो रोते क्यों हो।
हे कौन्तेय,
एक बात याद रखो
जब तुम नहीं थे कंपनी तब भी चल रही थी
और जब तुम नहीं रहोगे तब भी कंपनी चलती रहेगी
कंपनी को तुम्हारी जरूरत नहीं, कंपनी तुम्हारी जरूरत है
वैसे भी तुमने कौन सा ऐसा आइडिया दिया जो तुम्हारा अपना था
सब कुछ तो कट-कॉपी-पेस्ट का ही खेल था
इस बात को लेकर भी दुखी मत हो कि कट-कॉपी-पेस्ट वाले आइडिया का क्रेडिट भी तुम्हें नहीं मिला
सारा क्रेडिट अगर बॉस मार लेते हैं तो उन्हें मारने दो
क्रेडिट मारना तो बॉस का हक है और यही एक काम वो ईमानदारी के साथ करते हैं।
हे पांडु पुत्र,
इन बातों के साथ ही एक बात ये भी याद रखो
तुम कोई एक्सपीरियंस लेकर नहीं आए थे
जो एक्सपीरियंस मिला यहीं पर मिला
कोरी डिग्री लेकर आए थे एक्सपीरियंस लेकर जाओगे
मतलब अगर नौकरी छोड़ी तो यहां से कुछ लेकर ही जाओगे
ये बताओ कि कंपनी को क्या देकर जाओगे।
हे तीरंदाज द ग्रेट,
जो सिस्टम (कम्प्यूटर) आज तुम्हारा है
वो कल किसी और का था....
कल किसी और का होगा और परसों किसी और का
तुम इसे अपना समझ कर क्यों मगन हो रहे हो
कुछ भी तुम्हारा नहीं है, सब एक दिन छिन जाएगा
दरअसल, यही तुम्हारे टेंशन का कारण है।
इसलिए हे धनंजय,
क्यों व्यर्थ चिंता करते हो
किससे व्यर्थ डरते हो
कौन तुम्हें निकाल सकता है
ये नौकरी तुम्हारी थी ही कब, ये तो सिर्फ और सिर्फ बॉस की मर्जी है
और जब नौकरी तुम्हारी है ही नहीं तो तुम्हें कौन निकाल सकता है और कौन तुम्हें निकालेगा।
हे पांडव श्रेष्ठ,
ध्यान से एक बात को समझो
पॉलिसी चेंज तो कंपनी का एक रूल है
जिसे तुम पॉलिसी चेंज समझते हो, वो दरअसल कंपनी की एक ट्रिक है
एक ही पल में तुम सुपर स्टार और हीरो नंबर वन बन जाते हो
और दूसरे ही पल वर्स्ट परफॉर्मर और कूड़ा नंबर वन हो जाते हो।
इसलिए हे गांडीवधारी,
इंक्रीमेंट, इनसेन्टिव, एप्रेजल, प्रोमोशन, रिटायरमेंट वगैरह वगैरह को मन से निकाल दो
ये सब न तो तुम्हारे लिए है और न तुम इसके लिए हो
हां, जब तक बॉस खुश है तबतक काम करो या न करो, जॉब सिक्योर है
फिर टेंशन क्यो लेते हो
तुम खुद को कंपनी और बॉस के लिए अर्पित कर दो
यही सबसे बड़ा गोल्डेन रूल है
जो इस गोल्डेन रूल को जानता है
वो इंक्रीमेंट, इनसेन्टिव, एप्रेजल, प्रोमोशन, रिटायरमेंट वगैरह वगैरह के झंझट से
सदा के लिए मुक्त हो जाता है।
इसलिए हे धनुर्धर श्रेष्ठ,
चिन्ता छोड़ो और खुद को कंपनी के लिए होम कर दो
तभी जिन्दगी का सही आनन्द उठा सकोगे।


---विनय पाठक


बुधवार, 22 अगस्त 2007

फिल्म सिटी का कुत्ता

वह फिल्म सिटी का कुत्ता है
उसने देखा है
हर प्रोड्यूसर को
'प्रोड्यूसर' बनते हुये।
हर पत्रकार को
'जर्नलिस्ट' में बदलते हुये।
उसने देखा है
बाटा की घिसी चप्पलों से
'वुडलैंड' तक का सफर
उसने देखा है
फुटपाथ की टी शर्ट से
'पीटर इग्लैंड' तक का सफर
उसने देखा है
घिसे टायरों वाली हीरो होंडा को
'होंडा सीआरवी' में बदलते हुये।

