मंगलवार, 10 जुलाई 2007

अजनबी परछाई

अपने दरवाजे के आस-पास
किसी परछाई को देखकर
मैं अक्सर बहुत खुश हो जाता हूं
परछाई को निहारता हूं
उसके नजदीक आने का इंतजार करता हूं
परंतु अमूमन निराश हो जाता हूं
क्योंकि वह वास्तव में वह नहीं होता
जो दिखाई देता है
या फिर...
शायद मेरी ही आंखें धोखा खा जाती हैं
मन जिसे चाहता है
उसी का दीदार करती हैं
शायद मेरी खुशी के खातिर
मेरी आंखें मुझे ही भरमा देती हैं
अपनी आंखों की ये कोशिश
मुझे जरा भी नहीं भाती
क्योंकि आंखें खुलने पर
जब सामने कोई नजर नहीं आता
तब मुझसे मुखातिब होती है सच्चाई
जिससे मैं नजरें चुराने की कोशिश करता हूं
क्या करूं?
मेरे साथ अक्सर ऐसा ही होता है
जब मैं इस सच्चाई को नहीं समझ पाता
और हर बार खुश हो जाता हूं
एक और अजनबी परछाई को
अपनी ओर आता हुआ देखकर।(1997)

 
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