वह हर चैनल के प्रोड्यूसर को
अच्छी तरह पहचानता है
तभी तो
एंकर और प्रोड्यूसर को देखते ही
पूंछ हिलाता है
उन पर भोंकने की गुस्ताखी नहीं करता
वह भोंकता है
बाहर से आने वालों पर
लेकिन...
इस बात का इत्मीनान करने के बाद
कि वो शख्स भविष्य का
एंकर या प्रोड्यूसर तो नहीं है
वह बाहरी कुत्तों पर भी भोंकता है
वो कुत्ते...
जो उसकी तरह साफ-सुथरे नहीं होते
किसी चैनल के प्रोड्यूसर की तरह
खाये-पिये और तंदुरुस्त नहीं होते

वह खुद भी 'प्रोड्यूसर' की तरह ही है
खाया-पिया, अघाया, मुटाया
इसलिये उसे
मरियल और बीमार कुत्ते
अपनी बिरादरी के नहीं लगते
वह जोर से भोंक कर
उन्हें फिल्म सिटी से खदेड़ देता है
और अगले ही पल
चाय की दुकान पर खड़े
प्रोड्यूसर और एंकर के सामने
पूंछ हिलाने लगता है
मानो कह रहा हो...
मैंने अपना काम कर दिया प्रोड्यूसर साहब !
अब आप अपना काम कीजिये
बटर टोस्ट का एक टुकड़ा
मेरी तरफ भी फेंक दिजिये।

चाय की दुकान पर आने वाला
हरेक प्रोड्यूसर, एंकर, रिपोर्टर
उस कुत्ते को अच्छी तरह पहचानता है
क्योंकि वह कुत्ता
उनके बारे में सब कुछ जानता है।

शनिवार, 11 अगस्त 2007

राजू बन गया जैंटिलमैन

वह मेरा अनुज है। बहुत प्यारा इंसान है। जब भी मिलता है बेतकल्लुफ होकर। मेरी तरह वह भी पत्रकार बिरादरी से ताल्लुक रखता है। मैं भी एक खबरिया चैनल के क्राइम बुलेटिन में काम करता हूं और वह भी। मैं भी इलाहाबादी हूं और वह भी। मैं भी कभी-कभार कविता लिखता हूं और वह भी। मुझे उसकी रचनायें अच्छी लगती हैं। मेरी रचनायें उसे कैसी लगती हैं, मैं नहीं जानता। मैं उसे पढ़ता हूं। कई बार तो उसकी लेखनी मेरे अंदर एक स्फूर्ति का संचार कर देती है। कई बार कुछ कर गुजरने का उत्साह भर देती है। कई बार सोचता हूं, ये लड़का एक दिन जरूर क्रांति कर देगा। मुझे क्रांति का झंडा बुलंद करने वाले बेहद पसंद हैं।

यह कल तक की बात थी। उसके बारे में मेरी राय थी। आज उसने मुझे निराश किया है। मेरा मन अशांत है। मुझे उस पर बहुत गुस्सा आ रहा है। मेरा छोटा भाई है। उस पर गुस्सा करना मेरा हक है। बहुत दूर है वर्ना शायद मैं उसे पीटने भी लग जाता। उसने काम ही ऐसा किया है। वो 'एक कदम बढ़ाकर दो कदम पीछे हटने' वाली कहावत तो आपने सुनी ही होगी। उसने ऐसा ही किया। मैं कहूं कि उसने 'दस कदम' पीछे हटा लिये तो गलत नहीं होगा। मुझे चापलूसी करने वाले लोग पसंद नहीं हैं। वह भी चापलूस नहीं है। लेकिन कल मुझे उसकी लिखी कुछ पंक्तियों में चापलूसी नजर आई। मैंने उसे बर्दाश्त कर लिया। सोचा कम से कम शुरुआती पंक्तियां तो सच बयां कर रही हैं। सच लिखने के लिये मैंने उसे मन ही मन धन्यवाद भी दिया। अपने एक दोस्त को भी बताया, देखो- राजू ने कितना अच्छा लिखा है। मेरे उस दोस्त ने भी राजू की हिम्मत की दाद दी-वाकई वो सच लिखता है।

अब आज की बात। आज सुबह मैं उसके ब्लाग पर फिर आया। सोचा बड़ा अच्छा-बड़ा सच्चा लिखा है। कुछ टिप्पणी कर देता हूं। उत्साहवर्धन होगा। आगे से और अच्छा लिखेगा- औऱ सच्चा लिखेगा। लेकिन आज उसने मेरी उम्मीदों पर पानी फेर दिया। कल तक जो था आज वो नहीं है। जी हां, उसने आज अपनी कल लिखी गई रचना को अपने ब्लाग से हटा दिया था। अब आखिर मैं किस पर टिप्पणी करता? मैं सोचकर हैरान था। उस मजबूत से इंसान के भीतर एक भीरू इंसान भी छिपा हुआ है। मैंने जानने की कोशिश की। पता चला कि उसके किसी 'शुभचिंतक' ने उसे सलाह दी थी अपनी रचना हटा लो। ऐसा क्यों करते हो। नुकसान उठाओगे। फंस जाओगे। वह वाकई उसकी बातों में फंस गया। उसने अपनी रचना हटा दी। शायद वह खुश होगा कि उस रचना को हटाकर अब वह भी अच्छा बच्चा बन गया है। सब की नजरों में। दफ्तर की खबरों में। लेकिन मुझे दुख है। राजू वैसा नहीं रहा। जैसा वो इलाहाबाद की गलियों में था। फिल्म सिटी की चौड़ी सड़कों में था। अब राजू सचमुच सयाना हो गया है। अब वह मायानगरी मुंबई में रहता है। अपना अच्छा-बुरा ज्यादा अच्छी तरह समझता है। किस चीज से फायदा है जानता है। किस चीज से नुकसान है पहचानता है। हर शुभचिंतक की बात मानता है। सचमुच....राजू अब 'जैंटिलमैन' बन गया है।

शुक्रवार, 10 अगस्त 2007

मुझे इन कांवड़ियों से बचाओ

दफ्तर के लिये लेट हो रहा था। आज मीटिंग थी। वक्त पर पहुंच जाऊं यह सोचकर मैंने अपनी गाड़ी की रफ्तार बढ़ा दी। लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। जल्द ही ब्रेक लगाना पडा़। अब गाड़ी बमुश्किल चालीस की रफ्तार से बढ़ रही थी वह भी रुक-रुक कर। इस कछुआ चाल की वजह यह थी कि मेन रोड के तकरीबन आधे हिस्सों को बैरीकेड लगाकर रिजर्व कर दिया गया था। जानते हैं किसके लिये? शिवभक्त कांवड़ियों के लिये। कांवड़ लेकर नंगे पांव सड़क नापने वाले भक्त (?) सफलता पू्र्वक अपनी मंजिल पर पहुंचें इसके लिये प्रशासन ने पूरे इंतजाम कर रखे हैं। जगह-जगह पुलिस भी तैनात रहती है। शिवभक्तों को पूरी तरह वीआईपी ट्रीटमेट मिलता है। क्या मजाल कि कांवड़ियों को कोई कष्ट हो जाये। सड़क पर तो वो यूं चलते हैं जैसे पूरी सड़क उनके बाप की है। आम लोगों के प्रति उनका रवैया ऐसा होता है जैसे कांवड़ ले जाकर वो खुद पर नहीं बल्कि देशवासियों पर कोई बहुत बड़ा ऐहसान कर रहे हों।

हम थोड़ी ही दूर बढ़े थे कि एक कांवड़िये ने हाथ देकर हमसे इतने अधिकार पूर्वक लिफ्ट मांगी जैसे यह उसका जन्मजात हक हो और उन्हें हम हर हालत में लिफ्ट देने को बाध्य हों। हालांकि हमने उसके इस अधिकार को चुनौती देते हुये अपनी गाड़ी और तेजी से आगे बढ़ा दी। उसने हमें खा जाने वाली नजरों से देखा और कुछ (जाहिर है अच्छा नहीं) बड़बड़ाते हुये पीछे से आ रही एक दूसरी गाड़ी पर अपनी नजर गड़ा दी।

क्या आप जानते हैं कि जब कांवड़ ले जाने का मौसम आता है तो शहर में आये दिन होने वाले छोटे-मोटे अपराध कम हो जाते हैं? इसलिये नहीं कि सारे चोर-बदमाश बड़े ही धार्मिक हो जाते हैं, बल्कि इसलिये क्योंकि ऐसे समय में वो लोग कांवड़िये बन जाते हैं। ऐसा हम नहीं हमारे एक दोस्त कहते हैं। उनकी ऐसी बातें सुनकर कई बार तो हम भी सोचने पर मजबूर हो जाते हैं। आज तो खाना खाते वक्त हमने उनसे पूछ ही लिया एस जी जरा बताइये तो अपराध कम होने के इस अध्ययन के पीछे आपकी थ्योरी क्या है? यह सवाल करते ही उन्होंने हमें यूं देखा जैसे हमने कोई मूर्खों वाली बात कह दी हो, फिर समझाया अरे, इतना भी नहीं समझते आप? ये बदमाश और चोर उचक्के ही तो हैं जो आजकल के मौसम में गेरुये वस्त्र धारण कर कांवड़िये बन जाते हैं। क्या......? हमारी भावनाओं (धार्मिक)को झिंझोड़ दिया था उन्होंने। खैर, कुछ देर बाद हम नार्मल हो गये। काफी दिमाग लगाकर हमने उनकी इस थ्योरी को गलत साबित करने के लिये एक सवाल उठाया...लेकिन दोस्त कांवड़ ले जाना तो बड़े ही कष्ट का काम है? चोर-उचक्के भला जानबूझकर कष्ट क्यों सहेंगे?

एस जी ने फिर आंखें तरेरीं।...अरे भई, जब कदम-कदम पर बढ़िया खाना-पीना और आवभगत होगी तो खाली और बेकार घूमने वालों के लिये ऐश का इससे सुनहरा मौका और कहां मिलेगा? उन्होंने याद दिलाते हुये कहा- जहां तक बदमाशों के कांवड़िये बनने की बात है तो देखा नहीं आपने गुड़गांव के मानेसर में क्या अभी हुआ? क्या सरेआम तोड़फोड़ और आगजनी करने वाले आपको किसी भी नजरिये से शिवभक्त नजर आ रहे थे?

उनकी बात अब हमारे पल्ले पड़ने लगी थी। कल तक तो हमने भी यही सुना था कि कांवड़ ले जाने वाले शिवभक्त बेहद शालीन और सीधे-साधे लोग होते हैं। लेकिन तकरीबन दस रोज से कांवड़यों की वजह से हमें (बल्कि हर आने-जाने वाले को) जो परेशानी उठानी पड़ रही है उसे खुद ही समझा जा सकता है। किसी से बयान नहीं किया जा सकता। क्योंकि ऐसा करने पर अधर्मी, लोगों की धार्मिक भावनाओं को आहत करने वाला जैसे न जाने कितने विश्लेषणों से हमें नवाजा जा सकता है। अगर बात फैल गई तो कांवड़ियों के कोप का शिकार भी होना पड़ सकता है।

इसलिये अपने मित्र की थ्योरी से हम कितने सहमत या असहमत हैं यह बहुत मायने नहीं रखता। कांवड़ियों से साबका होने का यह कोई पहला मौका नहीं है। हर साल ऐसा होता है। कभी-कभी तो पूरा रास्ता ही रोक दिया जाता है। पुलिस वाले बोलते हैं वापस जाओ, आज यहां से नहीं निकल सकते। (रास्ता भी खुश होता होगा कि कुछ दिन के लिये ही सही वह वीआईपी हो गया है) कोई दूसरा रास्ता भी नहीं है। ऐसा करो आज छुट्टी ले लो। सबसे मजेदार बात तो यह है कि कांवड़ियों की वजह से फौरन छुट्टी एप्रूव भी हो जाती है।

हो सकता है इसी वजह से ही सही, हमारे खाते में भी एक पुण्य कर्म करने का श्रेय जुड़ जाये। क्या पूछा? किस वजह से?....अरे अभी कल ही तो हमने दफ्तर आते वक्त एक कांवड़ये के लिये रास्ता छोड़ा था। ये अलग बात है कि वो हमारी इच्छा नहीं, बल्कि मजबूरी थी और मजबूरी क्या-क्या करा सकती है यह तो आप समझ ही सकते हैं। (दोस्तों मेरा इरादा किसी की धार्मिक भावनाओं को आहत करने का नहीं है, अगर किसी को ऐसा लगे तो छमा प्रार्थी हूं)

बुधवार, 8 अगस्त 2007

टुच्चे लोग-टुच्ची बातें

सुबह-सुबह मोबाइल की मैसेज टोन सुनाई दी। देखा तो हैप्पी बर्थडे का मैसेज था। याद आया अरे आज तो हमारा जन्मदिन है। ये मोबाइल भी क्या चीज है। हमें वक्त पर याद दिला दिया हमारे जन्मदिन के बारे में। मैसेज भेजने वाले से ज्यादा हम मोबाइल के शुक्रगुजार थे। वो इसलिये कि हम यकीन के साथ कह सकते हैं कि अगर उन जनाब के पास मोबाइल नहीं होता तो शायद ही वो हमें जन्मदिन की बधाई देते। क्या पता मैसेज भेजने में जो एक अदद रुपये खर्च होते हैं वो भी उन्होंने खर्च न किये हों। अरे आजकल तो मोबाइल कंपनियां फ्री मैसेज की सुविधा देने लगी हैं...अब आप लोग सोचेंगे कि भइया हम तो बड़ी ही नकारात्मक सोच वाले शख्स हैं। क्या करें हमारी सोच ऐसी हो ही गई है। फिलहाल हमारे दिमाग में इसकी दो वजह आ रही हैं।

पहली तो ये कि हमें जन्मदिन की शुभकामना भेजने वाले को हमसे कोई दिली या भावनात्मक लगाव नहीं है, यह हम अच्छी तरह जानते हैं। जब उन जनाब को हमसे कोई काम होता है या उनका कोई स्वार्थ निकलना होता है तभी वो इस नाचीज को याद करते हैं। हमें पूरा यकीन है कि आज-कल में उनका फोन जरूर आ जायेगा...रवीन्द्र जी आप दैनिक भास्कर के ब्यूरो चीफ को जानते हैं क्या? एक बार उनसे बोल दीजिये मेरे भतीजे ने अभी जर्नलिज्म का कोर्स पूरा किया है, उसकी नौकरी लगवानी है। ऐसे मतलबी और स्वार्थी (वैसे आजकल ऐसे लोगों को स्मार्ट कहा जाता है) लोगों ने ही हमारी सोच नकारात्मक बना दी है।

अब दूसरी वजह। दूसरी वजह है हमारा काम। पिछले करीब दो साल से खबरिया चैनल के क्राइम बुलेटिन के लिये स्क्रिप्ट लिखते-लिखते हमारी सोच पूरी तरह निगेटिव हो गई है। हालत ये है कि अब हमें हरेक शख्स क्रिमिनल नजर आता है। यहां तक कि आफिस में भी हमें हर कोई किसी न किसी साजिश का सूत्रधार नजर आता है। (वैसे यह सच भी हो सकता है) रात को आफिस से घर लौटते हैं तो रास्ते भर यही डर सताता रहता है कि कहीं कोई मारपीट कर हमारी गाड़ी और कीमती मोबाइल न छीन ले। लो भई, तो घूमफिर कर बात फिर मोबाइल तक आ गई। गाड़ी मोबाइल छिनने का डर इस कदर रहता है कि हम रोज रास्ता बदल-बदल कर घर जाते हैं। अरे फर्ज कीजिये कि अगर किसी ने हमारा मोबाइल छीन लिया तो हमारा आर्थिक नुकसान तो होगा जो होगा...सबसे बड़ी बात कि हम अपने शुभचिंतकों (?) से कट जायेंगे। फिर भला हमारे पास ये संदेश कैसे पहुंचेगा कि भइया आज ही के दिन आप इस दुनिया में अवतरित हुये थे इसलिये बधाई स्वीकार करें। अगर मोबाइल पास नहीं रहेगा तो रिपोर्टर हमें कैसे बता पाएगा कि सुबह-सुबह पूरी दिल्ली सिर्फ इसलिये दहल गई कि एक घर में दो कत्ल हो गये। वैसे यह हमें आज तक समझ में नहीं आया कि घर के अंदर एक कत्ल होने पर ये चैनल वाले पूरी दिल्ली को ही कैसे दहला देते हैं? या फिर चलती कार में बलात्कार (बाद में खबर कुछ और ही होती है) की खबर पीट-पीटकर वो यह कैसे साबित कर देते हैं कि दिल्ली महिलाओं के लिये असुरक्षित है। बहरहाल, हमें तो इंतजार उस दिन का है जब चैनल वाले उस शहर का नाम बतायेंगे जो महिलाओं के लिये सुरक्षित है। क्योंकि चैनल वालों की सोच भी एक टुच्चे से क्राइम रिपोर्टर की तरह ही नकारात्मक है...और जहां तक मेरा सवाल है तो मेरे बॉस तो कहते ही हैं...रवीन्द्र रंजन तुम बहुत टुच्चे आदमी हो।

 
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